Tuesday, March 1, 2022

खुशियां कम, ज्यादा गम का रहा सिलसिला

 आत्मकथा

कुछ भूल गया, कुछ याद रहा

राजेश त्रिपाठी

भाग-27

कहा है ना कि सदा दिन जात ना एक समान। यह कथन मेरी प्रारंभिक जिदंगी के हर मोड़ पर सच साबित हुआ। अभी मैं पीलिया यानी जांडिस की गंभीर बीमारी से उबरा ही था कि एक दिन अचानक प्रचंड ज्वर से बदन जलने लगा। अचानक मुझे घबड़ाहाट और बेचैनी होने लगी। मैंने मां से कहा-मुझे बुखार है पर भीतर से शरीर ठंड़ा होता जा रहा है। मां घबड़ा गयीं। उन्होंने पास-पड़ोस की औरतों को भी बुला लिया। जब सबने देखा की मेरा शरीर बर्फ की तरह ठंड़ा होता जा रहा है तो कुछ औरतों ने कहा कि आग जला कर उस पर अजवायन जलाओ और खाट के नीचे रखो जिससे उसकी गरमी से शरीर गरम हो जाये।

 मां ने वैसा ही किया। मेरी तबीयत जब ज्यादा घबड़ाने लगी तो मैंने कहा- मेरे सिरहाने  रामायण और हनुमान जी का चित्र रख दो और जल्दी से काशीप्रसाद काका (हमारे अमरनाथ भैया के पिता जी) को बुला दो। काशीप्रसाद काका मुझे बहुत स्नेह करते थे।  मां  ने किसी को उन्हें बुलाने के लिए भेज दिया। मेरी तबीयत बहुत खराब है यह सुन कर काशीप्रसाद काका दौड़े आये। आते ही उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फिराया और बोले-रामहित घबड़ाओ मत, सब ठीक हो जायेगा।

 मैं बड़बड़ा रहा था –काका मुझे किसी डाक्टर, वैद्य को दिखला दीजिए। तबीयत बहुत खराब लग रही है।

 काका ने मेरी अम्मा से कहा-लगता है यह सन्निपात का ज्वर है। मैं कल ही किसी को देवरथा भेजता हूं वहां बहुत अच्छे वैद्य हैं वे आकर देख लेंगे और ऐसी दवा दे देंगे जिससे यह ठीक हो जाये।

इसके बाद उन्होंने मुझे ढांढ़स बंधाया और कहा –हिम्मत रखो, सब ठीक हो जायेगा। कल वैद्य जी आकर देख लेंगे और दवा भी दे देंगे। घबड़ाना मत मैं हूं, जब जरूरत पड़े बुलवा लेना। अभी तो तुम्हारा शरीर गरम है, ठीक है डरने की बात नहीं।

काशी प्रसाद काका चले गये तो भैया अमरनाथ भी मुझे देखने आये और उन्होंने भी ढांढ़स बंधाया और कहा –परीक्षा जरूर देना, पास तो ही जाओगे। परीक्षा नहीं दी तो पूरा एक साल बरबाद हो जायेगा।

दूसरे दिन देवरथा से वैद्य जी घोड़े पर आये उन्होंने मेरा नाड़ी परीक्षण किया और जीभ का रंग देखा और बोले-इसकी तबीयत सन्निपातज ज्वर के चलते बिगड़ी है मैं दवा दिये देता हूं नियम से खिलाना होगा और एक महीने तक खिलाना होगा, सब ठीक हो जायेगा।

वैद्य जी ने कुछ रस, भस्म और चूर्ण दिये और उनको खाने का ढंग बता कर कहा-इसे लंबे अरसे से भीतरी ज्वर था जो पता नहीं चला कम से कम एक माह दवा खाना होगा और पूरा आराम करना होगा बिल्कुल ठीक हो जायेगा।

 वैद्य जी चले गये। मैं दवा खाने लगा और धीरे-धीरे मेरी तबीयत सुधरने लगी। शरीर जो बिल्कुल दुर्बल और अशक्त हो गया था उसमें भी धीरे-धीरे शक्ति आने लगी। एक महीने बाद ही मेरी परीक्षा थी।मैं डरा हुआ था कि बीमारी के चलते परीक्षा के लिए मैं कोई तैयारी नहीं कर पाया क्या करूं इस बार परीक्षा नहीं देता। मैं यही सोच रहा था कि दिमाग में कुछ नहीं है, अगर फेल हो गया तो।

  एक माह बाद देवरथा से वैद्य जी को फिर बुलाया गया कि वे देख लें कि मुझे और क्या दवा खानी है। वैद्य जी आये तो बोले-तुम अभी बिल्कुल ठीक हो बस कुछ कमजोरी है, मैं कुछ ताकत की दवा दे देता हूं वह भी ठीक हो जायेगा।

  मैंने कहा-मैं कुछ पढ़ नहीं पाया,सामने परीक्षा है इस बार परीक्षा नहीं देता।

 वैद्य जी बोले-नहीं नहीं परीक्षा मत छोड़ना, ऐक साल बरबाद जायेगा। मैं तुम्हें ब्राह्मी वटी देता हूं एक माह खाओ और अपने विषय याद करो तुरत याद हो जायेंगे और तुम अच्छे नंबरों सा पास होगे।

 मैंने दवा ले तो ली लेकिन मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि ये छोटी-गोलियां मुझे कैसे परीक्षा पास करवा देंगी।

 वह ब्राह्मी पत्ती से बनी गोलियां थीं जो झड़बेरी के छोटे बेर के आकार की थीं। उन्हें दूध के साथ लेना था। वह बहुत चरपरी थीं। अब परीक्षा देनी थीं तो मैं श्रद्धा से उन गोलियों को खाता रहा। वैद्य जी के कहे अनुसार मैं दूसरी औषधियां भी खाता रहा। मेरी भूख भी बढ़ने लगी। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मेरी स्मृति शक्ति में भी अभूतपूर्व सुधार हो रहा था। मैं अपने जीवन से निराश हो गया था आयुर्वेद ने मुझे बचा लिया तभी से आर्युवेद पर मेरी आस्था गहरी हो गयी और रुचि भी बढ़ गयी। मैं आयुर्वेद की प्रसिद्ध पत्रिका धन्वतरि का नियमित ग्राहक बन गया। मैं उसमें जिस औषधि के बारे में पढ़ता उसे खोजना शुरू कर देता। वह मिलती तो मैं उसकी जड़ या पत्ता पत्रिका के उसी पृष्ठ में रख देता जहां उसका विवरण होता। नागर मोथा, अपामार्ग, निर्गुंडी और ना जाने ऐसी ही कितनी औषधियां मैंने उन दिनों खोज डाली थीं।

 परीक्षा प्रारंभ होने के एक सप्ताह पूर्व भैया अमरनाथ मुझे देखने घर आये उन्होंने आते ही पूछा- कैसे हो, सुना परीक्षा नहीं देना चाहते। ऐसा मत करना पूरा एक साल बरबाद जायेगा। परीक्षा दे दो, पास तो हो ही जाओगे।

उन दिनों एैसा था मैं

*

एक महीने बाद परीक्षाएं शुरू हुईं। प्रभु का नाम लेकर मैंने भी पूरी परीक्षा दे डाली। जिस तरह से प्रश्न हल किये उससे इतना तो विश्वास हो गया था कि मैं पास हो जाऊंगा लेकिन अच्छे नंबर भी ला पाऊंगा इसका विश्वास कतई नहीं था।

 खैर जिस दिन परीक्षा परिणाम की घोषणा का दिन आया उस दिन इंटरकालेज की मुख्य बिल्डिंग के बरामदे में सभी छात्र जुड़े। मैं बरामदे के आखिरी छोर में बैठा था क्योंकि मुझे अच्छे नंबर पाने की कतई उम्मीद नहीं थी। मेरे पीछे जो क्लासरूम था उसके दरवाजे के पास कुर्सी पर हमारे अंग्रेजी टीचर इनायत हुसैन खान बैठे थे। वे मुझे बहुत स्नेह करते थे।

एक-एक कर सभी का रिजल्ट छात्रों को दिया जा रहा था। प्रिंसपल ज्वाला प्रसाद शर्मा जी अपने प्रिंसिपल कार्यालय के द्वार पर खड़े अच्छे नंबर पाने वाले छात्रों के सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे। यह सिलसिला चलता रहा। प्रिंसिपल साहब बहुत धीरे बोलते थे और मैं उनसे काफी दूर बैठा था। उन्होंने मेरा नाम कब पुकारा मुझे सुनायी ही नहीं दिया।

 मैं चुपचाप बैठा रहा। तभी इनायत हुसैन खान ने मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा-अरे जाओ, प्रिंसिपल तुम्हें ही बुला रहे हैं, कालेज में अच्छे नंबर लाये हो।

 मैंने कहा- सर आप तो मजाक मत कीजिए। आपको पता है कि परीक्षा के ठीक पहले मैं गंभीर रूप से बीमार रहा। ठीक से कुछ याद नहीं कर पाया।

वे फिर बोले-जाओ तो खुद पता चल जायेगा।

उनके कहने पर मैं प्रिंसिपल साहब के पास गया। उन्होंने सिर पर तो हाथ रखा ही स्नेह से मुझे हृदय से लगाते हुए सबसे बोले-यह छात्र है जिस पर हमें गर्व है। इसने अच्छे नंबर लाकर हमारे कालेज का गौरव बढ़ाया है।

 इसके बाद प्रिंसिपल साहब ने पुस्तकालयाध्यक्ष की ओर मुखातिब होते हुए कहा-रामहित जब भी कोई पुस्तक पुस्तकालय से ले तो उसके लिए हफ्ते भर में वापस करने का नियम शिथिल कर दिया जाये। वह जब लौटाना चाहे तब लौटाये।

 इसके बाद मुझसे बोले-तुम्हें हर तरह की सहायता कालेज से मिलेगी। कोई समस्या जो तुम्हारे क्लास टीचर के स्तर पर ना सुलझ पा रही हो तुम बेहिचक मुझसे मिल सकते हो।

 मैं वापस अपनी जगह लौटा और हाथ जोड़ कर अपने टीचर इनायत हुसैन खान को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया।

*

इससे पहले की किस्त में बता आया हूं कि किस तरह जब हम लोगों को कालेज के एक कार्यक्रम में भाग लेने के चलते देर रात गांव वापस लौटना पड़ा था। राह में खेर (वह जगह जहां भूकंप के चलते जमीन पलटने से पूरा गांव जिंदा जमीन में दफन हो गया था। वहां अब केवल टीला शेष है।) के पास भूतों से सामना हुआ था।

परीक्षा परिणाम घोषित होने के कुछ दिनों बाद किसी अधिकारी के आने के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। उस कार्यक्रम में मेरी और हमारे गांव के हमारे सहपाठी बाबूलाल यादव जी( अब सेवा निवृत जज) की भूमिका थी। इस बार भी कार्यक्रम समाप्त होते तक रात के एक बज गये थे। हमने सोचा इस बार रात को गांव  नहीं लौटेंगे।

 हम इसी उधेड़बुन में थे कि क्या करें कहां ठहरें कि तभी हमारे संस्कृत शिक्षक आचार्य विद्याभूषण द्विवेदी मेरे पास आये और बोले –इतनी रात को गांव लौटने की जरूरत नहीं तुम मेरे घर चलो।

मैं संकोच करने लगा तो वे बोले-संकोच की कोई बात नहीं चलो।

संयोग की बात की तभी एक शिक्षक और आ गये वे बाबूलाल भाई को अपने संग ले गये।

मैं आचार्य जी के घर गया तो उन्होंने गरमा गरम पूड़ियां और साग खाने को दिया। खाना खाकर मैं थाली धोने के लिए जगह तलाशने लगा। मैंने देखा कि वहां उनके और उनकी धर्मपत्नी के अलावा कोई नहीं। मैंने सोचा गुरु –पत्नी से अपना जूठा बर्तन धुलाना पाप है।

मुझे असमंजस में पड़ा देख आचार्य जी बोले-संकोच मत  करो बर्तन रख दो। यहां तुम मेरे छात्र नहीं मेरे अतिथि हो।

 इसके आगे मैं निरुत्तर हो गया। हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे शिक्षकों का मार्गदर्शन मिला जो अपने छात्रों को नये विषय समझाने के लिए कालेज टाइम के बाद समय देते थे तब ना वे घड़ी देखते थे और ना ही इसके लिए अतिरिक्त कोई पैसा लेते थे। आज तो जिधर देखो ट्यूशन की दूकानें खुल गयी हैं जो एक-एक विषय पढ़ाने के लिए अच्छा-खासा पैसा लेते हैं। (क्रमश:)

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