Saturday, June 18, 2022
इस तरह मैं बन गया साप्ताहिक ‘स्क्रीन’ का प्रबंध संपादक
Friday, June 17, 2022
कैलाश पर्वत के अनसुलझे रहस्यों से वैज्ञानिक भी दंग
पौराणिक कथाओं
के आधार पर कैलाश पर्वत को भगवान शिव का धाम माना जाता है। यह सनातन धर्मियों के
लिए बहुत ही पवित्र स्थान है। यह दूर से देखने में जितना रम्य और दिव्य है पास
पहुंचने पर उतना ही दुर्गम और रहस्यमय।नासा संस्थान के साथ ही दुनिया के अन्य
वैज्ञानिक भी इसके अनसुलझे रहस्यों को सुलझा नहीं पाये। वे इससे जुड़े चमत्कारों
को लेकर दंग हैं। ऐसा माना जाता है कि कई बार कैलाश पर्वत पर सतरंगी प्रकाश किरणें
आकाश पर चमकती देखी गयी हैं। नासा के वैज्ञानिकों का मानना है कि हो सकता है कि
ऐसा यहां के चुम्बकीय बल के कारण होता हो। यहां का चुम्बकीय बल आसमान से मिल कर कई
बार इस तरह की चीजों का निर्माण कर सकता है।
आसमान में
सतरंगी प्रकाश और ॐ की गूंज, भगवान शिव के धाम कैलाश के इन अनसुलझे
रहस्यों से नासा भी हैरान है।
अधिकांश
सनातनी धर्मावलंबियों के लिए कैलाश श्रद्धा का प्रतीक है, वहीं अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा को कैलाश पर्वत एक रहस्यमयी
जगह लगती है। कई रूसी वैज्ञानिकों ने भी कैलाश पर अपनी रिपोर्ट पेश कर वैज्ञानिक
महत्ता से जुड़े रहस्यों को उजागर किया है। यहां
कई साधू और संत अपने अपने आराध्यों से संपर्क करते हैं।प्रकाश और ध्वनि के समागम
से निकलती हैं ॐ की आवाज कैलाश की बर्फ
पिघलने पर गूंजती है डमरू की डम-डम। कैलाश पर्वत को आज भी सनातनी भारतीय शिव का निवास स्थान मानते हैं। शास्त्रों में
भी यही लिखा है कि कैलाश पर भगवान शिव का वास है। यह अलग बात है कि अधिकांश सनातनी
धर्मावलंबियों के लिए कैलाश श्रद्धा का प्रतीक है, वहीं अमेरिकी
अंतरिक्ष एजेंसी नासा को अद्भुत अलौकिक कैलाश पर्वत एक रहस्यमयी जगह लगती है।
सिर्फ नासा ही क्यों कई रूसी वैज्ञानिकों ने भी कैलाश पर्वत पर अपनी रिपोर्ट पेश
कर उसकी वैज्ञानिक महत्ता से जुड़े रहस्यों को उजागर किया है।
कैलाश की
ऊंचाई 6,638 मीटर है।
इन सभी
रिपोर्टों में माना गया है कि कैलाश पर्वत वास्तव में कई अलौकिक शक्तियों का
केंद्र है। विज्ञान यह दावा तो नहीं करता है कि यहां भगवान शिव देखे गए किन्तु यह
सभी मानते हैं कि यहां पर कई पवित्र शक्तियां जरूर काम कर रही हैं। संभवतः यही वजह
है कि कैलाश पर्वत से जुड़े किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को आकर्षित करते आ रहे
हैं।
आइए जानें
वैज्ञानिकों ने कैलाश के बारे में क्या कहा है।
रूस के
वैज्ञानिकों का मानना है कि कैलाश पर्वत आकाश और धरती के साथ इस तरह से केंद्र में
है जहां पर चारों दिशाएं मिल रही हैं। कुछ रूसी वैज्ञानिकों का दावा है कि यह
स्थान एक्सिस मुंडी है और इसी स्थान पर व्यक्ति अलौकिक शक्तियों से आसानी से
संपर्क कर सकता है। धरती पर यह स्थान सबसे अधिक शक्तिशाली स्थान है। इसे धरती का
केंद्र भी माना जाता है।
यह पर्वत अजेय
है। आज तक कोई इसके शिखर को नहीं छू सका।
वैसे यह भी
कहा जाता है कि 11 वीं सदी में तिब्बत के योगी मिलारेपी के शिखर पर पहुंचने का
दावा किया जाता है। यह अलग बात है कि इस योगी के पास इस बात के कोई सबूत नहीं थे।
यह भी माना जाता है कि वह खुद भी सबूत पेश नहीं करना चाहते थे। इसलिए यह भी एक
रहस्य है कि इन्होंने कैलाश के शिखर पर कदम रखा या फिर वह कुछ बताना नहीं चाहते
थे।
कैलाश पर्वत
पर दो झीलें हैं और यह दोनों ही रहस्य बनी हुई हैं। आज तक इनका भी रहस्य कोई जान
नहीं पाया। एक झील साफ़ और पवित्र जल की है। इसका पानी मीठा है और इसमें जलीय
जीव-जंतु भी हैं। इसका आकार सूर्य के समान बताया गया है। इसका नाम मानसरोवर है।
वहीं, दूसरी झील अपवित्र और गंदे जल की है तो इसका आकार चन्द्रमा के
समान है। इसका नाम राक्षस ताल है। इसके पानी में कोई जीव-जंतु नहीं हैं। ऐसा कैसे
हुआ है यह भी कोई नहीं जानता है। लंकाधिपति रावण शिव का एक बहुत बड़ा भक्त, बतौर राजा एक महान प्रशासक और बेहद प्रतिभाशाली इंसान था। वह
शिव की आराधना करने कैलाश पर गया था। शिव के पास जाने से पहले रावण नहाना चाहता था, इसलिए उसने राक्षस ताल में डुबकी मार ली। नहाकर जब शिव से मिलने
चला तो रास्ते में उसकी नजर पार्वती पर पड़ी। शिव के पास पहुंच कर रावण नें उनकी
स्तुति की।
शिवजी के रावण
की इस भक्ति से शिव बहुत प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर उन्होंने रावण से कहा कि अच्छा
बताओ तुम्हें क्या चाहिए? इस पर उस मूर्ख ने कहा, मुझे आपकी पत्नी चाहिए। मान्यताओं के अनुसार उसकी बुद्धि इसलिए
भ्रष्ट हो गई,
क्योंकि उसने राक्षसताल में डुबकी लगायी थी। उस ताल में नहाने
से उसके दिमाग में ऐसे गलत विचार आए। ऐसा माना जाता है कि कैलाश पर पवित्र आत्माओं
का वास है।
यहां से जुड़े
आध्यात्मिक दस्तावेजों और शास्त्रों के अनुसार रहस्य की बात करें तो कैलाश पर्वत
पर कोई भी व्यक्ति सशरीर उच्चतम शिखर पर नहीं पहुंच सकता है। ऐसा बताया गया है कि
यहां पर देवताओं का आज भी निवास है। पवित्र संतों की आत्माओं को ही यहां निवास
करने का अधिकार है। यही वजह है कि कैलाश
पर आज तक कोई चढ़ भी नहीं सका है। कैलाश पर्वत की चार दिशाओं से चार नदियां निकलती
हैं: ब्रह्मपुत्र, सतलज, सिंधु और करनाली।
कैलाश की चारों दिशाओं में विभिन्न जानवरों के मुंह हैं जिसमें से नदियों का उद्गम
होता है. पूर्व में अश्वमुख है, पश्चिम में हाथी का, उत्तर में सिंह का, दक्षिण में मोर का
मुंह है।
स्कंद पुराण और शिवपुराण में भी कैलाश का उल्लेख मिलता है। कैलाश चीन के क्षेत्र में पडता है। इसके आगे तिब्बत के पास एक ऐसा दुर्गम क्षेत्र है जिसे सिद्धाश्रम या अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक विद्यालय ज्ञानगंज के नाम से जाना जाता है। वहां की गुफाओं में महान साधक हजारों वर्षों से साधना कर रहे हैं। इनमें कई ऐसे हैं जिनकी सच्ची आयु का ही पता लगाना आसान नहीं। कहा तो यहां तक जाता है कि वहां देवी-देवता तक सूक्ष्म रूप से निवास करते हैं।
रूसी वैज्ञानिक
मानते हैं कि कैलाश पर्वत मानव निर्मित पिरामिड है क्योंकि इसका आकार पिरामिड जैसा
है। कुछ लोगों ने तो इस पर 'ऊं' की आकृति होने का
दावा तक किया है।सुना यह भी जाता है कि यहां दिशासूचक यंत्र यानी कंपास भी काम
नहीं करता।
ध्यान साधकों
का आदर्श
कैलाश पर्वत दुनिया
के 4 मुख्य धर्मों का केंद्र माना गया है। हिंदू धर्म के अलावा प्राचीन मिस्र में
भी कई ऐसे पर्वतों को पूजा जाता है, जो न सिर्फ रहस्यमयी
शक्तियों से ओत-प्रोत हैं, बल्कि अध्यात्म की खोज में रहने वाले लोगों
को भी आकर्षित करते है।
कैलाश पर्वत
का सबसे बड़ा रहस्य खुद विज्ञान ने साबित किया है कि यहां पर प्रकाश और ध्वनि के
बीच इस तरह का समागम होता है कि यहां से ॐ की आवाजें सुनाई देती हैं। जाहिर है
अपने इन्हीं अनसुलझे रहस्यों या खूबियों के कारण कैलाश पर्वत आज भी इतना धार्मिक
और वैज्ञानिक महत्व बनाए रखे हुए है।
कैलाश पर्वत
चढ़ना इसलिए भी असंभव बताया जाता है कि वहां
पर व्यक्ति दिशाहीन हो जाता है। दिशा भटक जाने के चलते वह घंटों एक ही जगह
भटकता रह जाता है।
मरने के बाद
या जिसने कभी भी कोई पाप न किया हो, केवल वही कैलाश पर
विजय प्राप्त कर सकता है। पर्वत पर थोड़ा सा ऊपर चढ़ते ही व्यक्ति
दिशाहीन हो जाता है। बिना दिशा के चढ़ाई करना मतलब मौत को दावत देना है, इसलिए कोई भी इंसान आज तक कैलाश पर्वत पर नहीं चढ़ पाया है। कहा
यह भी जाता है कि कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ कि पर्वत पर कुछ दूर चढ़ने के बाद ही
उनके नाखून बढ़ने लगे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयीं, बाल सफेद हो गये और अचानक उनकी उम्र बहुत बढ़ गयी। इसके बाद वे
घबड़ा कर नीचे लौट गये। डाक्टर और वैज्ञानिकों का कहना है कि वहां का वातावरण ऐसा
है कि दिमाग में सूजन आ जाती है जिससे व्यक्ति को मतिभ्रम हो जाता है और वह कुछ का
कुछ देखने-सुनने लगता है।
एक अंग्रेज
जिसका नाम लॉरेंस डिसूजा था। उसने एक बार मन में ठाना कि मैं इस अजेय कैलाश पर्वत
पर चढ़ कर के ही रहूंगा। इसके बाद उसने कैलाश पर्वत पर जाने के लिए अपनी चढ़ाई शुरू
कर दी। लेकिन वह भी आधे रास्ते से ही लौट आया। लेकिन जब उसने अपनी यात्रा के
अनुभवों को लोगों से साझा किया तो लोग उसकी बातों को सुनकर आश्चर्यचकित रह गए।
उसने बताया कि जब मैंने चढ़ाई आरंभ की तो शुरू में सब कुछ सामान्य था।लेकिन जैसे
-जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा था वैसे वैसे ही कुछ ऐसी अचंभित कर देने वाली घटनाएं
मेरे साथ होने लगीं थीं। जिसे देखकर मैं बहुत आश्चर्यचकित था। उस अंग्रेज व्यक्ति
ने बताया कि जब मैं इस यात्रा पर निकला था तो उस समय मेरी उम्र केवल 30 वर्ष की
थी। इसीलिए मेरे सर के बाल पूरी तरह काले थे। लेकिन जैसे-जैसे मैं कैलाश पर्वत की
चढ़ाई में आगे बढ़ता जा रहा था वैसे वैसे मेरे बाल सफेद होते जा रहे थे।
भगवान शिव के
घर कैलाश पर्वत पर आज तक कोई नहीं चढ़ पाया, क्या है इसके पीछे
का रहस्य
हिंदू
शास्त्रों में भगवान शिव को कैलाश पर्वत
का स्वामी माना जाता है। मान्यता है कि महादेव अपने पूरे परिवार के साथ
कैलाश में रहते हैं। दरअसल पौराणिक कथाओं में ऐसी कई घटनाओं के बारे में बताया गया
है जिनमें कई बार असुरों और नकारात्मक शक्तियों ने कैलाश पर्वत पर चढ़ाई करके इसे
भगवान शिव से छीनने का प्रयास किया, लेकिन उनकी इच्छा
कभी पूरी नहीं हो सकी। आज भी यह बात उतनी ही सच है जितनी पौराणिक काल में थी। भले
ही दुनिया भर के पर्वतारोही माउंट एवरेस्ट
को फतह कर चुके हैं लेकिन कोई आज तक कैलाश पर्वत पर चढ़ाई नहीं कर पाया
है।आखिर ऐसा क्यों है, क्या है इसके पीछे का रहस्य आइए आपको बताते
हैं कैलाश पर्वत के रहस्य के बारे में।
सनातन धर्म
में कैलाश पर्वत का बहुत महत्व है, क्योंकि यह भगवान
शिव का निवास स्थान माना जाता है। लेकिन इसमें सोचने वाली बात ये है कि दुनिया की
सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को अभी तक 7000 से ज्यादा लोग फतह कर चुके हैं, जिसकी ऊंचाई 8848 मीटर है, लेकिन कैलाश पर्वत
पर आज तक कोई नहीं चढ़ पाया है जबकि इसकी
ऊंचाई एवरेस्ट से लगभग 2000 मीटर कम यानी 6638 मीटर ही है। कैलाश पर्वत के बारे
में अक्सर ऐसी बातें सुनने में आती हैं कई पर्वतारोहियों ने इस पर चढ़ने की कोशिश
की, लेकिन इस पर्वत पर रहना असंभव था क्योंकि वहां शरीर के बाल और
नाखून तेजी से बढ़ने लगते हैं। इसके अलावा कैलाश पर्वत बहुत ही ज्यादा
रेडियोएक्टिव भी है।
कैलाश पर्वत
पर व्यक्ति दिशाहीन हो जाता है कैलाश पर्वत पर कभी किसी के नहीं चढ़ पाने के पीछे
कई कहानियां भी प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि कैलाश पर्वत पर भगवान शिव
अपने परिवार के साथ रहते हैं और इसीलिए कोई जीवित इंसान वहां ऊपर नहीं पहुंच
सकता।.
माउंट कैलाश
को शिव पिरामिड भी कहा जाता है सन 1999 में रूस के वैज्ञानिकों की टीम एक महीने तक
कैलाश पर्वत के नीचे रही और इसके आकार के बारे में शोध करती रही। वैज्ञानिकों ने
कहा कि इस पहाड़ की तिकोने आकार की चोटी प्राकृतिक नहीं, बल्कि एक पिरामिड है जो बर्फ से ढकी रहती है। यही कारण है कि
माउंट कैलाश को शिव पिरामिड के नाम से भी जाना जाता है। जो भी इस पहाड़ को चढ़ने
निकला, या तो मारा गया या बिना चढ़े वापस लौट आया।
चीन सरकार के
कहने पर कुछ पर्वतारोहियों का दल कैलाश पर चढ़ने का प्रयास कर चुका है। लेकिन
उन्हें भी सफलता नहीं मिली और पूरी दुनिया के विरोध का सामना अलग से करना पड़ा।
हार कर चीनी सरकार को इस पर चढ़ाई करने से रोक लगानी पड़ी। कहते हैं जो भी इस पहाड़
पर चढ़ने की कोशिश करता है, वो आगे नहीं चढ़ पाता, उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। यहां की हवा में कुछ अलग बात
है।
चन की पूरी
टीम के सिर में भयंकर दर्द होने लगा था
चीन ही नहीं
रूस भी कैलाश के आगे अपने घुटने टेक चुका है। सन 2007 में रूसी पर्वतारोही सर्गे
सिस्टिकोव ने अपनी टीम के साथ माउंट कैलास पर चढ़ने की कोशिश की थी। सर्गे ने अपना
खुद का अनुभव बताते हुए कहा था कि कुछ दूर चढ़ने पर उनकी और पूरी टीम के सिर में
भयंकर दर्द होने लगा। फिर उनके पैरों ने जवाब दे दिया। उनके जबड़े की मांसपेशियां
खिंचने लगीं और जीभ जम गई। मुंह से आवाज़ निकलना बंद हो गई। चढ़ते हुए महसूस हुआ कि
वह इस पर्वत पर चढ़ने लायक नहीं हैं। उन्होंने फौरन मुड़कर उतरना शुरू कर दिया। तब
जाकर उन्हें आराम मिला।
कैलाश पर्वत
की कुछ ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जिनमें भगवान शिव की
आकृति साफ तौर पर देखी जा सकती है।भगवान शिव के अद्भुत दर्शन के लिए हर साल लाखों
श्रद्धालु मानसरोवर की पवित्र यात्रा पर जाते हैं। भगवान शिव में आस्था रखने वाले
वैसे तो मुख्य रूप से हिंदू धर्म के लोग ही होते हैं। इसके साथ सिख भी भगवान शिव
और अन्य देवी-देवताओं में काफी विश्वास रखते हैं। लेकिन ये खबर जानकर आपको हैरानी
होगी कि भगवान शिव पर अब नासा वाले भी भरोसा करने लगे हैं।
कहा जाता है
कि मानसरोवर के कैलाश पर्वत पर भगवान शिव विराजमान होते हैं। जहां जाने वाले
प्रत्येक श्रद्धालुओं को भगवान शिव की असीम कृपा और शक्ति प्राप्त होती है।
कैलाश पर्वत से कुछ ऐसी तस्वीरें सामने आईं हैं, जिसे देखने के बाद खुद नासा भी हैरान है।
बता दें कि
हाल ही में कैलाश पर्वत की कुछ ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जिनमें भगवान शिव की आकृति साफ तौर पर देखी जा सकता है। इन
तस्वीरों को देखने में ऐसा लग रहा है जैसे साक्षात भगवान शिव इस पूरी दुनिया को
दर्शन दे रहे हों। बर्फ की मोटी चादर में लिपटा हुए कैलाश पर्वत पर साफ तौर पर
भगवान शिव को देखा जा सकता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि सोशल मीडिया पर वायरल हो
रही कैलाश पर्वत पर भगवान शिव की आकृतियों को गूगल और नासा भी स्वीकार कर रहा है।
कैलाश पर्वत
के दक्षिण भाग को नीलम, पूर्व भाग को क्रिस्टल, पश्चिम को रूबी और उत्तर को स्वर्ण रूप में माना जाता है।
इस पावन स्थल
को भारतीय दर्शन के हृदय की उपमा दी जाती है, जिसमें भारतीय
सभ्यता की झलक प्रतिबिंबित होती है। कैलाश पर्वत की तलछटी में कल्पवृक्ष लगा हुआ
है। बौद्ध धर्मावलंबियों अनुसार, इसके केंद्र में एक वृक्ष है, जिसके फलों के चिकित्सकीय गुण सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक
रोगों का उपचार करने में सक्षम हैं।
तिब्बतियों की
मान्यता है कि वहां के एक संत कवि ने वर्षों गुफा में रहकर तपस्या की थी। तिब्बती
बोनपाओं के अनुसार, कैलाश में जो नौमंजिला स्वस्तिक देखते हैं
व डेमचौक और दोरजे फांगमो का निवास है। इसे बौद्ध भगवान बुद्ध तथा मणिपद्मा का
निवास मानते हैं। कैलाश पर स्थित बुद्ध भगवान का अलौकिक रूप 'डेमचौक' बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए पूजनीय है। वह
बुद्ध के इस रूप को 'धर्मपाल' की संज्ञा भी
देते हैं। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि इस स्थान पर आकर उन्हें निर्वाण की
प्राप्ति हुई। आदिनाथ ऋषभदेव का यह निर्वाण स्थल 'अष्टपद' है। कहते हैं ऋषभदेव ने आठ पग में कैलाश की यात्रा की थी।
हिन्दू धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि कैलाश पर्वत मेरू पर्वत है जो
ब्राह्मांड की धूरी है और यह भगवान शंकर का प्रमुख निवास स्थान है। यहां देवी सती
के शरीर का दायां हाथ गिरा था। इसलिए यहां एक पाषाण शिला को उसका रूप मानकर पूजा
जाता है। यहां शक्तिपीठ है। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि गुरु नानक ने भी यहां
कुछ दिन रुककर ध्यान किया था। इसलिए सिखों के लिए भी यह पवित्र स्थान है।
वैज्ञानिक
मानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप के चारों ओर पहले समुद्र था। इसके रशिया से टकराने
से हिमालय का निर्माण हुआ। यह घटना अनुमानत: 10 करोड़ वर्ष पूर्व घटी थी।
कैलाश पर्वत
और उसके आसपास के वातावरण पर अध्ययन कर चुके रशिया के वैज्ञानिकों ने जब तिब्बत के
मंदिरों में धर्मगुरुओं से मुलाकात की तो उन्होंने बताया कि कैलाश पर्वत के चारों
ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह है जिसमें तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ
टेलीपैथिक संपर्क करते हैं।
कैलाश पर्वत समुद्र सतह से 22068 फुट ऊंचा है
तथा हिमालय से उत्तरी क्षेत्र में तिब्बत में स्थित है। चूंकि तिब्बत चीन के अधीन
है, अतः कैलाश चीन में आता है। मानसरोवर झील से घिरा होना कैलाश
पर्वत की धार्मिक महत्ता को और अधिक बढ़ाता है।
इसकी परिक्रमा का महत्त्व बहुत कुछ कहा गया है।
कैलाश पर्वत कुल 48 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। कैलास परिक्रमा मार्ग 15500
से 19500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। मानसरोवर से 45 किलोमीटर दूर तारचेन कैलास
परिक्रमा का आधार शिविर है। कैलाश की परिक्रमा कैलाश की सबसे निचली चोटी तारचेन से
शुरू होती है और सबसे ऊंची चोटी डेशफू गोम्पा पर पूरी होती है।
घोडे और याक पर चढ़कर ब्रह्मपुत्र नदी को पार
करके कठिन रास्ते से होते हुये यात्री डेरापुफ पहुंचते हैं। जहां ठीक सामने कैलास
के दर्शन होते हैं। यहां से कैलाश पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है, मानों भगवान शिव स्वयं बर्फ़ से बने शिवलिंग के रूप में
विराजमान हैं। इस चोटी को ‘हिमरत्न’ भी कहा जाता
है।
इतनी ठंडी जगह पर भी है गरम पानी के झरने – ड्रोल्मापास तथा
मानसरोवर तट पर खुले आसमान के नीचे ही शिवशक्ति का पूजन भजन करते हैं। यहां कहीं
कहीं बौद्धमठ भी दिखते हैं जिनमें बौद्ध भिक्षु साधनारत रहते हैं। दर्रा समाप्त
होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है जहाँ गर्म पानी के झरने हैं। इन झरनों के आसपास
चूनखड़ी के टीले हैं। कहा जाता है कि यहीं भस्मासुर ने तप किया और यहीं वह भस्म भी
हुआ था।
जहां देवी पार्वती ने किया था घोर तप – इसके आगे डोलमाला और देवीखिंड ऊँचे स्थान हैं। ड्रोल्मा से नीचे
बर्फ़ से सदा ढकी रहने वाली ल्हादू घाटी में स्थित एक किलोमीटर परिधि वाला पन्ने
के रंग जैसी हरी आभा वाली झील, गौरीकुंड है। यह कुंड हमेशा बर्फ़ से ढंका
रहता है, मगर तीर्थयात्री बर्फ़ हटाकर इस कुंड के पवित्र जल में स्नान
करना नहीं भूलते। साढे सात किलोमीटर परिधि तथा 80 फ़ुट गहराई वाली इसी झील में
माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी।
इस पर्वत पर स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग है।
हिन्दू धर्म के लोगो की ऐसी मान्यता है की इस पर्वत पर चढ़ाई करते समय पांडवों और
द्रोपदी को मोक्ष प्राप्त हुआ था। कैलाश पर्वत के चार मुख है। इस पर्वत ने मानो
धरती और आकाश को जोड़े रखने की अलौकिक शक्ति है। लोग ऐसा मानते है कि यहाँ पे
मृत्यु पाने वाले लोग सीधा स्वर्ग जाते है।
ऐसा कहा जाता है कि ग्यारहवीं सदी में एक बौद्ध
भिक्षु योगी मिलारेपा ने अभी तक माउंट कैलाश पर चढ़ाई की है और वह इस पवित्र तथा
रहस्यमयी पर्वत पर जा कर जिंदा लौटने वाले दुनिया के पहले इंसान है। इसका जिक्र पौराणिक कथाओं में भी मिलता है। मगर
वर्तमान समय में कोई कैलाश पर्वत पर क्यों नहीं चढ़ पाया, इसकी वास्तविक वजह अब तक कोई नहीं जान पाया है।
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Monday, June 6, 2022
इस तरह से 'सन्मार्ग' हिंदी दैनिक में शुरू हुआ मेरा प्रशिक्षण
आत्मकथा-35
भाग- 35
राजेश त्रिपाठी
मेरा बांग्ला सीखने का क्रम जारी था। कलकत्ता के
किसी ना किसी इलाके में घूमने उसे जानने का क्रम भी लगातार जारी था। कुछ दिन पहले
डराने वाला विराट शहर अब कुछ-कुछ रास आने लगा था। फर्क यही था हम ठहरे शांत-स्वच्छ
और खुले-खुले वातावरण वाले गांव के प्राणी जहां जिधर जायें हरियाली, प्रकृति की
अनुपम सुषमा हाथ पसारे आपका स्वागत करने को तैयार। वहां के रंग-बिरंगे पक्षी, उनकी
विविधता भरी लुभावनी बोली। अमराइयों में कोयल का कुहकना वह आनंद यहां कहां।
कंक्रीट के इस जंगल में शोर-शोर और शोर। गांव में सबके अपने घर होते हैं यहां देखा
आधा शहर सड़क किनारे फुटपाथों पर बसा है। टाटपट्टी को छाकर अस्थायी घर बना कर जाने
कितनी जिंदगानियां पलती हैं यहां। दूसरी ओर गगनचुंबी इमारते आकाश से बातें करती
हुई। कहते हैं कि कलकत्ता काली माई का नगर है यहां जो भी आता है किसी तरह उसका बसर
हो ही जाता है। अगर आप ब्रिटिश काल के कलकत्ता को देखें तो वह कुछ गांवों को मिला
कर बना था आज तो यह मीलों फैला है और कई जिले इसमें समाये हैं। ज्यादातर औद्योगिक
इकाइयां शहर के बाहर जिलों में हैं जिसमें हजारों मजदूर काम करते हैं।
*
मैंने भैया से एक दिन कहा कि-आप तो बाकायदा स्कूल
में उर्दू पढ़े हैं, मुझे उर्दू सीखना है, सिखा दीजिए ना।
भैया बोले-अरे यार मेरे पास सिखाने का टाइम कहां
है। मैं उर्दू शिक्षा की एक किताब ला देता हूं उससे सीख लेना।
दूसरे
दिन भैया जब आफिस से लौटे उनके हाथों में एक पुस्तक ‘हिंदी उर्दू शिक्षा’ और उर्दू की एक फटी-पुरानी किताब थी। दोनों
किताबें उन्होंने मुझे थमा दीं और कहा-अब कोशिश करो धीरे-धीरे सीख जाओगे।
मुझमें
एक जिद है कि मैं जब भी किसी चीज को जानना-सीखना चाहता हूं तो उसमें जिद की हद तक
कोशिश करता हूं। अब उर्दू सीखने में मैं जीन-जान से जुट गया। खाने-नहाने के अलावा
बाकी का समय मेरा उर्दू सीखने में बीता। एक महीने में मैं टोह-टोह कर उर्दू पढ़ने
लगा। अब मेरा ध्यान उर्दू की उस किताब पर गया जो भैया लाये थे। मैंने उस किताब को
टोह-टोह कर पढ़ना क्या शुरू किया उसके कथानक ने मुझे बांध लिया। वह एक पादरी की
जिंदगी की भावनात्मक कहानी थी। एक दिन मैंने उसे भाभी निरुपमा को क्या सुनाया वे
जब भी खाली होतीं बोलतीं-देवर जी ओ पादरी वाली कहानी सुनाओ ना।‘ वह इतनी
भावनाप्रधान कहानी थी कि कभी-कभी उसे सुनते हुए भाभी रोने लगतीं। उस समय मैं किताब
पढ़ना बंद कर देता। यह क्रम लगातार लंबे समय तक चलता रहा जब तक की वह पुस्तक
समाप्त नहीं हो गयी।
भैया
उर्दू की एक फिल्मी पत्रिका ‘कहकशां’ (हिंदी में इसे आकाशगंगा कहते हैं) मगाते थे
जिसमें काफी रोचक फिल्मी खबरें और गजलें होती थीं। बहुत दिन से मेरी ख्वाहिश थी
काश मैं भी इसे पढ़ पाता। अब उर्दू सीख लिया तो मैं कहकशां भी पढ़ने लगा।
इसी तरह दिन चल रहे थे कि एक दिन भैया ने
कहा-मैंने सन्मार्ग के मालिक, संपादक रामअवतार गुप्त जी से बात कर ली है वे अपने
आफिस में तुमको काम सीखने का अवसर देने को तैयार हो गये हैं। कल मेरे साथ चलना मैं
उनसे तुम्हारा परिचय करा दूंगा।
दूसरे
दिन मैं भैया के साथ सन्मार्ग कार्यालय में रामअवतार गुप्त जी से मिला। उन्हें
प्रणाम किया। वे मुझे साथ लेकर संपादकीय विभाग में आये और संपादकीय विभाग के सभी
लोगों को संबोधित करते हुए बोले –ये अपने रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ जी के
छोटे भाई हैं। आज से यहां संपादकीय विभाग में कामकाज सीखेंगे। आप लोग इनकी मदद
कीजिएगा।
संपादकीय
विभाग के सभी जनों ने हामी में सिर हिला दिया। गुप्ता जी वापस अपने चैंबर में चले
गये। भैया ने संपादकीय विभाग के हर व्यक्ति से मेरा परिचय कराया। वह दिन तो परिचय
में बीता। कुछ लोगों को मेरा नाम रामहित कुछ अटपटा-सा लगा। मैंने उनको बताया कि –हमारी
तरफ भगवान के नाम पर बच्चों का नाम रखने का रिवाज है। बहुत दिन तक मैं अपने नाम का
अर्थ नहीं जानता था। बाद में कालेज में हमारे संस्कृत के शिक्षक आचार्य प्रभाकर
द्विवेदी ने बताया कि तुम्हारे का नाम का अर्थ कुछ इस तरह है-रामस्य हितू स रामहित: अर्थात जो राम से प्रेम करता है वह है रामहित।
दूसरे
दिन से मेरा पत्रकारिता का प्रशिक्षण प्रारंभ हो गया। जितना याद आता है उस समय सन्मार्ग के संपादकीय विभाग
में तारकेश्वर पाठक, रमाकांत उपाध्याय, राजीव नयन, उदयराज सिंह, मंगल पाठक,
सूर्यनाथ पांडेय
राजकिशोर सिंह, मोतीलाल चौधरी, हरेंद्रनाथ झा आदि
थे।
दूसरे
दिन से मुझे टेलीप्रिंटर में आनेवाले अंग्रेजी समाचार दिये जाने लगे जिनका मुझे
हिंदी में अनुवाद करना था। मैंने अनुवाद किया और मोतीलाल चौधरी जी को जांचने के
लिए दे दिया।
मोतीलाल
चौधरी थोड़ी देर तक मेरा अनुवाद किया मैटर पढ़ते रहे फिर मुझे पास बुला कर
कहा-आपका अनुवाद एकदम सही है लेकिन जो भाषा आपने लिखी है वह अखबारी भाषा नहीं है।
यह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। यह लोगों की समझ में नहीं आयेगी। यह सच है कि हमारा
अखबार विद्वानों से लेकर मजदूर तबके, रिक्शेवाले तक जाता है वह समझे ऐसी भाषा होनी
चाहिए। वैसे आपकी हिंदी बहुत शुद्ध और संस्कृत से समृद्ध है।
मैंने
अपना पक्ष रखा- मेरी शिक्षा का प्रारंभ
गुरुकुल में संस्कृत के माध्यम से हुआ इसलिए मेरी हिंदी संस्कृतनिष्ठ है।‘
उन्होंने
कहा-कोई बात नहीं आप कोशिश कीजिए, बोलचाल की भाषा में लिखिए कुछ दिन में आदत पड़
जायेगी।
मोतीलाल
चौधरी खाने-पीने के काफी शौकीन थे। शाम को जब वे निकलने लगे तो मुझसे बोले-चलिए घर
चलते हैं।
मैंने
संपादकीय विभाग के सभी लोगों को प्रणाम किया और मोतीलाल चौधरी जी के साथ चल दिया।
यहां यह बताता चलूं कि उनका घर हमारे इलाके के पास ही था। तब तो लोकेशन का ज्ञान
नहीं था लेकिन अब बता सकता हूं कि हमारा घर नगर के कांकुड़गाछी इलाके में था।
मोतीलाल चौधरी जी का फूलबागान से पहले पड़नेवाली लोकल रेल लाइन से संटी गली में
था। रेललाइन क्रास कर षष्ठीतला और फिर फूलबागान पार कर हमारा इलाका कांकुड़गाछी।
मैंने
सोचा था कि चौधरी नीचे उतर कर बस पकड़ लेंगे लेकिन वे पैदल ही चल पड़े मैंने
कहा-कोई बस पकड़ लेते हैं। उन्होंने कहा-आइए ना शहर देखते हुए चलते हैं।
अब मैं
करता तो क्या करता उनके साथ हो लिया। मैं ऊब ना जाऊं इसलिए वे मुझे बंगाल के बारे
में बताने लगे। उन्होंने बताया कि-राजा बल्लाल सेन यज्ञादि कार्य के लिए उत्तर
प्रदेश से कुछ कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को लाये थे। बाद में वे यहीं बस गये।
अभी यह
चर्चा चल ही रही थी कि उनको सामने फुटपाथ पर पकौड़ियां तलती हुई दिखाई दीं। वहां
उनके कदम अचानक ठिठक गये। उन्होंने पकौड़ीवाले को दो जनों के लिए पकौड़ी का आर्डर
दिया। मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- आप अपने लिए बनवा लीजिए, मैं बाहर की चीजें नहीं
खाता। उनके बार-बार आग्रह करने पर भी मैंने माफी मांग ली। वे तो हंस कर रह गये लेकिन
पकौड़ीवाले ने मुझे कुछ ऐसी नजर से देखा जैसे कहना चाह रहा हो-यह कैसा आदमी है जो
पकौड़ी नहीं खाता।
पकौड़ियां खत्म हुईं तो चौधरी जी के कदम आगे
बढ़े। अभी आधा मील ही चल पाये थे कि चौधरी जी के कदम फिर रुक गये। फिर पकौड़ी की दूकान
जो मिल गयी थी यहां भी उन्होंने पकौड़ी खायीं फिर आगे बढ़े। मैं मन ही मन मना रहा
था कि अब पकौड़ी की दूकान ना मिले। खैर रेल लाइन के पास हम लोग आ गये।
वे बायीं
तरफ अपने घर की ओर जाने वाली गली में मुड़ने वाली गली की ओर बढ़ते हुए बोले-बस में
आने से यह मजा मिलता।
मैंने
कोई उत्तर नहीं दिया, बस मुसकरा कर रह गया।
वे बोले-
आप सीधे चले जाइए, आगे फूलबागान मिलेगा वहां से बायें मुड़ जाइएगा कुछ दूर बाद
आपका मुहल्ला आ जायेगा।
मैंने
कहा-इधर का रास्ता मैं जानता हूं।
थोड़ी
देर में मैं अपने घर पहुंच गया।
मोतीलाल
चौधरी जी के बारे में यह बताता चलूं कि आध्यात्मिक चर्चाओं में वे बहुत रुचि लेते
थे। उनका आध्यात्मिक ज्ञान भी काफी था। सन्मार्ग कार्यालय में जब खबरों से थोड़ा
अवकाश मिलता तो मैं और वह आध्यात्मिक चर्चाओं में जुट जाते थे। चौधरी जी मैथिल थे
और बांग्ला भाषा भी जानते थे। वे बंगाल के बारे में,वहां के संतों, साधकों और कला,
संस्कृति के बारे में जानकारी रखते थे।
दूसरे
दिन मैं सन्मार्ग कार्यालय पहुंचा तो लोगों ने बताया –जरा गुप्ता जी से उनके चैंबर
में मिल लीजिए वे आपको खोज रहे थे।
मैं
दोड़ा-दौड़ा गुप्ता जी के चैंबर पहुंचा, उनको नमस्कार कर मैंने पूछा-सर आप मुझे
खोज रहे थे,कुछ काम है क्या है?
गुप्ता जी ने मेरी ओर दो पेज बढ़ाते हुए बोले-इसे
जरा हिंदी में ट्रांसलेट कर के मुझे दे देना।
मैं
संपादकीय डेस्क में वापस आया और डेस्क इंचार्ज से पूछा- भाई साहब, गुप्ता जी ने एक
काम दिया है आपकी आज्ञा हो तो मैं गुप्ता जी का काम कर दूं।
डेस्क इंचार्ज ने कहा-हां, हां कर दीजिए इससे भी
तो आपका अनुवाद का अभ्यास हो जायेगा।
मैंने अनुवाद कर दिया और गुप्ता जी के चैंबर में जाकर
उनको दे दिया और उन्हें प्रणाम कर वापस लौटने को हुआ तो उन्होंने कहा –ठहरो।
इसके बाद
उन्होंने अपने ड्रावर से कुछ निकाल कर दिया, मैंने बिना देखे जेब में रख लिया।
घर वापस
आया तो मैंने जेब टटोली, देखा पांच सौ रुपये थे। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा
मैं तो वहां सीख रहा हूं और गुप्ता जी का काम भी उसी सीखने के क्रम का हिस्सा है
उसके लिए मुझे पैसा नहीं लेना चाहिए। मैंने तय किया कि दूसरे दिन उनसे क्षमा
मांगते हुए रुपया लौटा दूंगा।
मैं
दूसरे दिन सन्मार्ग कार्यालय पहुंचते ही गुप्ता जी के चैंबर पहुंचा और रुपया
लौटाते हुए बोला-सर यह रुपया आपने क्यों दिया, अरे आफिस में मैं अनुवाद का ही काम
तो सीख रहा हूं उसके बीच इसे भी कर दिया यह भी तो मेरे सीखने के क्रम में है इसके
लिए रुपया क्यों लूं।
गुप्ता
जी बोले-बड़े कुछ दें तो उसे आशीर्वाद मान कर रख लेना चाहिए। उसे वापस करना बड़ों
का अपमान होता है।
इसके बाद मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। मैं
उन्हें प्रणाम कर संपादकीय डेस्क में वापस लौट आया।
संपादकीय
डेस्क के सभी लोग उम्र में मुझसे बड़े थे और मुझे छोटे भाई सा स्नेह करते थे। कुछ
शायद इसलिए भी कि मैं उनके सहकर्मी रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ का भाई
हूं।
सभी लोग
भुने चने मंगवाते तो मुझे भी देते। मैं संकोच में नहीं लेता तो कहते –हम भी रुक्म
जी की तरह तुम्हारे भाई ही हैं हमसे संकोच कैसा।
इसके
बाद मैं ना नहीं कर पाता था। वे जो कुछ मंगवाते मुझे देते, जो चीजें मुझे पसंद
नहीं होती थीं मैंने लेने से मना कर देता था।
मंगल
पाठक जी कलकत्ता में ट्यूशन पढ़ाते थे। बीच-बीच में भैया से मिलने सन्मार्ग
कार्यालय आते थे। एक बार उन्होंने पाठक जी से कहा- ट्यूशन पढ़ाने से क्या होगा कोई
नौकरी क्यों नहीं कर लेते।
मंगल
पाठक बोले-और कोई काम आता नहीं कहां क्या नौकरी करें।
भैया
बोले –कुछ जुगत भिड़ाते हैं, बस मैं जैसा
कहूं करते जाइएगा।
पाठक जी ने हामी भर ली।
भैया उस समय सूर्यनाथ पांडेय जी के पास गये ।
सूर्यनाथ पांडेय संत स्वभाव के थे और गीता पर अंग्रेजी और हिंदी में व्याख्या करते
और प्रवचन देते थे। उनके बारे में एक और मुख्य और उल्लेखनीय बात यह थी कि वे केवल
गंगाजल का ही प्रयोग करते थे पीने और खाना बनाने के लिए। भैया रुक्म जी को वह बहुत
मानते थो।
भैया
रुक्म जी पांडेय जी के पास गये और उनसे कहा-पंडित जी अपने एक ब्राह्मण हैं उनके
पास कोई काम नहीं है आप कहें तो उनको प्रूफरीडर के रूप में रख लिया जाये।
पांडेय जी बोले-रुक्म जी अगर आप समझते हैं कि काम के आदमी
हैं तो रख लीजिए देख लीजिए प्रूफ वगरह देखना जानते हैं ना। आप उन्हें मेरे पास भेज
दीजिए।
भैया
लौट कर आये और मंगल पाठक जी से बोले-आपसे पूछेंगे कि प्रूफ देखना जानते हैं तो आप ‘हां’ बोल
दीजिएगा।
पाठक जी
सकुचाते हुए बोले-लेकिन मैं तो नहीं जानता।
भैया बोले-हम सिखा लेंगे।
पाठक जी पांडेय जी के पास गये और सन्मार्ग में
उनकी नौकरी हो गयी।
यही बात है कि वे भैया को और मुझको बहुत मानते
थे। जब तक सन्मार्ग में रहे भैया को पूरा सम्मान देते रहे। बाद में वापस गांव लौट
गये। वृद्धावस्था में जब छड़ी लेकर चलने लगे थे तो कलकत्ता आये और हावड़ा से अपने
नाती को साथ लेकर भैया से मिलने आये थे।
यहां मैं बताता चलूं कि मैं बचपन से ही बहुत
संकोची हूं। पहले तो मैं किसी निमंत्रण में नहीं जाता था और जाता भी था तो एक बार
जो परोस दिया गया उसके बाद दोबारा नहीं मांगता था। घर जाकर मां से खाना मांगता था।
मां पूछती -निमंत्रण में गया था वहां नहीं खाया। मैं कहता मुझे मांगने में संकोच
होता है। इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग बताता चलूं। हमारे गांव के एक कुर्मी थे
जिन्हें पता था कि मैं संकोची हूं निमंत्रण में कुछ मांगता नहीं। वह अक्सर पंगत
में मेरे बगल में बैठते और कहते दादू (हमारे यहां बच्चों को इसी नाम से बुलाते
हैं) जो भी परोसने आये मना मत करना, मैं हूं ना सब संभाल लूंगा। सचमुच वे बखूबी
संभाल लेते। मेरे पत्तल में जो भी आता वह उनके पेट में जाता। इसी तरह मुझे किसी से
कुछ भी मांगने में संकोच होता है यह आदत अब तक नहीं गयी।
इसके
चलते मैंने एक दिन अच्छी-खासी परेशानी झेली। जिस पैंट में पर्स था उसे भूल मैं
दूसरा पैंट पहन गया। घर से काफी दूर पैदल निकल गया तो पता चला कि पैंट की जेब में
तो पर्स ही नहीं है क्या करता पैदल ही आफिस चला गया। वापस लौटते वक्त भी मैं
सन्मार्ग कार्यालय में भी संकोच से कियी से पैसे ना मांग सका और पैदल ही घर लौटा। घर
में भैया से इसका जिक्र किया तो उन्होंने दूसरे दिन सबको सन्मार्ग में बता दिया।
अगले दिन
मंगल पाठक जी, राजीव नयन ने मुझे जम कर झाड़ा और पूछा-तुम हमें अपना बड़ा भाई नहीं
मानते क्या। क्या हमसे पैसा नहीं मांग सकते थे।
मैंने
सिर झुका कर उनसे माफी मांग ली। (क्रमश:)
Thursday, May 26, 2022
गांव का लड़का कलकत्ता महानगर में भौंचक रह गया
Tuesday, May 17, 2022
जब कलकत्ता की बस में मैं गुंडों से घिर गया
आत्मकथा-33
कुछ भूल गया, कुछ
याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-33
अब फिर ट्रन का सफर। जिन सहदेव भैया के साथ कलकत्ता जा रहा था वे मुझे गुमसुम देख कर
बोले-अम्मा, बाबा की याद आ रही है क्या, क्यों चुपचाप बैठे हो।
मैंने कहा-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
इस पर सहदेव भैया की श्रीमती मोहिनी बोलीं-परेशान मत होना तुम्हारे भैया-भाभी
बहुत अच्छे हैं, तुम्हें जान-सा पायेंगे।
तब तक मानिकपुर स्टेशन आ गया था। सहदेव भैया ने
स्टेशन से अंकुरित चने खरीदे। एक दोना मुझे थमा कर एक बच्चियों को दिया एक मोहिनी
भाभी को थमा दिया।
मैं बेमन-सा चने चुभलाने लगा।
मुझे परेशान देख सहदेव भैया ने कलकत्ता के बारे
में बताना शुरू किया-जानते हो कलकत्ता बहुत बड़ा शहर है। सैकड़ों किलोमीटर तक फैला
है। तुम्हारे गांव जैसे सैकड़ों गांव उसमें समा जायेंगे। शहर में हजारों बसें चलती
हैं। दो डिब्बे की एक छोटी ट्रेन भी बिजली से चलती है जिसे वहां ट्राम कहते हैं।
बहुत भीड़ है दिन भर शोर-शोर और शोर। वहां बड़े-बड़े कारखाने जूट मिल हैं जिनमें
ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिक काम करते हैं। कलकत्ता में हुगली
नदी यानी गंगा की ही एक धारा पर हावड़ा स्टेशन के पास विश्व प्रसिद्ध हावड़ा पुल
है।
मैं सहदेव भैया की बातें ध्यान से सुन रहा था।हम
लोग स्टेशन दर स्टेशन आगे बढ़ते जा रहे थे।
मैंने सहदेव भैया से पूछा- भैया हम कब तक कलकत्ता पहुंच जायेंगे।
भैया बोले –अगर रास्ते में ट्रेन लेट ना हुई तो
सुबह सुबह पहुंच जायेंगे।
दिन भर स्टेशन पर स्टेशन गुजरते रहे। रात आयी तो हम सभी अपने-अपने स्लीपर
सो गये। मैं लेट तो गया पर ट्रेन की खटर-पटर में नींद तो आना दूर मुझे झपकी तक
नहीं आयी और मैं यों ही लेटा रहा।
सुबह हमारी गाड़ी हावडा स्टेशन पहुंची। मैंने पहली बार इतना बड़ा स्टेशन
देखा था। कई ट्रेन लाइने और उन पर खड़ीं तमाम ट्रेनें। कुछ ट्रेनें स्टेशन से छूट
रही थीं और कुछ स्टेशन में घुस रही थीं। चारों ओर शोर-शोर और शोर। भीड़ इतनी कि
आदमी-आदमी से टकरा जाये। हमारे पास हलका-फुलका सामान था। स्टेशन से बाहर आकर मैं
पहली बार एक अजूबे हवाड़ा पुल देखा जिसके नीचे से गंगा की एक धारा हुगली बह रही थी।
सहदेव भैया ने एक पीली कार पकड़ी उसमें हम लोग बैठ गये। सहदेव भैया ने
बताया कि कलकत्ता में इसे टैक्सी कहते हैं।
करीब आधा घंटे में हम सभी सहदेव भैया के घर
पहुंच गये। वे एक ऊंची ब्लिडिंग के छत पर बने घर में रहते थे।थोड़ी देर हम लोग
उनके घर में रुके फिर सहदेव भैया पत्नी और बच्चियों को घर पर छोड़ मुझे लेकर
भैया-भाभी से मिलाने चल पड़े। झिर-झिर कर बारिश हो रही थी। बारिश की फुहारों में
भीगते हुए पैदल ही चल पड़े। सहदेव भैया अरसे से कलकत्ता में रह रहे थे। उनका
प्लाईवुड का बिजनेस था। वे कलकत्ता की हर
गली और मोहल्ले से परिचित थे। रास्ते में फर्राटे से दौड़ती कारें, बसें और दूसरे
वाहन दिखाई दिये। पहली बार मैं दोतल्ला बस देख कर चौंक गया।
सहदेव भैया से पूछा-भैया यहां दो तल्ला बसें भी
चलती हैं।
भैया बोले-हां, यहां ऐसी बसें भी चलती
हैं।
कलक्त्ता में गगनचुंबी इमारतों, बड़ी-बड़ी
दूकानों के बीच से गुजरते हुए लगभग आधे घंटे बाद हम लोग उस कालोनी में पहुंच गये
जहां भैया-भाभी एक फ्लैट में रहते थे। हम जब पहुंचे तब भाभी घर में अकेली थीं।
भैया सन्मार्ग अखबार में रात ड्यूटी पर थे।
हमने गांव से चलने से पहले कोई चिट्ठी वगैरह नहीं भेजा था। भाभी सहदेव भैया
को पहचानती थीं क्योंकि वे अक्सर उनके यहां आया-जाया करते थे। उनके साथ एक अजनबी
युवक को देख उनके चेहरे पर तमाम तरह के प्रश्न उभरने लगे।
सहदेव भैया ने उनके चेहरे को पढ़ लिया और बोले-पहचानों भाभी यह कौन है।
भाभी ने मुझे कभी देखा नहीं था। उनके पास मेरा
जो फोटो भी था वह बहुत छोटी उम्र का था।
थोड़ी देर तक मुझे पहचानने की कोशिश करने के बाद
वे सहदेव भैया से बोलीं –लाला (हमारी तरफ देवर के लिए यही संबोधन किया जाता है)
नहीं पहचान पायी आप ही बता दो।
सहदेव भैया मुसकराते हुए बोले –हार गयी ना। अरे
यह तुम्हारा देवर है रामहित तिवारी जुगरेहली वाला।
भाभी ने यह सुना तो उनके चेहरे पर एक मुसकान
दौड़ गयी।
मैंने भाभी को चरण स्पर्श किया। उन्होंने पास रखी एक गद्देदार कुर्सी पर
बैठने को कहा।
मैं ज्यों ही कुर्सी पर बैठा कई बार चट-चट की
आवाज हुई। मेरी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ।
भाभी बोलीं-देवर जी आते ही मेरी स्प्रिंग वाली
कुर्सी तोड़ दी।
वे मुसकुरा रही थीं। क्रोधित नहीं थीं।
सहदेव भैया ने कहा अरे यह तो गांव में पहलवानी
करता था। कुश्ती लड़ता था और खूब व्यायाम करता था इसीलिए शरीर से मजबूत है।
भाभी बोलीं –कोई बात नहीं कुर्सी भी पुरानी हो चुकी थी।
भाभी ने चाय बनायी और बिस्किट के साथ मुझे
और सहदेव भैया को भी दिया।
चाय पीकर सहदेव भैया जाने को हुए तो भाभी ने
कहा-थोड़ा रुक जाओ तुम्हारे भैया आते ही होंगे।
सहदेव भैया रुक गये। थोड़ी देर में ही भैया आ गये। मैंने आगे बढ़ कर उनके
चरण स्पर्श किये तो उन्होंने कहा-अरे तुम अचानक, अरे चिट्ठी तो भेज देते।
उत्तर सहदेव भैया ने दिया-अरे यह आना थोड़े चाहता था, अम्मा-बाबा भी तैयार
नहीं थे। मैं यह कर लाया हूं कि भैया-भाभी से मिला कर लौटा लाऊंगा।
भैया ने
कहा-अच्छा किया, जब इसे कुत्ते ने काटा था तो मैं इसे देखने गांव गया था।
मैं बोल आया कि थोड़े बड़े हो जाओ फिर मैं तुम्हें कलकत्ता ले जाऊंगा।
भैया से थोड़ी देर बात कर के सहदेव भैया वापस
लौट गये। भैया-भाभी मेरे पहुंचने से बहुत खुश थे। थोड़ी देर में मुझे नाश्ते में
मक्खन लगी पावरोटी दी गयी। पैकेट में बंद
रोटी भी मिलती है यह मैं पहली बार देख रहा था।
जिस कालोनी में भैया-भाबी रहते थे उसमें नौ बिल्डिंगें हैं। हर ब्लिडिंग
चार तल्ले की है।
भाभी पास-पड़ोस के लोगों से मेरा परिचय कराने
लगीं। भैया-भाभी एकाकी रहते थे उनके घर कोई रिश्तेदार आया है यह सुन कर आस-पास के
लोग, महिलाएं देखने आने लगीं। वह दिन लोगों से मिलते-मिलाते बीता।
शाम को भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ रात ड्यूटी में
सन्मार्ग अखबार चले गये।
*
कलकत्ता में रहते हुए मुझे एक सप्ताह ही
बीता था। भैया-भाभी के फ्लैट का नंबर दो था। एक नंबर फ्लैट में एक बंगाली सज्जन
चटर्जी बाबू रहते थे। वे एक दिन भाभी से बोले-भाभी तुम्हारा ठाकुरपो (पता चला देवर
को बांग्ला भाषा में ठाकुरपो कहते हैं) को काली जी का दर्शन नहीं करायेगा।
भाभी बोलीं-आप साथ चलिए तो दिखा लाते हैं।
चटर्जी बाबू बोले-कल चलो।
दूसरे दिन सुबह ही हम लोग बस में सवार होकर काली
जी के मंदिर की ओर चल पड़े। कलकत्ता में यह मेरी पहली बस यात्रा थी। बस में भारी
भीड़ थी। चटर्जी बाबू और भाभी आगे की तरफ चढ़ गये। मै पिछले दरवाजे से चढ़ गया।
यही गलती हो गयी। कलकत्ता में पहली बस यात्रा वह भी मैं अपनों से अलग हो गया। वे लोग बस के अगले
हिस्से में थे और भीड़ भरी बस में पिछली
ओर रह गया। वहां कुछ शोहदे या कहें गुंड्डे टाइप के आठ-दस लड़के इस तरह खड़े थे कि
उनसे पार जाना मुश्किल था। मैं इस बात के लिए घबड़ा रहा था कि पता नहीं भाभी लोग
कब उतर जायें और मैं बस में फंसा रह जाऊं।
अनजान शहर, अनजान डगर उनसे ना मिल पाया तो मेरा क्या होगा। उस पर बांग्ला भाषा जो
मेरी समझ में नहीं आती।
कुछ देर बाद भाभी की आवाज सुनाई दी-उतरो, उतरो हमारा स्टापिज आ गया।
भाभी की आवाज सुन मैंने उन बदमाश लड़कों से कहा
जाने दीजिए। वे हंसने लगे और बदमाशी कर के और रास्ता रोक कर खड़े हो गये। वे टस से
मस नहीं हो रहे थे और मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी। मुझे यह पता चल गया था कि भाभी
और चटर्जी बाबू उतर गये हैं। मैंने अचानक अपने दोनो हाथों को जोरदार झटके के साथ
फैलाया और उसके धक्के से वे सभी भरभरा कर इधर उधर हो गये। बस थोड़ी धीमी हुई थी
रास्ता पाते ही मैं बस से कूद गया। वे लड़के खिड़की से चिल्लाये-देखे नेबो। मेरी
समझ में कुछ नहीं आया। मैं बस की उलटी दिशा में दौड़ पड़ा कि भाभी और चट्रर्जी
बाबू पीछे ही बस से उतरे हैं। वे भी मेरे लिए दौड़े आ रहे होंगे।
वही हुआ जो मैंने सोचा था। मैं दौड़ता चला जा
रहा था उधर भाभी और चटर्जी बाबू मेरी ओर दौड़े आ रहे थे।
जब पास आये तो चटर्जी बाबू बोले-तुम कहां रह गया
था।
मैंने कहा-कुछ गुंडों ने मुझे घेर लिया था। वे
बस से उतरने ही नहीं दे रहे थे।
चट्रर्जी बाबू बोले-फिर कैसे उतरा।
मैंने उन लोगों को धक्का मारा तो सभी बस
में ही गिर गये और मुझे निकलने की जगह मिल गयी।
भाभी बोलीं-हम लोग तो बहुत डर गये थे कि तुम इस
शहर से एकदम अनजान हो पता नहीं कहां चले जाओगे।
मैंने चटर्जी बाबू से पूछा- दादा, मेंने जब उन लोगों को गिरा दिया तो उनमें
से एक चिल्लाया- देखे नेबो। इसका मतलब क्या है।
चटर्जी बाबू बोले-तुमको देख लेने का धमकी दिया
वो लोग।
मैंने मुसकरा कर कहा-दादा आपके यहां बदला
उधार रखा जाता है। हम बुंदलखंडी इसे उधार नहीं रखते। दुश्मन सामने हो तो तत्काल
उससे निपट लेते हैं पता नहीं कल मिले ना मिले इसलिए तुरत उचित जवाब दे देना ही
उचित है। इस तरह कलकत्ता का मेरा बस यात्रा का पहला अनुभव ही बहुत कड़वा रहा।(क्रमश:)
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अपनों से अपनी बात
अपनी आत्मकथा की तैंतीसवीं किश्त आपसे साझा करते हुए मैं कुछ कहना चाहता हूं। मैं बहुत ही सामान्य व्यक्ति हूं, मैं नहीं मानता कि मैंने कोई ऐसा तीर मारा है कि अपनी कहानी औरों को सुनाऊं। इस उम्मीद से कि लोग इससे प्रेरणा लें। इसे लिखने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि एक व्यक्ति को जीवन में कितना संघर्ष करना पड़ता है वह भी आज के स्वार्थी युग में जहां आपकी बांह थाम आगे बढ़ने में मदद करनेवाले कम आपकी प्रगति की रफ्तार में टांग अड़ाने वाले ज्यादा हैं। मैंने जब इसकी पहली किश्त डाली तो जनसत्ता में मेरे सहकर्मी रहे भाई मांधाता सिंह ने यह कह कर मेरा हौसला बढ़ाया-इसे जारी रखिए आखिरकार आज की पीढ़ी यह तो जाने हम लोगों ने कितना संघर्ष किया है। सच कहता हूं उनके इस प्रोत्साहन ने ही दशकों बाद यादों के गलियारे में लौटने का हौसला मुझे दिया। जो कुछ याद रहा उसे ही आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। आप इसे पसंद कर रहे हैं यह मेरे लिए आशीष की तरह है। इसके लिए आपका अंतरतम से आभार।