भाग (17)
राजेश त्रिपाठी
राजेश त्रिपाठी
लोगों की भलाई के काम में वे कभी पीछे नहीं रहे
“सन्मार्ग” में काम करते वक्त पहले उसके प्रबंधक रहे और बाद में मालिक और संपादक बने श्री
रामअवतार गुप्त जी से रुक्म जी का अच्छा तालमेल रहा। पहले ही बता आये हैं कि दोनों
में संबंध मालिक और कर्मचारी के कम और सहयोगी और मित्र के ज्यादा थे। गुप्त जी
रुक्म जी को बहुत मानते थे और पूरे इत्मीनान से उनको कोई नया स्तंभ या नया पृष्ठ
निकालने को दे देते थे। वे पूरी तरह से आश्वस्त रहते थे कि काम रुक्म जी को दिया
है तो वे उसे जी-जान से करेंगे। और कहना ना होगा कि अक्सर रुक्म जी गुप्त जी की
नजरों में खरे उतरते थे।
अपने विनोदी
स्वभाव के चलते वे अपने सहयोगियों के बीच काफी पसंद किये जाते थे। माहौल उदास हो
तो कोई मजेदार चुटकुला सुना कर वह उसे ठहाकों में बदल देते थे। अपने साथियों को
सुनाने के लिए हमेशा उनके पास कोई रोचक घटना या कोई चुटकुला मौजूद रहता था। पुराने
लोगों में मंगल पाठक तो उनको बड़े भाई की तरह मानते थे। मंगल पाठक( अब वे इस
दुनिया में नहीं हैं) पहले ट्यूशन वगैरह पढ़ाते थे। सन्मार्ग में रुक्म जी से
मिलने आते थे।
एक बार रुक्म जी
ने पूछा-‘ पाठक जी, करते क्या
हैं?’
‘क्या करता हूं बस यही ट्यूशन वगैरह करके गुजारा कर
लेता हूं।‘
‘हमारे यहां क्यों नहीं आ जाते?’
‘अरे क्या कहते हैं, मैं पत्रकारिता का प तक नहीं
जानता, कभी अखबार में काम नहीं किया क्या करूंगा?’
‘वही जो अखबार के कार्यालय में कंपोज की गयी खबरों
और सामग्री के संशोधन का काम है यानी प्रूफ रीडिंग।‘
‘ लेकिन मैं तो प्रूफ रीडिंग का एबीसी भी नहीं जानता।‘
‘ठीक है, मुझसे कह दिया तो कह दिया, अब कोई और पूछे
तो कह दीजिएगा प्रूफ रीडिंग जानते हैं।‘
पाठक जी ने सिर हिलाते हुए हामी भर ली। उधर रुक्म
जी उनको काम दिलाने के लिए सूर्यनाथ पांडेय जी से मिले। सूर्यनाथ पांडेय जी उन
दिनों सन्मार्ग में एक जाना-पहचाना नाम था। वे संत पुरुष थे। सफेद मिरजई और धोती
में वे ऋषितुल्य लगते थे। गीता मर्मज्ञ और हिंदी व अंग्रेजी में समान रूप से गीता
पर घंटों धाराप्रवाह बोलने में सक्षम। बहुत ही मृदुभाषी, जिनके होंठों पर हमेशा
स्मित हास्य विराजता था। यह रुक्म जी का सौभाग्य था कि वे पांडेय जी के भी
कृपापात्र थे। वे उनको बहुत मानते थे। पांडेय जी बहुत ही धार्मिक और सात्विक
प्रकृति के व्यक्ति थे। उनके बारे में कहते हैं कि वे स्वयं अपना खाना बनाते थे और
वह भी गंगाजल से।
रुक्म जी ने जब
मंगल पाठक जी के बारे में उनसे बताया और उनको रखने का आग्रह किया तो पांडेय जी ने
पूछा-‘रुक्म जी वे प्रूफ
देखना जानते हैं ना।‘
किसी को काम दिलाने के लिए रुक्म जी शायद पहली बार
झूठ बोले होंगे और वह भी सूर्यनाथ पांडेय जैसे साधु व्यक्ति से। उन्होंने उन्हें
बताया कि पाठक जी प्रूफ देखना जानते हैं। उधर खुद रुक्म जी ने ही पाठक जी को प्रूफ
देखना सिखाना शुरू कर दिया। कुछ दिनों में ही वे प्रूफरीडिंग में पारंगत हो गये।
उनको सन्मार्ग में नौकरी मिल गयी। यहां से नौकरी छोड़ कर उत्तरप्रदेश के आजमगढ़
जिले के अपने गांव वापस लौटने तक वे रुक्म जी को बड़े भाई-सा सम्मान देते रहे। मृत्यु
से पहले एक बार कोलकाता आये तो हावड़ा में रहनेवाले अपने पौत्र को साथ ले रुक्म जी
से मिलने उनके कांकुड़गाछी स्थित फ्लैट में आये। अच्छे हट्टे-कट्टे पाठक जी कृशगात
हो गये थे और चलने के लिए उन्हें छड़ी का सहारा लेना पड़ रहा था फिर भी वे अपने
बड़े भाई सरीखे रुक्म जी से मिलना नहीं भूले थे।
कोलकाता प्रेस क्लब के हिंदी कवि सम्मेलन में (बायेंसे दायें)डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र , रवींद्र कालिया, डॉ. रुक्म त्रिपाठी (देखें लाल तीर का निशान) , अंबु शर्मा और संचालन करते राज मिठौलिया |
बाद के दिनों में श्री रामअवतार गुप्त जी से अपने
अच्छे संबंधों के चलते भी वे कई लोगों को सन्मार्ग से जोड़ने में सफल हुए। जिनमें
से कुछ लोग आज भी सन्मार्ग में कार्यरत हैं। रुक्म जी अपने पुराने मित्र और आकाशवाणी के
कोलकाता केंद्र में हिंदी के प्रोड्यूसर स्वर्गीय दीपनारायण मिठौलिया के बेटे राज
मिठौलिया के भी सन्मार्ग में प्रवेश के माध्यम बने थे। राज भाई को किशोरावस्था से
ही शेरो-शायरी और कहानियां आदि लिखने का शौक था। उनके परिवार से रुक्म जी का बहुत
ही अच्छा संबंध था। दोनों परिवार एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते थे। पहले
मिठौलिया जी कांकुड़गाछी में फूलबागान थाने के करीब की केंद्रीय सरकार के
कर्मचारियों की कालोनी में सपरिवार रहते
थे। उनका घर दूसरे तल्ले में था और उसकी एक बालकनी रास्ते की ओर खुलती थी। अगर कभी
उस रास्ते से रुक्म जी गुजर रहे होते और मिठौलिया जी या राज की मम्मी की नजर उन पर
पड़ जाती तो तुरत वे उन्हें टोंकते-‘हां, हां चले जाइए, जैसे यहां आपका कोई नहीं रहता।‘ कहना ना होगा कि रुक्म जी के पैर बरबस उनके घर की
ओर मुड़ जाते। काफी देर तक दीपनारायण जी से बातें होतीं, चाय चलती और फिर रुक्म जी
अपने गंतव्य को निकल जाते। यह संबध अरसे तक जारी रहे। जब मिठौलिया जी का परिवार
टेंगरा की एक हाउसिंग कालोनी में चला गया तब भी उनके यहां जाना जारी रहा।
रुक्म जी
आकाशवाणी में वार्ताकार थे और अपनी कहानियां भी पढ़ते थे इस नाते उनका अक्सर मिठौलिया
जी से मिलना-जुलना होता रहता था। लेखन के प्रति राज का शौक देख कर एक बार दीपनारायण मिठौलिया जी ने
अपने बंधु रुक्म जी से कहा –‘इनको लेखन का शौक है। देखिए अगर पत्रकारिता में ये कुछ कर सकें। सन्मार्ग में
इनके लिए कोशिश कीजिए ना।‘
रुक्म जी ने राज के बारे में श्री रामअवतार गुप्त
से बात की। गुप्त जी से जब भी वे किसी को
सन्मार्ग में रखने की बात करते गुप्त जी का जवाब होता-‘ रुक्म जी, आप अगर समझते हैं कि रखने लायक हैं तो
रख लीजिए।‘
इस तरह से राज मिठौलिया का पत्रकारिता के क्षेत्र
में सन्मार्ग से प्रवेश हुआ जिसमें जरिया रुक्म जी बने। राज रुक्म जी के लिए ‘चाचा जी’ का संबोधन इस्तेमाल करते थे और अंत तक उन्हें सम्मान देते
रहे। उनके निधन का समाचार सुना तो शोक व्यक्त करने घर पहुंचे। सन्मार्ग के बाद राज
मिठौलिया हिंदुस्तान से जुड़े। और बाद में प्रभात वार्ता हिंदी दैनिक के संपादक
बने। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि वे 2004-2005 में प्रेस क्लब कोलकाता के
अध्यक्ष चुने गये। यह पहला अवसर था जब उनके रूप में कोई हिंदीभाषी प्रेस क्लब का
अध्यक्ष चुना गया था। प्रेस क्लब में उन्होंने एक और उल्लेखनीय कार्य किया।
उन्होंने वहां पहली बार हिंदी कवि सम्मेलन ‘काव्यांजलि’ आयोजित किया जिसमें वे अपने प्यारे चाचा रुक्म जी को बुलाना
नहीं भूले। उन्हें
ससम्मान बुलाया और कविता पाठ कराया। इस कवि सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर
कृष्ण बिहारी मिश्र, पत्रकार रवींद्र कालिया व राजस्थानी कवि अंबु शर्मा व अन्य
गणमान्य कवि व श्रोता उपस्थित थे। यह प्रेस क्लब का एक अभिनव प्रयोग था।
हरिराम पांडेय |
सन्मार्ग
में जिन अन्य पत्रकारों के प्रवेश के सारथी रुक्म जी बने उनमें एक प्रमुख नाम
जाने-माने पत्रकार, लेखक, संपादक श्री हरिराम पांडेय का भी है। आज के युग में लोग
उन लोगों को सत्वर भूल जाते हैं जिनकी मदद से वे उपलब्धियां हासिल करते हैं लेकिन
यह पांडेय जी की ईमानदारी और उत्तम संस्कार हैं कि वे आज तक यह स्वीकार करने में
संकोच नहीं करते कि सन्मार्ग में उनके प्रवेश में रुक्म जी की महती भूमिका थी। यह
बात वे सबके सामने स्वीकार करते हैं। उनके प्रवेश की भूमिका भी रुक्म जी ने निभायी
और हमेशा की तरह इस बार भी श्री रामअवतार गुप्त जी ने उनकी बात नहीं ठुकरायी।
सुभाष विश्वास ने
धनबाद में दैनिक आवाज और आज से अपनी पत्रकारिता शुरू की थी। उनको भी सन्मार्ग में
प्रवेश दिलाने में रुक्म जी ने मदद की। इसके लिए भी एक लंबी भूमिका बनायी गयी जो
या तो सुभाष विश्वास जानते हैं या फिर रुक्म जी जानते थे। सुभाष विश्वास के लिए
सिफारिश उनके भाई पत्रकार-लेखक पलाश विश्वास ने की थी।
सुभाष विश्वास |
रुक्म जी
से किसी का भला हो जाये इससे बड़ी खुशी
उनको किसी दूसरी बात से नहीं होती थी। वे किसी बेगुनाह को दंड मिलते या उसे प्रताड़ना
मिलते नहीं देख सकते थे इसीलिए उन लोगों के पक्ष में खड़े हो जाते थे। कई बार
गुप्त जी बोलते भी थे कि रुक्म जी आप इन लोगों को बचाने क्यों दौड़े आते हैं लेकिन
वे उन्हें इतना मानते थे कि अगर वे किसी के पक्ष में खड़े हो जायें तो फिर वे भी
उसे माफ कर देते थे। कई बार ऐसा भी समय आया जब जिच इतनी बढ़ गयी कि रुक्म जी ने अपना इस्तीफा तक लिख कर गुप्ता जी के टेबल
पर रख दिया। इस पर गुप्ता जी ने मुसकराते हुए इस्तीफा फाड़ दिया और कहा –‘जाइए, काम कीजिए।‘
कुछ तो सन्मार्ग के साहित्य संपादक होने के नाते और
दूसरे खुद साहित्यकार और कवि होने के नाते रुक्म जी का परिचय नवोदित कथाकारों और कवियों से तो था
ही कुछ प्रतिष्ठित कवि और साहित्यकार भी उनके अनन्य मित्रों में शामिल थे। इनमें
डॉक्टर कृष्ण बिहारी मिश्र भी थे जो उनको बहुत मानते थे। उनके निधन का समाचार सुन
कर वे भी बहुत दुखी हुए थे। रुक्म जी के मित्रों में कवि नवल , कथाकार छेदीलाल
गुप्त, छविनाथ मिश्र, संतन कुमार पांडेय. कपिल आर्य, जितेंद्र धीर, कुशेश्वर,
प्रदीप धानुक, सुरेश साव, डॉक्टर
शंभुनाथ सिंह, लेखक व ज्योतिष मर्मज्ञ मंगल त्रिपाठी, पत्रकार व गायक ओमप्रकाश
मिश्र. पत्रकार राधाकृष्ण प्रसाद, अजय सिंह, जे . चतुर्वेदी चिराग, सुरेंद्र सिंह,
कवि-कथाकार ‘अभिज्ञात’ हृदयनारायण सिंह , कथाकार सिद्धेश, कवि
डॉ. नगेंद्र चौरसिया, संवाद लेखक व कवि हृदयेश पांडेय, डॉ. मणिशंकर त्रिपाठी, जितेंद्र
जितांशु, मदन सूदन आदि थे।
कवि-शिक्षक
रामेश्वरनाथ मिश्र ‘अनुरोध’ उनके गहरे मित्रों में थे। ओजस्वी कविताएं
लिखनेवाले मिश्र जी की जब भी कोई नयी पुस्तक आती वे उसे रुक्म जी को भेंट करना ना
भूलते। नेता जी सुभाषचंद्र बोस जैसे वीरों पर ओजस्वी कविता लिखनेवाले मिश्र जी
अक्सर रुक्म जी से मिलने सन्मार्ग आते और कभी सन्मार्ग की छत पर तो कभी नीचे उतर
कर फुटपाथ पर अपनी कोई नयी कविता सुनाना शुरू करते तो फिर कब आधा घंटा वक्त निकल
जाता पता न चलता। उनका कविता पढ़ने का लहजा भी बड़ा ओजपूर्ण और प्रभावी है। ऐसे कई
कविता पाठ का साक्षी यह ब्लागर भी बना। उनकी वीर रस की कविताएं बहुत प्रभावी
होतीं। वैसी कविताएं आजकल बहुत कम लोग ही लिख पाते हैं या लिखते हैं। ऐसी कविताओं
को भले ही कुछ लोग आज आप्रासंगिक समझते हों लेकिन कभी ऐसी कविताओं ने इतिहास रच दिया था। वीरगाथा काल इसका गवाह है।
सन्मार्ग के
उनके पुराने मित्रों में तारकेश्वर पाठक, रमाकांत उपाध्याय, लाल जी पांडेय,
मोतीलाल चौधरी, राजीव नयन , गुणानंद मिश्र आदि थे। उनके परिचित साथियों में अनिल कुमार राय,
कार्तिकलाल यादव, दशरथ तिवारी, जोखन तिवारी, संजय राय, हरेकृष्ण वर्मा, विजय राय.अशोक
भट्टाचार्य श्रद्धा से उनको याद करते हैं। इसके अलावा भी कई अन्य लोग थे जिनके नाम
आज याद नहीं आ रहे। कोलकाता में उन्होंने एक युग बिताया था। सन्मार्ग में तो रुक्म
जी ने आधी शताब्दी गुजारी थी। यह अपने आपमें एक कीर्तिमान है। उन्होंने लेटर प्रेस
से लेकर फोटो टाइपसेटिंग और फिर लेजर पद्धति तक में काम किया था। पत्रकारिता के इस
लंबे कार्यकाल में उन्होंने कई नये लेखक बनाये और पत्रकारिता में नये-नये प्रयोग
किये। ( शेष अगले अंक में)
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