Friday, September 29, 2023
हड़ताल के दौरान सांसत भरे दिन थे,दहशत भरी रातें
Monday, August 7, 2023
जब हड़ताल ने ‘रविवार’ की रफ्तार में लगा दिया ब्रेक
आत्मकथा-56
अपनी आत्मकथा में हम पहले ही बता आये हैं कि आनंद बाजार प्रकाशन का हिंदी साप्ताहिक रविवार भ्रष्टाचार, अनाचार और राजनीतिक अनीति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए विख्यात था। यह स्पष्ट है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं और किसी भी तरह के भ्रष्टाचार, अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाना जब हड़ताल ने ‘रविवार’ की रफ्तार में लगा दिया ब्रेक आपका ध्येय और उद्देश्य है तो कभी ना कभी आपको उनके प्रतिरोध या कहें विरोध का सामना करना ही पड़ेगा जिनके विरुद्ध आप आवाज उठा रहे हैं। रविवार के साथ कोई ना कोई मामला लगा ही रहता था। यह और बात है कि किसी रिपोर्ट पर मामला होने पर लीगल विभाग घबराता नहीं खुश होता था और मामले को आखिरी परिणति तक लड़ता था। किसी ऐसी रिपोर्ट के बारे में जिस पर कानूनी विवाद होने की आशंका रहती थी लीगल विभाग रिपोर्टर या लेखक से उस रिपोर्ट में किसी पर लगाये गये आरोपों से संबंधित डाक्युमेंट अवश्य मंगा लेता था। इससे होता यह था कि अगर वह व्यक्ति जिस पर आरोप लगाये गये हैं मुकदमा भी करता तो दस्तावेजी सबूतों के सहारे रविवार मामला जीत जाता था।
इस क्रम में एक मामला ऐसा भी
आया था जिसके बाद लगा कि रविवार के प्रकाशन पर संकट आ जायेगा लेकिन वह संकट भी पार
हो गया। हम लोग आश्वस्त हुए और रविवार भी
निरंतर शान से निकलता और पाठकों के दिल
में घर करता रहा। लोगों को इस बात की खुशी थी कि ठकुरसुहाती वाली पत्रकारिता के
दौर में एक पत्रिका तो ऐसी आयी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्ता के सर्वोच्च स्थान पर
भी चोट करने का दम रखती है।
*
सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक सुबह ऐसा कुछ हुआ जिसकी हमने कल्पना तक
नहीं की थी। हम कार्यालय पहुंचे तो देखा मेन गेट बंद था और वहां लाल रंग का बैनर
लगा दिया गया था जिसमें हड़ताल की सूचना थी। यूनियन के कुछ कर्मचारी नारेबाजी कर
रहे थे। जब मैं वहां पहुंचा उसके कुछ देर बाद आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन की बच्चो
की पत्रिका ‘मेला’ के सहयोगी साथी
हरिनारायण सिंह भी वहां पहुंच गये। हम दोनों ने हड़ताली यूनियन वालों को बहुत
समझाने की बात की कि भाई बंद किसी चीज का समाधान नहीं प्रबंधन से बात कर के जो
समस्या है उसे सलटा लीजिए। हमें मत रोकिए हमारी पत्रिका का बहुत काम बाकी है अंक
प्रेस में छोड़ना है।
मैंने और हरिनारायण सिंह ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने। तब तक और
पत्रकार आ गये थे, उन्होंने भी समझाया पर हड़ताली कर्मचारी हड़ताल करने पर कटिबद्ध
थे। उन्होंने द्वार नहीं खोला और नारेबाजी करते रहे। हम लोग वापस लौट आये।
दूसरे दिन इस उम्मीद में गये कि शायद प्रबंधन से हड़तालियों का समझौता
हो गया हो पर हमारी उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया जब हमने देखा कि हड़तालियों
की संख्या बढ़ गयी है और वे हड़ताल जारी रखने पर अडिग हैं। यह रविवार जैसी पत्रिका
में जो उत्तरोत्तर लोकप्रियता के नये शिखर तय कर रही थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़नेवालों का हथियार बन गयी थी इस तरह ब्रेक लग जाना किसी भी तरह से सही नहीं था।
यह घटना मेरे खयाल से 1982 की है।
जब यह समझ में आ गया कि
हड़ताल किसी भी कीमत पर खत्म नहीं होगी तो फिर आनंग बाजार पत्रिका से जुड़े
पत्रकारों, संपादकों और उन कर्मचारियों ने जो हड़ताल में शामिल नहीं थे मिल-बैठ कर
एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। तय यह किया गया कि आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशन से जुड़े
पत्रकारों और गैर पत्रकारों की एक समिति बनायी जाये जो निरंतर बैठक करे और हड़ताल
कैसे समाप्त करायी जा सके उसका समाधान खोजे। आनंद बाजार कार्यालय तो बंद था वहां
हड़तालियों का कब्जा था इसलिए पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मियों की जो समिति बनायी
गयी उसकी बैठक बाहर एक मैदान में होती थी। वहां रोज यही विचार किया जाता कि हड़ताल
जितनी लंबी खिंचेगी आनंद बाजार संस्थान और उससे जुड़े पत्रकारों, संस्थान के
प्रकाशनों पर उतना ही ज्यादा असर पड़ेगा।
हम रविवार से जुड़े पत्रकार सर्वाधिक चिंतित थे क्योंकि जब हड़ताल हुई वह समय
हमारी पत्रिका के उत्कर्ष का समय था। जब लोग हर हफ्ते रविवार के नये अंक के लिए
उत्सुक रहते थे उस वक्त उसके प्रकाशन में अचानक ब्रेक लग जाना ना सिर्फ उसकी
प्रगति में बाधक था बल्कि उसके पाठकों के लिए भी निराशा का कारण था। अनेक प्रयास
करने के बाद भी हड़ताल खत्म नहीं हुई। इधर पत्रकार और गैर पत्रकार समिति की बैठक
भी अक्सर होती रही यह तय करने के लिए कि इस गतिरोध को कैसे रोका जाये। पचास दिन
बीत गये पर हड़ताली अपने ध्येय से टस से मस ना हुए। पत्रकारों और गैर पत्रकारों की
समिति का भी धैर्य टूट रहा था। आखिरकार पचासवें दिन यह तय किया गया कि जैसे भी हो
कल कार्यालय में जबरन घुसना है। जब यह तय हो गया कि कल का दिन निर्णायक है हर हाल
में हड़ताल तोड़वानी है तो मैंने अपने साथी जयशंकर गुप्त से कहा-भाई आप मेरे घर आ
जाना हम लोग साथ आ जायेंगे।
दूसरे दिन तय समय में जयशंकर
गुप्त मेरे घर पहुंच गये। उनसे मेरी श्रीमती ने कहा-जरा इनका खयाल रखियेगा।
जयशंकर गुप्त ने कहा-भाभी चिंता मत कीजिए, मैं हूं ना मेरे रहते पंडित
को कुछ नहीं होगा।
उनके विश्वास दिलाने से मेरी
पत्नी आश्वस्त हो गयी।
हम लोग जब वहां पहुंचे जहां रोज पत्रकार और गैर पत्रकारों की समिति की
बैठक होती थी वहां सभी लोग जबरन आनंद बाजार कार्यालय में घुसने को तैयार मिले।
संयोग से वहां मुझे सन्मार्ग के फोटोग्राफर भैया सुधीर उपाध्याय जी मिल गये। मैं
उन्हें बड़े भाई सा सम्मान देता हूं और उनका भी निरंतर स्नेह मुझे मिलता है।
उन्होंने जब मुझे देखा तो संकेत से अपने पास बुलाया।
भैया सुधीर उपाध्याय ने मुझे बताया- मैं देख कर
आया हूं हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें, ईँटें और दूसरा सामान लिये उस गली
के आसपास की बिल्डिंगों की छतों पर जमे हैं जिससे तुम सब लोग अपने दफ्तर तक जाओगे।
हड़तालियों का तुम लोगों पर हमला करने का पूरा इंतजाम है। तुम सावधान रहना बहादुरी
दिखाने के चक्कर में घायल मत हो जाना।
मैंने यह सूचना अपने साथी
जयशंकर गुप्त को भी दे दी जो मेरे साथ थे। जयशंकर गुप्त ने कहा –चलो देखते हैं
क्या होता है। हम लोग आनंद बाजार कार्यालय की ओर जाने वाली वाटरलू स्ट्रीट में अभी
कुछ कदम ही आगे ब़ढ़े ही थे की आसपास की छतों से सोडावाटर की बोतलों, ईंटों की
अचानक बौछार शुरू हो गयी। भीड़ में हड़कंप मच गया। कई लोग घायल हो गये। मुझे पीछे
मुड़ कर देखते वक्त सोडावाटर फटने से उसका एक टुकड़ा जयशंकर गुप्त के पेट में लग गया।
मेरे पीछे आनंद बाजार प्रकाशन की बच्चों की हिंदी पत्रिका ‘मेला’ के संपादक योगेंद्र
कुमार लल्ला थे। उन्होंने जब देखा कि आगे बढ़ना मुश्किल है तो मेरा हाथ पकड़ कर
खींच लिया और सुरक्षा की दृष्टि से हम लोग पास की एक बिल्डिंग में घुस गये और वहां
की खिड़की से सारा कुछ देखते रहे। हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें और दूसरी
चीजें फेंक रहे थे और नीचे पत्रकार और गैर
पत्रकार घायल हो रहे थे। इन हमलों से भी भीड़ ने हार नहीं मानी। सभी तय कर चुके थे
कि हड़ताल तोड़ना ही है। अनेक लोग घायल हो गये थे जिनमें कुछ की स्थिति गंभीर थी
जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। ज्यादा घायल होने वालों में दैनिक आनंद
बाजार पत्रिका के वरिष्ठ संपाजक और आनंद बाजार प्रबंधन के बड़े अधिकारी भी थे।
हंगामा थमा तो मैं और लल्ला
जी घर वापस लौट आये। शाम को जयशंकर गुप्त मेरे घर आये और आते ही मेरी श्रीमती से
बोले-भाभी पंडित को खोजने के लिए मैं पीछे मुड़ा ही था कि सोटावाटर की बोतल के
स्पिलिंटर से मेरे पेट में चोट लग गयी। खैर खुशी की बात यह थी कि पत्रकार और गैर
पत्रकार कर्मचारियों में से अधिकांश आनंद बाजार पत्रिका भवन में प्रवेश करने में
सफल हो गये थे हालांकि उनमें कई लोगों को चोटें भी लगी थीं।
जयशंकर गुप्त ने कहा-कुछ
कपड़े वगैरह साथ ले लो, आफिस के मेन गेट पर अभी भी हड़ताली जुटे हैं हम लोग प्रेस
वाले गेट से चुपचाप घुस जायेंगे। वैसा ही किया गया हम दोनों भी आफिस में पहुंच
गये।
वहां जाने पर पता चला कि आनंद बाजार के मालिक अभीक सरकार शाम को अस्पताल
में घायल संपादक और अन्य लोगों का हालचाल पूछने गये थे।
जब उन्होंने एक वरिष्ठ संपादक
से पूछा-आप कैसे हैं। क्या चाहते हैं।
वरिष्ठ संपादक का जवाब था-मैं कल अपना पेपर आनंदबाजार देखना चाहता
हूं।
इस पर अभीक बाबू ने जवाब
दिया-पचास दिन से मशीनें बंद पड़ी थीं उन पर धूल जमी है उसे साफ करने में भी समय
लग जायेगा। कैसे संभव हो सकेगा कल अखबार निकालना।
संपादक का जवाब था- मैं कुछ
नहीं जानता वह आपकी समस्या है। आपने मेरी इच्छा पूछी मैंने बता दिया।
अभीक सरकार बोले-आपकी इच्छा
का में सम्मान करता हूं। चाहे जो कुछ भी हो कल आपका आनंद बाजार अवश्य निकलेगा।
कहना नहीं होगा कि मशीन पर
खतरा हो सकता है यह जानते हुए भी अभीक सरकार ने अपने वरिष्ठ संपादक की इच्छा पूरी
की और दूसरी सुबह स्वयं अखबार लेकर उनसे मिलने अस्पताल गये। (क्रमश:)
Monday, April 24, 2023
कैसे कैसे किस्से, कैसे कैसे लोग
आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ में कार्य के दौरान
विविध प्रकार के अनुभव हुए। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलने साहित्यकार
और पत्रकार तो आते ही रहते थे। कई बार ऐसे लोग भी आते थे जो अपने व्यक्तित्व और
कार्य में औरों से अलग और अनोखे होते थे। ऐसे ही एक व्यक्तित्व का यहां उल्लेख
करना जरूरी है। उनका नाम था वसंत पोतदार। लंबे-चौड़े डीलडौल और बुलंद आवाज वाले
वसंत पोतदार अच्छे वक्ता और एकल अभिनय में माहिर तो थे ही वे अच्छे लेखक भी थे।
एकल अभिनय में वे हिंदी, मराठी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में प्रस्तुति देते थे।
कहते हैं कि जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में एकल अभिनय करते थे तो पूरे हाल में
सन्नाटा छा जाता था। बस कुछ सुनाई देता था तो लगातार बजनेवाली तालियां और वसंत
पोतदार का विवेकानंद के रूप में उनके संदेश का बुलंद स्वर। उनका भारतीय स्वाधीनता
संग्राम पर आधारित ‘वंदे मातरम’ कार्यक्रम भी बहुत
चर्चित और प्रशंसित हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर
सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व अन्य महान व्यक्तित्वों के चरित्र पर वे एकल
अभिनय करते थे। उन्होंनेकई पुस्तकें भी लिखी थीं।
वसंत पोतदार-अरे यार मैं क्या लिखूंगा काहे बेमतलब में मुझे फंसाते
हो।
सुरेंद्र जी-कोलकाता महानगर में तो तुम भटकते ही रहते हो देखो कई ऐसे
लोग तुम्हें यों ही जीते मिल जायेंगे। बेमतलब जीते इन लोगों में कोई ना कोई
प्रतिभा होगी. बस वही तुम्हें उभारना है। स्तंभ का नाम होगा-कुछ जिंदगियां बेमतलब।
दूसरे दिन से ही वसंत ने काम
शुरू कर दिया। उन्होंने कोलकाता के गली-कूचों और कोने-कोतरे में पड़े ऐसे कलाकारों
और हुनरमंद लोगों की कहानी लिखनी शुरू कर दी जो काफी लोकप्रिय हुई। कुछ जिंदगियां
बेमतलब स्तंभ कुछ दिन में ही लोकप्रिय हो गया। इसमें वसंत ऐसे व्यक्तित्वों की
कहानी कहते जो दुनिया से विलग अपनी गुमनाम सी जिंदगी जी रहे थे। वे बस अपनी कला या
हुनर में खोये रहते थे।
वसंत यायावर का-सा जीवन
बिताते थे। एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। वे मुंबई वापस जाते और कुछ महीने बाद फिर वापस आते। एक बार की बात
है वे बहुत दिन बाद हमारे रविवार के कार्यालय में आये उन्होंने संकेत से जानना
चाहा कि सुरेंद्र जी हैं क्या। मैं सझ गया था पर मैंने ऐसा भान किया कि मैं समझा
नहीं। इसके बाद वसंत पोतदार ने जेब से एक कागज निकाला और उस पर लिखा-इन दिनो मेरे
मौन व्रत चल रहा है, बोल नहीं रहा हूं। सुरेंद्र जी कहां हैं।
मैंने उत्तर दिया- अरे वसंत
जी आपके जैसा व्यक्ति जिसकी आवाज ही उसकी पहचान है वह इस तरह मौन धारण कर लेगा तो
कैसे चलेगा।
मेरी बात सुनते ही वसंत
पोतदार ने बुलंद ठहाका लगाया और बोले-अरे आपने ने तो मेरा मौन व्रत तोड़वा दिया।
कई महीने से मौन था आपकी बातों से वह प्रण टूट गया।
*
हमारे संपादक सुरेंद्र जी बहुत ही ईमानदार और
उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में भी काम किया कभी किसी भी प्रकार
की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता
नहीं होने दी। `रविवार' के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो
मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें
पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये मांगे और कहा कि यह पैसा
वे `रविवार' के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय
से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल
गये उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को
दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार
वे कोलकाता आये तो एसपी ने एक मोटा लिखने का पैड उन्हें दिया और अपने चैंबर में
बैठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें।
बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं वे चार लेख तैयार
कर लें तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर
हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी
एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुसकराते हुए चैंबर से बाहर आये और
कहा-` लो भाई चुका दिया एसपी का कर्जा, अब तो मैं जाऊं। वाकई एसपी जैसा कोई और
नहीं होगा।' उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या
तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की
बेचारगी से बचा लिया।
थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया
लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते
तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने
के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। इतने ईमानदार और उसूल
के पक्के थे वे।
*
हमारे परिवार में पहली संतान के रूप में बेटी
अनामिका, दूसरा बेटा अनुराग और मेरे ‘रविवार’ में जाने के बाद छोटे बेटे अवधेश का
जन्म हुआ। इस पर भी सुरेंद्र जी से जुड़ा एक प्रसंग यादा आया। भैया हमारी तीसरी
संतान होने की खुशी में रविवार के हमारे साथियों के लिए मिठाई लेकर गये। सबने बहुत
प्रसन्नता जतायी। प्रसन्न सुरेंद्र जी भी हुए पर साथ ही उन्होंने भैया के माध्यम
से मुझ तक यह संदेश भी भेजा-अब आगे नहीं अन्यथा संजय गांधी को बुला लेंगे।(क्रमश:)
Sunday, March 12, 2023
सुरेंद्र प्रताप सिंह की खबरों पर अच्छी पकड़ थी
आत्मकथा-54
आनंद बाजार पत्रिका के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह जिन्हें हम सब एसपी दा के नाम से पुकारते थे उनकी भाषा बहुत ही सशक्त पर सरल और सबकी समझ में आनेवाली थी। वे बहुत अच्छा लिखते थे। लेकिन पता नहीं क्यों ‘रविवार’ में वे कुछ भी नहीं लिखा करते थे। यह हमें अच्छा नहीं लगता था कि एक सशक्त कलम ‘रविवार’ जैसा सशक्त माध्यम पाकर खामोश रहे। हम लोगों के बार-बार आग्रह करने पर वे प्रसिद्ध पत्रकार जनार्दन ठाकुर की ‘आल द प्राइम मिनिस्टर्स मैन’ पुस्तक के एक चैप्टर का हिंदी में अनुवाद करने पर राजी हुए। आपातकाल की पृष्ठभूमि पर लिखी इस चर्चित पुस्तक का उन्होंने इतना सुंदर अनुवाद किया कि लगता यह था कि यह अनुवाद नहीं बल्कि मूल लेखक की ही हिंदी में लिखी रचना हो। इतने वर्ष बीत जाने पर पूरा तो याद नहीं ना ही ‘रविवार’ का वह अंक ही मेरे पास है। उसकी बानगी के लिए एक पंक्ति ही काफी है-‘खेतों पर हवा और सड़क पर पुलिस गश्त कर रही थी।’ ‘धर्मयुग’ में रहते हुए उन्होंने बहुत कुछ लिखा और ख्याति पायी। धर्मयुग में जाने और धर्मवीर भारती जैसे कड़क मिजाज संपादक के सामने बेखौफ जवाब देने में वे नहीं चूके। कहते हैं कि इंटरव्यू के दौरान जब धर्मवीर भारती ने पूछा कि -धर्मयुग में ही क्यों काम करना चाहते हो? एसपी ने तपाक से जवाब दिया-अच्छा अवसर पाने के लिए। भारती जी का अगला प्रश्न था-इसका मतलब यह है कि अगर इससे अच्छा अवसर मिला तो तुम धर्मयुग छोड़ दोगे?एसपी ने बिना एक पल भी गंवाये जवाब दिया-बेशक।
सुरेंद्र प्रताप सिंह |
‘रविवार’ में ऐसा संपादक पाकर हम धन्य हो गये। ऐसा संपादक जिसने पत्रकारिता को नये आयाम नये तेवर दिये। उसे स्वामिभक्ति और सुदामा वृत्ति से मुक्त किया। अनुवाद पत्रिका से अधिक उन्होंने मौलिक और साहसिक पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया। जिन्होंने ‘रविवार’ का एक अंक भी देखा होगा वे मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उससे पहले इस तरह की साहसिक पत्रकारिता करने का साहस शायद ही कोई कर पाया हो। शायद यही कारण है कि यह लोगों में व्यवस्था विरोधी पत्रिका के रूप में विख्यात थी।
एसपी स्पष्ट वक्ता थे और खबरों पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। इसका एक उदाहरण दे रहा हूं। भागलपुर के कुख्यात आंखफोड़ कांड की याद कुछ लोगों को अवश्य होगी। इसका समाचार बिहार से प्रकाशित होने वाले एक हिंदी दैनिक में कुछ पंक्तियों में ही सलटा दिया गया था। उस समाचार को ऐसे किसी स्थान पर दिया गया था जहां वह खो जाये। उस समाचार को देख कर एसपी ने हम सबको बुलाया और कहा –देखिए इस तरह की जाती है एक महत्वपूर्ण समाचार की हत्या। इसके बाद उन्होंने रविवार में हमारे साथी अनिल ठाकुर को लभेजा और कहा कि इस घटना की विस्तृत रिपोर्ट तैयार कीजिए। अनिल ठाकुर का घर भागलपुर में ही था इसलिए उन्हें आंखफोड़ कांड पर सशक्त रिपोर्ट तैयार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। वह हमारे रविवार की कवर स्टोरी बनी और बहुत हिट रही। बाद में फिल्म निर्माता प्रकाश झा ने इसी घटना पर आधारित फिल्म ‘गंगाजल’ बनायी थी।
*
पहले ही बता चुके हैं कि रविवार में हमारे वरिष्ठ सहयोगी सुदीप जी थे। उनका पूरा नाम गुलशन कुमार था और सुदीप उनका उपनाम था। वे प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'सारिका' से आये थे। स्वभाव में बड़े सज्जन थे जिससे मन मिल जाये उससे खूब बातें करते थे। रविवार के संपादकीय विभाग में मुझसे और निर्मलेंदु साहा से उनकी खूब बनती थी। वे अक्सर अपने मुंबई के संस्मरण सुनाया करते थे। वहां वे फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन का कार्य भी करते थे।
दिन, महीने वर्ष ऐसे ही गुजरते रहे। सुदीप जी बीच-बीच में बंबई जाते जहां उनका परिवार था। उनकी पत्नी उन दिनों मुंबई में ही पढा़ती थीं। हम पाते थे कि जब सुदीप जी मुंबई में अपने परिवार से मिल कर आते तो कुछ दिनों तक उनके चेहरे पर उदासी के भाव रहते थे। परिवार से बिछुड़ने का दुख उनके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। उन्हें सहज होने में कुछ दिन लगते।
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सुदीप जी |
डोसे खत्म होते-होते तक हमने पाया कि सुदीप जी की आंखें भर आयीं थीं। उनके चेहरे पर उभरी उदासी अब और गहरा गयी थी जो साफ नजर आ रही थी।
अचानक वे बोले-‘राजेश जी और निर्मल भाई, मैं कल मुंबई वापस लौट रहा हूं हमेशा के लिए। मैंने इस्तीफा दे दिया है। आप जैसे प्यारे भाई बहुत याद आयेंगे।‘ इतना कहते-कहते वे रोने ही लगे।
हम लोगों की भी आंखें भर आय़ीं। मैंने पूछा-,’क्या हुआ भाई जी अचानक।‘
वे दुख से अपनी भर आयी आवाज को संभालते हुए बोले-‘हां राजेश जी, अचानक ही यह फैसला लेना पड़ा। इस बार जब मैं मुंबई पहुंचा तो मेरी बेटी इतना खुश हुई, उसका चेहरा इतना खिल गया कि मैं कह नहीं सकता। मैंने बहुत गहराई से सोचा कि मैं क्यों इतनी मेहनत कर रहा हूं अपने परिवार के चेहरे पर खुशी और हंसी देखने के लिए ना। पर मैं ऐसा कर कहां पा रहा हूं। जब कई महीने बाद मैं इनसे मिलते आता हूं तो इनके चेहरे खिल जाते हैं, खुशी का ठिकाना नहीं रहता। जब मैं वापस लौटने लगता हूं तो उन्हें लगता है जैसे उनसे उनकी सारी खुशियां ही छीन ली जा रही हैं। इस बार मैंने बहुत गंभीरता से सोचा कि मैं इनकी इच्छा के विपरीत इऩसे दूर रह रहा हूं जो ठीक नहीं है। क्या है मुंबंबई में रह कर पटकथा वगैरह लिख लूंगा। कम पैसे मिलेंगे लेकिन सबसे बड़ी खुशी तो मिलेगी अपनों के चेहरों पर खुशी की मुसकान। कल मुंबई के लिए निकल रहा हूं तुम लोगों की बहुत याद आयेगी।‘
सुदीप जी अब इस दुनिया में नहीं हे लेकिन उनका अपने से कनिष्ठों से भी भ्रातृवत व्यवहार हमें हमेशा याद आता रहेगा। आपसे जो जाना, जो सीखा आपका जो स्नेह मिला वही हमारे जीवन की संचित निधि है।
*
रविवार में रहते हुए भी मैं बीच-बीच में फिल्म कलाकारों के कोलकाता में होनेवाले प्रेस कांफ्रेंस वगैरह कवर कर लेता था। ऐसा ही एक कांफ्रेस जलाल आगा का था जो उस टीवी धारावाहिक के बारे में था जो पति-पत्नी के संबंधों के बारे में था। जलाल आगा उसी का प्रचार करने आये थे। जो लोग जलाल आगा को नहीं पहचानते उन्हें बता दें कि वे मशहूर अभिनेता आगा के बेटे थे। जलाल आगा ने यों तो कई फिल्मों में काम किया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ के महबूबा महबूबा वाले गीत दृश्य में उन्होंने हिस्सा लिया था।
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अभिनेता जलाल आगा द्वारा खींची मेरी तस्वीर |
वे पत्रकारों से बातें कर रहे थे और अपने कैमरे से कई लोगों के फोटो ले रहे थे। उन्होंने अपने कैमरे का रुख मेरी ओर किया देखा उसका लेंस बाहर निकल आया और जलाल आगा ने किल्क कर दिया फ्लैश की लाइट के साथ मेरी इमेज कैमरे में कैद हो गयी। मैंने कहा- आपने हमारी तस्वीर कैद तो कर ली हमें मिलेगी क्या।जलाल आगा का जवाब था-पता दीजिए भेज दूंगा मैंने पता दिया और सचमुच जलाल आगा ने अपना वादा निभाया कुछ दिन बाद मेरे पास वह फोटो आ गयी। वाकई वह अब तक खींची गयी फोटो में सबसे अच्छी है। वह फोटो मैं इस पोस्ट के साथ दे रहा हूं। (क्रमश:)
Monday, February 13, 2023
कला के प्रति रुचि ने मुझे आर्ट कालेज पहुंचा दिया
Tuesday, January 17, 2023
लोग ‘रविवार’ को आखिरी पृष्ठ से क्यों पढ़ते थे?
आत्मकथा-52
दिन बीतते रहे रविवार हिंदी साप्ताहिक लोकप्रियता के शिखर चढ़ता रहा। हम उससे जुड़े रहे थे इसलिए ऐसा कह रहे हैं यह बात नहीं है। आप खुद पता कर देख सकते हैं कि उस वक्त रविवार की टक्कर की कोई पत्रिका नहीं थी। रविवार ने कभी सच को सच की तरह कहने में कोई झिझक नहीं दिखाई। ऐसे में अक्सर किसी ना किसी प्रदेश से उस पर मुकदमा होता ही रहता था। आनंद बाजार प्रकाशन में इससे निपटने के लिए एक लीगल डिपार्टमेंट था ऐसे मुकदमे वही संभालता था जिसके प्रमुख थे विजित बसु जो हमारी पत्रिका रविवार के प्रिंटर भी थे।
कुछ दिन और बीते,आनंद बाजार
प्रकाशन से एक बच्चों की बंगला पत्रिका ‘आनंद मेला’ निकलती थी। उसे हिंदी में ‘मेला’ के नाम से निकालने
की योजना बनी तो उसके संपादक के रूप में योगेंद्र कुमार लल्ला जी को बुलाया गया।
उनके साथ कथाकार सिद्धेश भी जुड़े और हरिनारायण सिंह भी। कुछ दिन बाद ही मेला निकलने
लगी और बाल पाठकों में लोकप्रिय हुई।
यही समय था जब सिद्धेश जी ने
हिंदी भाषा के प्रख्यात कथाकारों की कहानियां बांग्ला में अनुदित करा कर आनंद
बाजार प्रकाशन की बांग्ला की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘देश’ में प्रकाशित
करवाना प्रारंभ किया। इस क्रम में मेरा भी नंबर आया और मेरे हिस्से आयी प्रसिद्ध
राजस्थानी कथाकार रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कहानी ‘यशोदा’। मैंने उसका बांग्ला अनुवाद किया और वह ‘देश’ पत्रिका में
प्रकाशित हुई। मेरे लिए सबसे हर्ष की बात यह थी कि बांग्ला पत्रिका ‘देश’ के स्वनाम धन्य
संपादक सागरमय घोष ने पीठ ठोंक कर प्रशंसा की और कहा-तुम हिंदी भाषी हो पर
तुम्हारे लिखे पर मुझे कलम नहीं चलानी पड़ी।
*
आगे बढ़ने से पहले यह बताता चलूं कि हमारे रविवार में श्रीलाल शुक्ल
का ‘राग दरबारी’ उपन्यास, शरद जोशी
का व्यंग्य स्तंभ ‘नावक के तीर’
नियमित छपता था। उसी वक्त हम लोगों की पत्रिका के लिए कोल इंडिया की
ओर से कई पृष्ठों का विज्ञापन मिला। उसका विज्ञापन मैटेरियल लाने का भार सुरेंद्र
प्रताप सिंह ने मुझ पर और हरिनारायण सिंह पर सौंपा। हम दोनों गये और वहां के प्रमुख कृष्ण चंद्र
चौधरी जी से बात की। उन्होंने सब कुछ समझा कर हमें विज्ञापन की सामग्री सौंपी फिर
हम लोगों से बोले-अरे भाई अपने संपादक जी से बोलिए हमें भी कुछ लिखने का अवसर दें।
हम लोगों ने कहा-आप अपना लिखा लेकर आइए हमारे संपादक जी से मिलिए वे
अवश्य आपका लिखा छापेंगे।
कुछ दिन बाद ही कृष्णचंद्र चौधरी हमारे रविवार के प्रफुल्ल चंद्र
सरकार स्ट्रीट कोलकाता स्थित कार्यालय में आये।
वे सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से थोड़ी देर बात करने के बाद चले गये।
जीत् समय वे अपना एक मैटर देते गये। उनके जाने के बाद सुंरेंद्र जी चौधरी जी का
लिखा मैटर पढ़ने लगे। वे थोड़ी पढ़ते फिर तेजी से ठहाका लगाते पढ़ते फिर ठहाका।
थोड़ी देर बाद उनकी हंसी थमी तो वे बोले –भाई इस आदमी के तो जैसे
तीसरी आंख है। क्या है और क्या देख लिया।
यह उन दिनों की बात है जब कांग्रेस का चुनाव चिह्न गाय और बछ़ड़ा था।
चौधरी साहब ने लिखा था कि कुछ कांग्रेस गाय और बछड़ा को देख कर खुसफुस कर रहे
थे-अरे गाय तो यह रही बछड़ा कहां है। किसी कांग्रेसी नेता ने उस वक्त के चर्चित
युवा नेता की ओर इशारा कर दिया।
एसपी (हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह) ने कहा हम छापेंगे लेकिन इस
स्तंभ का नाम क्या रखें पहले से ही हम शरद जोशी जी का ‘नावक के तीर’ छाप रहे हैं।
मैंने कहा –भैया आपने ही तो
कहा-अगले के तो जैसे तीसरी आंख है। तीसरी आंख ही रख लीजिए।
स्तंभ का नाम ‘तीसरी आंख’ रख दिया गया। यह
रविवार के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित होता था। कुछ महीने में ही यह स्तंभ बहुत
लोकप्रिय हो गया।
हम लोगों को इसका पता तब चला जब रविवार में हमने एक फार्म प्रकाशित
किया ’रविवार और आप’। इसका उद्देश्य यह
जानना था कि पाठकों को रविवार में क्या पसंद आता है और उसके बारे में उनकी क्या
राय है।
आप यकीन नहीं करेंगे कि उस वक्त शत प्रतिशत पाठकों की यही राय थी कि
हम रविवार को आखिरी पृष्ठ यानी ‘तीसरी आंख’ स्तंभ से पढ़ना शुरू करते हैं।
कृष्णचंद्र चौधरी सरकारी नौकरी मे थे और अपने व्यंग्य बाण तीसरी आंख
से वे सरकार पर भी चलाते थे। इस पर आपत्ति आयी तो फिर उन्होंने अपना लेखकीय नाम
बदल कर किट्टू कर लिया और इसी नाम से ‘तीसरी आंख’ स्तंभ लिखते रहे।
एक बार हमारे संपादक सुरेंद्र जी ने कृष्णचंद्र चौधरी को जो अब किट्टू
हो गये थे अपने कार्यालय बुलाया। कुछ समय में ही बिहार में चुनाव होने वाले थे।
सुरेंद्र जी ने किट्टू जी से कहा-आपको एक बड़ा काम सौंप रहा हूं बिहार में चुनाव
होनेवाले हैं आपको बिहार का कवरेज करना है।
किट्टू जी एसपी से अनुनय करते से बोले-अरे सुरेंद्र जी क्यों हमें
कांटों में घसीटना चाह रहे हैं। बस थोड़ा-मोड़ा लिख लेते हैं, रिपोर्टिंग हमारे बल
की नहीं।
सुरेंद्र जी ने कहा- आपसे
रिपोर्टिंग कौन करा रहा है, हम तो चाहते हैं कि आप बिहार घूम आयें और वहां जो
देखें वह लिख दें। हम उसे ‘बिहारी की
डायरी’ में छाप देंगे।
इस पर किट्टू मान गये और
उन्होंने बिहार घूमा खूब घूमा और उनकी आंखों से देखे गये बिहार को रविवार ने अपने
पाठकों को दिखाया। लोगों ने वह बिहार डायरी बार-बार पढ़ी। एसपी भी किट्टू की कलम
के कायल हो गये। एक व्यंग्यकार ने एक प्रदेश की बदहाली का वह कच्चा चिट्ठा खोला कि
खुद बिहारवासी दंग रह गये। सभी चौक गये बिहार की सच्ची तस्वीर देख कर। कृष्ण चंद्र
चौधरी थे तो दक्षिण के लेकिन फर्राटे से भोजपुरी बोलते थे।
बाद के दिनों में वे सन्मार्ग
हिंदी दैनिक में भी स्तंभ लिखने लगे थे।
इसके कुछ अरसे बाद वे अपने बेटे के पास मुंबई चले गये और वहीं उन्होंने
अंतिम सांस ली।
*
उदयन शर्मा दिल्ली से कुतुबनामा स्तंभ लिखते थे जो एक तरह से दिल्ली
डायरी थी। दिल्ली की राजनीतिक गतिविधियों पर आधारित थी यह। उदयन जी बड़े हिम्मत थी
एक बार उन्होंने तय किया कि बीहड़ में जाकर फूलन देवी से भेंट करनी है। उन पर
स्टोरी बनानी है। उन्होंने लेखक कल्याण चटर्जी को साथ लिया और बीहड़-बीहड़ फूलन
देवी की तलाश करने लगे। अंतत: उन्हें सफलता मिली।
उनसे भेंट के वक्त के दृश्य के बारे में वे लिखते हैं-नार्थ स्टार के जूते हम
दोनों के पैरों में थे और वही फूलन देवी के पैरों में भी थे। फूलन की स्टोरी तो कर
ली अब समस्या यह थी कि कवर पर फोटो किसकी दी जाये। अब उदयन जी और कल्याण बनर्जी के
दिमाग में आया क्यों ना फूलन के गांव बहमई चला जाये। वहां जाकर उन लोगों ने फूलन
की बहन को देखा जिसका चेहरा थोड़ा अपनी बहन की तरह था। बस फिर क्या था आर्टिस्ट की
मदद से फूलन की बहन की पेंटिंग बनायी गयी और वही रविवार के कवर पर छपी। कहते हैं
जब किसी ने फूलन को रविवार की कापी दिखायी तो उसने हंसते हुए कहा-यह मैं थोड़े ही
हूं यह तो मेरी बहन की फोटो लगती है।
*
दफ्तर से बाहर सुरेंद्र प्रताप जी का एक अनोखा रूप हमने उनके गृहनगर
श्यामनगर के गारुलिया अंचल में देखा। गारुलिया में एसपी अपने बड़े भाई नरेंद्र प्रताप सिंह, छोटे भाई
सत्येंद्र प्रताप सिंह और परिवार के बाकी सदस्यों के साथ रहते थे। जब से उन्होंने
आनंद बाजार प्रकाशन में काम करना प्रारंभ किया वे कोलकाता के पाम एवेन्यू स्थित एक
फ्लैट में रहते थे। गाहे-बगाहे वे गारुलिया भी जाते रहते थे। गारुलिया में हमारे
परिचित शिवशंकरलाल श्रीवास्तव का घर है। एक बार उन्होंने सपरिवार अपने यहां
बुलाया। हम वहां पहुंचे तो भैया ने कहा-यहीं कहीं सुरेंद्र जी का घर है चलो देखें
कहीं वे घर ना आये हों। संयोग से सुरेंद्र सिंह घर में मिल गये। साथ में उनके भैया
नरेंद्र प्रताप भी थे। वे मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ से उनके जरिए
परिचित थे और उन दिनों उनके द्वारा लिखे जाने वाले लस्टम-पस्टम व व्यंग्य कविताएं
पढ़ते थे।
हम लोग अभी बातें कर ही रहे थे कि तभी एसपी बोले- चलिए आपको फुटबाल
मैच दिखाते हैं।
हम उनके पीछे-पीछे हुगली नदी (जो गंगा है जिसकी एक शाखा बांग्लादेश की
तरफ गयी है और पद्मा कहाती है) के किनारे एक मैदान में गये। बरसात के दिन थे चारों
ओर गड्ढ़े थे जिन पर पानी भरा था। आनन-फानन शुरु हुआ फुटबाल का खेल। एसपी को हमने
पहले बार इस तरह उत्साह से फुटबाल खेलते देखा था। कुछ देर में शाम होने को आयी और
खेल खत्म हुआ। तब तक सभी कीचड़ से बुरी तरह नहा गये थे। एसपी का भी चेहरा पहचान
में नहीं आ रहे थे। सभी हुगली नदी में नहाने चले गये और हम लौट पड़े कोलकाता की
ट्रेन पक़ड़ने के लिए। (क्रमश:)