महान आत्मा को उनकी जयंती पर शतशत नमन
राजेश त्रिपाठी
देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए हजारों देशभक्तों ने अपने प्राण न्योछावर किये। उनमें से किसी के भी बलिदान को कम कर के नहीं आंका जा सकता। लेकिन भारत माता के वीर सपूत सुभाषचंद्र बोस ही ऐसे एक राष्ट्रनायक थे जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए बाकायदा युद्ध लड़ा। अपने सीमित साधनों से उन्होंने अंग्रेजों की महान शक्ति से लोहा लिया। देश के लिए जो शहीद हुए उनका बलिदान किसी तरह से कम नहीं था लेकिन सुभाष उनमें अनन्य और अनोखे थे। भारतमाता के लिए उनका बलिदान बहुत बड़ा और सराहनीय था। सुभाष जैसे सपूत बिरले ही होते हैं।
जिन शहीदों ने देश के लिए बलिदान किया उनका यह बलिदान स्वार्थ या स्वहित से प्रेरित नहीं था। यह परहित आकांक्षा के लिए था। उस मातृभूमि के लिए था जिसमें वे जनमे थे और जो अंग्रेजों की गुलामी में सिसक रही थी, जिसके वासियों पर अगणित जुल्म ढाये जा रहे थे। लोगों के बोलने-लिखने की आजादी छीन ली गयी थी। सब कुछ सरकार बहादुर के हुक्म पर चलता था। जनता भी इससे त्रस्त थी लेकिन किसी में अंग्रेजों के इस जुल्मो-सितम के खिलाफ चूं तक करने की ताकत नहीं थी। लेकिन कहते हैं कि जोर-जुल्म का चक्र ज्यादा दिनों तक नहीं चलता इसी तरह भारत में भी इस जुल्म के खिलाफ जनांदोलन उभरा और फिर प्रारंभ हुआ स्वतंत्रता का महासमर। किसी ने इसके लिए सत्याग्रह का पंथ पकड़ा तो कुछ ने अंग्रेजों की बड़ी शक्ति जिसके लिए कहते हैं कि उसके शासन में कभी सूर्यास्त नहीं होता था के खिलाफ बाकायदा जंग का एलान कर दिया। उस वक्त स्वतंत्रता प्राप्ति की अकुलाहट लिए आंदोलन से जुड़ी इन धाराओं को दो नाम दिये गये थे-नरम दल (आंदोलन, सत्याग्रह पर यकीन रखनेवाले) और गरम दल (यानी ईंट का जवाब ईंट से देने वाले)। सुभाष गरम दल से थे। महात्मा गांधी नरम दल के थे और वे चाहते थे कि सब कुछ सत्याग्रह के बल पर हासिल किया जाये। सुभाष का इस पर यकीन नहीं था।वे जानते थे कि अंग्रेजों में जब तक यह खौफ नहीं पैदा होगा कि भारत अब उनके लिए सुरक्षित नहीं, तब तक वे यहां की एक इंच जमीन को भी आजाद नहीं करना चाहेंगे।
सुभाष देश के सबसे साहसी नेताओं में एक थे। उन्होंने उस वक्त आजाद हिंद फौज का गठन किया जब उनके पास कोई संसाधन नहीं था। अगर कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ जनबल और जनास्था। लोगों का उन पर इतना विश्वास था कि सुहागनों ने आजाद हिंद फौज के गठन और संचालन खर्च के लिए अपने गहने तक नेताजी को भेंट कर दिये। इस जनशक्ति के बल ही भारत का यह शेर दहाड़ा- दिल्ली चलो। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। सुभाष हर तरह संकीर्णता और बंधनों से मुक्त थे। वे राष्ट्र के स्तर पर सोचते थे इसीलिए वे देश के प्यारे नेता जी थे। बहुतों का मानना है कि आजादी के बाद देश अगर उनके जैसे सत्यनिष्ठ और ईमानदार नेता के हाथों में आता तो शायद उसका वह स्वरूप न होता जो आज है। तब शायद यह स्थिति ही न आती कि देश में किसी अन्ना को भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चाउसके और अनशन करना पड़े। राजनीति का जिस कदर अपराधीकरण हुआ है, संभव है वह भी न होता। लेकिन क्या कहें भारत का भाग्य तो इसी तरह लिखा गया था कि उनसे नागरिकों को अपनी ही सत्ता से कुछ अच्छा करवाने, देश को भ्रष्टाचार मुक्त कराने के लिए आंदोलन करना पड़े।
23 जनवरी 1897 को ओड़िशा के कटक में जानकीनाथ बोस के घर सुभाष का जन्म हुआ। उनकी मां का नाम प्रभावती था। सुभाष के पिता कटक के जाने-माने वकील थे। इसके साथ ही बंगाल विधानसभा के सदस्य भी थे। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज और स्काटिश चर्च कालेज में शिक्षा प्राप्त कर भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए वे इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय गये। वहां से 1920 में उन्होंने आईसीएस की परीक्षा पास की। वे आईसीएस अधिकारी बन गये थे लेकिन 1921 तक
देश में राजनीतिक उथल-पुथल कुछ इस तरह बढ़ गयी कि उन्होंने आईसीएस की बजाय देश सेवा में जीवन अर्पित करने की सोची। वे देशकार्य में जुट गये। 1938 में वे कांग्रेस अध्यक्ष बने। तब तक द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और अंग्रेज उससे परेशान हो गये थे। सुभाष चाहते थे कि अंग्रेजों पर चोट करने का यही सही वक्त है इसलिए स्वतंत्रता संग्राम को तेज और जोरदार किया जाये लेकिन गांधी ऐसा नहीं चाहते थे। इस बात को लेकर गांधी और सुभाष के बीच मतभेद भी उभरे जो दिन ब दिन और गहरे होते गये। इस सबके बावजूद 1939 में सुभाष फिर कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिये गये लेकिन गांधी जी और उनके साथियों के सुभाष के प्रति व्यवहार में तब भी बदलाव नहीं आया। 3 मई 1939 को उन्होंने कलकत्ता में फारवर्ड ब्लाक नामक अपने दल का गठन किया। इसके बाद उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की। उनके इस संघर्ष की परिणति भले ही सफलता में न हुई हो लेकिन इस तरह की मिसाल देश तो क्या शायद दुनिया में नहीं मिलेगी कि एक व्यक्ति ने किसी महाशक्ति के खिलाफ सेना का गठन कर युद्ध किया हो। यही बात सुभाष को अन्य स्वतंत्रता सेनानियों से अलग और सही मायने में स्वतंत्रता संग्राम का महानायक बनाती है। देश को आजादी दिलाने में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसक आंदोलन की भी विश्व में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उनका सत्याग्रह का प्रयोग विश्व भर में ख्यात है। आज इसे लोग गांधीगीरी के नाम से भी जानने लगे हैं लेकिन इससे सुभाष का त्याग या उनके साहस की गाथा कहीं गौण या मद्धम नहीं पड़ जाती। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि सुभाष के संघर्ष के जज्बे ने ही अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी और उन्होंने भारत से सही-सलामत वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझी और वैसा ही किया।
स्वाधीन संग्राम में आजाद हिंद फौज के नायक के रूप में वे 11 बार जेल गये। उन्होंने 1933 से 1938 तक का समय यूरोप में बिताया। यहां रहते हुए उन्होंने चेकोस्लोवाकिया, आस्ट्रिया, बुल्गारिया, फ्रांस. जर्मनी, हंगरी, इटली, आयरलैंड, पोलैंड, रूमानिया, स्विट्जरलैंड, तुर्की व यूगोस्लाविया की यात्रा की। बर्लिन में वे जर्मनी के तत्कालीन तानाशाह हिटलर से भी मिले। उनसे भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए मदद मांगी। जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की उन्होंने स्थापना की। 3 जून 1943 को वे जर्मनी से पनडुब्बी के सहारे जापान के लिए रवाना हुए। जापान में पहुंच कर उन्होंने आजाद हिंद फौज का विस्तार कार्य शुरू किया। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद 18 अगस्त 1945 को नेता जी विमान से मंचूरिया के लिए रवाना हुए लेकिन उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नहीं। वह विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और कहा जाता है कि उसी दुर्घटना में सुभाषचंद्र बोस की मौत हो गयी लेकिन आज तक इसकी पुष्टि नहीं हो पायी और रहस्य रहस्य ही बना रह गया। देश के एक सच्चे सपूत की मृत्यु के रहस्य से कब परदा हटेगा पता नहीं। जैसा सुना जाता है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस आजादी के बाद भी जीवित थे । कभी कहा गया कि वे उत्तरप्रदेश में फैजाबाद के करीब शैलमारी बाबा के रूप में बरसों तक साधु वेष में रहे। उस साधु के पास से नेताजी के व्यक्तिपत्र और जर्मनी से पनडुब्बी द्वारा जापान जाने के रूट का नक्शा तक मिला बताया जाता है। कई लोगों ने उन्हें किसी और रूप में देखने की बात कही है। यह नेताजी के प्रति जनास्था का प्रभाव हो सकता है कि वे उन्हें कई रूपों में नजर आते रहे। वैसे भी अब उनके होने की कल्पना करना बेमानी है लेकिन अगर उनका निधन हुआ है तो देश को जानने का हक है कि उनके प्यारे नेता के साथ हुआ क्या। क्या हम उम्मीद करें कि इस रहस्य से कभी परदा हटेगा।
नेताजी इस देश के लिए पूज्य और श्रद्धेय हैं क्योंकि वे इस देश के लिए जिये, इसके लिए ही मरे। कोई भी राष्ट्र इतना कृतघ्न तो हो नहीं सकता कि अपने उस नेता को भुला दे जिसने उसे परतंत्रता से मुक्त कराने के लिए अपना सुख-शांति और जीवन ही होम कर दिया। इस महानायक को उनकी जयंती पर शत शत नमन।
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