कुछ भूल गया कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
(भाग-2)
पंडित मुखराम शर्मा के छोटे परिवार में तब
एक और खुशी जुड़ गयी जब मंगल प्रसाद तिवारी के छोटे भाई का जन्म हुआ। आगे बढ़ने से
पहले एक बात स्पष्ट करता चलूं, लोगों को सदोह हो सकता है कि शर्मा तिवारी या
त्रिपाठी कैसे हो गये। ‘शर्मा’ ब्राह्मणों की आम उपाधि है। कोई भी ब्राह्मण अपने को शर्मा लिख सकता
है साथ ही वह अपनी कुल उपाधि दुबे, शुक्ल, तिवारी, त्रिपाठी लिख सकता है। तिवारी,
त्रिपाठी का अंतर भी समझते चलें। गांव में तिवारी कहानेवाले शिक्षित हो जाते हैं, शहर
आते हैं तो वे स्वयं को त्रिपाठी लिखने लगते हैं। इस तरह की उपाधि लेखन में
अक्षर-भेद भले ही हों पर यह ब्राह्मणों की आम उपाधि से पूरी तरह ओतप्रोत हैं। आपने
संकल्प आदि में अवश्य सुना होगा ‘अमुक शर्माअहम’।
आत्मकथा के मूल कथ्य में वापस लौटते हैं। पंडित मुखराम शर्मा जी का परिवार
सुख-शांति से चल रहा था। वक्त का पहिया तेजी से चलता जा रहा था। मंगलप्रसाद, उनकी
बहन रानी और छोटा भाई बचपन से किशोरावस्था
और फिर युवावस्था में पहुंच गये। पड्त मुखराम शर्मा ने अपने जीते-जी अपनी बेटी के
हाथ पीले करने का सपना देखा था। उसके लिए उन्होंने योग्य जीवनसाथी की तलाश भी शुरू
कर दी। उनकी तलाश जनपद बांदा के करीब के गांव बिलबई में पूरी हुई। वहां के मुखिया
शिवदर्शन त्रिपाठी को उन्होंने बेटी रानी के लिए उपयुक्त समझा। बिना किसी देरी
किये उन्होंने रिश्ता भी पक्का कर दिया।
उधर मुखराम शर्मा जी के छोटे बेटे ने संस्कृत पढ़ने की इच्छा जतायी। आसपास
कहीं संस्कृत विद्यालय नहीं था। पता किया गया कि श्रेष्ठ संस्कृत विद्यालय कहां है
तो पता चला कि चित्रकूट में परिक्रमा पथ पर प्रसिद्ध पीलीकोठी संस्कृत विद्यालय
है। छोटे बेटे की इच्छा पूरी करने के लिए अनिच्छा से ही सही उनको चित्रकूट के
पीलीकोठी संस्कृत विद्यालय में प्रवेश दिलवा दिया। अनिच्छा से इसलिए कि वे उतनी
दूर अपने बेटे को अकेले नहीं भेजना चाहते थे।
इधर मुखराम जी के बड़े बेटे मंगल प्रसाद उनके साथ कृषि कार्य संभालने में मदद करते रहे। मुखराम शर्मा जी को एक ही चिंता थी कि बेटी का रिश्ता तो कर दिया अब उसके विवाह की भी तो तैयारी करनी होगी। जितना कुछ हो सका वे जुटा भी चुके और सोच रहे थे कि जितना जल्द हो कोई शुभ मुहूर्त देख कर बेटी का विवाह कर देंगे।
उन्होंने छोटे भाई से कहा-अब तो पिता जी भी नहीं
रहे। परिवार का सारा भार मुझ पर आ गया अगर सही समझो तो रुक जाओ।
भाई ने कहा- भैया रुक जाता पर मेरी शिक्षा
का क्या होगा। मुझे पढ़ लेने दीजिए ना।
मंगल प्रसाद उसके बाद कुछ भी नहीं बोल सके। छोटे
भाई को वे दुखी नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे कि उनको पढ़ने का सुअवसर नहीं
मिला कम से कम भाई तो पढ़ ले।
छोटा भाई चित्रकूट लौट गया। मंगल प्रसाद बिलबई
गये और जिस परिवार में बहन का रिश्ता पक्का हुआ था उन्हें भी अपने पिता जी की
मृत्यु की खबर सुनायी। इसके साथ ही यह भी अनुरोध किया कि जो संबंध पिता जी पक्का
कर गये हैं वह यथावत रहेगा और एक वर्ष बाद विवाह संपन्न होगा। वर पक्ष ने भी इसके
लिए हामी भर ली।
वक्त बीतते देर नहीं लगती। धीरे-धीरे साल
बीता और मंगल प्रसाद ने अपनी बहन रानी का विवाह बिलबई गांव के मुखिया शिवदर्शन
त्रिपाठी से कर दिया। विवाह में भाग लेने मंगल प्रसाद के छोटे भाई भी आये थे जो
वापस चित्रकूट लौट गये।
इधर मंगल प्रसाद के जीजा शिवदर्शन त्रिपाठी ने जब यह देखा कि वह गांव में अकेले रह गये हैं तो उनसे अपने साथ कहने को कहा। यह समझाया कि कुछ दिन हमारे साथ रह कर फिर लौट आना। मंगल प्रसाद जीजा जी को बहुत मानते थे। वे उनकी बात नहीं टाल सके। जुगरेहली के घर में ताला जड़ कर वे भी जीजा जी के साथ बिलबई चले गये। (क्रमश:)
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