हिंदी साप्ताहिक `रविवार' में तकरीबन 10 साल तक उनके साथ काम करने और सार्थक पत्रकारिता से जुड़ने का अवसर मुझ जैसे कई पत्रकारों को मिला और हमने उस व्यक्तित्व को समीप से जाना-पहचाना जो साहसी था, सुलझा हुआ था और जिसमें खबरों की सटीक और अच्छी पहचान थी। सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की उन्होंने जो शुरुआत इस साप्ताहिक से की, वह पूरे देश में प्रशंसित और समादृत हुई। यह उनकी सशक्त पत्रकारिता का ही परिणाम था कि `रविवार' ने सत्ता के उच्च शिखरों तक से टकराने तक में हिचकिचाहट नहीं दिखायी। इसके चलते `रविवार' पर कोई न कोई मामला होता ही रहता था। लेकिन विश्ववसनीयता इतनी थी कि विधानसभाओं तक में इसके अंक प्रमाण के तौर पर लहराये जाते थे। खबरों की उनकी पकड़ का एक प्रमाण भागलपुर आंखफोड़ कांड की घटना से समझा जा सकता है। यह खबर `आर्यावर्त' के भीतरी पृष्ठ पर इस तरह से उपेक्षित ढंग से छपी थी कि कहीं किसी की नजर न पड़ सके। एसपी को यह बहुत खराब लगा। पत्रकार धर्म की यह उदासीनता उन्हें भीतर तक कचोट गयी। उन्होंने हमारे एक साथी अनिल ठाकुर को ( जो भागलपुर के ही रहने वाले हैं) तत्काल भागलपुर भेजा और भागलपुर आंखफोड़ कांड का काला अध्याय `रविवार' की आमुख कथा बना और जैसा स्वाभाविक है तहलका मच गया। इसके बाद अंग्रेजी पत्र- पत्रिकाओं ने भी इसे प्रमुखता से छापा। अफसोस इस बात का है कि अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं को तो इस पर पुरस्कार मिले लेकिन `रविवार' जिसने इस स्टोरी को प्रमुखता से ब्रेक किया के हिस्से सिर्फ पाठकों और चाहनेवालों की शुभकामनाएं ही आयीं। यहां कहना पड़ता है कि अगर हिंदी अब भी दासी है तो इसके दोषी शायद हम हिंदीभाषी या कहें हिंदीप्रेमी भी हैं।
मैंने जिक्र किया कि `रविवार' के व्यवस्था विरोधी (सारी व्यवस्था नहीं , वह जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो) पत्र था इसलिए मामले उस पर होते ही रहते थे। इसी तरह का एक प्रसंग याद आता है। हम सभी आनंदबाजार प्रकाशन समूह के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे। एसपी अपने चैंबर में थे। अचानक कुछ पुलिस अधिकारी उनसे मिलने आये। स्थानीय पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे हम लोगों ने सोचा वैसे ही कोई अधिकारी होंगे। कार्य में व्यस्त रहने के कारण हम लोग उनका परिचय नहीं पूछ सके और उनको एसपी के चैंबर में जाने दिया। थोड़ी देर में एसपी चैंबर से उन लोगों के साथ निकले और बोले-`अरे, भइया जरा पूछ लिया करो कि कौन हैं, कहां से हैं, ये मध्यप्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं। मैं गिरफ्तार हो चुका हूं और अब जमानत लेने जा रहा हूं।' हमें याद आया कि मध्यप्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष पर एक स्टोरी `रविवार' में छपी थी और उन्होंने मामला कर दिया था। इस घटना के बाद से एसपी ने अग्रिम जमानत ही ले ली थी।
सहजता तो जैसे उनका अभिन्न अंग था। `रविवार' ज्वाइन करने के बाद मैं उनके गृहनगर श्यामनगर के पास गारुलिया गया तो पाया वे चंदन प्रताप सिंह को दुलार रहे हैं। चंदन तब छोटे से, प्यारे से बच्चे थे। थोड़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं फिर बोले-;चलो भइया तुमको फुटबाल दिखाते हैं। ' हमने समझा कि कहीं फुटबाल मैच हो रहा होगा उसे दिखाने ले जा रहे हैं। लेकिन यह क्या गारुलिया में हुगली के तट पर बरसात के उस मौसम में कीचड़ से भरे एक मैदान में एसपी दा अपने बड़े भाई नरेंद्रप्रताप सिंह व अन्य लोगों के साथ फुटबाल खेलने उतर गये। कुछ देर बाद कीचड़ से वे इतने लथपथ हो गये कि उनको पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। उनमें बाल सुलभ सहजता और सरलता थी। बहुत कुछ कहती थीं हलकी दाढ़ी वाले रौबीले चेहरे पर चमकती उनकी भावभरी आंखें।
उनके खुलेपन और अपने सहकर्मियों के प्रति भ्रातृवत व्यवहार को जो भी उनके साथ काम कर चुका है, आजीवन याद रखेगा। कभी भी उन्हें किसी सहकर्मी से ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा कुछ गलती होती तो सहजता से समझाते और कहते-आप अपना लिखा किसी और से भी चेक करा लिया करें। अपने साथी गलती पकड़ेंगे तो उसमें शर्म की कोई बात नहीं। अगर गलती छूट गयी तो कल लाखों लोगों के सामने शर्मशार होना पड़ेगा और जवाबदेह होना पड़ेगा।
एक बार की बात है हम लोग कुछ खाली थे और कार्यालय में रवीन्द्र कालिया जी का उपन्यास `काला रजिस्टर' पढ़ रहे थे। उन्होने देखा तो कहा-`भइया ऐसे मजा नहीं आयेगा। आओ मैं इस उपन्यास के पात्रों का परिचय दे दूं। कालिया जी ने हम लोगों के साथ रहते हुए ही इस लिखा है और हमें जितना लिखते जाते सुनाते भी जाते थे। अच्छा है मजा आयेगा।'
उन पर जितना लिखा जाये कम है। 10 साल की स्मृतियां कम शब्दों में तो सिमट नहीं सकतीं लेकिन दो एक प्रसंग जो उनके संवेदनशील मन को उजागर करते हैं और जिनसे उनका हिंदी प्रेम झलकता है वह देना आवश्यक समझता हूं। उनकी पत्रकारिता न दैन्यम् न पलायनम् की पक्षधर थी। उन्होंने सच को सच की तरह ही उजागर किया। पत्रकारिता में सुदामा वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि हिंदी अपने आप में सक्षम और सशक्त भाषा है और हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की बैसाखी की कोई आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि आनंदबाजार प्रकाशन समूह के रविवार से दिल्ली के एक राष्ट्रीय पत्र में जुड़ने का बाद जब उनके सामने यह प्रस्ताव आया कि अंग्रेजी अखबार का अनुवाद ही हिंदी अखबार में दिया जाये तो उन्होंने वहां से हटना ही श्रेयस्कर समझा। उसके बाद वे दिल्ली में `द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक और फिर हिंदी के पहले निजी समाचार चैनल `आज तक' के रूपकारों में रहे। संवेदनशील इतने थे कि लोगों के दर्द को अपना दर्द समझते थे और उसे शिद्दत से महसूस भी करते थे। और यह अत्यंत संवेदनशीलता ही उनके असमय निधन का कारण बनी। दिल्ली के `उपहार' सिनेमा के अग्निकांड में मृत लोगों के परिजनों का दर्द उन्होंने आंखों से देखा और दिल की गहराइयों से झेला। शनिवार को यह कार्यक्रम `आज तक' में पेश करते वक्त उनकी आंखें नम थीं। वे कह गये `ये थीं खबरें आज तक। इंतजार कीजिए सोमवार तक। ' फिर वह सोमवार कभी नहीं आया। रविवार को वे मस्तिष्काघात से संज्ञाशून्य हुए और फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। वैसे एसपी जैसे व्यक्तित्व मरा नहीं करते। वे अपने कार्य से जीवित रहते हैं। भौतिक रूप से वे भले न हों लेकिन जब तक विश्व में सार्थक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता है , एसपी जीवित रहेंगे। लोगों के विचारों, कार्यों में एक सशक्त प्रेरणास्रोत के रूप में। मेरा उस महान आत्मा को शत शत नमन। (फोटो spkemayne.blogspot.com से साभार)
मैंने जिक्र किया कि `रविवार' के व्यवस्था विरोधी (सारी व्यवस्था नहीं , वह जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो) पत्र था इसलिए मामले उस पर होते ही रहते थे। इसी तरह का एक प्रसंग याद आता है। हम सभी आनंदबाजार प्रकाशन समूह के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे। एसपी अपने चैंबर में थे। अचानक कुछ पुलिस अधिकारी उनसे मिलने आये। स्थानीय पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे हम लोगों ने सोचा वैसे ही कोई अधिकारी होंगे। कार्य में व्यस्त रहने के कारण हम लोग उनका परिचय नहीं पूछ सके और उनको एसपी के चैंबर में जाने दिया। थोड़ी देर में एसपी चैंबर से उन लोगों के साथ निकले और बोले-`अरे, भइया जरा पूछ लिया करो कि कौन हैं, कहां से हैं, ये मध्यप्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं। मैं गिरफ्तार हो चुका हूं और अब जमानत लेने जा रहा हूं।' हमें याद आया कि मध्यप्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष पर एक स्टोरी `रविवार' में छपी थी और उन्होंने मामला कर दिया था। इस घटना के बाद से एसपी ने अग्रिम जमानत ही ले ली थी।
सहजता तो जैसे उनका अभिन्न अंग था। `रविवार' ज्वाइन करने के बाद मैं उनके गृहनगर श्यामनगर के पास गारुलिया गया तो पाया वे चंदन प्रताप सिंह को दुलार रहे हैं। चंदन तब छोटे से, प्यारे से बच्चे थे। थोड़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं फिर बोले-;चलो भइया तुमको फुटबाल दिखाते हैं। ' हमने समझा कि कहीं फुटबाल मैच हो रहा होगा उसे दिखाने ले जा रहे हैं। लेकिन यह क्या गारुलिया में हुगली के तट पर बरसात के उस मौसम में कीचड़ से भरे एक मैदान में एसपी दा अपने बड़े भाई नरेंद्रप्रताप सिंह व अन्य लोगों के साथ फुटबाल खेलने उतर गये। कुछ देर बाद कीचड़ से वे इतने लथपथ हो गये कि उनको पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। उनमें बाल सुलभ सहजता और सरलता थी। बहुत कुछ कहती थीं हलकी दाढ़ी वाले रौबीले चेहरे पर चमकती उनकी भावभरी आंखें।
उनके खुलेपन और अपने सहकर्मियों के प्रति भ्रातृवत व्यवहार को जो भी उनके साथ काम कर चुका है, आजीवन याद रखेगा। कभी भी उन्हें किसी सहकर्मी से ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा कुछ गलती होती तो सहजता से समझाते और कहते-आप अपना लिखा किसी और से भी चेक करा लिया करें। अपने साथी गलती पकड़ेंगे तो उसमें शर्म की कोई बात नहीं। अगर गलती छूट गयी तो कल लाखों लोगों के सामने शर्मशार होना पड़ेगा और जवाबदेह होना पड़ेगा।
एक बार की बात है हम लोग कुछ खाली थे और कार्यालय में रवीन्द्र कालिया जी का उपन्यास `काला रजिस्टर' पढ़ रहे थे। उन्होने देखा तो कहा-`भइया ऐसे मजा नहीं आयेगा। आओ मैं इस उपन्यास के पात्रों का परिचय दे दूं। कालिया जी ने हम लोगों के साथ रहते हुए ही इस लिखा है और हमें जितना लिखते जाते सुनाते भी जाते थे। अच्छा है मजा आयेगा।'
उन पर जितना लिखा जाये कम है। 10 साल की स्मृतियां कम शब्दों में तो सिमट नहीं सकतीं लेकिन दो एक प्रसंग जो उनके संवेदनशील मन को उजागर करते हैं और जिनसे उनका हिंदी प्रेम झलकता है वह देना आवश्यक समझता हूं। उनकी पत्रकारिता न दैन्यम् न पलायनम् की पक्षधर थी। उन्होंने सच को सच की तरह ही उजागर किया। पत्रकारिता में सुदामा वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि हिंदी अपने आप में सक्षम और सशक्त भाषा है और हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की बैसाखी की कोई आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि आनंदबाजार प्रकाशन समूह के रविवार से दिल्ली के एक राष्ट्रीय पत्र में जुड़ने का बाद जब उनके सामने यह प्रस्ताव आया कि अंग्रेजी अखबार का अनुवाद ही हिंदी अखबार में दिया जाये तो उन्होंने वहां से हटना ही श्रेयस्कर समझा। उसके बाद वे दिल्ली में `द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक और फिर हिंदी के पहले निजी समाचार चैनल `आज तक' के रूपकारों में रहे। संवेदनशील इतने थे कि लोगों के दर्द को अपना दर्द समझते थे और उसे शिद्दत से महसूस भी करते थे। और यह अत्यंत संवेदनशीलता ही उनके असमय निधन का कारण बनी। दिल्ली के `उपहार' सिनेमा के अग्निकांड में मृत लोगों के परिजनों का दर्द उन्होंने आंखों से देखा और दिल की गहराइयों से झेला। शनिवार को यह कार्यक्रम `आज तक' में पेश करते वक्त उनकी आंखें नम थीं। वे कह गये `ये थीं खबरें आज तक। इंतजार कीजिए सोमवार तक। ' फिर वह सोमवार कभी नहीं आया। रविवार को वे मस्तिष्काघात से संज्ञाशून्य हुए और फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। वैसे एसपी जैसे व्यक्तित्व मरा नहीं करते। वे अपने कार्य से जीवित रहते हैं। भौतिक रूप से वे भले न हों लेकिन जब तक विश्व में सार्थक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता है , एसपी जीवित रहेंगे। लोगों के विचारों, कार्यों में एक सशक्त प्रेरणास्रोत के रूप में। मेरा उस महान आत्मा को शत शत नमन। (फोटो spkemayne.blogspot.com से साभार)
No comments:
Post a Comment