150 वीं जन्मजयंती पर सश्रद्ध प्रणाम
राजेश त्रिपाठी
हमारा देश ऐसे अनेक संतों की चरण रज और उनके पावन विचारों से पुनीत हुआ जिन्होंने धर्म और आचार विमुख हो रहे मानव समाज को धर्माचरण के लिए प्रेरित किया। इस संत समाज का विश्व हमारा ऋणी रहेगा जिन्होंने अनाचार, अत्याचार और असाधु आचरणों की वृद्धि को विराम लगाने और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इनमें कई ऐसे थे जिनके लिए ईश सेवा से कहीं श्रेयष्कर थी पीड़ित मानवता की सेवा। जो दुखियों में ही दीनानाथ प्रभु के दर्शन करते थे ऐसे ही संत पुरुषों में अन्यतम थे स्वामी विवेकानंद जो इस धरा धाम पर अल्पकाल तक ही रहे लेकिन अपने कार्यों और अपने विचारों से वे सदा के लिए अमर हो गये। भारत और विश्व को इस महान संत पर गर्व है जिसने धर्म को पाखंड या आडंबर के रूप में नहीं अपितु जीवनशैली, जीवनचर्या के परिष्कार और सुधार के उपकरण के रूप में लिया। उनके लिए धर्म वह साधन रहा जो व्यक्ति को आचारवान, निष्ठावान बनाता है औक शाश्वत सत्य से उसका संबंध जोड़ता है। 1893 में एक युवा संन्यासी के रूप में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित कर सारे विश्व को उद्वेलित और अचंभित कर देने वाले इस संन्यासी ने विश्व बंधुत्व के भारतीय आदर्श को वहां प्रतिष्ठित करना चाहा और उसमें उन्हें अपार सफलता मिली। उन्होंने इस सम्मेलन में यह सिद्ध कर दिया कि अगर आपमें आत्मीयता और दूसरों को अपना बनाने की गहन लालसा और ललक है तो फिर कोई आपका पराया रह ही नहीं सकता। यही वजह है कि शिकागो के धर्म सम्मेलन में जहां दूसरे लोग अपने भाषण का प्रारंभ ‘लेडीज एंड जेंटलमेन’ के औपचारिक और बनावटी संबोधन से कर रहे थे, वहीं स्वामी विवेकानंद जी ने अपने संबोधन का प्रारंभ ‘माई ब्रदर्स एंड सिस्टर्स आफ अमेरिका’ कह कर सबको खुद से जोड़ लिया। कहना न होगा इसके बाद देर तक सम्मेलन हाल तालियों की गड़गडडाहट से गूंजता रहा। लोग हतप्रभ से होकर इस भारतीय युवा संन्यासी को देख रहे थे, जो चंद शब्दों से उनके इतने करीब आ गया था। उसने उन लोगों को अपने भाई और बहनों के रूप में संबोधित किया था। उसने औपचारिकता का नहीं अंतरंगता का परिचय दिया और दूर देश के लोगों के हृदय को सीधे स्पर्श कर लिया। इसके बाद तो जैसे समय विवेकानंद के ही पक्ष में मुड़ गया जिन्हें अपने विचार व्यक्त करने के लिए बहुत कम समय मिला था, उन्हें देर तक लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे।
इस संन्यासी ने इस बात को प्रतिष्ठित किया कि जब तक मानवता पीड़ित है, मंदिरों, मठों में पूजा-अर्चना का आडंबर अर्थहीन है। पहले पीड़ित मानवता के आंसू पोंछों तभी होगी सच्ची गोविंद सेवा। यह परम और अकाट्य सत्य है कि ईश्वर भी जब-जब जिस अवतार या रूप में आये उनका परम उद्देश्य दीन जनों के दुख हरना और अनाचार, दुराचार का नाश कर धर्म और सदाचार की प्रतिष्ठा ही रहा है। आज हम स्वामी विवेकानंद जी को उनकी 150वीं जयंती पर श्रद्धानत हो याद कर रहे हैं और सोच रहे हैं काश अनाचार, दुराचार, अशांति और असमानता के इस दौर में हमारे बीच एक और विवेकानंद अवतार लेते तो संभवतः पतन के गर्त में जाते समाज को पुनः सही दिशा देते। संतोष है कि वे न सही उनके आदर्श, विचार हमारे साथ हैं और सदा हमारा पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके जैसे संत और युग प्रवर्तक व्यक्ति के विचार और कार्य आज और प्रासंगिक हो गये हैं जब समाज पश्चिम के अंधानुकरण में अपने उत्तम आदर्श और आचारों को तिलांजलि दे रहा है। उसके लिए लालसा, वासना और धन ही प्रमुख रह गये हैं आचार-विचार और सदाचार तो जैसे उसके लिए पूरी तरह गौण हो गये हैं। बनावटी भौतिक सुख की दौड़ में वह परम और आत्मिक व सात्विक आनंद से कोसों दूर चला गया है और उसकी सत्य की अपनी उस जमीन, उस धरातल पर वापसी मुश्किल ही नहीं नामुमिकन है। विवेकानंद जैसे युगदृष्टा और प्रखर विचारक और समाज सुधारक होते तो शायद इस लोलुपता, अमिट लालसा और धन के लिए अपने मानव धर्म तक से स्खलित होते समाज को भोगलिप्सा की अंधी सुरंग से वापस ले आते। ऐसी सुरंग जो सिर्फ और सिर्फ अंधेरे के गर्त में ही पूरी मानवता को लिए जा रही है।
घर में विले नाम से पुकारे जाने वाले नरेंद्रनाथ दत्त को हालांकि बहुत कम जीवन मिला लेकिन जीवन के उस अल्पकाल में ही वे जो कर गये वह अविस्मरणीय और अतुलनीय है। 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में वे धरा धाम में आये और 39 वर्ष की अल्पायु में ही 4 जुलाई 1902 को उन्होंने नश्वर शरीर त्याग दिया। इस अल्पायु में ही उन्होंने पैदल ही देश का भ्रमण किया और देशवासियों के कष्ट और समाज की हकीकत से उनका सीधा साक्षात्कार हुआ। धर्म के क्षय और अधर्म, अनाचार की बाढ़ से वे बहुत त्रस्त हुए और अपने विचारों से समाज को सही दिशा में लाने के सद्प्रयास में लग गये। वेदांत के मर्मज्ञ, प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु विवेकानंद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे। उनमें ईश्वर को पाने की उत्कट अभिलाषा थी। वे ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे लेकिन उस प्रकाश से अपरिचित थे जो उन्हें अंधकार से दूर उस प्रकाशपुंज का दर्शन करा सके। इसके लिए ज्ञान या कहें उस आत्मिक शक्ति के जागरण की आवश्यकता थी जो प्रभु से सीधा साक्षात्कार कराने की सीढ़ी है। विवेकानंद अपनी यह अभिलाषा ले उस वक्त के महान साधक रामकृष्ण परमहंस के पास गये। दोनों की पहली मुलाकात के बारे में तरह-तरह की कहानियां हैं लेकिन सच यह है कि रामकृष्ण परमहंस की प्रखर और प्रबुद्ध दृष्टि ने एक नजर में ही यह पहचान लिया था कि आध्यात्मिक जागरण का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्हें जिस व्यक्ति की आवश्यकता है वह विवेकानंद (उस वक्त नरेंद्रनाथ दत्त ) ही हैं। दोनों की मुलाकात दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में हुई थी जहां रह कर ठाकुर रामकृष्ण परमहंस मां की आराधना करते थे। उन्होंने विवेकानंद को मां का दर्शन कराया, उन्हें अपने हाथ से भोजन कराया और अपने परम तप के बल से विवेकानंद की एक तरह से कुंडलिनी जागृत कर दी और उनमें आध्यात्म का वह बीज बो दिया जिससे आगे चल कर वे महान संत, विचारक और प्रकांड विद्वान के रूप में परिणत हुए।
विवेकानंद हमारे राष्ट्र के महान संत और समाज सुधारक थे जिनके विचार आनेवाली कई पीढ़यों तक समाज को सही दिशा दिखाते रहेंगे। जब-जब पीड़ित मानवता का जिक्र आयेगा उनके मानव सेवा को ही ईश सेवा कहने के विचार उन्हें हमेशा एक श्रेष्ठ संत के रूप में प्रतिष्ठित करते रहेंगे। संत जिसने समता, शुचिता और सामंजस्य का पाठ पढ़ाया। जिसने विश्व बंधुत्व के भाव को सच्चा सम्मान दिया। राष्ट्र ऐसे महान संत और विचारक को पाकर धन्य हुआ। हम इस महान संत के चरणों में शत-शत नमन करते हैं। आशा करते हैं कि हमारा देश और विश्व उनके सच्चे आदर्शों का अनुसरण करे ताकि पीड़ित मानवता का कष्ट-लाघव हो सके और विश्व फिर शांति-समता के पथ पर अग्रसर हो सके।
thank you very much for reminding all of us about this great person's bday.
ReplyDeleteThanks Raravi Ji for appreciating my veiws on great soul of India Swami Vivekanand Ji. Realy we are very fortunate that our motherland India (Better to describe as Bharat) have been blessed by such a great Thinker who's wisdom was internationaly acclaimed. Rajesh Tripathi
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