Saturday, August 27, 2011

अभी या कभी नहीं, अन्ना और देश को बचाओ

माननीय सांसदो, दलीय स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचो
-राजेश त्रिपाठी
देश आज इतिहास के उस संधिकाल से गुजर रहा है, जहां एक ओर जनतंत्र अपनी पूरी ताकत से भ्रष्टाचार के खिलाफ अहिंसक संघर्ष छेड़ चुका है और दूसरी ओर सत्ता पक्ष विपक्ष इस मुद्दे को लेकर अपनी डफली अपना राग अलापने में व्यस्त है। इसके बीच में एक बुजुर्ग की जान दांव पर लगी है। यह तो साफ हो गया है कि अन्ना इतने दृढ़प्रतिज्ञ हैं कि वे हिलने वाले नहीं। उनका अटल इरादा सत्ता पक्ष के लिए सिर दर्द बन गया है। वह उनकी बात मानने को राजी नहीं, अन्ना भी अन्न न लेने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष कोई भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना की बात मानने के प्रति गंभीर नहीं है। अगर गंभीर होता तो कई बार परिणाम के करीब आते प्रयास यो हाथों से फिसल नहीं जाते और शून्य से शुरू हुई बात फिर शून्य पर न आ जाती। वैसे अब समय आ गया है कि राजनीतिक स्वार्थ और अहं या इगो को भुला कर अन्ना को बचाने के लिए सारी कोशिश लगायी जाये। कम से कम इस बात के लिए विपक्ष को भी सरकार का सहयोग करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो देश की जनता तक यही संदेश जायेगा कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अन्ना की जान बचाने में रुचि नहीं है। दोनों उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब अन्ना खुद हार मान लें या उनकी हालत गंभीर हो जाये और उन्हें उठा कर अस्पताल में ठूंसने का बहाना मिल सके। लेकिन एक-एक पल अब पूरे देश और सरकार पर भारी पड़ता जा रहा है। अन्ना की जान बहुत कीमती है। ऐसे साहसी योद्धा देश में कहां हैं। इनकी रक्षा सबका परम कर्तव्य है। देश के सांसदों (सत्ता पक्ष-विपक्ष) अन्ना को बचाओ, यह बातें लिखते वक्त (शनिवार 27 अगस्त की सुबह) मुझे पूरा यकीन है कि आपमें शुभ बुद्धि जागेगी और आप उस संकट से देश को उबार लेंगे, जो पिछले 12 दिनों से लोगों पर भारी पड़ रहा है। आपको पता है या नहीं देश के कोने-कोने में  लाखों लोगों की सांसें अन्ना के सेहत की चिंता में अटकी हैं। यह वही जनता है जिसने अपने दुख-कष्ट के निवारण और उसके हित के काम करने के लिए आपको सर्वोच्च और मान संसद में भेजा है। उनकी नहीं तो संसद की गरिमा और मर्यादा को अत्रक्षुण्ण रखिए। कल क्या होगा जब यही जनता आप पर सवालों के तीर दागेगी कि हमारा एक बुजुर्ग अहिंसक सेनानी आपसे हमारे हित की बात मनवाने के लिए भूखा लड़ता रहा और आप उससे राजनीतिक दांव पेच का खेल खेलते रहे। इन सवालों से घिरने से बचना है तो मानस को परिष्कार कीजिए। शनिवार को ही संसद से देश को यह संदेश दीजिए कि जनतंत्र में जनहित से बड़ी कोई चीज नहीं होती। जनता को यह महसूस कराइए कि आप उनके मालिक नहीं, उनके द्वारा अपनी सुख-सुविधा के लिए चुने गये जन प्रतिनिध हैं जो सिर्फ और सिर्फ जनता के प्रति जवाबदेह है। पूरा देश आपसे यही चाहता है। यह तय है कि जो भी दल मन से (छल-छंद के भाव से नहीं) आज अन्ना के साथ खड़ा होगा, वही देशवासियों का विश्वास और प्यार पायेगा। अब यह दलों और नेताओं को तय करना है कि क्या वे जनविमुख होकर अपनी राजनीतिक बादशाहत चला सकते हैं?
      अच्छा हुआ कि अन्ना दिल्ली के रामलीला मैदान में संघर्ष करने आ गये। इससे कई दलों के दिल और चरित्र देश की जनता के सामने खुल गये। देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल भाजपा पता नहीं व्यामोह और आत्मसंशय के गर्त में डूबा है कि वह अन्ना के आंदोलन के प्रति अपना मानस ही साफ नहीं कर पाया। उसने संसद में साफ कह दिया कि वह जन लोकपाल को ज्यों का त्यों मानने को तैयार नहीं। जाहिर है यह उसने अपनी राजनीतिक भलाई के लिए कहा होगा लेकिन इससे संदेश यही गया कि संसद के बाहर खुद को अन्ना के आंदोलन का समर्थन बताने वाली भाजपा ही संसद में उसकी विरोधी है। भाजपा को जब यह एहसास हुआ कि पूरा देश अन्ना के साथ खड़ा है और देश के खिलाफ जाने का मतलब है अपने राजनीतिक हितों को खुद ही नुकसान पहुंचाना। इसके बाद भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी महाशय को बोध की प्राप्ति हुई और उन्होंने अन्ना के समर्थन का वचन दिया। वैसे इससे पहले ही उनके सांसद वरुण गांधी अन्ना के पास रामलीला मैदान पहुंच चुके थे और उनके प्रति अपना समर्थन जता चुके थे।
      कांग्रेस तो पहले से ही अन्ना के आंदोलन के प्रति गंभीर नहीं थी। उसने पहले अपने कुछ प्रवक्ताओं और नेताओं के माध्यम से अन्ना पर शब्दवाण छोड़े लेकिन जब उनका भी कोई असर नहीं हुआ तो उनसे खेल खेलनी लगी, कई बार ऐसा हुआ कि दोपहर तक ऐसा लगा कि सरकार अन्ना की बातें मान रही है लेकिन शाम आते विचार बदल कर कांग्रेस ने अन्ना और उनके समर्थकों को झटका दे दिया। यह खेल चल ही रहा था कि अन्ना के आंदोलन को पटरी से उतारने के लिए शुक्रवार 26 अगस्त को युवराज राहुल गांधी जी को तलब किया गया और उन्होंने एक नया शिगूफा छोड़ दिया संवैधानिक लोकपाल बनाने का। उनकी इच्छा है  कि यह संवैधानिक लोकपाल चुनाव आयोग की तरह ही एक स्वतंत्र संस्था की तरह काम करे। बहुत खूब राहुल जी, वाकई आपका सुझाव बहुत अच्छा है लेकिन आपको अचानक ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो गयी। इतने दिन बाद कैसे यह बात याद आयी। पिछले सात सालों से आपकी सरकार है आपने ऐसा संवैधानिक लोकपाल क्यों नहीं बनवाया। यह ब्रह्मास्त्र क्या आपने अन्ना को परास्त करने को छोड़ा था। माफ कीजिएगा आप अन्ना को तो परास्त नहीं कर पाये, विपक्ष ने आपको ही हूट कर दिया। लोगों के यह पूछने पर कि आपने अन्ना के आंदोलन के बारे में इतने दिन बाद मुंह क्यों खोला, आपका जवाब था कि आप सोच रहे थे। भगवान देश की रक्षा करे अगर आपको किसी बात पर सोचने में इतना वक्त लगेगा तो देश का क्या होगा।
      मायावती अलग अन्ना के खिलाफ दहाड़ रही हैं। उनका कहना है कि अगर जन लोकपाल बन भी जाता है तो वे इसे अपने राज्य में नहीं मानेंगी। राज्यों को इस बारे में फैसला लेने का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने तो अपने राज्य में अन्ना के पक्ष में आंदोलनों करने वालों को भी चेता दिया है कि वे आपे से बाहर हुए नहीं कि उनका पुलिस प्रशासन उन पर टूट पड़ेगा। माया मेम साब का यह बयान जाहिर है अन्ना के आंदोलन को कमजोर करने की एक साजिश ही है।
      जो लोग अन्ना के जन लोकपाल के खिलाफ खड़े हैं यह निश्चित है कि वे या तो भ्रष्टाचारियों के साथ खड़े हैं  या उन्हें खुद ही जन लोकपाल से डर लगता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष में भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि अगर यह विधेयक पास हो गया तो इसका फंदा उनकी गरदन भी नाप सकता है। एक कहावत है कि सांच को आंच नहीं। तो हमारी विनती है कि सभी राजनीतिक दलों में जो सच्चे और निष्कलंक लोग हैं वे आगे आयें और अपने दल को बाध्य करें कि अगर अन्ना की बातें जनहित में हैं और इससे संसद की मर्यादा पर आंच नहीं आती तो फिर इन्हें क्यों न मान लिया जाये। यह विधेयक विदेश से तो आया नहीं देश के ही एक नागरिक ने पेश किया है जिसका जनतांत्रिक प्रणाली और संसदीय प्रक्रिया पर पूरा यकीन है। वह चाहता है कि वही संसद उनकी मांगें मान ले और उसके प्यारे देशवासियों का कष्ट लाघव करने का माध्यम बने।
      पूरे देश ने अपने नेताओं के सामने एक समस्या रख दी है जिसका समाधान उन्हीं के जरिए निकलना है। यह उनके लिए परीक्षा की घड़ी है, यह उन पर है कि वे चाहें तो इस पर विजय प्राप्त करें या फिर असफल होकर जनता का रोष झेलें और अगले चुनाव में अपना जनाधार गंवा कर राजनीतिक वनवास को चुनें। देश निर्णय चाहता है वह भी सकारात्मक। क्या संसद अपनी सार्थकता और जन सरोकार के एक मंदिर की अपनी अवधारणा को साबित करेगी। वक्त का तो यही तकाजा है, जिसने वक्त ही नब्ज पहचानने में गलती की वह हमेशा निराशा और ग्लानि के गहन अंधकार में ही डूबता पाया गया है।

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