Friday, December 17, 2021

आयुर्वेदिक पुस्तक की गणना सच हुई, मृत मिला बीमार

 आत्मकथा

कुछ भूल गया, कुछ याद रहा

राजेश त्रिपाठी

भाग-18

मैं अभी गांव में ही था साथी नहीं लौटा था। एक दिन अचानक पास के गांव से एक रोगी आया। अम्मा के चरण स्पर्श कर के वह बोला-तिवारिन दाई आपका नाम सुन कर या हूं। बड़े-बड़े अस्पताल वैद्य के यहां गया कोई मेरी बीमारी नहीं ठीक कर पाया।

इसके बाद उसने अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताया। मां ने उससे कहा –मुझे शहर से जड़ी-बूटी मंगा कर एक पाक बनाना होगा। उस पाक को महीने भर खाने के बाद तुम हृष्ट-पुष्ट हो जाओगे, खोयी ताकत वापस आ जायेगी। मैं दवा बना कर रखूंगी तुम अगले हफ्ते ले जाना। वह रोगी अम्मा को प्रणाम कर वापस लौट गया। यह पहले ही बता चुका हूं कि मेरी अम्मा आर्युवेद और यूनानी दवाओं की ज्ञाता थीं और आस-पास  के गांवों से वे लोग उनसे चिकित्सा कराने जिन्हें अस्पताल यह कह कर वापस कर देते-ना इसका कोई इलाज नहीं है।

  जब वह रोगी वापस लौट गया तो अम्मा ने कहा-दादू तुम तो अभी यहीं हो आज जाकर बबेरू (बबेरू हमारी तहसील और निकस्थ कस्बा) से दवाएं ले आओ उस आदमी के लिए दवा बनाना है।

मां ने दवा लिखवा दी और मैं उस पर्चे को लेकर बबेरू में उस पंसारी के यहां गया जहां से अक्सर अम्मा के लिए दवा लाया करता था। वहां जब मैं पहुंचा तो वहां पहले से ही एक व्यक्ति सफेद बर्जिया घोड़े के साथ खड़ा था। पंसारी की दूकान में बैठा युवक एक पर्चा लिये उसे कविता की तरह पढ़ रहा था। मैंने पूछा –भैया दवा का पर्चा कविता में पढ़ रहे हैं।

 वह युवक बोला-अरे यह पर्चा जिस आयुर्वेदिक पुस्तक का है वह पूरी तरह कविता में लिखी गयी है जिसका नाम वैद्य सार संग्रह है। इस पुस्तक को मंठा गांव के बहुत प्रसिद्ध वैद्य शर्मा जी ने लिखा है जो इस इलाके में दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तो अब नहीं रहे। यह जो घोड़े के साथ खड़े हैं उन्हीं वैद्य जी के सुपुत्र हैं। पुस्तक इतनी अच्छी है कि मेंने उसके कई अंश याद कर लिये हैं।

  यहां यह बताता चलूं कि मेरी आयुर्वेद के प्रति बड़ी रुचि रही है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मेरी मां भी इलाके की प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थीं। मैंने पंसारी से पूछा-भैया मुझे किताब चाहिए किसने छापा है। उन्होंने कहा –अरे यह बहुत पहले पचास साल पहले छपी थी बबेरू के ही एक दुकानदार ने छपवायी थी।

मैंने उस पंसारी से कहा-भैया मेरा पर्चा थामो तुम इसे तैयार कर के रखो मुझे किताब के प्रकाशक का पता बताओ मुझे यह पुस्तक चाहिए। उन्होंने पता तो दे दिया लेकिन कहा-देखिए मुझे नहीं लगता कि अब वह किताब बची होगी।

 मैं उनसे पता पूछ कर बबेरू के उस हिस्से की एक दूकान गया जहां साप्ताहिक बाजार लगा करता था। मैंने जब उस दूकानदार से वैद्य सार संग्रह किताब मांगी तो वह मेरा मुंह ताकने लगा। वह बोला-अरे यह तो वर्षों पहले की बात है। वह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि सारी प्रतियां धड़ाधड़ बिक गयीं।

 मैंने कहा –मेरे लिए देखिए ना शाय़द एक प्रति मिल जाये। बहुत उम्मीद लेकर आपके पास आया हूं.।

 मेरा आग्रह देख कर वे दीपक लेकर एक अंधेरी अटारी में चढ़ गये। थोड़ी देर बाद वे जाले से ढंकी एक पुस्तक लेकर आये तो मेरी आंखें चमक उठीं।

  वे बोले-भाई साहब आप भाग्यशाली हैं एक किताब मिल गयी। यह इतनी पुरानी है कि इसके पेज संभाल कर पलटियेगा वह टूटने लगते हैं। मैंने उन्होंने जो मानी वह कीमत अदा की और उस अमूल्य निधि को सिर से लगा कर प्रणाम किया।

  जब मैं पंसारी के पास लौटा तब तक वह मेरी दवाइयां तैयार कर चुका था। मैंने किताब दिखाते हुए कहा-भैया मुझे किताब मिल गयी।

 वह बोला-भाग्यशाली हैं आप।

 मैंने कहा-बस यही एक प्रति बाकी थी।

दवा लेकर मैं गांव लौट आया और मां को भी किताब की बात बतायी वह भी खुश हुईं। यहां यह बताता चलूं कि अम्मा जो पाक बनाया करती थीं उससे तमाम तरह के रोग दूर होते थे और सबसे बड़ी बात यह कि कई संतानहीनों की गोद उस पाक के खाने के बाद भर गयी। वह पाक खाने में भी बहुत स्वादिष्ट होता था।

*

मैं गांव में ही था तभी भैया अमरनाथ जी छुट्टी पर इलाहाबाद से गांव आये। वे मेरे घर मिवने आये थे। हममें अभी बात हो ही रही थी कि गांव का एक लड़का बदहवाश-सा आया और वहां बैठ कर रोने लगा। कुछ देर बाद खुद को संयत कर वह भैया अमरनाथ से बोला-भैया जल्दी चलिए मेरे भाई की तबीयत बहुत खराब है बहुत तेज बुखार है।

भैया अमरनाथ उससे बोले –तुम चलो मैं आता हूं।

यहां यह बता दें कि अस्पताल गांव से आठ किलोमीटर दूर बबेरू में था ज्यादा बीमार लोगों को वहां जल्द ले जाना संभव नहीं हो पाता था। भैया अमरनाथ कुछ एलोपैथी दवाओं के बारे में जानकारी रखते थे और इंजेक्शन वगैरह लगा दिया करते थे इसलिए अगर वे गांव में हों तो लोग उनके पास ही आते थे और वे इंजेक्शन आदि लगा देते तो लोग ठीक भी हो जाया करते थे।

  मैं जो वैद्य सार संग्रह पुस्तक लाया था उसने एक ऐसा भी प्रसंग था कि अगर कोई किसी की तकलीप का संदेश ले वैद्य के घर आता है तो वैद्य को यह गणना कर लेनी चाहिये कि वहां जाना उचित होगा या नहीं। इसमें कहा यह गया कि यह देखिए कि किसी बीमार की खबर लेकर जो दूत आया है उसकी मनोदशा, वेषभूषा कैसी है और वह किस दिशा की ओर मुंह कर के बैठा है, उसके बोलने का लहजा कैसा है, उस दिन कौन सा दिन है. क्या समय है इसकी गणना कर लें। इसमें बताया गया था कि ऐसा हो तो जायें और ऐसा हो तो कदापि ना जायें वह रोगी मर चुका होगा।

  मैंने अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए गणना की तो परिणाम यह आया कि अभी-अभी जो दूत किसी बीमार का संदेशा लेकर आया था वह बीमार जीवित नहीं है। वहां जाने से कोई फायदा नहीं।

 मैंने भैया अमरनाथ जी से कहा-भैया वहां मत जाइए कोई फायदा नहीं, खेल खत्म हो चुका है।

  अमरनाथ भैया हंसते हुए बोले-मैं साइंस का स्टूडेंट हूं मैं ज्योतिष पर विश्वास नहीं करता।

 मैंने कहा-यह बहुत प्रसिद्ध वैद्य की लिखी पुस्तक है जिसमें यह गणना है कि वैद्य को कहां जाना चाहिए कहां नहीं।

 अमरनाथ भैया उस बीमार को देखने गये और पंद्रह मिनट बाद लौट कर आये। उनका चेहरा उतरा हुआ था, बहुत गंभीर थे।

 आते ही उन्होंने कहा- वह किताब दिखाई और वह प्रक्रिया भी जैसे मैंने उस दूत की गणना की थी।

 वे आश्चर्य चकित हुए बोले-अरे यार इतनी पहुंची हुई थी हमारी विद्या कमाल है। एलोपैथी के पास तो ऐसा कोई हुनर नहीं।

  मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। मैंने पूछा- भैया हुआ क्या।

  उन्होंने कहा- जब मैं पहुंचा वह लड़का मर चुका था, ठंड़ा पड़ चुका था।

  अब मैं भी आयुर्वेद की ताकत और वैद्य शर्मा की विद्वता का कायल हो गया।

 जब वैद्य शर्मा का प्रसंग आया है कि उनसे जुड़ा एक प्रसंग भी बताता चलूं। यह बात मुझे मेरे पिता जी ने बतायी थी जो मैं भूल चुका था। वैद्य जी का प्रसंग आया तो याद आ गया। पिता जी ने बताया था कि जब वे बिलबई थे और बांदा में आपरेशन के बाद उनके जीजा की स्थिति खराब हो गयी और वे बेहोशी में आखिरी सांसें ले रहे थे तभी संयोग से मंठा वाले वैद्य शर्मा जी अपने घोड़े में वहां से गुजर रहे थे। यह बात जब मेरे पिता जी को पता चली तो वे दौड़ कर विनती करके उन्हें बुला लाये। उन्होंने पिता जी के जीजा की नाड़ी देख कर कहा-ये बच तो नहीं सकते हां मैं इन्हें कुछ देर के लिए होश में ला सकता हूं आप लोगों को जो बात करनी हो कर लीजिए। इतनी कह कर उन्होंने अपने थैले से एक रस निकाला और मधु के साथ उनके होंठों को जोर से खोल कर मुंह के अंदर डाल दिया। इस रस ने जादू किया थोड़ी देर में उन्होंने आंखें खोलीं और अपनो से बात करने लगे। गांव के मुखिया थे घर वालों को उनसे बहुत कुछ जानना था. थोड़ी देर बाद फिर उन्होंने जो आंखें बंद कीं तो फिर नहीं खोलीं। उनकी सांसें भी थम चुकी थी। उनका निधन हो चुका था।

 आज भले ही हम पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति को महत्व देते हों लेकिन कभी आयुर्वेद ने बड़ी सी बड़ी बीमारी ठीक की और उसके चमत्कार किसी से छिपे नहीं। (क्रमश:)

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