Sunday, July 19, 2009

शरद यादव जी आपको हुआ क्या है?



`बालिका वधू' जैसे अच्छे धारावाहिक को क्यों बंद कराना चाहते हैं आप!
-राजेश त्रिपाठी
अक्सर देखा यह गया है कि कुछ लोगों की प्रकृति या कहें प्रवृत्ति ऐसी होती है कि उन्हें अच्छाई में भी खोट नजर आने लगती है। किसी सही बात की तारीफ की उम्मीद तो इनसे करना बेकार है, ये तो उसमें भी मीन-मेष निकालने से नहीं चूकते। शायद ऐसी ही प्रवृत्ति जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव की भी होती जा रही है। आजकल वे बिना सोचे-समझे टिप्पणी कर देते हैं या कोई मुद्दा उठा देते हैं और बाद में उन्हें मुंह की खानी पड़ती है।
हाल ही उन्होंने संसद में यह मांग कर डाली कि धारावाहिक `बालिका वधू' में बालविवाह को प्रोत्साहन दिया जा रहा है इसलिए इसे बंद किया जाना चाहिए। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने इसकी जांच करने का आश्वासन दिया। जांच में पाया गया की सीरियल के बारे में शरद यादव ने जो शिकायत की है वह सच नहीं है। सीरियल को सरकार ने क्लीन चिट दे दी और शरद यादव अपना सा मुंह लेकर रह गये। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब शरद यादव जी को अपने कथन पर झेंपना पड़ा हो। संसद पद के लिए महिलाओं की आरक्षित सीटों को बढ़ाने का प्रयास वर्षों से चल रहा है। राजनेता ही ये सीटें बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, इसके लिए ख्वाहिशमंद हैं और उनके बीच के ही कुछ लोग इसमें अडंगा डाल रहे हैं। इस बार जब महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने की बात उठी तो शरद यादव आपे से बाहर हो गये। वे तमतमा गये और भरी संसद में उन्होंने ललकारा -विधेयक पारित हुआ तो मैं फांसी लगा कर आत्महत्या कर लूंगा।' ऐसा एलान कर वे खुद तो हास्यास्पद बने ही अपनी पार्टी की भी रही सही इज्जत की लुटिया डुबो दी। शरद जी तपेतपाये नेता हैं। वर्षों से राजनीति में हैं। कहें तो राजनीति घोल कर पी गये हैं फिर उनसे ऐसी भयंकर भूल कैसे हो जाती है। संभव है कि यह उनका प्रचार पाने का कोई तरीका हो, क्योंकि ऐसे तो वे खबरों में कम ही आते हैं। इस तरह की गिमिक करते रहेंगे तो सुर्खियों में तो रहेंगे ही। अखबारों का भी क्या कहें उनकी आत्महत्या की हुंकार की खबर प्रमुखता से छपी।
इस बार उन्होंने उद्देश्यपरक और सामाजिक सरोकार से जुड़े धारावाहिक `बालिका वधू' पर निशाना साधा। हालांकि इसके साथ कुछ बेकार और बेहूदा सीरियलों का नाम भी उन्होंने जोड़ा जिन्हें बंद होना चाहिए लेकिन उन्हें `बालिका वधू' में क्या बुराई दिख गयी। उनका आरोप था कि यह धारावाहिक बाल विवाह को बढ़ावा देता है जबकि यह धारावाहिक तो चीख-चीख कर इस कुरीति का विरोध और विधवा विवाह जैसी समाज सुधार की बात का प्रचार कर रहा है। शरद यादव जी ने संसद में कहा कि `बालिका वधू' बाल विवाह को प्रोत्साहन देता है जिस पर कानूनन प्रतिबंध लगा है। उन्होंने सरकार से जानना चाहा था कि शारदा एक्ट का खुला उल्लंघन करने वाले इस धारावाहिक को प्रसारण की अनुमति क्यों दी गयी। सरकार इसे रोकने के लिए कदम उठायेगी या नहीं यह भी उन्होंने जानना चाहा। अंबिका सोनी ने कहा कि एक सरकारी समिति बनी है जो टीवी चैनलों पर २२ घंटे नजर रखती है। टीवी चैनल पर चल रहे प्रत्येक धारावाहिक पर नजर रखना संभव नहीं। इस जवाब से शरद यादव संतुष्ट नहीं हुए। उनके स्वर में स्वर मिलाने उनके पार्टी के राजीव रंजन भी खड़े हो गये। मुलायम यादव भी दहाड़े कि वे जानना चाहते हैं सरकार `बालिका वधू' पर प्रतिबंध लगायेगी या नहीं। खैर सरकार ने धारावाहिक को क्लीन चिट दे दी है।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या शरद यादव ने खुद `बालिका वधू' देखा है या किसी के उकसा देने मात्र से इसके विरोध में उतर आये। जाहिर है कि उन्होंने यह धारावाहिक नहीं देखा क्योंकि अगर देखा होता तो उनके सामने यह दिन के उजाले की तरह साफ हो जाता कि यह पूरी तरह से बाल विवाह के खिलाफ है। यह इसके कथानक और प्रस्तुतीकरण से तो ध्वनित होता ही है, धारावाहिक के निर्माता इसके अंत में ऐसा लिख भी देते हैं। इसकी कहानी बालिका वधू आनंदी (अविका गौर) की कहानी तो है ही इसके साथ ही यह सुगना, दादी सा और दूसरे जाने कितने चरित्र लिये चलती है जो बाल विवाह की कुरीतियों के दंश की चुभन हर पल हर क्षण भोग रहे होते हैं। बाल विधवा सुगना का हाथ थामने श्याम आगे बढ़ता है। उसकी जिंदगी संवारने के लिए अपने परिवार तक से बगावत कर लेता है। शरद यादव जी आप भी इस बात को मानेंगे कि आज के समाज में विधवा की शादी कितनी मुश्किल है। अगर कोई धारावाहिक इस सामाजिक कुरीति के खिलाफ आवाज उठा रहा है तो उसे ऐसा करने दीजिए ना। क्या पता इससे ही ऐसी नयी सुबह आ जाये जो विधवाओं के अंधेरे, उदास जीवन में नया प्रकाश नया आनंद भर दे। कब तक विधवाएं मथुरा, वृंदावन या काशी में भीख मांगती बिलबिलाती फिरेंगी। अगर बाल विधवा है तो उसे नये सिर से जिंदगी शुरू करने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए। अगर अधिक उम्र में कोई विधवा हुई है तो वह सामाजिक तिरष्कार की भागी क्यों बने। क्या अपने पति की मृत्यु के लिए वह जिम्मेदार है। कल तक जो किसी की भाभी, किसी की मां, किसी की बहन थी, विधवा होते ही वह उस घर-परिवार के लिए आप्रासंगिक या गैरजरूरी क्यों हो जाती है। उसे क्यों दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं और उसे घर से बेघर करने वाले उसके परिजन उसकी पति की संपत्ति पर गुलछर्रे उड़ाते हैं। इन पीड़ित माताओं बहनों के बारे में आप आवाज क्यों नहीं उठाते। क्यों नहीं सरकार से कहते कि उनके लिए भी कुछ करे। कुछ पुनर्वास केंद्र बनाये, कुछ ऐसे कुटीर उद्योग से इन्हें जोड़ दे जो उन्हें जीविका दिला सकें और अगर यह विवश लाचार हों तो इनकी मदद की व्यवस्था हो।
`बालिका वधू' की सुगना को तो एक श्याम कहानी में ही सही मिल गया है वास्तविक जीवन में कितनी सुगनाएं वैधव्य का पहाड़ सा बोझ ढोने और सामाजिक तिरष्कार झेलने के लिए मजबूर हैं। इनके लिए न सरकार के दिल में दर्द है न इनके परिवार के दिल में। इन्हें हम या आप नकार नहीं सकते । ये हमारे समाज का हिस्सा हैं और जिम्मेदारी भी उसी की बनती है कि वह इनके लिए भी सोचे। `बालिका वधू' वालों ने अगर अपने कथानक में ऐसा सोचा है तो ऐसे सोच को प्रोत्साहित कीजिए शरद जी। इस धारावाहिक को रोक कर आप बाल विवाह जैसी कुप्रथा को तो रोक नहीं पायेंगे हां इसके खिलाफ उठे एक कदम को जरूर थामने की कोशिश करेंगे। बाल विवाह रोकना है तो समाज को शिक्षित कीजिए, दहेज की कुप्रथा के खिलाफ आंदोलन कीजिए जिसके चलते मां-बाप को अपने दिल का टुकड़ा बेची पैदा होते ही बोझ लगने लगती है।

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