Thursday, January 8, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-9

इंकलाबी कवि शलभ श्रीराम सिंह भी उन्हें बहुत मानते थे
(भाग-9)

राजेश त्रिपाठी
        यह तो पहले ही बता आये हैं कि रुक्म जी किशोर वय से ही कविताएं और कहानियां लिखने लगे थे। उन दिनों उनकी कहानियां बालसखा, मनोहर कहानियां, मनमोहन व दूसरी पत्रिकाओं में छपती थींं। बड़े-बड़े रचनाकारों के साथ छपती थींं उनकी कहानियां। कलकत्ता में भी पत्रकारिता के साथ उनका साहित्य सृजन जारी रहा। कलकत्ता के कई स्वनामधन्य कथाकारों और कवियों से उनकी जान-पहचान और मित्रता रही। उन दिनो ज्ञानोदय पत्रिका कलकत्ता से ही निकलती थी और रुक्म जी भी गाहे-बगाहे उसमें छपते रहते थे। कलकत्ता के जिन कवि और कथाकारों से उनका परिचय था उनमें प्रमुख हैं कथाकार, कवि, आलोचक, संपादक प्रयाग शुक्ल, कथाकार छेंदीलाल गुप्त, कवि, गीतकार छविनाथ मिश्र, ललित निबंधकार डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र, गीतेश शर्मा, एस.पी. सिंह, नारायण दुबे, विश्वंभर नेवर व अन्य। प्रयाग शुक्ल उन दिनों कलकत्ता में ही रहते थे। उनके भाई (शायद नाम था रामनारायण जिनकी अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी थी) भी कथाकार थे। तब प्रयाग जी का रुक्म जी से अक्सर मिलना-जुलना होता था और वे उन्हें बड़े भाई सा सम्मान देते थे। छेंदीलाल गुप्त कथाकार थे और शायद वे उम्र में रुक्म जी से बड़े थे इसलिए वे उनका आदर पाते थे। छेंदीलाल गुप्त वामपंथी विचारधारा के थे और उनकी रचनाओं में भी यह झलकता था। गीतकार, कवि छविनाथ मिश्र जी भी कभी रुक्म जी के पड़ोसी हुआ करते थे। यह उस वक्त की बात है जब रुक्म  जी हावड़ा मे रहते थे। छविनाथ मिश्र जी ने ऋचाओं को हिंदी छंदों में ढालने का अभिनव और उत्तम प्रयास किया। वे अक्सर जब भी नयी कविता या गीत लिखते रुक्म जी को जरूर सुनाते। रुक्म जी भी श्रद्धा से उनको सुनते और उन्हें श्रद्धा से दद्दा दी ही कहते थे। रुक्म जी के परिचितों में ललित निबंधकार और वयोवृद्ध साहित्य मनीषी व शिक्षक डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र भी थे। जब तक रुक्म जी जीवित रहे गाहे-बगाहे मिश्र जी से मिलते रहे। मिश्र जी भी कभी राज मिठौलिया तो कभी कृपाशंकर चौबे जी के माध्यम से रुक्म जी के बारे में कुशल-क्षेम पूछते रहते थे। गीतेश शर्मा जी तो रुक्म जी को गुरु जी कह कर ही संबोधित करते रहे। विविध  विषयों   पर  कई  चर्चित व   विदेश की यात्राओं पर आधारित पुस्तकों के लेखक
श्री गीतेश शर्मा

  'जनसंसार' के संपादक गीतेश शर्मा जी अपने आप में अनुभवों को समेटे एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने एक लंबा युग देखा है और पत्रकारिता के कई आयामों को बनते-बिगड़ते देखा है। वे कभी रुक्म जी द्वारा सन्मार्ग में चलाये जा रहे बाल विनोद के सदस्य हुआ करते थे। एस.पी. सिंह जिन्हे मीडिया महानायक कहा गया भी रुक्म जी के द्वारा संपादित बाल विनोद के सदस्य थे।  आगे चल कर एस.पी. सिंह चर्चित पत्रिका रविवार के संपादक बने तो जब रुक्म जी का उनसे मिलना हुआ तो एस.पी. सिंह ने बाकायदा बाल विनोद का अपना सदस्यता नंबर तक उन्हें बता दिया। नारायण दुबे अक्सर रुक्म जी से मिलने सन्मार्ग जाते थे। जब उन्होंने सन्मार्ग छोड़ दिया तो वे उनसे मिलने उनके काकुड़गाछी स्थित फ्लेट में भी आते रहे और रुक्म जी व उनके परिवार के लिए वे हमेशा घर के किसी सदस्य के ही तरह रहे। दुबे जी बंगाल मेल नामक एक पत्र भी निकालते थे। अभिनय और लेखन का शौक भी उन्हें था। वे भी रुक्म जी के परिशिष्ट में नारायण दुबे सारंगपुरी के नाम से अक्सर व्यंग्य और आलेख लिखते रहते थे। किसी फिल्म की पटकथा लिखते या अभिनय करते तो यह जानकारी रुक्म जी से साझा करने से ना भूलते। रुक्म जी भी हमेशा उनकी हौसलाआफजाई ही करते।
   छपते छपते के संपादक और ताजा टीवी के विश्वंभर नेवर जी भी रुक्म जी का बड़ा आदर करते थे। कहते हैं छपते छपते निकालने से पहले एक बार वे रुक्म जी से मिले तो उन्होंने कहा कि वे ‘छपते छपते’ नाम का अखबार निकालने वाले हैं। रुक्म जी को ताज्जुब हुआ यह अनोखा नाम सुन कर। आजकल जिस
श्री विश्वंभर नेवर

तरह से टीवी  में ब्रेकिंग न्यूज का चलन है उसी तरह से उन दिनों अखबारों में लेट अवर पायी खबरों को संक्षिप्त में `छपते छपते' स्लग लगा कर छापने की परंपरा थी लेकिन इस नाम से अखबार निकालने की बात उस वक्त रुक्म जी के गले नहीं उतरी लेकिन बाद में इस अखबार का नाम लोगों के होंठों पर आ गया तो रुक्म जी नेवर जी की बुद्धि का लोहा मान गये। इनके अलावा भी कई ऐसे लोग थे जिनसे रुक्म जी का परिचय रहा। ऐसे कुछ लोगों का जिक्र आगे की किस्तों में करने की कोशिश करेंगे।
इंकलाबी कवि और यायावर व्यक्तित्व शलभ श्री राम सिंह के परिचय के लिए उनकी ये चंद पंक्तियां ही काफी हैं-नफस नफस कदम कदम। बस एक फिक्र दम बदम। घिरे हैं हम सवाल से जवाब चाहिए। जवाब दर सवाल है इंकलाब चाहिए। ‘  ये पंक्तियां कभी हक के लिए लड़नेवालों की आवाज बन गयी थीं। रुक्म जी से शलभ श्रीराम सिंह का परिचय भी काफी गहरा था। इंकलाबी कवि और विद्रोही तेवर के व्यक्तित्व वाले शलभ जी को अभिनय का भी शौक था यह बात शायद कम लोगों को पता होगा। उन्होंने साहित्य के अलावा अभिनय व पत्रकारिता में भी हाथ आजमाया। पत्रकारिता में उनके मददगार रहे रुक्म जी उनके बड़े भैया ही बने रहे।
शलभ श्रीराम सिंह

जिन दिनों की ये बात है उन दिनों आज का मूनलाइट सिनेमा नाटकों के लिए मशहूर था। उसमें अक्सर नाटकों  का मंचन होता था जिसमें कुछ पारसी स्टाइल के हुआ करते थे। शलभ श्रीराम सिंह अपने अभिनय की भूख इन नाटकों में मिटाते थे।    रुक्म जी सन्मार्ग के सिनेमा पृष्ठ का संपादन करते थे जिसमें उन दिनों नाटकों की समीक्षा व खबरें भी जाती थीं इसलिए वे अक्सर नाटक देखने जाते थे एक समीक्षक के रूप में। मूनलाइट में भी वे नाटक देखने जाते थे। नाटक देखने के दौरान कई बार उन्होंने देखा कि उसमें पुलिस की भूमिका निभानेवाला कलाकार उनको देखते ही किसी दूसरे कलाकार के पीछे छिप जाता है। एक बार वे ग्रीनरूम में गये तो पुलिस की वेशभूषा में शलभ जी को पाया। तब तक शलभ की कविताओं से रुक्म जी का परिचय हो चुका था। उन्होंने उनसे कहा कि तुम अपने लेखन कला, प्रतिभा को ही विकसित करो, चाहो तो उससे मिलता-जुलता पेशा पत्रकारिता भी कर सकते हो। उसके बाद शलभ जी ने वैसा ही किया। वे अपनी रचनाओं के लिए ख्यात हो गये। उनकी कविताओं में नये उपमान और नयी जान होती। उनकी कविताओं में विद्रोही और क्रांतिधर्मा स्वर उनको उन कवियों से अलग साबित करते रहे जो पुरस्कारों या सम्मानों के लोभ में ठकुरसुहाती ही लिखते हैं और जिनकी रचनाधर्मिता स्वार्थ के ताने-बाने में उलझ कर रह जाती हैं। जहां-जहां जनचेतना या सार्थक जनांदोलनों को कुचलने की साजिश हुई शलभ की कविता वहां-वहां आगाह करने  पहुंच गयी।इन पंक्तियों के निहातार्थ से आप इस बात को बखूबी समझ सकते हैं-"पूरब में चमकते सूरज के खिलाफ एक साजिश चल रही है। ताकीद दी जा रही है लोगों को कि वे। झोले में अपना-अपना सूरज लेकर चलें।" जिंदगी की आपाधापी, आदमी का मशीन बन जाना सब कुछ सिर्फ पेट भरने, जीवनयापन के लिए ही तो होता है। पेट ही परमात्मा है, पेट ही गुरु है, यह आदमी से क्या-क्या नहीं करा लेता। इस पर शलभ जी ने बेजोड़ पंक्तियां लिखी हैं-पेट के इशारों पर उठते हैं हाथ। पाँव चलते हैं पेट के इशारों पर। पेट के इशारों पर हरकत में आता है शरीर। पेट आत्मा का पहला ग्रन्थ है। परमात्मा का आइना है पेट। पेट हमारा पहला और आखिरी उस्ताद है। ऐसी ओजस्वी कविताएं लिखनेवाले शलभ जी रुक्म जी के हमेशा बहुत ही करीब रहे। वे उन्हें बड़े भैया कहते थे और रुक्म जी भी उन्हें छोटे भाई सा स्नेह करते थे। शलभ जी उत्तरप्रदेश के फैजाबाद जिले के एक गांव के थे और रुक्म जी भी उत्तरप्रदेश के ही थे इसलिए दोनों में खूब पटती थी। .यह जिन दिनों की बात है तब शलभ जी युवा थे और उभरते कवि के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहे थे। जिस समय का यह जिक्र है उस समय रुक्म जी कलकत्ता के वेलिंग्टन स्क्वायर के करीब हिंद सिनेमा के पास 2 ए अक्रूर दत्त लेन में रहते थे। शलभ जी को जब भी घर का खाना खाने की इच्छा होती वे अपने बड़े भैया के घर पहुंच जाते और भाभी के हाथ का खाना बड़े भैया के साथ बैठ कर खाते थे। जब तक शलभ कलकत्ता में रहे रुक्म जी से बराबर मिलते रहे।
      कालांतर में उनकी शादी कल्याणी जी से हुई जो संयोग से खुद भी कवियत्री हैं। बाद के वर्षों में शलभ जी कलकत्ता छोड़ कर मध्यप्रदेश के विदिशा चले गये जहां उन्होंने रामकृष्ण प्रकाशन में संपादक के रूप में सफलतापूर्वक काम किया। विदिशा में ही उनकी अपने अभिन्न और पुराने मित्र विजयबहादुर सिंह जी से मुलाकात हुई जिनसे उनका परिचय कलकत्ता में ही हो चुका था। विजयबहादिर सिंह जी का नाम लिए बिना शलभ जी का परिचय अधूरा रह जायेगा। विजय जी शलभ जी को जितना जानते हैं साहित्य जगत का शायद ही कोई दूसरा आदमी उतना जानता हो। वे शलभ की जिंदगी के चलते-फिरते इनसाईक्लोपीडिया हैं और उन पर उन्होंने लिखा भी खूब है। बिदिशा में रहते हुए भी शलभ जी जब कभी कलकत्ता आते तो अगर अपने बड़े भैया रुक्म जी से साक्षात्कार नहीं कर पाते तो फोन से जरूर बातें कर लेते थे। अपने प्यारे बड़े भैया से बातें करते वक्त अक्सर उनकी आंखें हर्ष से नम हो जातीं। बहुत ही दिलअजीज और प्यारे थे शलभ जी। पहली बार मिलने वाले से भी वे इतने खुलूस और अपनापे के भाव के साथ मिलते कि मिलने वाले को लगता कि इस शख्स को वह जैसे वर्षों से जानता है।
      अक्रूर दत्त लेन में ही मशहूर संगीतकार वी .बालसारा जी रहते थे जो गुजरात से थे लेकिन.कलकत्ता आने के बाद फिर यहीं के हो गये। वे रुक्म जी के पड़ोसी थे इसलिए उनसे भी उनका अच्छा परिचय था। बालसारा ऐसे संगीतकार थे जिनके हाथों में आया हर साज ऐसे स्वर छेड़ता कि सुननेवाला मंत्रमुग्ध हो जाता। जितने साज वे पारंगता से बजा लेते थे, शायद ही दूसरा कोई संगीतकार बजा पाता हो। उनके घर बड़े-बड़े कलाकारों का आना-जाना लगा ही रहता था। एक बार उनके घर भारत कोकिला लता मंगेशकर जी आ गयीं। अब समस्या थी कि उनके लिए खाना कौन बनायेगा। बालसारा जी को अपने परिचित रुक्म जी का खयाल आया और उन्होंने उनसे अपनी समस्या बतायी। इस पर रुक्म जी ने कहा-इसमें परेशान होने की क्या बात है नीरू (पत्नी निरुपमा त्रिपाठी को प्यार से वे इसी नाम से पुकारते थे) बना देगी और लता जी को खिला भी देगी। वैसा ही हुआ निरुपमा त्रिपाठी ने खाना बनाया और खुद जाकर उन लता दीदी को खिलाया जिनकी वह बहुत बड़ी प्रशंसक थीं।  (शेष अगले भाग में)


1 comment:

  1. अच्छी प्रस्तुति !
    कुछ नयी जीवनी पढ़ने का अवसर मिला !

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