Saturday, April 13, 2013

'जय माता दी' के जयकारे के बीच देवा की वैष्णोधाम यात्रा



-राजेश त्रिपाठी

वर्षों से मां वैष्णो देवी धाम की यात्रा की उत्कट अभिलाषा थी। सहधर्मिणी भी मां की  अनन्य भक्त है, उसे भी उनके दर्शन की लालसा थी। वर्षों से जिस माता के स्टिकर गाड़ियों, दूकानों व अन्यत्र देखता आ रहा था, उसके दरबार में पहुंच कर शिर नवाने को मन कर रहा था। कुछ ऐसा संयोग बन गया कि कुछ पहचान वालों ने एक टूर बनाया जिसमें वैष्णोदेवी धाम भी शामिल था। हमें लगा कि यह मां की ही प्रेरणा है वरना अकेले तो हम वहां क्या जा पाते। मां का धाम कटरा के त्रिकूट पर्वत है। हम लोगों ने जम्मू से कटरा के लिए बस से यात्रा की। हमारी टीम में कुल40 लोग थे। मेरे अपने परिवार से मेरी पत्नी, दामाद, बेटी और नाती देवांश (यानी हमारा देवा था)। यात्रा में सबसे ज्यादा उत्साह देवा में ही दिख रहा था। दो साल एक माह का बच्चा पहली बार इतनी लंबी यात्रा में निकला था। घर-आंगन के बाहर की दुनिया से यह उसका पहला साक्षात्कार था। 
मां का भवन
जम्मू स्टेशन के पास ही वह बस स्टेशन है जहां से कटरा के लिए बसें या फिर सुमो या अन्य गाड़ियां जाती हैं। हम लोग संख्या में ज्यादा थे इसलिए बस में ही समा सके। जम्मू से कटरा की हमारी बस सर्पीली घुमावदार पहाड़ी सड़क पर दौड़ पड़ी। पहाड़ी रास्ते की मुश्किलों का सामना तो मसूरी यात्रा के दौरान भी हो चुका था लेकिन इधर का सफर कहीं उससे भी कठिन था। बस से नीचे की ओर देखते तो कलेजा मुंह को आता। सड़क इतनी संकरी की कभी-कभी लगता कि एक छोटी-सी गलती ही पूरी बस को गहरी खाईं में फेंक देगी। पहाडों से बीच निकली इस सड़क को देख कर सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के उन श्रमिकों और इंजीनियरों को धन्यवाद दिये रहा नहीं जा सका, जिन्होंने अपना खून-पसीना एक करके पहाड़ का सीना चीर कर राह निकाली। कभी दुर्गम रही इस राह पर यात्रा सुगम की। मां की कृपा से बिना किसी बाधा के हम शाम होते-होते कटरा पहुंच गये।
कटरा मां के धाम का एक छोटा-सा कस्बा है। जहां छोटी-बड़ी कई दुकाने हैं। यों तो सभी सामान उपलब्ध है लेकिन वहां ज्यादातर दूकाने ड्राई फ्रूट और मां के प्रसाद की हैं। कटरा पहुंच कर पहले तो हमने त्रिकूट पहाड़ की तलहटी में बने होटल ईशान में डेरा जमाया फिर मंदिर तक सुगमता से पहुंचने के लिए हेलीकाप्टर का पता करने गये। पता चला हेलीकाप्टर अगले कई दिनों तक के लिए अग्रिम बुक किया जा चुका है। वहां से होटल लौटे और पैदल ही त्रिकूट पर्वत पर मां के धाम तक का तकरीबन 16 किलोमीटर का सफर तय करने की सोची। ईशान होटल से रात में त्रिकूट पर्वत पर यात्रा के मार्ग से लेकर मंदिर तक जगमगाती रोशनी बहुत ही मनोहारी लग रही थी। यात्रा में सब लोग अपने-अपने ग्रुप बना कर निकले। मैं, पत्नी, बेटी, दामाद और देवा भी यात्रा के बेस मार्ग (बाणगंगा के करीब) से आगे बढ़े। हमें बताया गया था कि घोड़ेवालों का रेट 500 रुपया प्रति यात्री है। हम लोगों ने यात्रा के शुरुआती मार्ग से पास से लाठियां खरीदीं और आगे बढ़ चले। सीधी चढ़ाई में कुछ दूर जाने के बाद ही मेरी तो हिम्मत जवाब दे गयी। छाती के पास अजीब-सा दबाव महसूस होने लगा। मैंने सबसे कहा कि कोई घोड़ा कर लेते हैं पत्नी और बेटी कुछ ज्यादा ही उत्साहित थीँ। वे पूरा मार्ग पैदल तय करने को इच्छुक थीं। अर्थराइटिस की मरीज पत्नी की हिम्मत और श्रद्धा तो श्लाघनीय थी। जिसे दस कदम चलने में मुसीबत होती है, वह अर्धकुमारी तक का तेरह किलोमीटर सफर कैसे तय  कर गयी यह समझ नहीं पाया। निश्चित ही यह भी मां की ही अनुकंपा रही होगी।
यहां यह बताता चलूं कि कोलकाता से यात्रा शुरू करने के पहले मुझे बायें हाथ में फ्रोजन सोल्डर की शिकायत हो गयी थी और मेरा हाथ सिर्फ आधा उठता था। मैंने मां से प्रार्थना की कि मां क्या मैं ऐसा ही हाथ लेकर आपके द्वार तक आऊंगा। विश्वास कीजिए ट्रेन में बैठे के दूसरे दिन ही मेरे हाथ का दर्द चला गया और वह पूरा उठने लगा। यह मां ही चमत्कार है में जो दर्द और परेशानी महीनों से जेल रहा था, मां ने एक दिन में दूर कर दी। कोई इस पर विश्वास करे न करे, इससे मेरी आस्था को अंतर नहं आता। मैंने जो महसूस किया वही लिख रहा हूं।
हां तो पत्नी. दामाद और बेटी को पैदल चलने को छोड़ मैं एक बड़े से घोड़े पर सवार हो गया। मैंने अपने साथ देवा को भी ले लिया। घोड़े की सवारी का यह जीवन में मेरा पहला मौका था और वह भी पहाड़ी रास्ते पर जिस पर सड़क और हजारों फुट गहरी खाई में बस एक-दो फुट का ही फासला था। जानवर का मिजाज थोडा बदला नहीं, वह बिदका नहीं कि मां के दरबार तक पहुंचने से पहले ही नमो नारायण होने की आसार नजर आ रहे थे। मेरे साथ दो साल का बच्चा था जिसे संभालना और भी मुश्किल था। घोड़े वाले से मैंने पहले ही कह दिया था कि भाई धीरे चलो, घोड़े को मारना नहीं, हमें कोई जल्दी नहीं है। घोड़े वाले ने 900 रुपये लिए। उससे बताया कि सरकारी रेट तो 500 है तो वह बोला 500 तो सरकार ही ले लेती है, अगर हम 500 रुपये ही लेंगे तो हमारे लिए क्या बचेगा। अब हमारे लिए उसका तर्क मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। हमारी यात्रा रात 8 बजे शुरू हुई। देवा सो न जाये इसलिए मैंने उससे कह दिया कि बेटा तू दोनों हाथ उठा कर 'जय माता दी' बोलता जा। उसने मेरा कहा माना और बराबर हाथ उठा कर 'जय माता दी' बोलता जा रहा था। आसपास से पैदल व घोड़े पर गुजरने वाले यात्री इतने छोटे बच्चे को 'जय माता दी' बोलते देख कर आश्चर्य कर रहे थे। शायद ही कभी उन्होंने माता का इतना छोटा भक्त देखा होगा जो सारे रास्ते जयकारा बोलता चल रहा था। पूरे रास्ते में प्रकाश की समुचित व्यवस्था, जगह-पर दुकाने और विश्राम की जगह थी।
घोड़े वाले ज्यादा से ज्यादा ट्रिप करने के चक्कर में घोड़ों को चाबुक मारते तो वे जोर से उछल पड़ते। इसी क्रम में हमारे दल में गयी एक महिला और बच्ची घोड़े के बिदक जाने से सड़क पर जा गिरी और उनको गंभीर चोटें आ गयीं। सौभाग्य यह था कि वे सड़क की दायी ओर गिरी थीं अगर बायीं ओर खाड़ी में गिरतीं तो फिर भगवान ही मालिक था। उस पहाड़ी रास्ते में घोडों की हालत देख कर भी तरस  आ रहा था। आधे रास्ते पर पहुंचे थे कि दायीं ओर सड़क किनारे एक घोड़े की लाश पड़ी नजर आयी जिसे चादर से ढंक दिया गया था। यह देख कलेजा दिल को आ गया, लगा बेचारा घोड़ा भी तो जीव है इतनी ऊंचाई ज्यादा दिन तक नहीं झेल पाया और चल बसा। इस बीच हमारे नाती देवा ने घोड़े वाले का एक शब्द 'हिक्कोडी' नकल कर लिया था। यह शब्द स्थानीय भाषा का होगा जो घोड़ेवाले घोड़े को तेजी से भागने का निर्देश देने के लिए प्रयोग करते हैं। घोड़वाला  'हिक्कोडी'  बोले इससे पहले देवा बोल देता और अबोध जानवर घोड़ा भी पता नहीं कैसे उसकी जबान भी समझ गया और उसके  'हिक्कोडी' कहने पर सरपट भागने लगता था। इस पर घोड़े वाला भी हैरान था। वह बोला- 'लो मेरा घोड़ा तो बाबू का आर्डर भी मानने लगा।' मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने देवा को जगाये रहना था क्योंकि घोड़े की सवारी और उस पर एक सोते बच्चे को संभालना आसान नहीं था। 
मैं और देवा घोड़े पर आगे निकल आये थे, दामाद, पत्नी और बेटी बहुत पीछे छूट गये थे। बच्चे का खाना उन लोगों के ही साथ था। मुझे चिंता इस बात की थी कि अगर बच्चे को भूख लगती है तो उसे कितने समय तक सिर्फ बिस्कुट पर उलझाये रखा जा सकेगा। सभी घोड़ेवाले अच्छे नहीं होते। हमारा घोड़ेवाला भी अक्सर एक गलती या कहें बदमाशी करता था कि रास्ते में वह जब भी रुकता, देवा को पहले उतार कर बायीं ओर खड़ा कर देता जो मुख्य सड़क थी और जिधर से घोड़े सरपट भागे जाते थे। बहुत खतरा था। ऐसा ङी उसने अर्धकुमारी से कुछ पहले किया तो उसकी यह हरकत वहां बैठ कर सुस्ता रही एक अधेड़ महिला को अखर गयी। उसने घोड़ेवाले को डांटा - 'बच्चे को इस तरह बीच सड़क में खड़ा कर उसे खतरे में क्यों डाल रहे हो, दो बच्चा मुझे दो मैं संभालती हूं। '  भगवान उनका भला करे, उन्होंने देवा को संभाल लिया और मुझे भी आगाह कर दिया कि घोड़ेवाला बच्चे के साथ कितना खतरनाक खेल खेल रहा था। दरअसल पहले वह देवा को उतारता था उसके बाद मुझे। 
अप्रैल की रात में भी पहाड़ी की ऊंचाइयां हम ज्यों-ज्यों चढ़ते जाते ढंड से सिहरन और बढ़ती जाती थी। हम स्वेटर पहने थे लेकिन चोटी के जितने करीब पहुंचते जा रहे थे, रोंगटे खड़े हो रहे थे। देवा देर तक जागता रहा लेकिन जब 11 बजने के आये तो वह ऊंघने लगा। मैं उसे जगाने की लगातार कोशिश करता रहा लेकिन उसे नींद आ रही थी। उसे पापा, मम्मी और नानी का इंतजार था जो शायद बहुत पीछे छूट गये थे। रास्ते में एक जगह घोड़े़वाला घोड़े को खाना खिलाने के लिए रुका। देवा को भी मैंने गोद में ले लिया। मैं सामने की ओर देख रहा था और उसका मुंह पीछे छूट गयी सड़क की ओर था। मैं अभी कुछ सोच ही रहा था कि तभी  देवा चिल्लाया 'पापा' । मुड़ कर देखा दामाद मुकेश आ गये थे। मेरी श्रीमती और बेटी ने कम से कम इतनी बुद्धिमानी तो की कि दामाद को बच्चे का खाना देकर एक घोड़े में भेज दिया। पापा को पाकर देवा खुश हो गया और मेरी भी जान में जान आयी कि चलो हम अब अकेले नहीं।
अब हम तीनों घोड़ों पर अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। हम चलते जा रहे थे और सड़क खत्म ही होने को नहीं आ रही थी। आखिरीकार रात बारह बजे के करीब हम दरबार के पास पहुंचे। तब तक देवा सो गया था और मेरे कंधे से टिका था। दर्शन के लिए सैकड़ों लोग कतारबद्ध खड़े थे। धक्कामुक्की भी हो रही थी। दामाद मुकेश भंडारगृह में सामान ऱखने गये थे। इधर भीड़ की धक्कामुक्की और बढ़ गयी थी। कई लोगों की लाठियां तो मेरे कंधे पर सो रहे देवा को भी लगीं। श्रद्धा और भक्ति में डूबे लोगों को भला कोई क्या समझाता जिनमें सबसे पहले माता के दर्शन करने की होड़ लगी थी। दामाद मुकेश आ गये थे लेकिन अब मुझे चिंता बेटी और अर्थराइटिस से लंगड़ा कर चलती पत्नी की थी। पता नहीं वे कहां किस हाल में होंगी। सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि मोबाइल काम नहीं कर रहा था और उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा था। जो भी जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर जाते हैं वे ध्यान रखें इस क्षेत्र में प्रिपेड मोबाइल काम नहीं करता। उसे सुरक्षा कारणों से जाम कर दिया गया है। यहां अगर आपस में संपर्क रखना है तो आपके पास पोस्टपेड कनेक्शन होना जरूरी है। हमारे पास ऐसा कनेक्शन नहीं था ऐसे में हमारे पास दरबार के पास बैठ कर उन दोनों की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मां के दरबार के दर्शन कर मन प्रसन्न हो जाता है। वहां आपको यह अनुभूति होती है कि आप सचमुच देवभूमि में आ गये हैं। वैसे तो उत्तर का कण-कण देवभूमि है। 
पिंडी दर्शन
पत्नी और बेटी सुबह छह बजे के करीब हम तक पहुंच पायीं। बेटी ने दरबार के नीचे वाला अपेक्षाकृत कुछ समतल रास्ता अपनाया और पत्नी ने अर्धकुमारी के पास से बैटरीवाली गाड़ी पकड़ी। तब तक देवा भी जग गया था और मां व नानी को पाकर खुश हो गया था। मां के दर्शन के बाद हम लोग लौट पड़े। उसी ढालू वाले रास्ते से लौटे जिससे बेटी ऊपर तक आयी थी। ढालू के इस रास्ते में पंजों को संभाल कर चलना जरूरी था नहीं तो ढलान में फिसलने का खतरा था। पंजों पर जोर देने के कारण टखनों की नसों में दर्द होने लगा था। बच्चे को कैसे ले जाया जाये इसके लिए एक पिट्ठू कर लिया गया। पिट्ठू वे हैं जो बच्चों को कंधे पर लाद कर चलते हैं। हेलीकाप्टर से मंदिर तक की यात्रा आसान है। आप हेलीकाप्टर के बेस से तीन मिनट से भी कम समय में सांझीछत में पहुंच जाते हैं जहां से मंदिर बस दो-तीन किलोमीटर ही है।
हम लोग किसी तरह तक अर्धकुमारी तक आये उसके बाद सबकी हालत पस्त हो गयी। मैं और दामाद मनाते रहे कि देवा की मम्मी और नानी घोड़े पर सवार होकर नीचे उतरने को तैयार हो जायें लेकिन वे मान ही नहीं रही थीं। बेटी तो घोड़े पर चढ़ने के नाम पर रोने लगी। किसी तरह बहुत मनाने पर वे राजी हुईं। इस बार घोड़े वाले अच्छे मिले और धीरे-धीरे चला कर नीचे तक लाये लेकिन उन्होंने भी बदमाशी की और आधे रास्ते पर ही छो़ड़ दिया। बाकी का रास्ता तपती धूम में हम लोगों को पैदल तय करना पड़ा। इस रास्ते में ही दूकानों से हमने मां का प्रसाद व कुछ स्मृतिचिह्न खरीदे। यह जीवन की एक यादगार यात्रा थी जिसमें मुश्किलें भले ही रही हों मातारानी के दर्शन होने और जीवन सफल करने का सुख भी था। इस यात्रा का उल्लेखनीय पक्ष नाती देवा का अश्वारोहण था। इस अबोध उम्र में की गयी यह यात्रा संभव है उसे विस्मृत हो जाये लेकिन हमें तो यह हमेशा याद रहेगी। आनेवाले दिनों तक हमारे अंतर में ये शब्द गूंजते रहेंगे-जय माता दी, बोलो सांचे दरबार की जय।

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