आत्मकथा-37
भाग-37
राजेश त्रिपाठी
सन्मार्ग में प्रशिक्षण, बाल उपन्यास लेखन
और स्क्रीन का संपादन सारे कार्य साथ-साथ चल रहे थे। स्क्रीन के मालिक महावीर
प्रसाद पोद्दार के छोटे भाई पवन से मेरी खूब पटती थी। उनका खुला दिमाग और विनोदी
भाव मुझे बहुत भाता था। उनके मझले भाई ओम बाबू हंसमुख लेकिन थोड़ा गंभीर स्वभाव
के। एक फिल्म प्रचारक थे जो विशालकाय और रौबीले स्वभाव के थे उनसे सभी सहमे-सहमे
रहते थे। पवन उनको पसंद नहीं करते थे क्योंकि उनके बड़े भाई उनसे डरते थे। उनके इस
भय का वे फिल्म प्रचारक महोदय फायदा उठाते थे। यह बात पवन को पसंद नहीं थी। एक बार
संयोग कुछ ऐसा हुआ कि महावीर बाबू मुंबई गये हुए थे। उसी वक्त उस फिल्म प्रचारक की
एक फिल्म लगी। अब नाम तो याद नहीं आ रहा लेकिन विषय बड़ा अजीब था। यह स्लीपवाक
अर्थात नींद में चलनेवाली एक महिला की कहानी थी। अब महावीर बाबू कोलकाता में थे
नहीं तो पवन बाबू को मौका मिल गया। उन्होंने मुझसे कहा-फिल्म जैसी है वैसा ही
रिव्यू लिखिएगा बेवजह की प्रशंसा करने की जरूरत नहीं है। आप जैसा महसूस करें वैसा
ही रिव्यू कीजिएगा। मैं हाल में फिल्म देखने गया। पवन बाबू ने जैसा देखें वैसा
लिखने को कहा था। मैंने देखा कि फिल्म की अभिनेत्री को नींद में चलने की बीमारी
है। वह इस मुसीबत से बचने के लिए एक बहुत ही अजीब और खतरनाक तरीका अपनाती है। नींद
ना आये इसके लिए वह रोज अपनी एक अंगुली काट लेती है जिसके उसके दर्द से उसे नींद
ना आये लेकिन नींद आखिर आ ही जाती है। इस क्रम में जब वह दसों उंगलियां काट लेती
है तो मेरी सीट के ठीक पीछे वाले रो में बैठे जोड़े में पत्नी ने पति से पूछा-दसों
उंगलियां तो काट लीं अब क्या यह गरदन काटेगी। मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि
मेरा रिव्यू उस महिला दर्शक की इस टिप्पणी पर ही केंद्रित होगा। मैंने पवन बाबू के
कहे अनुसार वैसा ही रिव्यू लिखा जैसा ऐसी फिल्मों का होना चाहिए। इसे संयोग कहें
या कुछ और वह फिल्म दो हफ्तों में ही सिनेमाघरों से उतर गयी। पवन बाबू बहुत खुश
हुए पर इस पर वे फिल्म प्रचारक बहुत खफा हुए। तब तक महावीर बाबू मुंबई से लौट आये
थे। वो फिल्म प्रचारक महावीर बाबू के पास आये। आते ही उन्होंने तपाक से कहा-यह
राजेश त्रिपाठी कौन है, इसे नौकरी से हटा दो, इसने मेरी फिल्म का रिव्यू कुछ इस
तरह से किया कि वह फिल्म दो हफ्ते में ही उतर गयी।
दूसरे दिन मैं स्क्रीन के कार्यालय गया तो
महावीर बाबू ने पूरा हाल बताया। मैंने कहा- आप चाहें तो उनको खुश करने के लिए मुझे
निकाल सकते हैं. कोई परेशानी नहीं।
उन्होंने कहा-नहीं नहीं हम उनकी सलाह को
मानने को बाध्य नहीं हैं। उन्होंने कह दिया, हमने सुन लिया।
*
मैंने जिस दिन कोलकाता में कदम रखा था उसी
दिन से मेरी निरुपमा भाभी को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी थी। वे जब भी मुझे
थोड़ा खाली पातीं अपना विवाह-राग शुरू कर देतीं।
मैं उन्हें समझाता-भाभी मुझे अभी ढंग की नौकरी
भी नहीं मिली, मैं सन्मार्ग में सीखता हूं,स्क्रीन से भी इतना पैसा नहीं मिलता,
बाल उपन्यास लिख कर भी तो लम-सम ही मिलता है। मैं इतना नहीं कमाता कि इत्मीनान से
कह सकूं कि हां मैं अपना घर बसाने के काबिल हो गया हूं। आप जल्दबाजी मत कीजिए जब
वक्त आयेगा मैं हां कर दूंगा और वचन देता हूं कि उसी लड़की को अपना जीवनसाथी
बनाऊंगा जिसे आप पसंद करेंगी।
इस पर भाभी का जवाब होता-तुम रुपये-पैसे की
चिंता क्यों करते है। हमारे तो कोई संतान नहीं हमारा जो कुछ है सब तुम्हारा ही तो
है। तुम्हारे भैया इतना तो कमाते हैं कि हम तीन जनों के परिवार में मेरी कोई छोटी
बहन आ जायेगी तो वह भूखी तो नहीं ही रहेगी।
भाभी के इतना कहते ही मैं निरुत्तर हो जाता।
दिन, माह बीतते गये। मैं तो भाभी की बातें भूल गया लेकिन भाभी नहीं भूलीं।
उन्होंने निश्चय कर लिया था कि उन्हें जितना जल्द हो अपने देवर का घर बसाना है। मुझे पता भी नहीं चला वे
बजबज के एक गांव से आनेवाली अपनी परिचित महिला के साथ जाकर मेरी होने वाली पत्नी
को देख आयीं।
भाभी जब से बजबज के गांव से उस लड़की को देख कर आयीं जिसे वे मेरी
जीवनसंगिनी बनाना चाहती थीं उसके बाद से ही वे पंचमुख से उसकी प्रशंसा करने लगीं। मुझसे
कहतीं मैंने जो लड़की देखी है सुंदर है, गांव की है आधुनिकता से दूर है, आज की छमक
छल्लो जैसी नहीं। मैं अपने देवर के लिए ऐसी ही लड़की लाऊंगी जो उसके अनुकूल हो।
वह मुझसे बोलीं-मैं चाहती हूं तुम भी देख लो।
तुम्हारी पसंद नापसंद मेरे लिए बहुत महत्व रखती है।
मैंने कहा-भाभी आपने पंसद कर लिया समझो
मैंने पसंद कर लिया। आपने देख लिया समझो मैंने देख लिया। मैं आपके निर्णय के खिलाफ
थोड़े जाऊंगा।
भाभी को बजबज के कालिकापुर गांव से लौटे
अभी दो हफ्ते ही हुए थे कि वहां से एक महिला हमारा घर खोजते हुए आयीं। मैं उन्हें
पहचान नहीं पाया लेकिन भाभी ने पहचान लिया और बोलीं-अरे ज्य़ोत्सना दीदी आइए, बैठिए
कैसे आना हुआ।
ज्योत्सना बोलीं-हमारी वंदना किस घर में जा रही
है यही देखने चली आयी।
भाभी ने मिष्ठान आदि मंगा कर उनकी आवभगत
की और बोलीं-बहुत अच्छा किया जो आ गयीं।
उस वक्त मैं बच्चों के उपन्यास लिखने में व्यस्त
था।भाभी ने उनसे मेरा परिचय कराया-यह है हमारा देवर राजेश त्रिपाठी लेखक है
उपन्यास लिखता है। यहां मैं यह बताता चलूं कि मेरी भाभी ने मेरा रामहित नाम बदल कर
राजेश त्रिपाठी कर दिया था। मैंने भी बिना नाकुर किये इस नाम को स्वीकार कर लिया
और मेरे बाल उपन्यास भी रामहित तिवारी की जगह राजेश त्रिपाठी के नाम से छपने लगे।
कुछ दिन में मेरा पेन नेम राजेश त्रिपाठी ही मेरा वास्तविक नाम बन गया जबकि मेरे
प्रमाणपत्र रामहित तिवारी के नाम ही थे।
ज्योत्सना जी हमें देख कर वापस कालिकापुर चली
गयीं। जाहिर है उन्होंने हमारे बारे मेरे होने वाले श्वसुर जी को बताया होगा। दो
हफ्ते बाद वे भी आ गये। संयोग से जब वे आये तब भी मैं बाल उपन्यास ही लिख रहा था।
इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं। मुझे और मेरे भैया रुक्म जी को हर महीने चार बाल
उपन्यासों का सेट पूरा करना पड़ता था।
होनेवाले श्वसुर महाशय आये तो उनका भी मुंह मीठा
कराया गया। संयोग से उस समय भैया भी घर में थे भैया, भाभी से बातें करने के बाद
मेरे श्वसुर प्रमोद जी यह कहते हुए वापस लौट गये –आप लोग सब हमारे यहां आइए ना
लड़का भी लड़की को देख ले तो अच्छा रहेगा। भैया-भाभी ने कालिकापुर जाने की हामी भर
ली।
दूसरे दिन से ही भाभी पीछे पड़ गयीं- चलो चलो
लड़की देखने चलना है।
भैया बोले-चलेंगे, चलेंगे रुक जाओ।
भाभी बोलतीं-क्यों रुक जाऊं, लड़की के पिता जी
बुला गये हैं हमें जाना चाहिए नहीं उनका निरादर होगा।
खैर एक हफ्ते बाद हम कोलकाता से लगभग तीस
किलोमीटर दूर बजबज के करीब कालिकापुर नामक गांव में थे। गांव तो था लेकिन वहां
बिजली वगैरह और अच्छी सड़क थी। वहां हम देख रहे थे कि प्राय: हर घर के सामने
तालाब था।
हमने प्रमोद जी के घर का दरवाजा खटखटाया ही था
कि भीतर से कुत्ते के भूंकने की आवाज आयी।मेरी तो आत्मा ही कांप गयी। बचपन में
कुत्ते के काटने पर पेट में चौदह इंजेक्शन जो झेल चुका था।
हमारे होनेवाले श्वसुर जी ने ही दरवाजा खोला।
दरवाजा खुलते ही एक कुत्ते ने उछल कर अपने दोनों पैर मेरी छाती पर रख दिये। इस पर
मेरे होनेवाले श्वसुर चिल्लाये-हरिपद छोड़ो।
उनके इतना कहते ही उस कुत्ते ने मेरी छाती से
पैर हटा लिए और एक ओर हट कर खड़ा हो गया। तब कहीं जाकर मेरी जान में जान आयी।
हम तीनों को जलपान कराया गया। फिर कन्या को बुलाया
गया। श्वसुर जी बोले-यह है हमारी एकमात्र कन्या वंदना।
चित्र में राजेश त्रिपाठी (1 नंबर), वंदना ( 2 नंबर), वंदना की मां पारुल (3नंबर ), भाभी निरुपमा (4 नंबर) , वंदना के पिता जी प्रमोद (5 नंबर),
होनेवाली पत्नी का नाम सुना तो बड़ा भक्तिपूर्ण
और सात्विक लगा। रीटा, किट्टी, बिट्टू जैसे निरर्थक नामों के जमाने में वंदना नाम
जैसे कानों में मिसरी घोल गया। मैं गांव का रहनेवाला सीधा-साधा सात्विक और धार्मिक
परिवेश के मध्य पला-बढ़ा था। भाभी ने सचमुच मेरे लिए ऐसी जीवनसंगिनी चुनी जो सचमुच
मेरे जीवन को संवार देगी, जीवन के सुख-दुख में मेरा संबल बनेगी, मेरी सहारा बनेगी।
भाभी तो पसंद कर ही गयी थीं भैया ने भी हामी भर
दी और अपनों की हां में मेरी भी हां थी। उसी दिन शादी की भी तिथि तय हो गयी।
जब नियत दिन आया तो मैं और वंदना परिणय सूत्र
में बंध गये। विवाह सीधे-सादे ढंग से हुआ जो मेरी पसंद थी। शहर में अपना कौन था
जिसे बुलाते या भीड़ बढ़ाते। समारोह में हमारे कुछ नितांत परिचित ही शामिल हुए।
दुर्भाग्य देखिए कि उस विवाह समारोह के जो फोटो भैया के परिचित फोटोग्राफर गुरुचरण
शाह ने खींचे थे वह मिल ही नहीं सके क्योंकि पूरी रील ही खराब निकल गयी। उसमें से
एक भी फोटो रिट्रीव नहीं की जा सकी। यह हम सबके लिए बहुत ही दुखद खबर थी क्योंकि
जीवन के महत्वपूर्ण पल की कोई फोटो भी हमारे पास नहीं थी।
वंदना घर आयी तो नववधू का स्वागत भाभी निरुपमा
ने परंपरागत ढंग से किया जिसमें उनकी मदद भाभी की सहेली गीता देवी ने की। गीता
देवी भी वंदना को बहुत स्नेह करने लगी थीं।
वंदना आयी तो हमारा घर भर गया। भैया, भाभी और
मेरे अलावा हमारे परिवार का एक और नया सदस्य आ गया जिसने हमारे परिवार को पूरा कर
दिया। वंदना की शिक्षा दीक्षा बांग्ला माध्यम से हुई थी हालांकि उसका एक विषय
हिंदी भी था। वह हिंदी पढ़-लिख लेती थी लेकिन उन्हें भाभी के कुछ शब्द समझने में
थोड़ी परेशानी होती क्योंकि वे कभी-कभी ठेठ हिंदी में बोलतीं।
मैंने सोचा कि इस परेशानी से उसे निजात दिलानी
चाहिए। भाभी बोलतीं –बहू, कटोरी ले आओ। वह परेशान हो जाती तो मैं कहता –बाटी ले
जाओ। इसके बाद वह मन में बसा लेती कि हमारे यहां की बाटी इनके यहां कटोरी हो गयी
है। वैसे इसे उसने चुनौती के रूप में लिया और हर शब्द को याद कर के रखने लगी।
दुबारा उसे उसके बारे में बताना नहीं पड़ता था।
भाभी बहुत खुश थीं क्योंकि उनका अकेलापन जो दूर हो गया था। जब वंदना नहीं
आयी थी तो पूरे दिन भाभी को अकेला रहना पड़ता था।
हमारे घर में इसके पहले मेरे और भैया के
घर में ना रहने से सन्नाटा रहता था। अब वंदना आ गयी तो भाभी को बोलने-चालने के लिए
एक साथी मिल गया।
बीच-बीच में हम वंदना के साथ अपनी ससुराल
कालिकापुर जाते रहे ताकि उसे यह ना लगे कि वह अपनों से दूर हो गयी। हमें भी खुली
हवा में सांस लेने और हरे-भरे परिवेश का आनंद लेने का मौका मिल जाता। मेरी ससुराल
में दर्जनों नारियल के पेड़, केले के बागीचे,कई तालाब औक धान के कई खेत थे। वहां गांव और कस्बे दोनों का
आनंद मिलता। गांव में बिजली भी थी। मां यानी मेरी सास तो ममतामयी और बहुत ही अच्छी
थीं। वे अक्सर कहतीं आते रहा करो। जब हम कोलकाता लौटने को होते तो ढेर सारे नारियल
और केले आदि बांध देतीं। सफेदा यानी चीकू मुझे बहुत पसंद हैं। संयोग की बात देखिए
मेरी ससुराल में चीकू का एक बड़ा पेड़ था। मेरी श्रीमती वंदना ने अपने पिता जी को
यह बता दिया था कि चीकू मुझे बहुत पसंद है इसलिए जब उसमें फल आते तो मुझे जी भर
खाने की छूट मिल जाती।
*
कुछ दिन बाद हमें अपने पैतृक गांव
जुगरेहली लौटना पड़ा। शादी हो गयी इस बात की खबर अम्मा, बाबा को पत्र से दे दी गयी
थी। उसमें यह भी लिख दिया गया था कि कुलदेवता, ग्राम देवी के पूजा के लिए हम गांव
आ रहे हैं। हम लोग जब गांव पहुंचे तो अपनी बहू को देख कर अम्मा-बाबू बहुत खुश हुए।
दूसरे दिन ही अम्मा पूजा की तैयारी कर ली। पहले कुलदेवता की पूजा के लिए गांव के
पूर्वी छोर में स्थित एक घर ले जाया गया जिसके द्वार पर पीपल का पेड़ लगा है।
वहां पहुंच कर मैंने अम्मा से पूछा-यहां
क्यों ले आयी,यह तो रामपाल भैया का घर है यहां हमारे कुलदेवता क्या कर रहे हैं।
इसके बाद अम्मा ने बताया कि यही तुम्हारे दादा
मुखराम शर्मा जी का पैतृक घर है। जब तुम्हारे बाबा(पिता जी) अपने जीजा शिवदर्शन जी
की देखरेख के लिए जुगरेहली का यह पैतृक मकान और सारे खेत छोड़ कर बिलबई चले गये
थे। जीजा जी गुजरे तो फिर भांजे रामखिलावन की देखभाल और संपत्ति लोभी चाचाओं से
बचाने के उन्हें बांदा ले जाने और वहीं बस जाने के बाद लोगों ने जुगरेहली के पैतृक
घर और खेतों पर कब्जा कर लिया। जब वर्षों बाद गांव वापस लौटे तो रहने का ठिकाना ना
था। किसी तरह से दोबारा घर बसाना पड़ा। अपने उस वास्तविक पैतृक मकान में पूजा कर
हम ग्राम देवी कमासिन दाई, मढ़ी देवी के दर्शन-पूजन के लिए भी गये।
हमारे घर में कई गायें थीं। मां ने वंदना का
परिचय उनसे भी करा दिया था। वह उनको नाम से पहचानने लगी थी। उनको चारा-पानी देती
पर गायों को दुहने में उसे डर लगता था कि कहीं लात ना मार दें। मां ने उसका साहस
बढ़ाया पर वह यह काम नहीं कर पायी। घर का बाकी काम,खाना बनाना वह कर लेती थी। इतना
ही नहीं कुछ दिन बाद वह मां के साथ खेतों में जाने और वहां का काम देखने लगी। अम्मा
खुश की शहर की बहू गांव में किस तरह रम
गयी है। आसपास की औरतों का भी घर में तांता लगा रहता। वह कहतीं- देखो तिवारिन दाई
(मेरी अम्मा को गांव वाले इसी नाम से पुकारते थे) का घर कितना गुलजार लग रहा है
रामहित भैया और बहू के आने से।
कुछ दिन गांव में गुजार कर हम जब कोलकाता वापस लौटने को हुए तो अम्मा रोने
लगीं। उन्हें देख कर मैंने कहा-जाना तो होगा, तुम परेशान मत होओ हम आते-जाते
रहेंगे।
मां-बाबा को समझा-बुझा कर हम कोलकाता की ओर लौट
पड़े। वापस लौटना हमें भी खल रहा था लेकिन मजबूरी थी। (क्रमश:)
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