भारत एक धर्म प्रधान देश है। यह अपनी संस्कृति, सभ्यता और पर्यटन स्थलों के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। इसमें ऐसे कई धर्मस्थल हैं जो सनातन धर्मावलंबियों में बहुत प्रसिद्ध हैं। यही नहीं इनकी चर्चा विश्व भर में होती है। ओड़िशा राज्य के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर इनमें विशिष्ट है। हिंदुओं के चार धाम तीर्थ में जगन्नाथ धाम भी एक धाम के रूप में गिना जाता है। चार धामों में सम्मिलित अन्य तीन धाम हैं द्वारका धाम, बद्रीनाथ धाम और रामेश्वरम धाम। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। कुछ इस तरह हुआ था इस अद्भुत अब आते हैं जगन्नाथ मंदिर के निर्माण के प्रसंग पर। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। पुरी नगर श्री कृष्ण यानी जगन्नाथपुरी की पावन नगरी कहलाती है। जगन्नाथ मंदिर की हर वर्ष निकलने वाली रथ यात्रा का उत्सव विश्व में विख्यात है। पुरी के इस मंदिर में तीन मुख्य देवता विराजमान हैं। भगवान जगन्नाथ (कृष्ण) के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र व उनकी बहन सुभद्रा तीनों तीन अलग-अलग भव्य और सुंदर आकर्षक रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।
कलिंगशैली से बने जगन्नाथ मंदिर में स्थापत्य कला और शिल्प आश्चर्यजनक और अद्वितीय है। मंदिर के शिखर पर भगवान विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र है जिसे नीलचक्र भी कहते हैं।ष इसकी सबसे बड़ी और विचित्र विशे।ता यह है कि इसे आप शहर के जिस स्थान से देखें यह मध्य में ही नजर आयेगा अर्थात के आपके सामने ही दिखेगा। यह चक्र अष्टधातु से निर्मित है। मंदिर का मुख्य ढांचा 214 फीट ऊंचे पत्थर के चबूतरे पर खड़ा है। इसके अंदर बने आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं। मंदिर का यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गए। मंदिर की मुख्य मढ़ी अर्थात भवन एक 20 फीट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है और दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित है। इस मंदिर के निर्माण में सीमेंट आदि का प्रयोग नहीं हुआ। कहते हैं कि इसका निर्माण इंटरलाक सिस्टम से हुआ है। ऊपर के पत्थर को इस तरह काटा गया कि उसके बीचोंबीच एक बड़ा कीला सा बन जाय। नीचे वाले पत्थर पर उसकी माप का छिद्र बनाया गया। इनको आपस में मिला दिया गया। नीचे के पत्थर के छिद्र में ऊपर वाला तीला फिट बैठ गया और वजन के चलते मजबूती चिपक गया।
गंग वंश में मिले ताम्र पत्रों के मुताबिक वर्तमान मंदिर के निर्माणकार्य को कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने शुरु करवाया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल 1078-1148 के दौरान बने थे। इसके बाद ओडिशा राज्य के शासक अनंग भीम ने सन 1197 में इस मंदिर को को वर्तमान रुप दिया। मंदिर के निर्माण के बाद इसमें सन 1558 तक पूजा अर्चना होती रही, और अचानक इसी वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के ऊपर हमले के बाद पूजा बंद करा दी गई। विग्रहों को चिलिका झील में स्थित एक द्वीप में गुप्त रूप से रखा गया। इसके बाद रामचंद्र देब ने खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और उनके स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के बाद मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुन:स्थापना हुई। मंदिर 400,000 वर्ग फुट में फैला है।
महाभारत युद्ध के 36 साल बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपना देह त्याग किया था। जब पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया तो श्रीकृष्ण का पूरा शरीर तो अग्नि में समा गया, लेकिन उनका हृदय धड़कता ही रहा था। ब्रह्म के हृदय को अग्नि भी जला नहीं सकी। इस दृश्य को देखने के बाद पांडव अंचभित रह गए।
तब आकाशवाणी हुई कि यह ब्रह्म का हृदय है इसे समुद्र में प्रवाहित कर दें। इसके बाद पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण के हृदय को समुद्र में प्रवाहित कर दिया।
ओडिशा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर में भाई बलदाऊ और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान भगवान कृष्ण से कई रहस्य जुड़े हैं। यह मंदिर बेहद चमत्कारिक हैं। इस मंदिर के सामने आकर हवा का रुख भी बदल जाता है। बताया जाता है कि हवाएं अपनी दिशा इसलिए बदल लेती हैं, ताकि हिलोरे लेते समुंदर की लहरों की आवाज मंदिर के अंदर न जा सके। प्रवेश द्वार से मंदिर में एक कदम अंदर रखते ही समुद्र की आवाज सुनाई देना बंद हो जाती है। मंदिर का ध्वज भी हमेशा हवा से उलटी दिशा में लहराता है।
भगवान श्रीकृष्ण का हृदय आज भी श्री जगन्नाथ मंदिर की मूर्ति में मौजूद है। भगवान के इस हृदय अंश को ब्रह्म पदार्थ कहते हैं। भगवान श्री जगन्नाथ की मूर्ति का निर्माण नीम की लकड़ी से किया जाता है और हर 12 साल में जब भगवान जगन्नाथजी की मूर्ति बदली जाती है, तो इस ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में रखा जाता है। जब इस प्रक्रिया को किया जाता है, तो उस समय पूरे शहर की बिजली को काट दिया जाता है। इसके बाद मूर्ति बदलने वाले पुजारी भगवान के कलेवर को बदलते हैं। कहा जाता है कि इस मूर्ति के नीचे आज भी भगवान श्रीकृष्ण का हृदय धड़कता है।
भगवान कृष्ण का हृदय बदलते समय बिजली काटने के साथ ही पुजारी के आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ में दस्ताने पहना दिए जाते हैं। इसके पीछे यह मान्यता है कि अगर किसी ने गलती से भी उसे देख लिया तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसलीए रस्म निभाने से पहले पूरी सतर्कता बरती जाती है। मूर्ति बदलने वाले पुजारी कहते हैं कि जब भी यह प्रक्रिया की जाती है, तो उस समय ऐसा एहसास होता जैसे कलेवर के अंदर खरगोश फुदक रहा हो।
शरीर को त्यागने के साथ सभी लोगों की हृदय गति भी शांत हो जाती है। लेकिन यह अपने में अनोखा रहस्य है कि भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर तो त्याग दिया लेकिन उनका हृदय आज भी धड़क रहा है। सुनने में यह अटपटा लग सकता है लेकिन पुराणों में दी गई जानकारी और कुछ घटनाओं से आप भी इस सत्य के आगे नतमस्तक हो सकते हैं।
कथा मिलती है जब भगवान श्रीविष्णु ने द्वापर युग में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो यह उनका मानव रूप था। सृष्टि के नियम अनुसार इस रूप की मृत्यु भी तय थी। ऐसे में महाभारत युद्ध के 36 साल बाद श्रीकृष्ण ने देहत्याग कर दिया। लेकिन जब पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया तो श्रीकृष्ण का पूरा शरीर तो अग्नि को समर्पित हो गया लेकिन उनका हृदय था जो धड़क ही रहा था। अग्नि बह्म के हृदय को जला नहीं पायी। पांडव इस दृश्य को देखकर चकित रह गए। आकाशवाणी हुई कि यह ब्रह्म का हृदय है इसे समुद्र में प्रवाहित कर दें। पांडवों ने श्रीकृष्ण के हृदय को समुद्र में प्रवाहित कर दिया।
कहा जाता है कि जल में प्रवाहित श्रीकृष्ण के हृदय ने एक लठ्ठे का रूप ले लिया और पानी में बहते-बहते उड़ीसा के समुद्र तट पर पहुंच गया। उसी रात वहां के राजा इंद्रद्युम्न को श्रीकृष्ण ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि वह एक लट्ठ के रूप में समुद्र तट पर स्थित है। सुबह जागते ही राजा इंद्रद्युम्न भगवान श्रीकृष्ण की बताई हुई जगह पर पहुंचे। इसके बाद उन्होंने लट्ठ को प्रणाम किया और उसे अपने साथ ले आए। इस लट्ठे से ही भगवान जगन्नाथ बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्ति का निर्माण विश्वकर्माजी ने किया।
भगवान श्री जगन्नाथ की मूर्ति नीम की लकड़ी से बनाई जाती है। मूर्तियां नीम की लकड़ी से बनायी जाती हैं। इसके लिए राज्य सरकार ने नीम का एक वन संरक्षित कर रखा है।
हर बारह साल बाद इन मूर्तियों को बदल दिया जाता है। इसे प्रक्रिया को नव कलेवर और पुनर्जन्म के नाम से भी जाना जाता है। कहते हैं कि जिस वर्ष दो आषाढ़ं पड़ते हैं जिसे पुरुषोत्तम मास कहते हैं उस वर्ष यह नव कलेवर की विधि संपन्न की जाती है जो बहुत ही गुप्त और पवित्र ढंग से संपन्न की जाती है। जो पुराने कलेवर हैं उन्हें मंदिर परिसर के ही उसे भाग में समाहित कर दिया जाता है जहां तुलसी वन है। अपनी जगन्नाथ मंदिर यात्रा में इस यू ट्यूबर ने उस पावन स्थल को देखा है।
जगन्नाथ मंदिर के कुछ रहस्य अद्भुत हैं। इस मंदिर का ध्वज रोज बदला जाता है। कहते हैं कि एक दिन भी अगर ध्वज ना बदला जा सका तो मंदिर को बारह वर्ष तक के लिए बंद कर देना पड़ेगा। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री जगन्नाथ ने सागर तट पर हनुमान जी को बांध दिया था। इसके पीछे की कहानी कुछ इस प्रकार है।
एक पौराणिक कथा के मुताबिक़, जगन्नाथपुरी मंदिर में जब भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्थापित हुई तो उनके दर्शन की अभिलाषा समुद्र को भी हुई. प्रभु दर्शन के लिए समुद्र ने कई बार मंदिर में प्रवेश किया. जब समुद्र मंदिर में प्रवेश करते तो मंदिर को बहुत क्षति होती. समुद्र ने यह धृष्टता तीन बार की. मंदिर की क्षति को देखते हुए भक्तों ने भगवान से मदद के लिए गुहार लगाईं. तब भगवान जगन्नाथ जी ने समुद्र को नियंत्रित करने के लिए हनुमान जी को भेजा. पवनसुत हनुमान जी ने समुद्र को बांध दिया. यही कारण है कि पुरी का समुद्र हमेशा शांत रहता है. लेकिन समुद्र ने एक चतुराई लगाईं. उन्होंने हनुमान जी से कहा कि तुम कैसे प्रभु भक्त हो कि जो कभी दर्शन के लिए ही नहीं जाते.
तब हनुमान जी ने सोचा कि बहुत दिन हो गए चलो भगवान के दर्शन कर आयें. जब हनुमान जी भगवान के दर्शन के लिए चले तो उन्हीं के पीछे-पीछे समुद्र भी चल पड़े. इस तरह जब भी पवनसुत मंदिर जाते तो सागर भी उनके पीछे चल पड़ता. इस तरह मंदिर में फिर से क्षति होनी शुरू हो गई. तब भगवान ने हनुमान जी के इस आदत से परेशान होकर उन्हें स्वर्ण बेड़ी से बांध दिया.
आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलोमीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। जिस पथ से रथयात्रा गुजरती है उसे बड़दांड या बड़ा पथ कहा जाता है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थीं इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।
मान्यताओं के मुताबिक मालवा नरेश इंद्रद्युम्न, जो भगवान विष्णु के भक्त थे. उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि पुरी के समुद्र तट पर तुम्हें एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा, उस से मूर्ति का निर्माण कराओ. राजा जब तट पर पंहुचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया.आज तक अधूरी है मूर्तियां:
मान्यताओं के मुताबिक नरेश इंद्रद्युम्न, जो भगवान विष्णु के भक्त थे उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिए और कहा कि पुरी के समुद्र तट पर तुम्हें एक लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा, उस से मूर्ति का निर्माण करवाओ। राजा जब तट पर पहुंचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किससे बनवाएं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु और स्वयं विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रूप में प्रकट हुए। वृद्ध मूर्तिकार ने कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन इस काम को एक बंद कमरे में अंजाम देंगे। एक महीने तक कोई भी इसमें प्रवेश नहीं करेगा और न कोई तांक-झांक करेगा, चाहे वह राजा ही क्यों न हों। महीने का आखिरी दिन था, कमरे के भीतर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। कोई हलचल न देख राजा विचलित हुए और वे अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गए और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं, उनके हाथ और पैर नहीं बने हैं। राजा को अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जाएंगी। अधूरी बनी तीनों मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गईं। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं।
जगन्नाथ धाम को श्री क्षेत्र, श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथ जी की सारी रीतियां करते हैं। भगवान जगन्नाथ के मंदिर में आज भी कई ऐसे चमत्कार होते है जिसका जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है।
हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथजी की पुरी में रथ यात्रा निकाली जाती है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ के अलावा उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ भी निकाला जाता है। इस रथ यात्रा को लेकर मान्यता है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की थी। तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन की इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण करवाया था और इसके बाद से इस रथ यात्रा की शुरुआत हुई थी। जगन्नाथ की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है, इसलिए हिंदू धर्म में इसका विशेष है। रथयात्रा के लिए भगवान बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। सबसे आगे बलराम जी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ यानि लकड़ी का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर यह रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है।
मंदिर के रसोईघर को दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर माना जाता है। मंदिर में 752 चूल्हों पर 500 रसोइए और 300 सहयोगी रसोइए साल भर भोग बनाने के कार्य में जुटे रहते हैं। मंदिर के रसोई घर में जहां महा प्रसाद बनता है वहां बर्तन केवल मिट्टी के होते हैं। यहां बनने वाले भोजन के सात पात्र एक के ऊपर एक रखकर पकाए जाते हैं। अचंभित करने वाली बात ये है की भोग सबसे पहले नीचे नहीं ऊपर के पात्र में पकता है। मंदिर में हमेशा एक ही मात्रा में भोग बनता है लेकिन भक्त की संख्या बढ़ने या घटने पर भी भोग कम या ज्यादा नहीं पड़ता। इतना ही नहीं मंदिर का कपाट बंद होते ही भोग भी खत्म हो जाता है।
यह रहस्य भी कोई नहीं सुलझा पाया जगन्नाथ मंदिर करीब चार लाख वर्ग फीट एरिया में है। इसकी ऊंचाई 214 फीट है। आमतौर पर दिन में किसी वक्त किसी भी इमारत या चीज या इंसान की परछाई जमीन दिखाई देती है लेकिन जगन्नाथ मंदिर की परछाई कभी किसी ने नहीं देखी। एक और रहस्य यह है कि मंदिर का झंडा हमेशा हवा की उलटी दिशा में उड़ता है।
अचंभित करने वाला सिंहद्वार का रहस्य :
जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र किनारे पर है। मंदिर में एक सिंहद्वार है, कहा जाता है कि जब तक सिंहद्वार में कदम अंदर नहीं जाता तब तक समंदर की लहरों की आवाज सुनाई देती है, लेकिन जैसे ही सिंहद्वार के अंदर कदम जाता है लहरों की आवाज खत्म हो जाती है। इसी तरह सिंहद्वार से निकलते वक्त वापसी में जैसे ही पहला कदम बाहर निकलता है, समंदर की लहरों की आवाज फिर आने लगती है। इसके पीछे क्या कारण है इसका जवाब आजतक किसी को नहीं मिल पाया है।
रथयात्रा के दिन सूर्योदय से पहले ही रथयात्रा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इस यात्रा की एक और खास बात है, इसके शुरू होने से पहले इसके मार्ग को 'सोने की झाड़ू' से साफ किया जाता है। इसके बाद रथों की पूजा की जाती है, फिर रथों को खींचकर जगन्नाथ मंदिर से 3 कि.मी. दूर गुंडीचा मंदिर ले जाते हैं। इस स्थान को भगवान की मौसी का घर कहते हैं जहां तीनों भाई-बहन सात दिनों तक आराम करते हैं और इसके बाद फिर आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ वापस मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा 'बहुड़ा यात्रा' कहलाती है।
रथयात्रा के पर्व होती है प्रभु की स्नान यात्रा जिसके लिए उन्हें मंदिर से बाहर लाया जाता है और खूब नहलाया जाता है। इसके बाद प्रभु के तीन विग्रह अस्वस्थ हो जाते हैं। इस अवस्था को अणसर अर्थात संकट की अवस्था कहा जाता है। इसके बाद उन्हें मंदिर में वापस लाकर मंदिर के मुख्य पट बंद कर दिये जाते हैं और उसके सामने एक पटचित्र लगा दिया जाता है। दर्शनार्थियों के मंदिर में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है। कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु ऐसे ही अवसर पर वृंदावन से प्रभु के दर्शन के लिए आये थे। कहते हैं कि वे लंबे अरसे तक एक खंबे पर हाथ टिकाये प्रतीक्षा करते रहे। उस खंबे पर उनके हाथ के चिह्न बन गये। आप अगर पुजारियों से पूछेंगे तो वे यह पूरी कथा सुनाने के बाद चैतन्य महाप्रभु के हाथ का चिह्न भी दिखायेंगे। बहुद देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी जब प्रभु के मंदिर का मुख्य द्वार नहीं खुला तो चैतन्य महाप्रभु निराश को होकर समुद्र में डूब कर जलसमाधि लेने का निश्चय किया। जब वे कंठ तक जल में डूब गये तो आकाशवाणी हुई-चैतन्य प्राण त्यागने की आवश्यकता नहीं। मेरे दर्शन तुम्हें अल्लारनाथ में होंगे। यहां आओ।
आकाशवाणी सुन कर चैतन्य समुद्र से निकले और दौड़ पड़े अल्लारनाथ की ओर। वहां जाकर उन्होंने जगन्नाथ जी को विष्णु के पूर्ण रूप में दर्शन किये और हर्षातिरेक से नाचने लगे और फिर प्रभु को दंडवत प्रणाम करे की मुद्रा में लेट गये। उनकी इस मुद्रा की उनकी प्रतिमा अल्लारनाथ में इस यू ट्यूबर ने स्वयं देखी है।
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