Friday, February 18, 2022

जब ठंडई के बहाने मुझे पिला दी गयी भांग

 आत्मकथा

    • कुछ भूल गया कुछ याद रहा

   राजेश त्रिपाठी

   भाग-26

गांव बहुत बदल गये हैं इस बदलाव से हमारा गांव भी अछूता नहीं रहा। गाव में  बिजली आ गयी है। कहते हैं कि पहले पहल गांव वाले बिजली का लंबा तार खींच कर उसमें बल्ब लगा कर गोरुवाही (गौशाला) वगैरह में टांगे-टांगे फिरते थे। ठीक लालटेन की तरह।  बाद में शहर में पढ़नेवाले गांव के बच्चों ने उन्हें समझाया तो उन्होंने इस खतरनाक खेल को बंद कर दिया। जब अपने गांव की याद आती है तो यह भी याद आता है कि हमारे वक्त में कैसे थे गांव।

गांव यानी भारत की आत्मा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादों से जोड़ देता है हमें यह शब्द। यादें खिले कमलों और पुरइन पात से भरे तालाब की। यादें आम के बोझ से झुकी अमराइयों और कोयल की मीठी कूक की। कजरी का त्योहार, जंगल में आग की लपटों का एहसास देते टेसू (पलाश ) के फूल, होली का हुड़दंग और हुलास, मस्ती, फाग। चैत में महुआ वन की मादक महक।फूली सरसों के खेत, दीवाली , तीज-त्यौहार और भी न जाने  कितनी  उजली यादें। इनमें ही कहीं होता गांव का अलाव जहां बाबा-दादा की जुबानी परियों,किस्सा तोता-मैना, सारंगा, राजा-रानी और राक्षसों की न जाने कितनी कहानियों के संसार उभरते। कभी जाड़े में अलाव ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करते थे। पूस, माघ की हाड़ कंपा देने वाली ठिठुरन में अलाव के गिर्द जमती बड़े-बूढ़ों की महफिल। उनके बीच देश दुनिया की चर्चा होती तो कभी चलते किस्सों के दौर। गांव के चौपाल भी कम महत्व के नहीं होते थे। तब शायद ही किसी लड़ाई-झगड़े के निपटारे के लिए कोर्ट कचहरी जाना पड़ता था। इन्हें पंच परमेश्वर चौपाल में ही निपटा देते थे। चौपाल कभी ग्रामीणों के लिए दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद सुस्ताने व मनोरंजन की जगह हुआ करती थी। किस्से, कहानी, कीर्तन के अलावा ताश और चौपड़ के दौर में लोग अपना मनोरंजन करते थे। लेकिन अब न जाने कहां खो गयी वह प्यारी चौपाल जहां बातों-बातों में रिश्ते तय हो जाते और दुश्मन भी दोस्त बन जाते थे। इन्हें कुछ तो लोगों में बढ़ता दुराव और दुश्मनी खा गयी और कुछ गांवों में शहरी संस्कृति की घुसपैठ। आज गांवों में लोगों का ज्यादातर वक्त टेलीविजन खा जाता है, बचे-खुचे में वे डर के मारे घर में दुबके-सिमटे रह जाते हैं। डर दुश्मनों का जिनके हाथों में अब बरछी-भाले की जगह राइफल और पिस्तौल आ गयी है। बस फट्ट की एक आवाज और आदमी का काम तमाम।

      बचपन में अला-बला और बुरी नजर को काटने के लिए मां ने जाने कितनी बार भालू की पीठ पर बैठाया और उसके बालों का गंड़ा बांधा होगा। यह उस वक्त की बात है जब गांवों में टेरीलिन संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था। वहां मिरजई, धोती, कुरते और पाजामे की शान थी। जाड़े में गुदड़िया बाबाओं का एक दल आता था।  वे शरीर पर रंग-बिरंगे कपड़ों की थिगलियों से बनी गुदड़ी पहने रहते थे इसलिए गुदड़िया बाबा कहलाते थे। जाड़े की ठिठुरन भरी सुबह जब लोग रजाइयों में सिमटे-सिकुड़े नौ का अंक बने होते, गुदड़िया बाबा सुबह की ग्राम परिक्रमा या कहें प्रभाती के लिए निकलते। खंजली, चिमटा  और हारमोनियम बजाते  वे गाते फिरते- दशरथ के लाल को जगायें माई  जानकीया जागिए रघुनाथ कुंअर पंछी बन बोले। एक महीने तक वह गांव में रहते और हमारी सुबहें राग प्रभाती के उनके इन मधुर गीतों के बोलों से होती थीं। बचपन की मधुर यादों में गुदड़िया बाबा आज भी अपने मधुर गीतों के साथ हैं लेकिन अब गांवों में पहले जैसे मंगते नहीं आते। क्या करें , जमाना जो खराब आ गया है। अब तो  नंगो, चोर-उचक्कों की बन आयी है। ऐसे में गुदड़िया बाबा जैसे ग्रामीण लोकरंग के कई रंग फीके पड़ गये हैं या कहीं सीमित दायरे में सिमट कर रहने को मजबूर हो गये हैं। लेकिन इनके लोप होने से गांवों से उनके कई लोकरंग छिन गये हैं।

      कभी तीज-त्योहारों में गांव गुलजार होता, मुखिया के द्वार पर जश्न का माहौल होता। अब न वह प्रेम रहा न भाईचारा। मनमुटाव और दुराव हर दिल में घर कर गया है। कई हिस्सों में बंट गये हैं गांव। जितनी जातियां, उतने टोले।हर टोले का अपना अलग नेता। गांव में जिस जाति का वर्चस्व होता है, उसी की चलती है। अब शायद ही कोई किसी के सुख-दुख में हाथ बंटाता या किसी के काम आता है। कभी भारत का आदर्श रहे गांव बंदूकों के साये में जी रहे हैं। लोग अपने पड़ोसी तक को डरवाने के लिए डाकू पालने लगे हैं। चौपाल तो जैसे अब बीती कहानी बन गयी है। अब माहौल बदल गया है। न वैसे गांव रहे,न वैसे लोग और न ही गांवों के पुराने, मोहक रीति-रिवाज। अपराधों की बाढ़ के चलते लोग शाम होते ही घरों में दुबक जाते हैं। शायद ही कहीं अलाव सजता हो या किसी चौपाल में रौनक हो।  मुखिया के द्वार पर कीर्तन की महफिलें नहीं सजतीं। वहां अब सरकारी टेलीविजन शोभता है, जो परोस रहा है फिल्मी गाने और गांव की युवा पीढ़ी हो रही है उस फिल्मी रंग-ढंग में मगन। जो बूढ़ी पीढ़ी बच गयी है वह अपने सामने एक सुनहरे गांव को उजड़ते, खत्म होते देख रही है। उसके पास गांव की पुरानी, मीठी यादों को बिसूरने के अलावा कोई चारा नहीं। आज उसकी कोई नहीं सुनता। अप्रासंगिक हो चुकी है यह पीढ़ी। बदलाव की आंधी में उसकी  नजरों के सामने ही सब कुछ उड़ता चला जा रहा है। चौपाल संस्कृति की जगह अब फिल्मी संस्कृति ने ले ली है। वह वहां के चाल-ढाल, पहनावे और जीने के तरीके में घुल गयी है। यह चकाचौंध की संस्कृति है जिसमें गांवों की सादगी, उसकी सोंधी महक दफन हो गयी है। अब गुदड़िया बाबा नहीं आते न ही किसी की आंखें दशरथ के लाल को जगाये माई जानकीकी मधुर गूंज से खुलती हैं। अब तो हर तरफ धूम है तो बस अंखियों से गोली मारे लड़की कमालजैसे गानों की धूम है। इनके शोर-शराबे में न जाने कहां खो गया है कल का सुहाना गांव, उसके मधुर गीत और उसके जीवंत लोकरंग।

  हमारे किशोरपन में हमारा गांव फिल्मी रंग-ढंग से दूर था। हम कई साथी मिल कर शाम को रोज रामायण पढ़ते और गांव के बड़े-बूढ़े श्रद्धा सहित सुनने आते थे। सावन के महीने में मशहूर आल्हा गायक दूर से आते और ग्राम प्रधान के यहां गांव के सारे लोग जमा होते। पूरे गांव में डुग्गी पिटवा कर लोगों को आल्हा सुनने के लिए बुलाया जाता।

जिन दिनों की यह बात है उन दिनों भैया अमरनाथ जी जब भी छुट्टी में गांव आते तो हम लोगों को अक्सर बंदूक चलाना सिखाते। दूर दीवार पर गोबर से एक बड़ा गोला बना दिया जाता और हम लोग उस पर निशाना लगाते। हमारी तरफ इसको चांदमारी कहते हैं। पहले पहल जब हमने बंदूक संभाल कर उसका ट्रिगर दबाया तो ऐसा धक्का लगा कि हम गिर गये। भैया ने बताया कि बंदूक जब चलती है तो जितना फोर्स समाने लगता है उतना ही पीछे। ऐसे में करना यह चाहिए कि उसके पिछले हिस्से को कंधे से टिका लेना चाहिए तो सारा धक्का कंधा झेल लेगा और गिरने से बच जाओगे। उसके बाद हम लोग वैसा ही करने लगे और फिर निशाना भी सही सधने लगा।

 गांव में नागपंचमी के दिन तालाब  से सटे मैदान (जिसे हमारे यहां रहूनी कहते हैं) में ऊंची कूद और कुश्ती प्रतियोगिता हर साल आयोजित की जाती थी। कुश्ती में मुझे हराने के लिए हमारे ही एक साथी के पिता ने हजारों रुपये में भैंस खरीदी और उसको खूब दूध-घी खिला कर साल भर तैयार किया। संयोग कुछ ऐसा बना कि इसके बाद जब अगली नागपंचमी को प्रतियोगिता आयोजित की गयी तो मैं अपने उस साथी से फिर जीत गया। इस पर उसके पिता को बड़ा गुस्सा आया। वह गुस्से में अपने बेटे को बकने लगे।

गांवों में फलों के नाम उन दिनों झड़बेरी के बेर या अमरूद आदि होते थे। केला, सेब आदि फल चाहिए तो आठ किलोमीटर दूर बबेरू जाना पड़ता था। जहां तक सब्जी का प्रश्न है लोग अपने घर-आंगन में लौकी, कद्दू आदि उगा लेते थे। उन्हें उगाना आसान था उनकी लताओं को खपरैल में डाल देते और वही वह फैलती फलती रहती थीं। कुछ लोग अपने खेतों के एक हिस्से में मूली, धनिया, मटर, आलू, बैंगन आदि उगा लेते थे।

 होली का त्योहार गावों में नयी उमंग लेकर आता था। हमारे गांव में दो होलिका सजती थीं एक गांव के पश्चिमी हिस्से में जिसे ब्याही कहते थे दूसरी पश्चिम दिशा में जिसे उढ़री (जो ब्याहता ना हो)। हम लोगों का घर पूर्वी हिस्से  में था तो उधर की होलिका सजाने का जिम्मा हम लोगों पर आता था। दोनों तरफ अपनी-अपनी होलिका को सबसे ऊंचा बनाने की होड़ लग जाती। उस समय बचपना था कभी कभी हम लोग कुछ दूर दूसरे गांव के लोगों की खेतों की रखवाली करने के लिए बनायी गयी झोपड़ियां भी उठा कर लाते और होलिका में लगा देते थे। इसके अलावा बबूल की सूखी पड़ी डालें भी लाकर होलिका में लगा देते थे। एक बार इसी कोशिश में दुर्घटना हो गयी। सूखी बबूल की डालियां हम लोग लगा रहे थे। होलिका पर सबसे ऊपर कांटेदार डालियां रखी थीं। हमारे साथी बाबूलाल यादव जी कुछ ज्यादा ही उत्साह में आ गये थे वह चाहते थे कि हमारी होलिका सबसे ऊंची बने। उन्होंने हमारे ही एक साथी से नसेनी (सीढ़ी) मंगा ली। होलिका में नसेनी टिकायी गयी और हम कई लोगों ने उसे थाम लिया। भाई बाबूलाल उस पर चढ़ कर होलिका की चोटी पर दबाव डालने लगे ताकि और डालों को रखने की जगह बनायी जाये। हम लोग डर रहे थे और चिल्ला रहे थे-भाई रहने दीजिए. बहुत हो गया। अभी हम लोग चिल्ला रहे थे कि तभी बाबूलाल भाई के शरीर का संतुलन बिगड़ा और वे बुरी तरह कोंटों पर गिर पड़े। किसी तरह हम लोगों ने उनको कांटों की सेज से हटाया और देखा कि उनके शरीर के अधिकांश भाग में बबूल के सूखे कांटे चुभ गये थे। हम लोगों को काटो तो खून नहीं। हम लोग बुरी तरह से डर गये। बाबूलाल भाई दर्द से कराह रहे थे। हम सभी साथी मिल कर उनके कांटे निकालने लगे। जहां कांटे गहरे गड़े धे वहां से खून बहने लगा था। बाबूलाल भाई ने घर में किसी को नहीं बताया लेकिन दो दिन बाद उन्हें बुखार आ गया। बाबूलाल यादल जी (अब सेवा निवृत जज) को आज भी वह घटना याद है।

  होली में जम कर हुड़दंग होता। हम लोग एक सप्ताह पहले पलाश के सूखे फूल चुन लाते और मिट्टी के बड़े हौद में पानी भर कर उसमें उन फूलों को डाल देते। कुछ दिन में ही उन फूलों से बढ़िया वासंती रंग बन जाता उसी से हम लोग होली खेलते थे। हम लोगों के समय रासायनिक रंग बहुत कम ही प्रयोग होते थे। होली के दिन मुखिया जी के द्वार पर एक बड़े ड्राम में भंग खोल कर रखी जाती थी। जो भंग नहीं पीते थे उनके लिए अलग ठंडई भी रहती थी। लोग उस दिन ढोल, झांझ. मंजीरे की धुन में उमाह (देवी भजन) और फगुआ गाते हुए ग्राम परिक्रमा करते हुए मुखिया जी के द्वार पर आते थे। मेरे बाबा फगुआ गाने में गांव भर में प्रसिद्ध थे। सभी लोग जब वहां पहुंचते तो उनका स्वागत अबीर और कटे हुए मेवों गरी,किशमिश, छुहारा, काजू आदि से किया जाता था।

 एक बार होली में कुछ ऐसा हुआ कि मेरे ही एक मित्र ने मुझे यह कह कर भांग पिला दी कि यह ठंढ़ई है। मुझे उसका स्वाद कुछ चरपरा सा लगीय़ मैंने सोचा कि शायद ठंढ़ई में पड़ी कालीमिर्च के लिए होगा। कुछ देर में ही भांग ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैं बार-बार मां से खाना मांगने लगा। मां ने कहा अभी तो तुम खाना खाकर गये हो। मेरे मुंह से निकला यह घर घूम क्यों रहा है। मां ने कहा ऐसा कुछ नहीं हो रहा। मैं उनसे लड़ पड़ा कि घर घूमा जा रहा है. घूमा जा रहा है। मेरी आवाज लड़खड़ा रही थी। उन्होंने मेरी आंखें देखीं जो खड़ी थीं। उन्हें समझ में आ गया कि मुझे किसी ने धोखे से भांग पिला दी है। उन्होंने तुरत एक नींबू काटा और पानी में मिला कर पिला दिया और कहा थोड़ा आंख बंद कर सो जाओ सब ठीक हो जायेगा। नशा तो था ही मुझे नींद आ गयी। जब नींद खुली तो शरीर में ऐसा दर्द था जैसे किसी ने डंडों से पीटा हो हां नींबू की वजह से नशा तो उतर गया था लेकिन बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी।मां ने पूछा-किसी के यहां कुछ पिया था क्या। मैंने सारी बात बता दी –हां मातादीन के घर में ठंडई पी थी। मां समझ गयीं कि धोखे से मुझे ठंडई के बहाने भांग पिला दी गयी थी।  (क्रमश:)

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