Monday, April 24, 2023

कैसे कैसे किस्से, कैसे कैसे लोग

 


आत्मकथा-55

आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक रविवार में कार्य के दौरान विविध प्रकार के अनुभव हुए। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलने साहित्यकार और पत्रकार तो आते ही रहते थे। कई बार ऐसे लोग भी आते थे जो अपने व्यक्तित्व और कार्य में औरों से अलग और अनोखे होते थे। ऐसे ही एक व्यक्तित्व का यहां उल्लेख करना जरूरी है। उनका नाम था वसंत पोतदार। लंबे-चौड़े डीलडौल और बुलंद आवाज वाले वसंत पोतदार अच्छे वक्ता और एकल अभिनय में माहिर तो थे ही वे अच्छे लेखक भी थे। एकल अभिनय में वे हिंदी, मराठी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में प्रस्तुति देते थे। कहते हैं कि जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में एकल अभिनय करते थे तो पूरे हाल में सन्नाटा छा जाता था। बस कुछ सुनाई देता था तो लगातार बजनेवाली तालियां और वसंत पोतदार का विवेकानंद के रूप में उनके संदेश का बुलंद स्वर। उनका भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर आधारित वंदे मातरम कार्यक्रम भी बहुत चर्चित और प्रशंसित हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व अन्य महान व्यक्तित्वों के चरित्र पर वे एकल अभिनय करते थे। उन्होंनेकई पुस्तकें भी लिखी थीं।

वसंत पोतदार
 सुरेंद्र जी में एक खूबी यह भी थी कि वे कुछ देर किसी से मिल कर ही यह पहचान लेते थे कि उसमें क्या माद्दा है। वसंत पोतदार की प्रतिभा को पहचानने में भी उनको देर ना लगी। उन्होंने उनसे कहा-वसंत हमारे लिए एक साप्ताहिक स्तंभ लिखना है आपको।

वसंत पोतदार-अरे यार मैं क्या लिखूंगा काहे बेमतलब में मुझे फंसाते हो।

सुरेंद्र जी-कोलकाता महानगर में तो तुम भटकते ही रहते हो देखो कई ऐसे लोग तुम्हें यों ही जीते मिल जायेंगे। बेमतलब जीते इन लोगों में कोई ना कोई प्रतिभा होगी. बस वही तुम्हें उभारना है। स्तंभ का नाम होगा-कुछ जिंदगियां बेमतलब।

 दूसरे दिन से ही वसंत ने काम शुरू कर दिया। उन्होंने कोलकाता के गली-कूचों और कोने-कोतरे में पड़े ऐसे कलाकारों और हुनरमंद लोगों की कहानी लिखनी शुरू कर दी जो काफी लोकप्रिय हुई। कुछ जिंदगियां बेमतलब स्तंभ कुछ दिन में ही लोकप्रिय हो गया। इसमें वसंत ऐसे व्यक्तित्वों की कहानी कहते जो दुनिया से विलग अपनी गुमनाम सी जिंदगी जी रहे थे। वे बस अपनी कला या हुनर में खोये रहते थे।

 वसंत यायावर का-सा जीवन बिताते थे। एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। वे मुंबई वापस जाते  और कुछ महीने बाद फिर वापस आते। एक बार की बात है वे बहुत दिन बाद हमारे रविवार के कार्यालय में आये उन्होंने संकेत से जानना चाहा कि सुरेंद्र जी हैं क्या। मैं सझ गया था पर मैंने ऐसा भान किया कि मैं समझा नहीं। इसके बाद वसंत पोतदार ने जेब से एक कागज निकाला और उस पर लिखा-इन दिनो मेरे मौन व्रत चल रहा है, बोल नहीं रहा हूं। सुरेंद्र जी कहां हैं।

  मैंने उत्तर दिया- अरे वसंत जी आपके जैसा व्यक्ति जिसकी आवाज ही उसकी पहचान है वह इस तरह मौन धारण कर लेगा तो कैसे चलेगा।

  मेरी बात सुनते ही वसंत पोतदार ने बुलंद ठहाका लगाया और बोले-अरे आपने ने तो मेरा मौन व्रत तोड़वा दिया। कई महीने से मौन था आपकी बातों से वह प्रण टूट गया।

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हमारे संपादक सुरेंद्र जी बहुत ही ईमानदार और उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में भी काम किया कभी किसी भी प्रकार की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता नहीं होने दी। `रविवार' के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये मांगे और कहा कि यह पैसा वे `रविवार' के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल गये उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार वे कोलकाता आये तो एसपी ने एक मोटा लिखने का पैड उन्हें दिया और अपने चैंबर में बैठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें। बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं वे चार लेख तैयार कर लें तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुसकराते हुए चैंबर से बाहर आये और कहा-` लो भाई चुका दिया एसपी का कर्जा, अब तो मैं जाऊं। वाकई एसपी जैसा कोई और नहीं होगा।' उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की बेचारगी से बचा लिया।

थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। इतने ईमानदार और उसूल के पक्के थे वे।

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प्रसिद्ध फोटो जर्नलिस्ट सुधीर उपाध्याय द्वारा कोलकाता के महाजाति सदन के सामने खींची गयी मेरे परिवार की फोटो में बायें से दायें-भैया रुक्म जी, बेटा अवधेश,भाभी निरुपमा,बेटी अनामिका, बेटा अनुराग, मेरी सहधर्मिणी वंदना त्रिपाठी और मैं


हमारे परिवार में पहली संतान के रूप में बेटी अनामिका, दूसरा बेटा अनुराग और मेरे रविवार में जाने के बाद छोटे बेटे अवधेश का जन्म हुआ। इस पर भी सुरेंद्र जी से जुड़ा एक प्रसंग यादा आया। भैया हमारी तीसरी संतान होने की खुशी में रविवार के हमारे साथियों के लिए मिठाई लेकर गये। सबने बहुत प्रसन्नता जतायी। प्रसन्न सुरेंद्र जी भी हुए पर साथ ही उन्होंने भैया के माध्यम से मुझ तक यह संदेश भी भेजा-अब आगे नहीं अन्यथा संजय गांधी को बुला लेंगे।(क्रमश:)

 

 

 

Sunday, March 12, 2023

सुरेंद्र प्रताप सिंह की खबरों पर अच्छी पकड़ थी

 आत्मकथा-54


आनंद बाजार पत्रिका के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह जिन्हें हम सब एसपी दा के नाम से पुकारते थे उनकी भाषा बहुत ही सशक्त पर सरल और सबकी समझ में आनेवाली थी। वे बहुत अच्छा लिखते थे। लेकिन पता नहीं क्यों ‘रविवार’ में वे कुछ भी नहीं लिखा करते थे। यह हमें अच्छा नहीं लगता था कि एक सशक्त कलम ‘रविवार’ जैसा सशक्त माध्यम पाकर खामोश रहे। हम लोगों के बार-बार आग्रह करने पर वे प्रसिद्ध पत्रकार जनार्दन ठाकुर की ‘आल द प्राइम मिनिस्टर्स मैन’ पुस्तक के एक चैप्टर का हिंदी में अनुवाद करने पर राजी हुए। आपातकाल की पृष्ठभूमि पर लिखी इस चर्चित पुस्तक का उन्होंने इतना सुंदर अनुवाद किया कि लगता यह था कि यह अनुवाद नहीं बल्कि मूल लेखक की ही हिंदी में लिखी रचना हो। इतने वर्ष बीत जाने पर पूरा तो याद नहीं ना ही ‘रविवार’ का वह अंक ही मेरे पास है। उसकी बानगी के लिए एक पंक्ति ही काफी है-‘खेतों पर हवा और सड़क पर पुलिस गश्त कर रही थी।’ ‘धर्मयुग’ में रहते हुए उन्होंने बहुत कुछ लिखा और ख्याति पायी। धर्मयुग में जाने और धर्मवीर भारती जैसे कड़क मिजाज संपादक के सामने बेखौफ जवाब देने में वे नहीं चूके। कहते हैं कि इंटरव्यू के दौरान जब धर्मवीर भारती ने पूछा कि -धर्मयुग में ही क्यों काम करना चाहते हो? एसपी ने तपाक से जवाब दिया-अच्छा अवसर पाने के लिए। भारती जी का अगला प्रश्न था-इसका मतलब यह है कि अगर इससे अच्छा अवसर मिला तो तुम धर्मयुग छोड़ दोगे?एसपी ने बिना एक पल भी गंवाये जवाब दिया-बेशक।

सुरेंद्र प्रताप सिंह

धर्मवीर भारती ने इतने सीधे, सपाट और बेखौफ जवाब की कल्पना नहीं की थी। जिस धर्मवीर भारती के सामने बड़ों-बड़ों की घिग्घी बंध जाती थी उनके सामने एक नौजवान बेखौफ धड़ल्ले से जवाब दे रहा है उन्होंने सोचा-भाई लडके में है दम। एसपी को धर्मयुग में काम मिल गया। कुछ ही दिन में उनकी पत्रकारिता और लेखन की  धूम मच गयी। इसके बाद उन्हें संस्थान की ही फिल्म पत्रिका ‘नाधुरी’ में भेज दिया गया। वहां भी उन्होंने अपने लेखन से धूम मचा दी। माधुरी में उन्होंने फिल्म कलाकारों को लक्ष्य कर के एक लेख लिखा जिसका शीर्षक कुछ इस तरह था- खाते हैं हिंदी की गाते हैं अंग्रेजी की।

 ‘रविवार’ में ऐसा संपादक पाकर हम धन्य हो गये। ऐसा संपादक जिसने पत्रकारिता को नये आयाम नये तेवर दिये। उसे स्वामिभक्ति और सुदामा वृत्ति से मुक्त किया। अनुवाद पत्रिका से अधिक उन्होंने मौलिक और साहसिक पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया। जिन्होंने ‘रविवार’ का एक अंक भी देखा होगा वे मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उससे पहले इस तरह की साहसिक पत्रकारिता करने का साहस शायद ही कोई कर पाया हो। शायद यही कारण है कि यह लोगों में व्यवस्था विरोधी पत्रिका के रूप में विख्यात थी। 

एसपी  स्पष्ट वक्ता थे और खबरों पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। इसका एक उदाहरण दे रहा हूं। भागलपुर के कुख्यात आंखफोड़ कांड की याद कुछ लोगों को अवश्य होगी। इसका समाचार बिहार से प्रकाशित होने वाले एक हिंदी दैनिक में कुछ पंक्तियों में ही सलटा दिया गया था। उस समाचार को ऐसे किसी स्थान पर दिया गया था जहां वह खो जाये। उस समाचार को देख कर एसपी ने हम सबको बुलाया और कहा –देखिए इस तरह की जाती है एक महत्वपूर्ण समाचार की हत्या। इसके बाद उन्होंने रविवार में हमारे साथी अनिल ठाकुर को लभेजा और कहा कि इस घटना की विस्तृत रिपोर्ट तैयार कीजिए। अनिल ठाकुर का घर भागलपुर में ही था इसलिए उन्हें आंखफोड़ कांड पर सशक्त रिपोर्ट तैयार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। वह हमारे रविवार की कवर स्टोरी बनी और बहुत हिट रही। बाद में फिल्म निर्माता प्रकाश झा ने इसी घटना पर आधारित फिल्म ‘गंगाजल’ बनायी थी।

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पहले ही बता चुके हैं कि रविवार में हमारे वरिष्ठ सहयोगी सुदीप जी थे। उनका पूरा नाम गुलशन कुमार था और सुदीप उनका उपनाम था। वे प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'सारिका' से आये थे। स्वभाव में बड़े सज्जन थे जिससे मन मिल जाये उससे खूब बातें करते थे। रविवार के संपादकीय विभाग में मुझसे और निर्मलेंदु साहा से उनकी खूब बनती थी। वे अक्सर अपने मुंबई के संस्मरण सुनाया करते थे। वहां वे फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन का कार्य भी करते थे। 

दिन, महीने वर्ष ऐसे ही गुजरते रहे। सुदीप जी बीच-बीच में बंबई जाते जहां उनका परिवार था। उनकी पत्नी उन दिनों मुंबई में ही पढा़ती थीं। हम पाते थे कि जब सुदीप जी मुंबई में अपने परिवार से मिल कर आते तो कुछ दिनों तक उनके चेहरे पर उदासी के भाव रहते थे। परिवार से बिछुड़ने का दुख उनके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। उन्हें सहज होने में कुछ दिन लगते।

सुदीप जी

      एक बार वे जब मुंबई में परिवार से मिल कर आये तो कुछ बदले-बदले से लगे। उनके चेहरे पर स्थायी भाव से रहनेवाला स्मित हास्य गायब था और गहरी उदासी उभर आयी थी । हमसे उनकी उदासी का कारण पूछा ना गया। सोचा गर दर्द को कुरेदा तो वह कहीं और ना गहरा हो जाये। ज्य़ादा दिन नहीं लगे उनके दर्द की वजह जानने में। दो दिन बाद जब विभाग के सारे सहयोगी जा चुके थे। कार्यालय में मैं, निर्मलेंदु और सुदीप जी रह गये थे तो सुदीप जी ने  निर्मलेंदु से कहा-‘निर्मल, तीन डोसे मगाओ। आज आपके साथ डोसा खाने का मन कर रहा है। ‘  निर्मल ने कार्यालयीय सहायक से कह कर तीन डोसे मंगा लिए। हम सब डोसे खाने लगे। सुदीप जी भी इधर-उधर की बातें करते रहे।

  डोसे खत्म होते-होते तक हमने पाया कि सुदीप जी की आंखें भर आयीं थीं। उनके चेहरे पर उभरी उदासी अब और गहरा गयी थी जो साफ नजर आ रही थी।

  अचानक वे बोले-‘राजेश जी और निर्मल भाई, मैं कल मुंबई वापस लौट रहा हूं हमेशा के लिए। मैंने इस्तीफा दे दिया है। आप जैसे प्यारे भाई बहुत याद आयेंगे।‘ इतना कहते-कहते वे रोने ही लगे।

 हम लोगों की भी आंखें भर आय़ीं। मैंने पूछा-,’क्या हुआ भाई जी अचानक।‘

 वे दुख से अपनी भर आयी आवाज को संभालते हुए बोले-‘हां राजेश जी, अचानक ही यह फैसला लेना पड़ा। इस बार जब मैं मुंबई पहुंचा तो मेरी बेटी इतना खुश हुई, उसका चेहरा इतना खिल गया कि मैं कह नहीं सकता। मैंने बहुत गहराई से सोचा कि मैं क्यों इतनी मेहनत कर रहा हूं अपने परिवार के चेहरे पर खुशी और हंसी देखने के लिए ना। पर मैं ऐसा कर कहां पा रहा हूं। जब कई महीने बाद मैं इनसे मिलते आता हूं तो इनके चेहरे खिल जाते हैं, खुशी का ठिकाना नहीं रहता। जब मैं वापस लौटने लगता हूं तो उन्हें लगता है जैसे उनसे उनकी सारी खुशियां ही छीन ली जा रही हैं। इस बार मैंने बहुत गंभीरता से सोचा कि मैं इनकी इच्छा के विपरीत इऩसे दूर रह रहा हूं जो ठीक नहीं है। क्या है मुंबंबई में रह कर पटकथा वगैरह लिख लूंगा। कम पैसे मिलेंगे लेकिन सबसे बड़ी खुशी तो मिलेगी अपनों के चेहरों पर खुशी की मुसकान। कल मुंबई के लिए निकल रहा हूं तुम लोगों की बहुत याद आयेगी।‘

   सुदीप जी अब इस दुनिया में नहीं हे लेकिन उनका अपने से कनिष्ठों से भी भ्रातृवत व्यवहार हमें हमेशा याद आता रहेगा। आपसे जो जाना, जो सीखा आपका जो स्नेह मिला वही हमारे जीवन की संचित निधि है।

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रविवार में रहते हुए भी मैं बीच-बीच में फिल्म कलाकारों के कोलकाता में होनेवाले प्रेस कांफ्रेंस वगैरह कवर कर लेता था। ऐसा ही एक कांफ्रेस जलाल आगा का था जो उस टीवी धारावाहिक के बारे में था जो पति-पत्नी के संबंधों के बारे में था। जलाल आगा उसी का प्रचार करने आये थे। जो लोग जलाल आगा को नहीं पहचानते उन्हें बता दें कि वे मशहूर अभिनेता आगा के बेटे थे। जलाल आगा ने यों तो कई फिल्मों में काम किया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ के महबूबा महबूबा वाले गीत दृश्य में उन्होंने हिस्सा लिया था।

अभिनेता जलाल आगा द्वारा खींची मेरी तस्वीर


 वे पत्रकारों से बातें कर रहे थे और अपने कैमरे से कई लोगों के फोटो ले रहे थे। उन्होंने अपने कैमरे का रुख मेरी ओर किया देखा उसका लेंस बाहर निकल आया और जलाल आगा ने किल्क कर दिया फ्लैश की लाइट के साथ मेरी इमेज कैमरे में कैद हो गयी। मैंने कहा- आपने हमारी तस्वीर कैद तो कर ली हमें मिलेगी क्या।जलाल आगा का जवाब था-पता दीजिए भेज दूंगा मैंने पता दिया और सचमुच जलाल आगा ने अपना वादा निभाया कुछ दिन बाद मेरे पास वह फोटो आ गयी। वाकई वह अब तक खींची गयी फोटो में सबसे अच्छी है। वह फोटो मैं इस पोस्ट के साथ दे रहा हूं। (क्रमश:)


Monday, February 13, 2023

कला के प्रति रुचि ने मुझे आर्ट कालेज पहुंचा दिया

आत्मकथा-53



आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक रविवार में काम करते वक्त मेरे कैरियर में एक और मोड़ आया। मेरी वहां ड्यूटी पांच बजे तक थी। घर वापस लौटते वक्त मैं ठनठनिया काली मंदिर के पास बेचू चटर्जी स्ट्रीट स्थित मशहूर चित्रकार होरीलाल साहू जी के पास कुछ देर के लिए रुकता उन्हें पेंटिंग करते देखता, उनसे बातचीत करता फिर वीणा सिनेमा के पास से 46 नंबर बस पकड़ कांकुड़गाछी स्थित अपने फ्लैट लौट आता। यहां बता दूं कि होरीलाल जी भैया के परिचितों में ले थे। उनका परिचय बंबई (अब मुंबई) में हुआ था जहां वे मशहूर पेंटर और फिल्मों के आर्ट डाइरेक्टर रामकुमार शर्मा के असिस्टेंट हुआ करते थे। रामकुमार शर्मा के असिस्टेंटों में भैया के बुंदेलखंड के बांदा के बालसखा मनीष गुप्त भी थे। होरीलाल जी से भैया का वह परिचय उस वक्त भी बराबर जारी रहा जब होरीलाल जी कोलकाता में आकर बल गये। होरीलाल जी ने आर्ट की शिक्षा पहले कोलकाता के इंडियन कालेज आफ आर्ट ऐंड ड्राफ्टमैनशिप से पायी उसके बाद उन्होंने जे जे स्कूल आफ आर्ट से आर्ट की शिक्षा पायी। मूलत: वे बनारस के रहनेवाले थे। मैं अक्सर उनके पास बैठ कर उनका काम देखता था। एक दिन उनके वे टीचर आये जिन्होंने उनको इंडियन आर्ट कालेज में पढ़ाया था। होरीलाल जी जब स्टूडियो से अंदर घर चले गये मास्टर मोशाय के लिए चाय बनाने के लिए कहने उस समय मास्टर मोशाय ने कहा-होरीलाल है तो मेरा स्टूडेंट पर इसमें जो गुण है वह मुझमें नहीं। मुझे अगर किसी से अपने दिवंगत प्रियजनों की आयल पेंटिंग बनाने का आर्डर मिलता है तो वे उसमें कुछ ना कुछ खोट निकाल देते हैं और मुझे होरीलाल से ठीक कराना पड़ता है। अगर आर्ट में रुचि हो तो इससे बहुत कुछ सीख सकते हो। तब तक होरीलाल जी भीतर के घर से स्टूडियो में वापस आ गये। मास्टर मोशाय उनसे बोले-अरे तुम्हारे राजेश जी भी आर्ट में बहुत रुचि रखते हैं। जबकि यह बात है उन दिनों होरीलाल जी सन्मार्ग हिंदी दैनिक के उस विशेषांक का चित्रांकन कर रहे थे जिसका संपादन मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ कर रहे थे। उनके प्रति होरीलाल जी की श्रद्धा इस कदर थी कि जब तक वे जीवित रहे दीपावली में भैया को एक धोती और मिठाई देने आते रहे। जब मास्टर मोशाय चले गये तो होरीलाल जी मुझसे बोले-राजेश जी चलिए आपको कल इंडियन आर्ट कालेज में भर्ती करा देते हैं। दूसरे दिन मैं आनंद बाजार कार्यालय से हमेशा की तरह होरीलाल जी के घर पहुंच गया। वे तैयार ही बैठे थे। हम दोनों आर्ट कालेज पहुंचे कालेज में प्रवेश के पूर्व मेरा इंटरव्यू लिया जाने लगा। कालेज के प्रिंसिपल ने होरीलाल जी से कहा-होरीलाल तुम भी इंटरव्यू दे दो हमारे यहां शिक्षकों की कमी है। मैं छात्र के रूप में और होरीलाल जी शिक्षक के रूप में इंटरव्यू पास कर गये। पांच बजे के बाद मेरी आनंद बाजार कार्यालय से छुट्टी होती और मैं पैदल धर्मतला स्ट्रीट से सियालदह की ओर चल पड़ता जहां सड़क के बगल में हमारा कालेज था। वह कोई पुरानी ब्लिडिंग थी। हमारे क्लास शुरू हुए। फोलियज से लेकर न्यूड स्टडी, वाटर कलर, आयल पेंटिंग एचिंग और अन्य पद्धतियां सिखायी जाने लगीं। एक दिन स्केलटन यानी कंकाल की ड्राइंग का क्लास चल रहा था। सामने स्केलटन टंगा था उसे देख कर ड्राइंग बनानी थी। हमारा संध्या का क्लास था जो आठ-नौ बजे तक चलता था। एक दिन ऐसा हुआ कि कंकाल सामने टंगा था और हम लोग उसे देख कर ड्राइंग कर रहे थे। अचानक बिजली चली गयी और अंधेरे में वह कंकाल और अधिक चमकने लगा। हमारे कुछ साथी बहुत शरारती किस्म के थे। वे हम सब को डराने के लिए बोले-यह कालेज कभी एक जमींदार का बंगला था। कहते हैं जमींदार अपने दुश्मनों को लाता था और यहीं खून कर नीचे के तहखाने में गाड़ देता था। अब आप ही बताइए सामने कंकाल टंगा हो और कोई ऐसी कहानी सुनाए कि इस ब्लिडिंग के तहखाने में लाशें गाड़ी जाती थीं तो कलेजा मुंह को आयेगा ही। खैर किसी तरह से हमने फाइन ऐंड विजुअल आर्ट का वह डिप्लोमा कोर्स पूरा किया जो बाद में डिग्री कोर्स हो गया। आगे बढ़ने से पूर्व होरीलाल जी के विनोदी स्वभाव का प्रसंग। आर्ट कालेज से मैं होरीलाल जी ठनठनिया काली बाडी तक पैदल आते थे फिर वे अपने घर चले जाते और मैं 46 नंबर बस पकड़ कर कांकुड़गाछी चला आता। एक दिन रास्ते में उन्हें दो बड़े-बड़े पान बनवाते देख मैंने पूछा- दो पान किसके लिए। वे बोले- तूली (होरीलाल जी की बेटी) की मां के लिए। पता नहीं क्यों सुबह से मुंह फुलाये है। जाते ही दो बड़े-बड़े पान थमा दूंगा। इन्हें खत्म करते करते उसका गुस्सा भी खत्म हो जायेगा। हमारा कोर्स खत्म हुआ तो परीक्षा की बारी आयी। पता नहीं क्या विवाद था कि कालेज में परीक्षा नहीं हो पा रही थी। बड़ी मुश्किल से धर्मतला के एनसीसी टेंट में परीक्षा आयोजित करने का कार्यक्रम बना। अब माडेल कहां से जुटाया जाये। हमारे प्रिंसिपल को एक देशवाली आदमी भुने चने बेंचते दिखा। छात्रों में मैं ही एक हिंदीभाषी था। प्रिंसिपल ने कहा –जाओ तुम्ही इस आदमी को माडेल बन कर बैठने को राजी करो। यह जरूर कहना कि रुपये मिलेंगे। मैं गया और उस आदमी को समझा –बुझा कर ले आया। वह माडेल के रूप में बैठा ही था कि हमारे कालेज के कुछ परले दर्जे के शैतान छात्रों ने उससे कहा-जानते हो तुम्हारी तस्वीर क्यों बनायी जा रही है। यह तस्वीर पुलिस को दे दी जायेगी और पुलिस कल से तुम्हारा यहां चना बेचना बंद करवा देगी। तुम्हें इतना सुनना था कि वह आदमी चने से भरा अपना टोकरा उठा कर तेजी से भागता हुआ बाहर निकल गया। प्रिंसिपल ने यह देखा तो मुझसे पूछा- क्या हुआ यह माडेल भाग क्यों गया? मैंने कहा-हमारे कुछ साथियों की करतूत से उन्होंने उसे डरवा दिया कि यह जो तुम्हारी तस्वीर बना रहे हैं उसे पुलिस को दे देंगे और वह तुम्हें गिरफ्तार कर लेगी। प्रिंसिपल ने दोनो छात्रों को बहुत डांटा और मुझसे कहा- देखो एक बार कोशिश करो उसे मनाने की। बड़ी मुश्किल से यह एनसीसी टेंट मिला है अगर यहां भी परीक्षा ना हो पायी तो फिर नहीं ही होगी। प्रिंसिपल की आज्ञा पाकर मैं दौड़ा-दौड़ा गया। चना बेचनेवाला वह व्यक्ति पास ही मिल गया। मैंने उसे समझाया कि वे छात्र बदमाश हैं। वे नहीं चाहते कि कुछ घंटे यहां बैठने के तुम्हें अच्छे-खासे पैसे मिल जायें। तुम मुझ पर विश्वास करो पहले पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती और अगर ऐसा कुछ हुआ भी तो मैं अखबार में काम करता हूं मैं तुम्हें छुड़ा लूंगा। मैं अखबार में काम करता हूं लगता है यह बात उसे भरोसे की लगी। वह आया और माडेल के रूप में बैठा और हमारी परीक्षा संपन्न हुई। एक कालेज की परीक्षा एनसीसी टेंट में 



हो रही है यह अपने आप में एक खबर थी। क्या कारण है कि अपना कालेज होने के बावजूद छात्र वहां से दूर एक एनसीसी टेंट में परीक्षा दे रहे हैं।  कालेज में परीक्षा होती तो माडेल के लिए चनेवाले को ना पकड़ना होता। वहां तो रेगुलर बेसिस पर पुरुष और महिला माडेल थीं जिनको दैनिक पेमेट दिया जाता था। टेंट में परीक्षा हो रही है तो इसे कवर करने आनंदबाजार पत्रिका का फोटोग्राफर आया। यह फोटो जो ऊपर  आप देख रहे हैं उसमें लाल तीर का निशान जिस तस्वीर पर लगा है वह मेरी है। यह फोटो परीक्षा के समय की है। (क्रमश:)

Tuesday, January 17, 2023

 






लोग ‘रविवार’ को आखिरी पृष्ठ से क्यों पढ़ते थे?

 


आत्मकथा-52  


दिन बीतते रहे रविवार हिंदी साप्ताहिक लोकप्रियता के शिखर चढ़ता रहा। हम उससे जुड़े रहे थे इसलिए ऐसा कह रहे हैं यह बात नहीं है। आप खुद पता कर देख सकते हैं कि उस वक्त रविवार की टक्कर की कोई पत्रिका नहीं थी। रविवार ने कभी सच को सच की तरह कहने में कोई झिझक नहीं दिखाई। ऐसे में अक्सर किसी ना किसी प्रदेश से उस पर मुकदमा होता ही रहता था। आनंद बाजार प्रकाशन में इससे निपटने के लिए एक लीगल डिपार्टमेंट था ऐसे मुकदमे वही संभालता था जिसके प्रमुख थे विजित बसु जो हमारी पत्रिका रविवार के प्रिंटर भी थे।

 कुछ दिन और बीते,आनंद बाजार प्रकाशन से एक बच्चों की बंगला पत्रिका आनंद मेला निकलती थी। उसे हिंदी में मेला के नाम से निकालने की योजना बनी तो उसके संपादक के रूप में योगेंद्र कुमार लल्ला जी को बुलाया गया। उनके साथ कथाकार सिद्धेश भी जुड़े और हरिनारायण सिंह भी। कुछ दिन बाद ही मेला निकलने लगी और बाल पाठकों में लोकप्रिय हुई।

 यही समय था जब सिद्धेश जी ने हिंदी भाषा के प्रख्यात कथाकारों की कहानियां बांग्ला में अनुदित करा कर आनंद बाजार प्रकाशन की बांग्ला की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका देश में प्रकाशित करवाना प्रारंभ किया। इस क्रम में मेरा भी नंबर आया और मेरे हिस्से आयी प्रसिद्ध राजस्थानी कथाकार रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कहानी यशोदा। मैंने उसका बांग्ला अनुवाद किया और वह देश पत्रिका में प्रकाशित हुई। मेरे लिए सबसे हर्ष की बात यह थी कि बांग्ला पत्रिका देश के स्वनाम धन्य संपादक सागरमय घोष ने पीठ ठोंक कर प्रशंसा की और कहा-तुम हिंदी भाषी हो पर तुम्हारे लिखे पर मुझे कलम नहीं चलानी पड़ी।

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आगे बढ़ने से पहले यह बताता चलूं कि हमारे रविवार में श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी उपन्यास, शरद जोशी का व्यंग्य स्तंभ नावक के तीर

नियमित छपता था। उसी वक्त हम लोगों की पत्रिका के लिए कोल इंडिया की ओर से कई पृष्ठों का विज्ञापन मिला। उसका विज्ञापन मैटेरियल लाने का भार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने मुझ पर और हरिनारायण सिंह पर सौंपा।  हम दोनों गये और वहां के प्रमुख कृष्ण चंद्र चौधरी जी से बात की। उन्होंने सब कुछ समझा कर हमें विज्ञापन की सामग्री सौंपी फिर हम लोगों से बोले-अरे भाई अपने संपादक जी से बोलिए हमें भी कुछ लिखने का अवसर दें।

हम लोगों ने कहा-आप अपना लिखा लेकर आइए हमारे संपादक जी से मिलिए वे अवश्य आपका लिखा छापेंगे।

कुछ दिन बाद ही कृष्णचंद्र चौधरी हमारे रविवार के प्रफुल्ल चंद्र सरकार स्ट्रीट कोलकाता स्थित कार्यालय में आये।

वे सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से थोड़ी देर बात करने के बाद चले गये। जीत् समय वे अपना एक मैटर देते गये। उनके जाने के बाद सुंरेंद्र जी चौधरी जी का लिखा मैटर पढ़ने लगे। वे थोड़ी पढ़ते फिर तेजी से ठहाका लगाते पढ़ते फिर ठहाका।

थोड़ी देर बाद उनकी हंसी थमी तो वे बोले –भाई इस आदमी के तो जैसे तीसरी आंख है। क्या है और क्या देख लिया।

यह उन दिनों की बात है जब कांग्रेस का चुनाव चिह्न गाय और बछ़ड़ा था। चौधरी साहब ने लिखा था कि कुछ कांग्रेस गाय और बछड़ा को देख कर खुसफुस कर रहे थे-अरे गाय तो यह रही बछड़ा कहां है। किसी कांग्रेसी नेता ने उस वक्त के चर्चित युवा नेता की ओर इशारा कर दिया।

एसपी (हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह) ने कहा हम छापेंगे लेकिन इस स्तंभ का नाम क्या रखें पहले से ही हम शरद जोशी जी का नावक के तीर छाप रहे हैं।

 मैंने कहा –भैया आपने ही तो कहा-अगले के तो जैसे तीसरी आंख है। तीसरी आंख ही रख लीजिए।

स्तंभ का नाम तीसरी आंख रख दिया गया। यह रविवार के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित होता था। कुछ महीने में ही यह स्तंभ बहुत लोकप्रिय हो गया।

हम लोगों को इसका पता तब चला जब रविवार में हमने एक फार्म प्रकाशित कियारविवार और आप। इसका उद्देश्य यह जानना था कि पाठकों को रविवार में क्या पसंद आता है और उसके बारे में उनकी क्या राय है।

आप यकीन नहीं करेंगे कि उस वक्त शत प्रतिशत पाठकों की यही राय थी कि हम रविवार को आखिरी पृष्ठ यानी तीसरी आंख स्तंभ से पढ़ना शुरू करते हैं।

कृष्णचंद्र चौधरी सरकारी नौकरी मे थे और अपने व्यंग्य बाण तीसरी आंख से वे सरकार पर भी चलाते थे। इस पर आपत्ति आयी तो फिर उन्होंने अपना लेखकीय नाम बदल कर किट्टू कर लिया और इसी नाम से तीसरी आंख स्तंभ लिखते रहे।

एक बार हमारे संपादक सुरेंद्र जी ने कृष्णचंद्र चौधरी को जो अब किट्टू हो गये थे अपने कार्यालय बुलाया। कुछ समय में ही बिहार में चुनाव होने वाले थे। सुरेंद्र जी ने किट्टू जी से कहा-आपको एक बड़ा काम सौंप रहा हूं बिहार में चुनाव होनेवाले हैं आपको बिहार का कवरेज करना है।

किट्टू जी एसपी से अनुनय करते से बोले-अरे सुरेंद्र जी क्यों हमें कांटों में घसीटना चाह रहे हैं। बस थोड़ा-मोड़ा लिख लेते हैं, रिपोर्टिंग हमारे बल की नहीं।

 सुरेंद्र जी ने कहा- आपसे रिपोर्टिंग कौन करा रहा है, हम तो चाहते हैं कि आप बिहार घूम आयें और वहां जो देखें वह लिख दें। हम उसे बिहारी की  डायरी में छाप देंगे।

 इस पर किट्टू मान गये और उन्होंने बिहार घूमा खूब घूमा और उनकी आंखों से देखे गये बिहार को रविवार ने अपने पाठकों को दिखाया। लोगों ने वह बिहार डायरी बार-बार पढ़ी। एसपी भी किट्टू की कलम के कायल हो गये। एक व्यंग्यकार ने एक प्रदेश की बदहाली का वह कच्चा चिट्ठा खोला कि खुद बिहारवासी दंग रह गये। सभी चौक गये बिहार की सच्ची तस्वीर देख कर। कृष्ण चंद्र चौधरी थे तो दक्षिण के लेकिन फर्राटे से भोजपुरी बोलते थे।

 बाद के दिनों में वे सन्मार्ग हिंदी दैनिक में भी स्तंभ लिखने लगे थे।  इसके कुछ अरसे बाद वे अपने बेटे के पास मुंबई चले गये और वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।

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उदयन शर्मा दिल्ली से कुतुबनामा स्तंभ लिखते थे जो एक तरह से दिल्ली डायरी थी। दिल्ली की राजनीतिक गतिविधियों पर आधारित थी यह। उदयन जी बड़े हिम्मत थी एक बार उन्होंने तय किया कि बीहड़ में जाकर फूलन देवी से भेंट करनी है। उन पर स्टोरी बनानी है। उन्होंने लेखक कल्याण चटर्जी को साथ लिया और बीहड़-बीहड़ फूलन देवी की तलाश करने लगे। अंतत: उन्हें सफलता मिली। उनसे भेंट के वक्त के दृश्य के बारे में वे लिखते हैं-नार्थ स्टार के जूते हम दोनों के पैरों में थे और वही फूलन देवी के पैरों में भी थे। फूलन की स्टोरी तो कर ली अब समस्या यह थी कि कवर पर फोटो किसकी दी जाये। अब उदयन जी और कल्याण बनर्जी के दिमाग में आया क्यों ना फूलन के गांव बहमई चला जाये। वहां जाकर उन लोगों ने फूलन की बहन को देखा जिसका चेहरा थोड़ा अपनी बहन की तरह था। बस फिर क्या था आर्टिस्ट की मदद से फूलन की बहन की पेंटिंग बनायी गयी और वही रविवार के कवर पर छपी। कहते हैं जब किसी ने फूलन को रविवार की कापी दिखायी तो उसने हंसते हुए कहा-यह मैं थोड़े ही हूं यह तो मेरी बहन की फोटो लगती है।

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दफ्तर से बाहर सुरेंद्र प्रताप जी का एक अनोखा रूप हमने उनके गृहनगर श्यामनगर के गारुलिया अंचल में देखा। गारुलिया में एसपी  अपने बड़े भाई नरेंद्र प्रताप सिंह, छोटे भाई सत्येंद्र प्रताप सिंह और परिवार के बाकी सदस्यों के साथ रहते थे। जब से उन्होंने आनंद बाजार प्रकाशन में काम करना प्रारंभ किया वे कोलकाता के पाम एवेन्यू स्थित एक फ्लैट में रहते थे। गाहे-बगाहे वे गारुलिया भी जाते रहते थे। गारुलिया में हमारे परिचित शिवशंकरलाल श्रीवास्तव का घर है। एक बार उन्होंने सपरिवार अपने यहां बुलाया। हम वहां पहुंचे तो भैया ने कहा-यहीं कहीं सुरेंद्र जी का घर है चलो देखें कहीं वे घर ना आये हों। संयोग से सुरेंद्र सिंह घर में मिल गये। साथ में उनके भैया नरेंद्र प्रताप भी थे। वे मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म से उनके जरिए परिचित थे और उन दिनों उनके द्वारा लिखे जाने वाले लस्टम-पस्टम व व्यंग्य कविताएं पढ़ते थे।

हम लोग अभी बातें कर ही रहे थे कि तभी एसपी बोले- चलिए आपको फुटबाल मैच दिखाते हैं।

हम उनके पीछे-पीछे हुगली नदी (जो गंगा है जिसकी एक शाखा बांग्लादेश की तरफ गयी है और पद्मा कहाती है) के किनारे एक मैदान में गये। बरसात के दिन थे चारों ओर गड्ढ़े थे जिन पर पानी भरा था। आनन-फानन शुरु हुआ फुटबाल का खेल। एसपी को हमने पहले बार इस तरह उत्साह से फुटबाल खेलते देखा था। कुछ देर में शाम होने को आयी और खेल खत्म हुआ। तब तक सभी कीचड़ से बुरी तरह नहा गये थे। एसपी का भी चेहरा पहचान में नहीं आ रहे थे। सभी हुगली नदी में नहाने चले गये और हम लौट पड़े कोलकाता की ट्रेन पक़ड़ने के लिए। (क्रमश:)

 

Friday, December 23, 2022

जब मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के दर्शन का सौभाग्य मिला

आत्मकथा-51

कोलकाता लौट कर दो दिन विश्राम करने के बाद मैं आफिस पहुंचा। रविवार हिंदी साप्ताहिक के मेरे सभी संपादकीय साथियों और हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह जी ने मेरे पिता की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त की। सबने उनका श्राद्ध कर्म विधिवत पूर्ण होने का समाचार सुन संतुष्टि व्यक्त की। मैने कार्यालय में अपनी नियत भूमिका निभानी शुरू कर दी लेकिन सच कहूं पिता के जाने का दुख भुला नहीं पा रहा था। माना कि मेरे पिता वर्षों से नेत्रहीन थे वह भी एक झोलाछाप वैद्य के चलते पर मेरे यही एहसास काफी था कि मेरे पिता सशरीर मेरे साथ तो हैं।

जब गांव में था पिता जी को हमेशा मेरी चिंता रहती। कहीं बाहर जाता तो प्रभु को याद कर हाथ जोड़ लेते जैसे कह रहे हों-प्रभु बच्चा बाहर जा रहा है उसके साथ रहिएगा।

 सच कहूं उनके आशीर्वाद ही थे जो मेरे साथ कवच बन कर चलते थे और अगर कोई विपत्ति आती तो शायद मैं उनके बल पर ही उनसे पार पा लेता था। पिता चले गये लेकिन मुझे इस बात का एहसास था कि वे जहां भी जिस रूप में भी हैं मुझे आशीर्वाद दे रहे होंगे। यह सच है कि किसी परिजन के देहावसान के बाद वह भैतिक रूप में हमारे बीच भले ही ना रहें उनकी स्मृति हमेशा हृदय में रहती है और यह एहसास भी कि वे जहां भी हैं हमें आशीर्वाद ही दे रहे होंगे।

*

यह तो मैं पहले ही बता चुका हूं कि सुदीप जी के कहने पर सुरेंद्र जी फिल्मी लेख मुझसे लिखवाने लगे थे। उसी दौरान हमारे यहां एक फिल्मी स्तंभ सुनते हैं छपने लगा था जो प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार देवयानी चौबाल अंग्रेजी में लिखती थीं जिसका हमारे एक संपादकीय साथी हिंदी में अनुवाद करते थे। आगे बढ़ने से पहले देवयानी चौबाल का थोड़ा परिचय दे देना जरूरी समझता हूं। स्वनाम धन्य देवयानी चौबाल फिल्मी दुनिया में बहुत   विख्यात (कुछ हद तक कुख्यात भी क्योंकि उनका लिखा कभी-कभी किसी किसी अभिनेता को इतना चुभ जाता था कि वे उनकी जान के प्यासे हो जाते थे) रही हैं। वे एक सिने पत्रिका स्टार एंड स्टाइल में एक स्तंभ लिखती थीं नीताज नैटर। यह स्तंभ बहुत ही लोकप्रिय था। कुछ लोग तो देवयानी चौबाल का लिखा यह स्तंभ पढ़ने के लिए ही पत्रिका खरीदते थे। उनके वैसे ही फिल्मी गासिफ सुरेंद्र जी रविवार में सुनते हैं स्तंभ में छापते थे। पता नहीं क्यों उसका अनुवाद वे मुझसे कराना चाहते थे। खैर वे संपादक थे उनका हर आदेश मानना हमारा कर्तव्य था। मैंने हां कर दी और उस अंक से देवयानी चौबाल के फिल्मी गासिप का मैं अनुवाद करने लगा।

 समझ नहीं पा रहा था कि आखिर सुरेंद्र जी ने देवयानी चौबाल का स्तंभ मुझसे ही क्यों अनुवाद करवाना चाहा। इसका जवाब दो महीने बाद मुझे तब मिला जब सुरेंद्र प्रताप सिंह जी ने मुझे अपने केबिन में बुलाया और एक फैक्स संदेश मेरे हाथों में थमाते हुए कहा-आप सवाल कर रहे थे ना कि मैं आपसे अनुवाद क्यों करा रहा हूं देवयानी चौबाल का मैटर। देखिए देवयानी का यह फैक्स आपके सवाल का जवाब है।

मैं शपथ पूर्वक कह रहा हूं मैं इस आत्मकथा में जो कुछ भी लिख रहा हूं वह सच है सच के सिवा कुछ भी नहीं। देवयानी चौबाल का वह फैक्स संदेश मेरे कार्य का प्रमाणपत्र ही था। उसमें लिखा था-सुरेंद्र जी जो भी मेरे स्तंभ का अनुवाद कर रहे हैं उन्हें मेरी ओर से बधाई दीजिएगा। उन्होंने मेरी स्टाइल को क्या खूब समझा है कि लिखा उन्होंने है और लगता है जैसे मैंने ही हिंदी में लिखा हो।

सुरेंद्र जी मेरी तरफ देख कर मुसकराये और बोले-अब मिल गया ना आपको अपने सवाल का जवाब मैं क्यों आपसे देवयानी के लिखे का अनुवाद करवा रहा हूं। इस फैक्स को रख लीजिए यह आपके लिए ऐसा प्रशंसापत्र है जो एक विख्यात फिल्म पत्रकार ने दिया है।

 मैंने सहर्ष उसे अपने पास रखा लेकिन कुछ दिन में ही उसके सारे अक्षर उड़ गये इसलिए मैं उसे साझा नहीं कर पा रहा। आपको मेरे कहे पर यकीन हो तो बहुत अच्छा ना हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता।

रविवार अंक दर अंक हिंदी पत्रकारिता में नये आयाम जोड़ रहा था। न दैन्यम् न पलायनम् (ना दीनता ना पलायनवादी रुख) के मूलमंत्र को लेकर चल रहा था और अच्छे-अच्छों की खबर ले रहा था चाहे वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता हों या भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी। सच कहें तो उन दिनों भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों में रविवार का खौफ था। स्थिति यह थी कि राज्यों की विधानसभाओं में रविवार प्रमाण के रूप में उछाला जाने लगा था। इसी वजह से एक बार अनर्थ हो गया। सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से मिलने अक्सर उनके कुछ पुलिस वाले मित्र आते थे। एक बार तीन-चार पुलिस वाले आये और उन्होंने एसपी( सभी सुरेंद्र जी को इसी नाम से पुकारते थे) के बारे में पूछा। हमारे एक मित्र ने सुरेंद्र जी के केबिन की ओर इशारा किया वे धड़धड़ाते हुए एसपी के कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस गये. थोड़ी देर बाद उन लोगों के साथ एसपी निकले और संपादकीय सभी साथियों को संबोधित करते हुए बोले-अरे भाई कोई मुझसे मिलने आये तो पहले मुझे सूचित कर दिया कीजिए। यह मध्यप्रदेश से आये पुलिस अधिकारी हैं जो हमारी पत्रिका में छपी एक स्टोरी पर मामला होने पर मुझे गिरफ्तार करने आये हैं। गिरफ्तार हो चुका हीं मैं जमानत लेने जा रहा हूं।

इस तरह की परेशानियों का सामना अक्सर करना पड़ता था जिसके लिए एक कानूनी विभाग कार्यालय में था जिसे विजित दा संभालते थे। वे बहुत खुश होते थे जब भी कोई मामला होता था।

उदयन शर्मा
समय बीतता गया। दिल्ली में हमारे विशेष संवाददाता थे उदयन शर्मा। वे भारत के महान शिकार कथा लेखक श्रीराम शर्मा के पुत्र थे। श्रीराम शर्मा जो बाद में विशाल भारत के संपादक भी बने। उदयन जी एक साप्ताहिक स्तंभ कुतुबनामा लिखते थे। यह एक तरह से दिल्ली डायरी होती थी और यह रविवार के अंतिम पृष्ठ में छपती थी।

एक बार वे कोलकाता कार्यालय आये। वे पहली बार आये थे तो हमारे संपादक एस पी सिंह ने सारे संवादकीय  साथियों से उनका परिचय कराया।

 सबका परिचय कराते हुए जब एसपी उन्हें लेकर हमारे संपादकीय साथी रहे राजकिशोर के पास पहुंचे तो उदयन से बोले-तुम्हारी लिखी स्टोरी की चीरफाड़ यही करते हैं।

 मुझे अच्छी तरह याद है कि उदयन जी ने राजकिशोर को संबोधित करते हुए कहा था-राजकिशोर जी मैं हिंदी प्रदेश से हूं हिंदी अच्छी तरह से जानता हूं। आपको मेरी स्टोरी संपादित करने का पूरा अधिकार है इसे रिराइट तो मत करिए। मेरी अपनी एक स्टाइल है कहीं तो उसे अर्थात उदयन शर्मा को भी दिखने दीजिए। आप रिराइट करते हैं तो उसमें उदयन शर्मा नहीं आप ही आप नजर आते हैं।  स्पष्ट है कि उदयन की इस टिप्पणी पर राजकिशोर को झेंप जाना पड़ा।

*

हजारीप्रसाद द्विवेदी


यह घटना उन दिनों की है जब मोरार जी देसाई की सरकार गिर गयी थी। सुरेंद्र जी रविवार की आमुख कथा की तैयारी कर रहे थे जिसका शीर्षक था मोरार जी के बाद कौन।इसमें मुख्य आमुख कथा के साथ विभन्न वर्ग के लोगों के विचार भी इसमें सम्मिलित करने थे। मेरे जिम्मे शिक्षिका का इंटरव्यू आया और मेरी खोज भारती मिश्रा जी पर जाकर खत्म हुई। उनकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि वे हिंदी के मूर्धन्य विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुत्री हैं। मैंने उनका इंटरव्यू लिया। उन्होंने मोरार जी के बाद कौन पर अपने विचार व्यक्त किये। जब मैं वहां से लौट रहा था तो देखा घर में मेरी बायीं तरफ हिंदी के मूर्धन्य विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी एक आसन पर विराजमान हैं। मैंने जाकर उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य था कि मुझे उन जैसे अतुलनीय विद्वान के आशीर्वाद मिले। उन्होंने मेरा परिचय जानना चाहा मैंने उनको अपना परिचय दिया। भारती मिश्रा जी के घर से निकलते वक्त पंडित जी के आशीर्वाद और उनके दर्शन की पुण्य स्मृति मेरे साथ थी। (क्रमश:)


Sunday, December 18, 2022

बाबा के निधन के बाद हम अम्मा को कोलकाता ले आये

 आत्मकथा-50

जिस दिन पिता जी के श्राद्ध कर्म और ब्राह्मण व गांव भर के लोगों के भोजन का दिन था उस दिन हमारे घर-आंगन में सुबह से ही बड़ी गहमागहमी थी। गांव की महिलाएं पूड़ियां बेलने के लिए जुट गयी थीं। और भोजन बनाने वाले ब्राह्मण भी अपने काम में लग गये थे। मुझे प्रसन्नता इस बात की थी कि मान्यवर काशीप्रसाद काका के समझाने पर गांव वालों ने सारे भेदभाव भुला कर मेरे आमंत्रण को स्वीकार कर लिया था। एक और बड़ी खुशी यह भी थी कि बिलबई से भैया रामखिलावन त्रिपाठी के चचेरे भाई और उनके घर की बहुए आ गयी थीं और काम में हाथ बंटा रही थीं।

हमारा आंगन बहुत बड़ा था। उसी के एक किनारे मैं उस पूजा में बैठा था जो मेरे बाबा (पिता जी) की आत्मा की शांति के लिए की जा रही थी। दोपहर होते ही गांव के निमंत्रित लोग आने लगे। तब तक पूजा भी समाप्त हो गयी थी। लोगों को जीमने के लिए पंगत में बैठाना शुरू किया जा चुका था। पूजा करानेवाले ब्राह्मण पहले ही भोजन ग्रहण कर जा चुके थे। शाम आते-आते सभी कार्य संपन्न हो गया। बिलबई से आये रिश्तेदार उसी दिन लौटने वाले थे लेकिन उन्हें रोक लिया गया। सुबह होते ही वह वापस लौट गये। पूजा आदि हो जाने के बाद हमारे बेटे की बधाई पूजने का रास्ता साफ हो गया। एक दिन बाद यह शुभ कार्य भी कर लिया गया। ग्राम देवी व अन्य देवताओं के यहां मत्था टेकने के बाद हमने अपने पूर्वजों के उस घर की दहलीज भी पूजी जो कभी हमारे दादा मुखराम शर्मा जी का हुआ करता था। जब मेरे बाबा (पिता जी) अपने जीजा शिवदर्शन तिवारी की मदद के लिए बिलबई चले गये और फिर जीजा के निधन के बाद भांजे रामखिलावन की परवरिश के लिए पहले बिलबई और फिर बांदा चले गये और वर्षों गांव जुगरेहली नहीं लौटे तो गांव के लोगों ने कई एकड़ खेतों और पैतृक मकान पर कब्जा कर लिया था। बाद में जब बाबा जुगरेहली लौटे तो उन्हें रहने के लिए घर गंगाप्रसाद द्विवेदी जी ने दिया था।

देवी-देवताओं की पूजा के बाद घर के द्वार पर बधाई बजने लगी। गांव के लोगों ने आग्रह किया-बधाई के दिन बेटे की मां को भी नाचना पड़ता है। गांव में मेरी पत्नी वंदना को घूंघट डाले रहना पड़ता था। उसने सिर हिला कर मना कर दिया कि वह नहीं नाचेगी। खुशी में लोगों ने खूब बंदूकें दागीं। अब का नहीं जानता पहले हमारे बुंदेलखंड में खुशी के किसी भी आयोजन में बंदूकें दागी जाती थीं।

हमारे सभी कार्य पूरे हो चुके थे अब लौटने की बारी थी लेकिन उससे पहले और भी कुछ काम निपटाने थे जिनमें बचे हुए खेत बेचना और एकमात्र जो गाय थी उसे किसी को देना था। बबेरू जाकर कचहरी में मैंने गांव के ही एक व्यक्ति के नाम अपने खेत रजिस्टर करा दिये। एक गाय थी तो भाई बाबूलाल यादव जी को दे दी क्योंकि हमारी गायें पहले उनकी गायों के साथ चरती थीं। मां को गांव में छोड़ने का कोई मतलब नहीं था। हमें चौबीस घंटे उनकी फ्रिक लगी रहती। कोलकाता इतना नजदीक भी नहीं था कि दो-चार घंटे में हम उनकी मदद के लिए पहुंच सकें। उन्हें कोलकाता ले आना ही ठीक था। भैया रामखिलावन त्रिपाठी और भाभी निरुपमा त्रिपाठी का भी यही मत था। अम्मा भी राजी हो गयीं क्योंकि अकेले रहना उनके लिए भी ठीक नहीं था।

मेरी अम्मा मीरा त्रिपाठी मेरी पत्नी वंदना त्रिपाठी के साथ

भैया बांदा जाकर सबके ट्रेन टिकट ले आये। नियत दिन  घर की चाबी हमने काशीप्रसाद काका को सौंप दी और अम्मां को लेकर बस पकड़ने के लिए गांव से चल पड़े। हमारे साथ गांव के आधे लोग रोते-बिलखते सड़क की ओर बढ़ चले।

वे सभी कह रहे थे-आप हमारे प्राण लिये  जा रहे हैं। एक तिवारिन दाई (मेरी अम्मा को गांव वाले इसी नाम से पुकारते थे) ही हैं जो हर किसी के दुख-दर्द में मदद करने में सबसे आगे रहती हैं। इनको दवाओं का भी अच्छा ज्ञान है सरकारी अस्पताल से लौटे लोगों तक को ये अपनी दवाई से ठीक कर देती थीं। अब हमें हमारे बच्चों को कौन दवा देगा।

हमारे पास उनको ढाढस बंधाने के लिए शब्द नहीं थे। हम बस यही कहते –यहां हम इनको अकेले किसके भरोसे छोड़ें। इनको जब भी गांव की याद आयेगी हम इन्हें आपसे मिलाने ले आया करेंगे।

हमारे आश्वासन से भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे रोते-बिलखते रहे। बांदा जाने वाली हमारी बस आ गयी थी। हमने सबको हाथ जोड़ कर बस पकड़ ली। मुझे पूरा यकीन है कि गांव वाले अपनी तिवारिन दाई के लिए बहुत रोये होंगे, कई दिन तक रोये होंगे। खासकर तब जब गांव में कोई बीमार पड़ा होगा और उसे तिवारिन दायी कि याद आयी होगी। हमारे पास कोई चारा नहीं था, अम्मा को यों लावारिस छोड़ना ना न्याय संगत होता और ना मानवता की दृष्टि से उचित। उन्हें गांव छोड़ कर हम भी कोलकाता में चैन से नहीं रह पाते।

बांदा पहुंच कर हमने कोलकाता के हावड़ा जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। मैंने गौर किया कि ट्रेन के छूटते ही मां ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। मेरी समझ में यही आया कि उन्होंने उस ग्राम देवता को प्रणाम किया जो इतने वर्षों तक उनका सहारा रहा। जिसका उन्होंने अन्न जल खाया पिया। जहां अपनी एक संतान गर्भ में खोने के बाद संतान के रूप में मैं मिला। अम्मा को गांव से लाते समय मैं सोच रहा था कि जैसे मैं अपनी उस बहुमूल्य निधि को ला रहा हूं जो अब तक मुझसे दूर थी और जिसकी चिंता हमें बराबर सगी रहती थी। सोचा हमारे साथ जैसे रहेंगी हमारे नजरों के सामने तो रहेंगी। मां को साथ लाते वक्त गांव से जुड़ी एक-एक यादें मस्तिष्क में एक-एक कर उभरने लगीं। वह हमारी गोरुहाई (गायें बांधने की जगह) उसमें रजनी और दूसरी गायें जो उनका नाम पुकारने से ही रंभाने कर जवाब देती थीं। उनकी गरदन सहलाओ तो आंख बंद कर आनंद का संकेत देती थीं। बचपन में मां बहुत जिद करती थीं पर मैं गाय का दूध नहीं  पीता था। वे जब दही मथने बैठती तो कटोरा लेकर उनके पास जा बैठता था। वे कहतीं-दूध नहीं पियोगे आ गये मक्खन, मट्ठे की तलाश में। मां झिड़कती जरूर थीं पर बाद में आधा कटोरे मट्ठे में ताजे मक्खन का लोंदा डालने से नहीं भूलती थीं। मैं चाव से उसे पाता था। भगवान  की कृपा से घर में दूध, घी सब होता था। जब घर में नहीं होता तो मां खरीद कर मुझे खिलाती थीं। मेरे लिए फिक्र इतनी कि थोड़ी-सी खरोंच भी लग जाये तो परेशान हो जाती थीं। बाबा का प्यार ज्यादा दिनों तक मुझे नहीं मिल सका क्योंकि जब मैं छोटा ही था उनकी आंखें खराब हो गयी थीं। जब उन्हें दिखता था तो वे मुझे खेतों तक ले जाते और वहां मेरे नन्हें कदम छुला कर कहते- ये हमारे खेत हैं।  बाबा (मेरे पिता जी) की आंखें जब ठीक थीं गांव में उनकी तरह का साहसी व्यक्ति दूसरा नहीं था। वे बंदूक, तमंचा (वन शाटर),भाला आदि तमाम तरह के हथियार चलाना जानते थे। स्पष्टवादी इतने कि हर झूठा और छल प्रपंच वाला व्यक्ति उनके सामने कुछ बोलने से पहले सौ बार सोचता था।  उनकी आंखें खराब होने के बाद अम्मा ने ही मुझे पाला। यह पहले ही बता आये हैं कि मेरे ममेरे भाई रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म जी को मेरे बाबा और अम्मा का प्यार पहले मिला जब वे सभी हमारे जिले बांदा में रहते थे। मेरा जन्म बाद में हुआ जब मेरे बाबा और अम्मा बांदा छोड़ कर बबेरू प्रखंड के अपने पैतृक गांव जुगरेहली आ गये। जुगरेहली नाम का अर्थ यों तो समझ नहीं आया पर हमने यही अर्थ लगा लिया कि जो जुगों (युगों) से रही वह जुगरेहली। वैसे यहां बता दें की कुर्मी जाति के लोग हमारे गांव को श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि कुर्मियों के जो बारह गांव हैं वहां के लोग अपनी बेटियों का ब्याह जुगरेहली में करना अच्छा समझते हैं।

 *

दूसरे दिन सुबह –सुबह ट्रेन हावड़ा पहुंत गयी। अम्मा की यह पहली इतनी लंबी ट्रेन यात्रा थी। ईश्वर की कृपा से उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई। हम कोलकाता के कांकुड़गाछी इलाके के अपने फ्लैट पहुंचे तो अम्मा के रहने का उचित प्रबंध कर दिया गया। मां को कुछ दिन तो अटपटा लगा फिर वे वहां के माहौल से सहज हो गयीं और बांग्ला भाषा ना जानते हुए भी पास-पड़ोस के लोगों से बुंदेली मिश्रित खड़ी बोली में बात करने लगीं। कुछ दिन तक उन्हें गांव की बहुत याद आयी लेकिन फिर यह सोच कर कि अब अपने बच्चों के बीच रहने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं वे कोलकाता के हमारे फ्लैट में रहने लगीं। हिस्टीरिया के दौरों ने उन्हें यहां भी नहीं छोड़ा था। वैसे वे अब जल्दी नहीं देर से आते थे लेकिन जिस दिन आते उन्हें बेसुध और बेचैन कर जाते। काफी दवा करायी गयी लेकिन इसमें कोई फर्क नहीं आया।

बताया ना कि बांग्ला भाषा ना जानते हुए भी वे आस-पड़ोस के लोगों को अपनी बात समझाने में सफल रहती थीं। उन्हें वे अपनी औषधियों के बारे में भी बताती थीं। इसके बारे में मुझे तब पता चला जब आसपास के लोगों ने मुझसे बताया कि-आपकी मां तो बहुत गुणी हैं कितनी तरह की औषधियां जानती हैं।

 तब मैं उन्हें बताता कि जिस व्यक्ति को बैलगाड़ी में सरकारी अस्पताल ले जाया गया और डाक्टरों ने कहा कि इसके पैर सेप्टिक हो गया है इसे काटना पड़ेगा नहीं तो यह पूरे शरीर में फैल जायेगा। आस-पास के कई गांवों में अम्मा की ख्याति थी यही सुन कर उसके लोग बैलगाड़ी में लाद कर अम्मा के पास लाये। अम्मा ने उसे देख कर कहा-पैर काटने की जरूरत नहीं, दवा और मलहम दिये दे रहे हैं एक महीने बाद तुम चल कर आओगे। उस व्यक्ति ने पूछा- कितना पैसा देना होगा।

अम्मा ने कहा –बस दवा का। मैं लोगों से इलाज का पैसा नहीं लेती।

वह आदमी दवा और मलहम बनवा कर ले गया। एक महीने बाद वह बैलगाड़ी में दो बोरे आंवले लाद कर लाया और बैलगाड़ी से उतर कर पैदल चलते हुए अम्मा के पास आया और उनके चरण छूकर बोला-आपने मेरा पैर कटने से बचा लिया। अब मेरी भी एक विनती आपको माननी होगी। आप पैसा नहीं लेतीं यह मैंने सुना है पर मैं अपने पेड़ के आंवले लाया हूं यह तो आपको लेने ही होंगे। अम्मा फिर मना नही कर सकीं और उस व्यक्ति के दो बोरे आंवले स्वीकार कर लिये। (क्रमश:)