आत्मकथा-16
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-16
चित्रकूट से लौट कर दूसरे दिन मैं विद्यालय गया तो गुरु जी की डांट
सहनी पड़ी। उनसे छुट्टी लिए बगैर चित्रकूट जो चला गया था। मैंने गुरु जी से
कहा-गुरु जी मैं जाना नहीं चाहता था जिनके साथ रहता हूं वही जिद कर के ले गये। मैंने
उनसे कहा भी कि गुरु जी नाराज होंगे। उन्होंने कहा कि वे स्वयं गुरु जी से बात कर
लेंगे।
गुरु जी ने मेरी बातों पर
भरोसा कर लिया और सचेत किया कि-अब से जहां जाना हो मुझसे पूछ कर जाना।
हमारे सहपाठियों में से एक ने
एक दिन मुझसे कहा-भाई अच्छा है आप विद्यालय में नहीं रहते। यहां हमारी रातें जाग
कर गुजरती हैं।
मैंने पूछा- वह कैसे।
वह बोला-यह जो टीन ऊपर छायी है ना उस पर रात भर भूत नाचते हैं। हम
नीचे सांस थामें लेटे रहते हैं।
मैंने कहा-मैंने तो सुना है
कि भूत वगैरह होते ही नहीं।
उसने कहा- नहीं नहीं होते
हैं। जो अपनी उम्र पूरी नहीं कर पाते और किसी दुर्घटना या बीमारी में मरते हैं,
जिनका श्राद्ध ठीक से नहीं होता वे यहीं प्रेत योनि में भटकते रहते हैं।
मैंने कहा –तुम इतने विश्वास
से कैसे कह सकते हो।
उसने कहा-गांव के किसी
व्यक्ति ने बताया था कि जहां विद्यालय बना है वहां पहले श्मशान था।
मेरा सहपाठी भूतगाथा सुनाये
जा रहा था और मैं डर के मारे सहमा सिकुड़ा जा रहा था।
*
आगे जो रोमांचक घटना मैं बताने जा रहा हूं उसके पहले मैं यह बता दूं
कि मुझे पके कैथे की चटनी बहुत पसंद है। हमारे बुंदेलखंड में इसे कैथा कहते हैं
जिसे संस्कृत में कपित्थ कहते है। हमारे गांव में मेरी अम्मा इसके लिए पके कैथे
इकट्ठा कर के उनको सुखा कर पीस लेतीं और उससे चटनी बन जाती। पका कैथा जहां भी पड़ा
होगा आसपास उसकी महक आती रहती है।
हमारे संस्कृत विद्यालय से लगभग आधा मील दूर एक तालाब था जिसके चारों
ओर कई कैथे के पेड़ थे। मैं शाम को उस तालाब के पास टहलने चला जाता था। वहीं मैंने
पहली बार बहेड़े का पेड़ देखा था।
एक दिन की बात है मैं उस
तालाब के पास टहल रहा था सामने कई कैथे के पेड़ थे। गरमी के दिन थे। मैं एक पेड़
के पास से गुजर रहा था तो मुझे पेड़ के नीचे पका कैथा पड़ा दिखा। मेरी खुशी का
ठिकाना ना रहा। मैंने लपक कर कैथे को उठाया तो मेरे दायें हाथ की तर्जनी में अचानक
कुछ चुभने और असह्य पीड़ा का अनुभव एक साथ हुआ। मेरे हाथ से कैथा छूट गया। कैथे
के हटते ही मेरी नजर के सामने जो कुछ था वह मेरा दिल दहला देने के लिए काफी था। एक
काला सांप मुझे काट कर वापस बिल में घुस रहा था। गरमी के दिन थे शायद वह हवा लेने
बाहर निकल रहा था और उसके बिल के ऊपर ही कैथा पड़ा था। कैथा हटाते ही उसे लगा होगा
कि मैं उस पर हमला कर रहा हूं तो उसने तर्जनी उंगली में काट लिया।
अब मुझे काटो तो खून नहीं
आसपास सन्नाटा था। मदद मांगू तो किससे। मैंने तुरत विद्यालय की ओर लौटने के लिए
दौड़ लगायी हालांकि मैं यह जानता था कि दौड़ने से रक्त का संचार तेज होने से विष भी तेजी से फैलता है लेकिन मेरे पास और कोई
चारा ना था। मेरे बाबा सांप काटे के मंत्र और दवाएं जानते थे। उन्होंने बता रखा था
कि अगर किसी को सांप काट ले तो उसे नीम की पत्तियां चबाने के लिए कहना चाहिए। जब
तक उसे नीम की पत्तियां कड़वी लगती रहेंगी तब तक उसे बचाया जा सकता है। अगर नीम की
पत्तियां कड़वी लगती बंद हो जायें तो उसे किसी भी तरह से बचाया नहीं जा सकता।
सामने नीम का पेड़ था मैंने उससे मुट्ठी पर पत्ती नोच ली। एक उपाय मैं पहले ही कर
चुका था। अपने गमछे से दायें हाथ की कलाई को कस कर बांध लिया था ताकि विष जल्द ऊपर
ना चढ़ पाये।
मैं नीम की पत्ती चबाता रहा
और तेज कदमों से विद्यालय की ओर बढ़ता रहा। नीम की पत्तियां कड़वी लग रही थीं इससे
यह विश्वास था कि अब भी मेरे बचने की उम्मीद है। विद्यालय में पहुंचते ही मैंने अपने एक सहपाठी
से कहा कि-देखो मेरी तर्जनी उंगली में सांप ने काट लिया है, जल्द इसे काट कर खून
निकाल दो। तब तक वहां सांप के दांत के काले चिह्न उभर आये थे।
मेरे सहपाठी ने कहा-मुंह उधर
फेर लो।
अचानक मेरी उंगली में कुछ
धारदार चुभने की तीखी पीड़ा हुई। मैंने देखा मेरे सहपाठी ने ब्लेड से मेरी उंगली
में उस जगह कट लगा दिया था जहां सांप ने काटा था और दबा कर खून बहा दिया था जो
काला काला हो गया था।
इतना करने के बाद वह
दौड़ा-दौड़ा गुरु जी के पास गया और उनसे सारी घटना बता दी। गुरु जी दौड़े- दौड़े
आये और मुझे गले से लगा रोने लगे।उसके बाद उन्होंने तुरत एक लड़के को साइकिल में
पास के गांव भदेहदू भेज दिया जहां सांप काटने की झाड़फूंक करने वाले ओझा रहते थे।
आधे घंटे में ही वे आ गये। हमारा जो सहपाठी गया था उसने शायद वहां मेरे गांव
जुगरेसली का नाम ले लिया। भदेहदू में झाड़-फूंक करने वालों के बगल में हमारे एक
परिचित रहते थे जिनकी जुगरेहली में जिनके घर रिश्तेदारी थी वह घर हमारे घर के सामने ही
था। वे मुझे मेरी अम्मा, बाबा सबको अच्छी तरह जानते थे। उन्हें यह भी पता था कि
मैं साथी में संस्कृत विद्यालय में पढ़ता हूं। जुगरेहली का नाम सुन कर वे भी ओझा
लोगों के साथ भागे चले आये।
मुझे संस्कृत विद्यालय के
प्रांगण में एक कंबल बिछा कर बैठा दिया गया। भदेहदू से आये मेरे परिचित ने जब मुझे
देखा तो वे भी रोने लगे। रो तो मेरे गुरु जी भी रहे थे। वे भी आसन बिछा कर बैठे थे और
मेरी लिए कोई प्रार्थना कर रहे थे।
झाड़ फूंक करनेवाले ने अपने
मंत्र पड़ने शुरू कर दिये।अब तक विष का असर मुझ पर होने लगा था और बीच-बीच में
तंद्रा सी आने लगी थी। जब भी मुझे झपकी सी आती तो ओझा मुझे चिल्ला कर जगाये रहने
की कोशिश करते। ऐसा मानते हैं कि अगर सांप का काटा व्यक्ति सो गया तो समझना चाहिए कि खतरा
है, विष का असर पूरी तरह से हो गया है।
रात-भर झाड़-फूंक चली और जब
ओझा लोगों को पता लगा कि अब खतरा नहीं है तो उन्होंने एक बड़े कटोरे में एक औषधि
पीने को दी। यह दवा ऐसी थी कि अगर प्रश्न जान का ना होता तो शायद मैं कभी नहीं
पीता। उसे पीते-पीते मेरी जीभ ऐंठने लगी थी।
तब तक सुबह होने को आयी। मैं
अब पूरे होश में था। मैंने देखा पास ही आसन डाले गुरु जी बैठे हैं और गायत्री
मंत्र का पाठ कर रहे हैं। वे तब भी रो रहे थे बाद में मेरे किसी सहपाठी ने बताया
कि वे रात भर रोते रहे थे। किसी तरह से खबर पाकर साथी में मेरे आश्रयदाता
गयाप्रसाद भैया भी आ गये थे वे भी रो रहे थे। उन्हें इस बात का डर था कि कहीं मुझे
कुछ हो गया तो वे मेरी अम्मा को क्या जवाब देंगे जिन्हें वह इतना भरोसा देकर आये
थे कि बच्चा अपने ही घर जा रहा है।
मैंने सामने बैठे भदेहदू
वाले उन व्यक्ति को बुलाया जिनकी रिश्तेदारी हमारे गांव में थी।
मेंने उन्हें पास बुलाया और उनसे विनती की- काका हमारे गांव जुगरेहली जाइएगा तो मेरी अम्मा से सांप काटनेवाली
घटना का जिक्र नहीं कीजिएगा वरना वह रो-रो कर मर जायेगी।
उन्होंने मुझे आश्वस्त किया
कि वे कुछ नहीं कहेंगे।
सुबह हो गयी थी। सूरज उग
आया, गुरु जी तब भी रोये जा रहे थे। मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया और
बोला-गुरु जी आपके आशीर्वाद से मैं अब पूरी तरह से ठीक हूं।
मेरी बात सुन कर वे आश्वस्त
हुए।
अब ओझा-लोगों ने कहा-एक पीढ़ा
ले आइए सूर्य लहर दिलवानी है।
मेरा एक सहपाठी दौड़ कर पीढ़ा ले आया। ओझा ने मुझे पीढ़े पर खड़ा कर
दिया और सूर्य की ओर देखने को कहा। मेरे सूर्य की ओर देखते ही अचानक मेरी गरदन में
एक झटका-सा लगा मेरे पैर डगमगाये और फिर सब कुछ सामान्य हो गया। ओझा ने कहा-सूर्य
लहर से पता चल गया कि अब यह पूरी तरह से विषमुक्त हैं।
मेरे जीवन की यह ऐसी घटना थी
जहां मैं मौत के मुंह से लौट कर आया था।
मैंने गुरु जी के चरण छुए जो
मेरे लिए रात भर रोये थे उनका एक शिष्य के प्रति ऐसा स्नेह मैं कभी नहीं भूलूंगा। (क्रमश:)
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