कहानी
वसीयत
राजेश त्रिपाठी
रीना, शीलू, पंपा और चंपा के सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए काली बाबू कहते, ' छक कर खाओ मां, संकोच मत करो। अरे, शीलू तू आज ठीक से क्यों नहीं खा रही ? देख, तेरी तीनों बहनें कैसा स्वाद लेकर खा रही हैं। ठीक से नहीं खायेगी तो दुबली हो जायेगी। अरे, रीना बेटी, चंपा बेटी को पंजा क्यों मार रही है?उसने क्या बिगाड़ा है तेरा? जाने क्यों तू अकसर उससे लड़ती रहती है। जबकि वह कुछ नहीं बोलती। लो, उसने खाना ही छोड़ दिया। अब तो खुश हैन तू! दुष्ट कहीं की। चंपा बेटी! तू शीला के पास बैठ कर खा ले, तेरी थाली मैंने शीला के पास रख दी है। आ, यहां बैठ।
ये थे काली बाबू, जो चार बिल्लियों को बड़े प्रेम से अपने हाथ से बनाया मछली भात खिला रहे थे। बंगाल में बेटी को 'मां्' कह कर संबोधित करते हैं। काली बाबू बनारसी थे। कलकत्ता में वे गहने गिरवी रखने और ब्याज पर उधार रुपये देने का कारोबार करते थे।दस साल पहले पचास साल की उम्र में उन्होंने काकुली नाम की एक निस्संतान बंगाली बाल विधवा से शादी की थी, जिसे बचपन से बिल्ली पालने का शौक था। वैसे भी बंगाल में कुत्तों की अपेक्षा बिल्लियों की बहुत कद्र होती है।
हां, तो काकुली अपने साथ बिल्ली के चार बच्चे भी साथ लेती आयी थी। उन बच्चों को पैदा होते ही उनकी मां को एक पागल कुत्ते ने मार डाला, तो काकुली ने उन चारों बच्चियों को अपने पास रख लिया था।
काली बाबू के दुर्भाग्य से तीन साल पहले काकुली मलेरिया में चल बसी। मरते समय उसने पति से कहा था, ' ए जी! मैं आपको इन चारों बच्चियों को सौंपे जा रही हूं। इन्हें अपनी बेटियां समझ कर कोई कष्ट न होने देना। वैसी ही रखना जैसे मैं प्रेम से रखती थी। वही खिलाना, जो मैं खिलाती थी। मेरी तरह इन्हें अपने हाथ से बना हुआ गोविंदभोग चावल का भात और टटका मछली खिलाना। सड़ी हुई नहीं।'
पत्नी भक्त काली बाबू पत्नी की इच्छा का पालन करने के लिए बाजार से टटका (जिंदा) मछली और महंगा गोविंदभोग चावल ला कर बनाते। वे खुद मछली नहीं खाते थे; किंतु उन बिल्लियों को बड़े प्रेम से खिलाते थे। पत्नी को मछली बनाते देख कर वे भी मछली बनाना सीख गये थे।
काली बाबू दूसरी मंजिल में सीढ़ी के पास वाले कमरे में और मैं तीसरी मंजिल में रहता था। कभी-कभी नीचे उतरते समय वे अपने कमरे के दरवाजे पर पड़ी बेंच पर बैठे दिख जाते, तो बुजुर्ग के नाते मैं उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लेता, तो वे भी मुसकरा कर हाथ जोड़ लेते।
उनसे मिलने आने वाले उसी बेंच पर बैठ कर उनसे बातें किया करते थे। कमरे के भीतर वे किसी को भी नहीं जाने देते थे। जेवर गिरवी रखने और कर्ज लेने या लौटाने वालों से भी वे उसी बेंच पर बैठ कर बातें करते थे।
एक दिन मैं भी काली बाबू के पास बेंच पर जा बैठा। उन्हें प्रणाम कर सौजन्यता के नाते पूछा,' कैसे हैं दद्दा जी?'
'अच्छा हूं।'
'आप क्या यहां अकेले रहते हैं?'
'नहीं, चार बेटियां साथ हैं।'
उनका संकेत बिल्लियों की ओर था।
'और कोई, मतलब भाई, भतीजा, मामा, भांजा?'
'कोई नहीं है।'
उसके बाद वे उठ कर भीतर चले गये और दरवाजा बंद कर लिया, जिससे मैं पीछे-पीछे भीतर न चला जाऊं। मुझे लगा, जिससे उनको कोई लाभ नहीं होता, उससे वे बातें करना पसंद नहीं करते थे। तभी वे मेरे और कुछ पूछने के पहले उठ कर चल दिये थे।
एक दिन मेरे मित्र और काली बाबू के कमरे के बगल में रहने वाले राम सिंह उनके संबंध में मुझे जो कुछ बताया, वह चौंका देनेवाला था।
राम सिंह ने कहा, 'काली बाबू के कमरे में घुसते ही बायीं तरफ एक बड़ा सा पलंग है जिस पर मोटा गद्दा बिछा रहता है। वह तख्त उनका बैंक लाकर है। गद्दे के नीचे लाखों रुपये के गिरवी रखे सोने-चांदी के जेवर और नंबरी नोटों की गड्डियां दबी हुई हैं। इसीलिए वे किसी को कमरे के भीतर नहीं घुसने देते। रात में उनके अगल-बगल दो-दो बेटियां लेटती हैं, तभी उन्हें नींद आती है।'
'ताज्जुब है।'
'और भी ताज्जुब की बात सुनेंगे? दद्दा बिल्लियों को बढ़िया मछली -भात पका कर खिलाने के बाद लोहे का तसला और गिलास लेकर सामने के मंदिर में मुफ्त बंटने वाली खिचड़ी खाने के लिए भिखारियों के साथ जा बैठते हैं। एक बार टोका,-दद्दा, भगवान का दिया आपके पास सब कुछ है, फिर आप भीख की खिचड़ी खाने क्यों जाते हैं? जानते हैं उन्होंने क्या जवाब दिया?'
'क्या कहा?'
'मैं भीख की खिचड़ी खाने नहीं, भगवान का प्रसाद पाने जाता हूं।'जबकि मैं जानता था कि वे अपने को भिखारियों जैसा गरीब दिखाने के लिए ऐसा करते हैं।
उस दिन काली बाबू का व्यवहार मुझे खल गया था। अब मैंने उन्हें प्रणाम करना और मिलना बंद कर दिया। सामने पड़ते तो मैं मुंह फेर कर निकल जाता।
समय बीता। ठंड का मौसम था। शायद जनवरी का महीना था। सुबह सूरज निकलने के पहले ही किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। दूध वाला समझ कर पत्नी ने उठ कर दरवाजा खोल दिया।सामने राम सिंह थे।
'भाई साहब आप?'
'हां भाभी। दक्ष भाई सो रहे हैं क्या?'
उनकी आवाज सुन कर मैं उठ कर दरवाजे पर गया, तो राम भाई ने मनहूस खबर सुनाई, 'दक्ष भाई! काली दद्दा गये।'
मैं चौंका, 'कहां?'
उन्होंने हाथ ऊपर उठा कर कहा, 'वहां।'
'अरे मगर कैसे?' कहते हुए लुंगी समेटता मैं राम सिंह के साथ नीचे उतरा। देखा, काली दद्दा का आधा शरीर कमरे के भीतर और आधा बाहर पड़ा था।
तत्काल इसकी सूचना पुलिस को दी गयी। दद्दा का शव पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज कर पुलिस ने उनके कमरे में अपना ताला लगा कर सील कर दिया और दरवाजे पर पुलिस का चौबीस घंटे का पहरा बैठा दिया गया।
पोस्टमार्टम के बाद पता चला, दद्दा की मृत्यु हार्टअटैक से हुई है। दर्द होने पर वे बाहर निकल कर सहायता के लिए किसी को बुलाना चाहते थे; किंतु दरवाजे तक आते-आते गिरते ही चल बसे।
उनका कोई रिश्तेदार नहीं था। अंत्येष्टि की व्यवस्था मकान के किरायेदारों को ही करनी थी। खर्च था।
थाने जाकर कहा गया, 'दद्दा के कमरे का दरवाजा खोल कर अंत्येष्टि के खर्च भर के लिए रुपये ले लेने दिया जाये।'
जवाब मिला, 'जब तक मृतक का कोई वारिश नहीं आयेगा, कमरा नहीं खुलेगा।'
यह कैसी विडंबना ? जो व्यक्ति लाखों रुपये का मालिक था, उसकी अंत्येष्टि किरायेदारों से चंदा कर के की जा रही थी।
मुझे चिंता दद्दा की चारों बेटियों की थी। क्योंकि जब कमरा सील किया गया, तब वे पलंग पर खर्राटे भर कर सो रही थीं। जगीं तो लगीं म्याऊं-म्याऊं करने। उनका करुण स्वर मेरे साथ राम सिंह भी सुन रहे थे।
मैंने कहा, 'राम भाई! दद्दा की चारों बेटियां भूख से तड़प-तड़प कर मर जायेंगी ।'
'उन्हें बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?'
तभी सामने के मकान का एक लड़का दौड़ा-दौड़ा आया और बोला, 'दद्दा जी की चारों बिल्लियां सड़क की ओर खुलने वाली बालकोनी से सड़क पर जैसे ही कूदीं, सड़क के आवारा कुत्तों ने उन्हें खदेड़ लिया। वे सब सड़क की ओर भाग गयी हैं।'
मैंने कहा, 'राम भाई! कुत्तों से बच गयीं, तो किसी गाड़ी के नीचे आकर सड़क दुर्घटना का शिकार हो जायेंगी। कलकत्ता की व्यस्त सड़कों में रोजाना दो-चार लोग दुर्घटना में जान गवां बैठते हैं., फिर इन बिल्लियों की क्या बिसात।
बाहर निकल कर आसपास के लोगों से बहुत पूछने पर उन चारों के संबंध में कुछ पता नहीं चला।
छह माह बाद भी जब दद्दा का कोई वारिश उनकी संपत्ति पर हक जताने नहीं आया, तो अदालत के आदेश पर कमरे का दरवाजा खोल कर पता लगाया गया कि काली बाबू मरने के पहले कुछ लिख तो नहीं गये।
गद्दे के नीचे जेवर और नोटों की गड्डी के साथ पेपर पर लिखा कुछ मिला। वह वसीयतनामा निकला।
काली बाबू वसीयत में अपने मरने के बाद सारी संपत्ति अपनी चारों बेटियों रीना, शीलू, पंपा और चंपा के नाम कर गये थे। जिनका अब कोई पता नहीं था। लिहाजा दद्दा की सारी संपत्ति सरकारी खजाने में जमा हो गयी और अखबारों में विज्ञापन दे दिया गया कि काली प्रसाद साह के यहां जिन लोगों के अपने जेवर गिरवीं रखे हैं, वे रसीद दिखा कर, ब्याज सहित भुगतान करके अपना माल ले जायें। (समाप्त)
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