क्या ऐसे ही देश की कल्पना की थी हमारे महान नेताओं ने?
राजेश त्रिपाठी
हमारा देश
जब आजाद हुआ तो हमारे देश के कर्णधारों ने, जिनमें स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने
वाले नेता भी शामिल थे, इस देश को नये ढंग से सजाना, संवारना चाहा। कई बाहरी
लुटेरों फिर अंग्रेजों ने जिस तरह इसका दोहन-शोषण किया उससे देश बदहाल हो गया था।
उसे नयी तरह से प्रगति के पथ पर अग्रसर करना जरूरी था। ऐसे में हमारे देश के
गणतंत्र के पुरोधाओं ने यह सपना देखा था कि हम वर्षों से गुलामी की हवा में सांस
लेती जनता को नयी आजादी मिले। आजादी के इतने सालों बाद क्या जनता को सचमुच वैसी ही
आजादी मिली है। क्या उसे अपने आजाद देश में पीने का पानी, सामान्य स्वास्थ्य
सुविधाएं, शिक्षा की सुविधा व अन्य सुविधाएं प्राप्त हैं ? क्या आज जो भारत है, वहां जो आज नगारिकों की दशा और शासन-प्रशासन की दिशा है
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने वैसे ही देश
का सपना देखा था? क्या सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम व
ऐसे ही अन्य सुनाम व अनाम रहे शहीदों ने ऐसे ही देश के लिए बलिदान किया था। देश
जहां सत्ता में बैठे लोगों को तो सारी सुख सुविधाएं प्राप्त है लेकिन देश का
सामान्य नागरिक, सीमांत व्यक्ति सामान्य सुख सुविधा से भी दूर है। क्या ऐसे ही देश
का सपना देखा था हमारे उन वीर सपूतों ने जिन्होंने देश को परंतंत्रता की बेड़ियों
से मुक्त करने की लिए सारी सुख-सुविधाएं त्याग दीं, जेल की काल कोठरियों का दुख
भोगा।
देश में आज क्या हो रहा है।
घोटाले पर घोटाले, लूट-दर-लूट, भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा हो गयी है। इस लूट-खसोट का
हाल यह है कि देश की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन बदहाल होती जा रही है। जिन पर
भ्रष्टाचार, अनाचार को रोकने का जिम्मा है वे या तो सोये हुए हैं या सब कुछ जानते
हुए भी अनजान हैं। या फिर वे ऐसे हालातों या चरित्रों से घिर गये हैं जिनके आगे
उनकी बोलती बंद है। कोई भी ऐसा देश ज्यादा दिनों तक कभी सुखी या समृद्ध नहीं रह
सकता जहां की सत्ता उदासीन हो, जन आकांक्षाओं के प्रति जिसमें प्रतिबद्धता ना हो।
पता नहीं हमारे शासक यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारा देश गणतांत्रिक देश है और
यहां पर सत्ता की चाबी जनता के हाथ में होती है। वह जब भी पंगु और लचर प्रशासन से
ऊब जायेगी तो उस बदलने में जरा भी नहीं हिचकिचायेगी।
देश के सत्ताधारक एक तरफ जहां
देश की आंतरिक स्थिति, जनता की सुख-सुविधाओं को संभालने, संवारने में असफल हो रहे
हैं वहीं वे कई मुद्दों में भी असफल साबित हो रहे हैं। नक्सलवादियों या माओवादियों
की समस्या से आज देश के कई राज्य बुरी तरह से परेशान हैं। हजारों पुलिसकर्मी व
राजनेता इनके हमलों में जान गंवा चुके हैं। ये निरुद्देश्य हिंसा इनके आंदोलन और
देश को कहां ले जायेगी पता नहीं। यह आंदोलन जब शुरू हुआ था तो उसका मकसद था
जमींदारों व बड़े काश्तकारों से मजदूरों, श्रमिकों को उनका वाजिब हक दिलाना,
अन्याय से लड़ना। लेकिन क्या आज इस आंदोलन का ऐसा कोई मकसद है? देश के हर नागरिक
का मकसद होना चाहिए सकारात्मक, रचनात्मक न कि विध्वंसात्मक और नकारात्मक। जो जैसे
जहां है अपने सामर्थ्य के अनुसार देश के भले की बात सोचे या करे, यही सबके हित के
लिए अच्छा है। किसी संगठन को अगर देश की सत्ता या उसकी शासन पद्धति से शिकायत है
तो उसे देश की राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़ कर अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति
का प्रयास करना चाहिए। जिन हाथों में अपने ही देश के खिलाफ हथियार हैं उनमें कलम
हो, वे मशीनों को चलायें, देश के विकास में सक्रिया हिस्सेदारी निभायें यही तो हम
सबका सपना है। कोई भी अगर राह भटक गया है और सही रास्ते पर वापस आना चाहता है तो
उसका हृदय से स्वागत होना चाहिए। कई ऐसे हमारे भाई वापस देश की मुख्यधारा में
जुड़े और सही ढंग से जिंदगी जी रहे हैं। बाकी लोग भी ऐसा कर सके इसके लिए शासन को भी पहल
करनी चाहिए।
हम किस-किस बात को सोचें या
बिसूरें, देश में कहीं भी कुछ अच्छा या श्रेयष्कर नहीं दिखा रहा। हमने सोचा था कि
सत्यम् शिवम् सुंदरम् (सत्य ही सुंदर और कल्याणकारी है) की अवधारणा पर देश चलेगा
लेकिन देश किस राह पर चल रहा है यह हर देशवासी देख और भोग रहा है। आज जिस तरह देश
और देशवासी की दुर्दशा है उसे देख कर फिल्म 'बहू बेगम' (1967) का यह गीत याद आता
है- 'निकले थे कहां जाने के लिए पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं अब अपने भटकते कदमों
को मंजिल का निशां मालूम नहीं।' वाकई लगता यही है कि हम राह भटक गये हैं, जिस
मंजिल तक हमें पहुंचना था वह एक सपना बन कर रह गयी है। हमारी मंजिले मकसूद (मनचाही मंजिल) तो थी वह जहां देश का हर नागरिक
आजादी का सुख पा सके, उसे नौकरी, स्वास्थ्य, शिक्षा, पीने का पानी व अन्य सुविधाएं
मिलें। देश जहां बहू-बेटियां निर्भय होकर जीवन-यापन कर सकें, उनको सच्चा सम्मान और
समान अधिकार मिल सके। इसके अलावा हमारे लोगों ने अनेक ऐसी सुविधाओं का भी सपना
देखा था जो किसी स्वतंत्र व सशक्त देश के नागरिकों को मिलनी चाहिए। लेकिन क्या ऐसा
हो सका। नहीं हुआ। ऐसे में वाकई सवाल यही उठता है –पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं।
सवाल
उठेंगे तो दूर तलक जायेंगे और जायेंगे तो फिर हर दरवाजे पर अपने जवाबों के लिए
आवाज उठायेंगे, सिऱ धुनेंगे और किसी न किसी दिन हर उस शासक को (चाहे वक्त कितना भी
सशक्त या अडियल हो) इनके जवाब देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा जिन्हें लेकर ये उठे
हैं। देश और कुछ भी बरदाश्त कर सकता है अपने नागिरकों के प्रति अविचार, अनाचार और
ज्यादती को ज्यादा दिनों तक बरदाश्त नहीं कर सकता। आखिर हम क्या चाहते हैं, एक
स्वच्छ प्रशासन वाला, दिनोंदिन विकास की राह में बढ़ता देश, देश की जनसंपदा का सही
उपयोग, जनहित के लिए उसका इस्तेमाल (लूट नहीं), किसानों से कृषि योग्य भूमि ना
छीनना, उद्योगों के लिए जरूरी है तो ऐसी जमीन ली जाये जिस पर खेती नहीं होती या जो
कल-कारखानें बंद पड़े हैं उनकी जमीन ली जाये, माताओं-बहनों को पूरी सुरक्षा मिले।
क्या एक स्वतंत्र देश के शासकों को ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। पिछले कुछ अरसे
में देश ने जैसी-जैसी घटनाएं देखी हैं वह या तो शर्मशार करने वाली या दहला
देनेवाली हैं क्या हमारा शासन-प्रशासन इतना लचर हो गया है कि वह देश के नागरिकों
को सुरक्षा भी नहीं दे सकता? दिल्ली के निर्भया कांड के बाद भी देश भर में
बहनों-माताओं के अस्मत से नराधम खेल रहे हैं उसके प्रति शासन को और भी
चुस्त-दुरुस्त और सख्त होना चाहिए।
देश के
हर शुभचिंतक का यही सपना है कि हमारा देश ऐसा उत्कर्ष प्राप्त करे कि हम गर्व से
कह सकें-सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा। विविध संस्कृतियों, विविध धर्मों का
गुलदस्ता है हमारा देश। इसमें भांति-भांति के सुरभित फूल सजे हैं जिसकी खुशबू में
तरह-तरह की संस्कृति व तहजीब की सुगंध है। यह सुगंध, यह गंगा-जमुनी सुगंध हमेशा
बरकरार रहे यही तो हर सच्चे भारतीय का सपना है। प्रभु करे देर-सवेर यह सपना सच हो।
No comments:
Post a Comment