Thursday, March 5, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-14

    भाग (14)
राजेश त्रिपाठी
विविधता से भरा था उनका जीवन, साधुओं के संग भी बीता वक्त

     रामखिलावल त्रिपाठी रुक्म का जीवन विविधताओं से भरा और विचित्र रहा। जब उनके पिता का निधन हो गया और मामा मंगल प्रसाद त्रिपाठी ने उनकी सुरक्षा और देखरेख का भार लिया तो उन्हें कुछ दिन अपने छोटे मामा के साथ बिलबई में रहना पड़ा। छोटे मामा (मंगल प्रसाद त्रिपाठी के छोटे भाई) साधु थे और कृष्णानंद उनका नाम था। वे बांदा-बबेरू रोड पर बिलबई के पास ही सड़क किनारे की एक कुटिया में रहते थे। उन्होंने चित्रकूट के पास पीलीभीत से विधिवत संस्कृत की शिक्षा ली थी। साहसी अपने बड़े भाई मंगल प्रसाद की ही तरह थे।
     रुक्म जी अपने उन छोटे मामा साधु कृष्णानंद जी के महाराज के साथ कुटी में रहते थे। उनके साथ ही रह कर प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने ली साथ ही धार्मिक प्रवृत्ति भी उनमें घर करती गयी। उन दिनों के बारे में वे अक्सर बताया करते कि साधु मामा औघड़ों जैसा जीवन जीते थे। कहते हैं कि वे श्मशान घाट से वह घड़ा ले आते जो लोग अर्थी के साथ लाते थे और उसी में कभी चावल पका लेते तो कभी रोटी सेंक लिया करते थे। रुक्म जी भी मामा के साथ वही खाना खाते थे। कृष्णानंद जी की कुटी आज भी बांदा-बबेरू रोड में बिलबई के पास स्थित है। उसमें कुआं और मंदिर भी है। बताते हैं कि कुआं और मंदिर बनाने के लिए उन्होंने जो ईंट का भट्टा लगवाया था उसके लिए सड़क किनारे के कुछ सरकारी पेड़ों की डालियां कटवा ली थीं। इस पर उनको अदालत में तलब किया गया।
     अदालत में मैजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा-महाराज! आपने सरकारी पेड़ कटवा कर अपराध किया है।
            साधु कृष्णानंद- साहब मैंने जो किया जनहित के लिए किया। अपने किसी स्वार्थ या व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं।
            मैजिस्ट्रेट- जनहित, कैसा जनहित?’
            साधु कृष्णानंद-साहब देखिए, मैंने मंदिर बनवाया, वहां लोग प्रभु की पूजा करते हैं। आश्रम का कुआं इस सड़क पर गुजरने वाले यात्रियों की प्यास बुझाता है।
            मैजिस्ट्रेट-लेकिन कानून की दृष्टि से तो यह अपराध हुआ।
            साधु कृष्णानंद-साहब आप ही बताइए क्या किया जाये।
            मैजिस्ट्रेट-आपको आर्थिक दंड देना होगा।
            साधु कृष्णानंद-आर्थिक दंड? अर्थ ही होता तो यह अनर्थ इस साधु को क्यों करना पड़ता। मेरी कुटी के पास एक बक्सा लगा है उसमें राहगीर आना-दो आना डाल देते हैं, वही मेरे आश्रम की संपत्ति है। अब आर्थिक दंड देना है तो साधु हूं झोली फैलाता हूं मेरी तरफ से आप ही दीजिए।
            साधु कृष्णानंद बातें सुन कर मैजिस्ट्रेट मुसकराये और बोले-पंडित जी जाइए, आपसे कोई नहीं जीतेगा। आगे से ऐसा कोई गैरकानूनी काम मत कीजिएगा।
            ‘जी धन्यवाद। ईश्वर आपको सदा खुश रखेगा। आपको देने के लिए इस गरीब साधु के पास बस आशीर्वाद भर ही है।
            रुक्म जी जब अपनी यादों के पुराने पृष्ठ खोलते तो उनमें उनके जिए कालखंडों और स्थानों की कई घटनाएं पता चलतीं। अपने गांव बिलबई की ऐसी ही एक चौंकाने वाली घटना वे सुनाते थे। यह घटना कितनी सच है यह तो नहीं कह सकते लेकिन इसे सुन कर चौंकना पड़ता है।
     कहते हैं कि बिलबई में लाले गिरि और बाले गिरि नामक दो प्रभु भक्त भाई रहते थे। बड़े ही सीधे-साधे और दूसरों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले। अपना दुख भूल दूसरों के दुख दूर करना और पीड़ितों की हर संभव मदद करना उनके स्वभाव में शामिल था। उन्हें कभी किसी से झगड़ते हुए किसी ने नहीं देखा था।
     रुक्म जी ने इन दोनों भाइयों के बारे में एक बार यह घटना सुनायी थी-लाले गिरि और बाले गिरि बाबा एक बार गांव के कुछ लोगों के साथ उत्तर भारत की तीर्थयात्रा पर गये। यह बैसाख का महीना था जब खेतों में गेंहूं पक कर लहरा रहा था। ये लोग जब तीर्थ क्षेत्र में थे तभी उस दिशा में जहां बिलबई पड़ती है भयानक बादल घिर आये। साथ के लोग सहम गये। बैसाख में जब-जब गांवों में बादल घिरते हैं लोगों को ओले पड़ने की आशंका बलवती हो जाती है। लाले गिरि और बाले गिरि बाबा से लोगों ने कहा बाबा लगता है हम पर मुसीबत टूटने वाली है।
            लाले गिरि बोले- क्या बात है क्यों घबरा रहे हो, प्रभु सब कल्याण करेंगे।
            एक ग्रामीण बोला-बाबा हमारी दिशा में जो बादल घिरे हैं, वे ओले वाले बादल हैं, अगर ये हमारे गांव में पड़ गये तो गेहूं की फसल चौपट हो जायेगी और सारा गांव भूखा मर जायेगा।
            लाले गिरि बाबा बोले- धैर्य रखिए, सब शुभ ही होगा।
            ग्रामीण बोला –महाराज, आप ही प्रभु से प्रार्थना कीजिए और अपने गांव को इस विपत्ति से बचाइए, हम आपसे प्रार्थना करते हैं।
            इस पर लाले गिरि बाबा बोले –ठीक है। वे जहां थे वहीं आसान लगा कर बैठ गये और हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगे।
     इधर बिलबई में लोगों ने देखा कि ओले वाले जो बादल उनके गांव पर लटक आये थे अचानक धीरे-धीरे एक खास दिशा की ओर मुड़ गये और एक जगह पर कुछ खेतों पर बरस गये। उन खेतों पर ओले पट गये और गेहूं के खेत तबाह हो गये। ये खेल लाले गिरि और बाले गिरि बाबा के थे।
     लाले गिरि और बाले गिरि बाबा की फसल चौपट हो गयी। लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे कि बड़े प्रभु के बंदे बन रहे हैं प्रभु ने सारे गांव के खेत छोड़ कर उनकी ही फसल तबाह कर दी।
     जब लाले गिरि, बाले गिरि अपने गांव के लोगों के साथ तीर्थ यात्रा से वापस आये तो लोग उनका मजाक उड़ाने लगे कि किस तरह गांव के सारे खेत बच गये और उनके खेतों पर सारे ओले पड़े और फसल नष्ट हो गयी। लाले गिरि और बाले गिरि कुछ नहीं बोले बस मुसकरा कर रह गये।
     उनके साथ तीर्थ यात्रा पर गये ग्रामीणों में से एक बोला- सब चुप हो जाओ, लाले गिरि और बाले गिरि बाबा की कृपा से सबकी फसल बच गयी वरना आज सब इस तरह हंसते नहीं बल्कि रोते हुए।
     एक ग्रामीण बोला-कैसी कृपा?’
            लाले गिरि के साथ गये ग्रामीण ने उत्तर दिया-हमने जब तीर्थ यात्रा के दौरान अपने गांव की दिशा में यह अनर्थ होते देखा तो लाले गिरि, बाले गिरि से प्रार्थना की कि वे कुछ करें, गांव को तबाही से बचायें। उसके बाद लाले गिरि और बाले गिरि बाबा ने प्रभु से प्रार्थना की कि वे सारे ओले उनके खेतों पर बरसा दें और गांव के खेत बचा दें।
           
रुक्म जी प्रसन्न मुद्रा में
इतना सुनते ही सारे लोग लाले गिरि और बाले गिरि बाबा के कदमों पर गिर गये और उनसे क्षमा मांगी। ऐसे चमत्कारी पुरुष भारत में हुए हैं इसकी कई मिसालें और प्रसंग मिलते हैं। वैसे इस घटना को सत्यापित करने का कोई प्रमाण इस ब्लागर के पास नहीं है लेकिन उसने अपनी आंखों से बिलबई में कृष्णानंद जी की कुटी से कुछ दूर खेतों की मेड़ पर ही लाले गिरि और बाले गिरि बाबा की समाधि देखी है। पता चला कि लोग आज भी उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। जब-जब आस्था और चमत्कारों की बात होती रुक्म जी अक्सर लाले गिरि और बाले गिरि बाबा की कहानी सुनाते थे।
     रुक्म जी की शुरुआती पढाई उर्दू मीडियम से हुई थी। बाकायदा उन्होंने मदरसे में उर्दू पढ़ी इसीलिए उनको उर्दू का अच्छा ज्ञान था। अपने उन दिनों के बारे में वे अक्सर बताया करते थे।
     वे कहते कि उनके उर्दू में अक्सर 70 फीसदी अंक आते थे जब कि उनके जो मुसलिम सहपाठी थे उनके नंबर कम आते थे। इस पर मौलवी साहब उन सहपाठियों पर गुस्सा हुआ करते थे।
     बांदा के दिनों के बारे में वे अक्सर अपने उस दौर की बातें भी सुनाया करते थे जब वे शहर की रामलीला में लक्ष्मण बना करते थे। कहते हैं कि लक्ष्मण-परशुराम संवाद के दिन रामलीला देखनेवालों की भारी भीड़ होती थी।
     एक बार की ऐसी ही घटना का जिक्र उन्होंने किया। उन्होंने बताया कि उस दिन लक्ष्मण-परशुराम संवाद का दिन था। महिला दर्शकों के लिए सामने एक मंच बनाया गया था। दिन में जब रुक्म जी ने उस मंच को देख तो सहसा बोल उठे-अरे मंच बना तो दिया लेकिन डर है कि कहीं यह टूट न पड़े। खैर रात आयी, वह मंच महिलाओं से खचाखच भर गया। लक्ष्मण-परशुराम संवाद शुरू हुआ, अभी कुछ समय ही गुजरा था कि वाकई सामने वाला मंच भरभरा कर गिर गया। रामलीला रुक गयी। चारों तरफ अफरातफरी मच गयी। रामलीला कमेटी वाले और दूसरे लोग मंच से गिरी महिलाओं को बचाने दौड़े। सौभाग्य की बात यह थी कि इस घटना से किसी की जान नहीं गयी थी पर कई महिलाओं को गंभीर चोटें आयी थीं। रुक्म जी आंखें महिलाओं की भीड़ में किसी खास चेहरे को ढूंढ़ रही थीं। लेकिन वह चेहरा मंच से गिरी महिलाओं की भीड़ में नजर नहीं आया इस पर उनकी बेचैनी और बढ़ गयी। उन्होंने नीचे उस ओर नजर घुमायी जहां महिला दर्शकों के बैठने की जगह थी। वहां वह चेहरा दिखा तो उनकी जान में जान आयी। यह चेहरा था निरुपमा का जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं और उनके सुख-दुख की सच्ची सहभागी और अभाव में पल कर भी उन्हें इसका अहसास न हो यह प्रयास करने में सतत लगी रहनेवाली रहीं।
     बांदा की रामलीला की एक और घटना वे सुनाया करते थे। वे बताते थे कि कानपुर के कोई  प्रोफेसर अंगद की भूमिका निभाने आया करते थे। वे इतना प्रभावी अभिनय करते थे कि उनके सिवा अंगद की भूमिका में किसी को रखने की बात सोची ही नहीं जा सकती थी। एक बार की बात है कि प्रोफेसर आये अंगद का मेकअप किया और रावण के दरबार में पहुंचे। वे अक्सर 15-20 सीढ़ी ऊपर से कूद कर रावण के सिंहासन के सामने कूदते थे और अपना पैर जमा कर वीरासन में आ जाते थे। वे अक्सर ऐसा करते थे और सफल रहते थे लेकिन एक बार अनर्थ हो गया, जब वे सीढ़ियों से कूदे पल भर के लिए उनके चेहरे पर दर्द की लकीर खिंच गयी लेकिन फिर वे संभल गये और काफी देर तक संवाद बोलते रहे और ज्यों ही दृश्य खत्म हुआ एक ओर लुढक गये। लोग जल्द उनके पास पहुंचे। उन्हें उठाया गया तो पता चला कि जहां वे कूदे वहां पता नहीं कैसे किसी ने नीचे गड़ढा कर दिया था जो ऊपर बिछी कालीन से दिखा नहीं था। अंगद बने प्रोफेसर की एक टांग उस गड़्ढ़े में पड़ कर टूट गयी लेकिन वे उसके बावजूद दर्द सह कर अपनी भूमिका निभाते रहे।
     इस घटना के साथ ही वे अक्सर समर्पित कलाकारों के बारे में ऐसा जिक्र करते थे। इसी में महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के बारे में वे बताते थे कि कभी वे अपने पूरे परिवार के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहते थे। कहते हैं कि वे यहां नाटक किया करते थे और उन नाटकों में उनके बेटे राज कपूर, शशि कपूर और शम्मी कपूर भी भाग लिया करते थे। कहते हैं कि एक बार शशि कपूर किसी नाटक में भूमिका निभा रहे थे। उन्हें मरने की भूमिका निभानी थी और वे मंच पर मर कर गिर गये। उसी वक्त परदा गिरा और कहते हैं कि परदे का भारी निचला हिस्सा उनके सिर पर लगा और उनके गले से हलकी चीख-सी निकली परदे के पीछे खड़े पापा पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें धमकाया-खामोश रहो, तुम मर चुके हो, दर्शक क्या कहेंगे। कहना ना होगा कि दर्द के बावजूद शशि कपूर सिमट कर रह गये। पापा के डर से वे चुपचाप दर्द पी गये। (शेष अगले भाग में)

           




           



            

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