-राजेश त्रिपाठी
पुण्य धरा भारत भूमि में भगवान ने समय-समय पर विविध अवतार ग्रहण कर सज्जनों के कष्टों का निवारण और दुर्जनों का संहार किया है। इन अवतारों में कृष्णावतार की महत्ता कहीं अधिक है क्योंकि इसमें प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म युद्ध के लिए प्रवृत्त करने हेतु जिस गीता का गान किया, उसका दर्शन विश्व के लिए एक पाथेय बन गया। उसके आलोक में विश्व को इस बात का ज्ञान हुआ कि जीवन-धर्म क्या है, सत्य क्या है, जीवन क्या है, मृत्यु क्या है। स्वजन क्या हैं और मानव का कर्तव्य क्या है। एक प्रकार से कहें तो जीवन-दर्शन है प्रभु की वाणी से निस्सृत अमृतमयी गीता। इसका मनन-चिंतन और सम्यक अध्ययन मानव को मोह से निवृत्त और सत्कर्म पर प्रवृत्त करता है। कृष्ण कई अर्थों में विश्व को अन्याय के विरुद्ध खड़े होने, अपने कर्तव्य के प्रति सचेत होने और धर्माचरण में प्रवृत्त करने हेतु धरा पर आये थे।
कृष्ण का जन्म कारा में हुआ, शैशव और किशोरावस्था तक वे बाधाएं झेलते रहे। कंस ने उन्हें समाप्त करने के कितने प्रयत्न किये पर विजय अंततः श्रीकृष्ण की हुई। उनका संघर्षपूर्ण जीवन इस बात की प्रेरणा देता है कि अगर व्यक्ति निश्चय कर लें, दृढ़ प्रतिज्ञ हो तो सफलता अधिक दिनों तक उससे दूर नहीं भाग सकती। महाभारत युद्ध में कृष्ण को अपने ही परिजनों पर वार करने को प्रेरित करने वाले कृष्ण का उद्देश्य मात्र यही था कि जो अन्यायी है, उसे दंड मिलना ही चाहिए चाहे वह स्वजन ही क्यों न हो। ऐसा कर के वे यह स्पष्ट कर देना चाह रहे थे कि धर्मयुद्ध में सब कुछ उचित है। समय साक्षी है धर्मयुद्ध महाभारत में विजय पांडवों की ही हुई। यह और बात है कि युद्ध में जिसके सारथी स्वयं श्रीकृष्ण हो विजय हो उसकी होगी ही।
कृष्ण के अनेक रूप और अनेक अर्थ हैं उनकी लीलाओं को समझने के लिए गहरे चिंतन-मनन की जरूरत है। कुछ संसारी प्राणी उनकी लीलाओं को साधारण ज्ञान से सोचते हैं और अपने ढंग से अर्थ लगा लेते हैं। लेकिन सत्य तो यह है कि इन्हें जानने के लिए अंतर की अनुभूति और तर्क व मन की आंखों की आवश्यकता है। वायवीय रूप से उनकी लीलाएं सांसारिक लगेंगी लेकिन अगर इन्हें आध्यात्मिक ढंग से सोचा जाये तो कृष्ण के विराट रूप और उनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के न जाने कितने आयाम खुलते चले जायेंगे और आप उन दैवीय स्वरूपों और उनकी लीलाओं से परिचित होकर उनमें इस तरह रम जायेंगे कि भक्त और भगवान की दूरी मिटती नजर आयेगी।
प्रारंभ प्रभु की बाललीला से करते हैं। जितनी बाल लीलाएं और उनमें भी सरस और सुंदर लीलाएं प्रभु ने कृष्णावतार में की हैं उतनी संभवतः किसी और अवतार में नहीं कर पाये। किन-किन प्रसंगों को याद करें। प्रभु की माखनचोरी की लीला, कंदुक क्रीड़ा, प्रुभ का मां का मन रखने के लिए ओखल में बंध जाना। जो संसार के प्रत्येक बंधन से लोगों को मुक्त करने की शक्ति रखता है उसका इस तरह मां के हाथों बंध जाना मां की महत्ता और उनकी सत्ता को गरिमा प्रदान करने की एक लीला ही तो थी अन्यथा बड़े-बड़े दैत्यों का संहार करने वाले कृषण के लिए सामान्य ऊखल से मुक्त होना कौन सी बड़ी बात थी। कालिया नाग का मानमर्दन, बकासुर वध, पूतना वध, गोपियों के वस्त्रहरण की लीला और न जाने कितने प्रसंग। सबमें प्रभु की सरसता, चपलता और कहीं उनका नटखटपन दिखता है। आपने अगर कभी कृष्णलीला देखी या सुनी है तो आपने पाया होगा कि माखन चोरी या दही की मटकी फोड़ने की शिकायत करने आयी गोपिकाएं कृष्ण को मां के हाथों दंड़ देना भी सह नहीं पातीं। यहां उनका वात्सल्य और कृष्ण के प्रति अनन्य अनुराग झलकता है। वे नहीं चाहतीं कि उनके प्रिय कृष्ण के कोमल गात पर कोई भी प्रहार करे, उनका मक्खन, दही चोरी होता है हो जाये। प्रभु का सलोना बाल स्वरूप सबको लुभाता और उनके जीवन को सार्थकता करता है। जैसे कि उन्हें अपने बीच पा कर गोपिकाएं और गोप हो धन्य हो गये।
कृष्ण की लीलाओं में कुछ लोग अपने संकुचित और सांसारिक सोच के चलते कलुष और मलिनता देखते हैं जो उनके सोच और उस स्वभाव का दोष है जो एक निश्चित सीमा से परे कुछ देखना ही नहीं चाहता। मेरा आशय कृष्ण की चीरहरण की लीला और गोपियों के संग उनकी रासलीला से है। कुछ लोग चीरहरण को सांसारिक दृष्टिकोण से देखते हैं और वही सोचते हैं जो उनका मन उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुतः चीरहरण के प्रसंग को कुछ विद्वान इस बात से जोड़ते हैं कि उन दिन उत्पातियों और गलत प्रवृत्ति के लोगों का वहां बड़ा आतंक था, उनके प्रति गोपियों को सचेत करने और इस तरह स्नान न करने के लिए कृष्ण ने यह लीला की थी। ऐसे ही कुछ लोग रास में भी वासना के तत्व को जोड़ते हैं जो नितांत अनुचित और निरर्थक है। इसे इस दृष्टि से भी देखा जा सकता है कि प्रभु और भक्त में न दुराव होता है और न ही कोई सांसारिक आवरण। भक्त और भगवान का तो अनन्य प्रेम और अगाढ़ संबंध होता है। कृष्ण और गोपियों का जो अनुराग था वह सांसारिक भोग-लिप्सा से परे परम तत्व के साक्षात्कार और उससे तादाम्य का भाव था। वह परमात्मा से मिलन का वह अनुपम और अनन्य क्षण का प्रतिरूप था जहां देह की कोई भूमिका नहीं थी। जब प्रेम पराकाष्ठा को प्राप्त होता है, तो वहां देह भाव गौण और निरर्थक हो जाता है। इस स्थिति के परमानंद में देह की न कोई भूमिका है और न ही वासना का कोई अंश। प्रभु की इन लीलाओं का वर्णन कई विद्वानों ने अपनी-अपनी तरह से किया है। उसमें अधिकांश का मत है कि रासलीला में न वासना का पुट था और न ही भोग लिप्सा की झलक। कृष्ण ने ये लीलाएं यह दर्शाने के लिए कीं कि एकमात्र प्रेम ही जगत का सार तत्व है। प्रेम से किसी पर भी विजय पायी जा सकती है। यहां तक कि चंचल मन पर भी। गोपियों ने यही किया वे कृष्ण के सात्विक प्रेम में इस तरह डूब गयीं कि खुद कृष्णमय हो गयीं। न उनके मन में विकार रहा और न विचारों में। रास में एक प्रसंग आता है कि हर गोपी की यह इच्छा थी कि प्रभु उनके साथ अलग से नृत्य करें। कृष्ण को जब इसका भान हुआ तो उन्होंने ऐसी लीला की कि हर गोपी को यह लगने लगा कि कृष्ण तो उनके साथ हैं। यह प्रभु से तादात्म्य और उनके समीपत्व का भाव है। भक्त जब भक्ति की चरम सीमा में पहुंच जाता है तो वह हर जागतिक वस्तु में प्रभु के दर्शन प्राप्त करने लगता है। उसके लिए जगत की सारी वस्तुएं निस्सार और प्रभु का प्रेम ही सारतत्व हो जाता है। गोपियों की यही स्थिति हो गयी थी। वे प्रभु की अनन्य भक्त और अनुगामी थीं। उनके अलग जीवन की वे कल्पना भी नहीं कर सकती थीं। इसमें विकार या वासना देखना अनुचित है। भले ही इन प्रसंगों का वर्णन ललित और मोहनीय ढंग से काव्यों या ग्रंथों में हुआ हो लेकिन इन्हें इस रूप में देखना ही उचित है कि यह प्रेम की सतही नहीं सात्विक और स्वच्छ धारा थी जो गोपियों के हृदय में बह रही थी। यही वजह है कि गोपियों को जब समझाने उद्धव आते हैं तो वे उन्हें ही प्रश्नों से घेर देती हैं। वे साफ कहती हैं-‘ऊधो मन नाहीं दस बीस, एक हतो सो गयो श्याम संग केहिं आराधें ईश।’ यह अकाट्य सत्य है कि जो प्रभु में रम गया, वह अहर्निश उनकी ही स्मृति में खोया रहता है। फिर उसे सांसारिक बंधन बांध नहीं पाते और भोग-लिप्सा प्रभु के प्रति उनके प्यार से उनको डिगा नहीं पाती
आज के भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार के घटाटोप अंधेरे में कृष्ण की वाणी और भी सार्थक और सटीक लगने लगी है।
कृष्णावतार की सबसे बड़ी भूमिका तो अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार से लड़ने और उसे समाप्त करने के लिए ही थी। दुष्ट दुर्योधन के इशारे पर जब दुस्शासन अपने ही कुल की कुलीन स्त्री को भरी सभा में नग्न करने का प्रयत्न करता है और कृष्ण आकर उनकी मान रक्षा करते हैं। ऐसा कर प्रभु ने अनाचार, व्यभिचार और अत्याचार के विरुद्ध खड़ा होने की प्रेरणा दी। इसका आशय यह है कि आप ऐसा कुछ भी अपने समक्ष होते देखते हैं तो आप अपने सामर्थ्य भर उसका प्रतिरोध करें। इसके आगे झुके नहीं। कहना नहीं होगा नारी का यही अपमान विश्व के सबसे बड़े धर्मयुद्ध महाभारत का कारण बना जहां अंततः विजय धर्म की ही हुई।
कृष्ण ने यह प्रतिपादित किया कि जहां-जहां धर्म पर प्रहार हुआ, खल प्रवृत्ति के लोगों ने सज्जनों का जीना दूभर कर दिया वहां से उनकी भूमिका प्रारंभ होती है। दुष्ट दलन कर धर्म को प्रतिष्ठित करने, शाश्वत, स्वच्छ मानव मूल्यों के पुनर्स्थापन की भूमिका, जग को धर्म पथ दिखाने की भूमिका। युद्धस्थल में स्वजनों को गांडीव के लक्ष्य के सामने देख मतिभ्रम और मोहग्रस्त हुए अर्जुन का मोहभंग करने और उसे धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित करते समय कृष्ण अपने धराधाम पर आने की प्रासंगिकता बताते हुए कहते हैं-‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्. धर्म संस्थापनार्थाय संभावामि युगे-युगे।’ अर्थात हे अर्जुन! जब-ब भारत भूमि में धर्म का पराभव होगा तब-तब अधर्म के नाश के लिए मैं अवतार लूंगा। साधुओं की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होऊंगा।’ अपनी इस वाणी से प्रभु श्रीकृष्ण जगद्उद्धार की अपनी प प्रतिबद्धता, संकल्प के प्रति अर्जुन को बताते हैं। अर्जुन का व्यामोह तोड़ने के लिए प्रभु बताते हैं कि जिन स्वजनों, परिजनों को तुम अपने समक्ष देख रहे हो इन्हें न तो तुमने पैदा किया है और न ही तुम इनकी मृत्यु का कारण ही बनोगे। जन्म लेना और पुनः मृत्यु को प्राप्त करना तो इनकी नियति है इसमें तुम्हारी कोई भूमिका नहीं है फिर ग्लानि कैसी, मोह कैसा। स्पष्ट है कि अगर अर्जुन मोहग्रस्त होकर युद्ध से विमुख हो जाता तो न जाने कितने अनर्थों और अनाचारों को बल मिल जाता। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा करने वाला दुस्शासन ऐसा करने का साहस पा जाता। दुर्योधन का मन और बढ़ जाता। समाज में व्याप्त अनाचार, अत्याचार और अन्याय समाप्त होने के बजाय बढ़ता जाता। महाभारत के कोई चाहे कितने अर्थ लगाये लेकिन मेरे विचार से इसका सबसे सटीक और अकाट्य अर्थ यही है कि बुरे काम का बुरा नतीजा। कौरवों ने अपने भाइयों के साथ बुरा किया जिसका फल उन्हें भोगना पड़ा।
कृष्ण के अर्जुन का सारथी बनने के प्रसंग की कथा भी एक शिक्षा ही देती है। कृष्ण ने अपनी तरफ से कौरव-पांडव युद्ध टालने का पूरा प्रयत्न किया लेकिन जब कौरव युद्ध के बिना पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी भूमि देने को तैयार नहीं हुए तो फिर कृष्ण को भी लगा कि अब युद्ध ही एक रास्ता बना है। कृष्ण का संबंध कौरवों और पांडवों दोनों से था। ऐसे में दोनों चाहते थे कि वे युद्ध में उनकी मदद करें। कृष्ण ने कहा कि एक तरफ मेरी सेना है, और एक तरफ अकेला मैं। कौरव-पांडव तय कर लें कि किसे किसका साथ चाहिए। कहते हैं कि इस बारे में बात करने के लिए जब दुर्योधन पहुंचा तो कृष्ण लेटे हुए थे। वह उनके सिरहान खड़ा हो गया और अर्जुन उनके पैरों की ओर बैठ गया। कृष्ण जब उठे तो उनकी दृष्टि सर्वप्रथम अर्जुन पर पड़ी। अर्जुन ने कहा प्रभु मुझे आपका साथ चाहिए। कृष्ण ने कहा कि ठीक है वे सारथी के रूप में उनके साथ रहेंगे लेकिन युद्ध में कभी अस्त्र ग्रहण नहीं करेंगे। अब कृष्ण मुड़े तो उन्होंने दुर्योधन को खड़ा पाया उससे वे बोले कि भाई मैं तो अर्जुन का हो गया, बाकी बची सेना वह तुम ले लो। दुर्योधन बहुत खुश हुआ कि चलो कृष्ण को अस्त्र तो उठाना नहीं है, ये हमारा क्या बिगाड़ लेंगे इनकी सेना पाकर हमारी ताकत बढ़ जायेगी। यहां यह शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया है कि किसी के पास सहायता के लिए जाओ तो अपना अहंकार अपना दंभ भूल कर विनयी भाव से जाओ क्योंकि प्रयोजन तुम्हारा है। विनयी होना सर्वदा लाभदायी होता है और दंभी, अहंकारी होना कष्टप्रद। अर्जुन विनयी भाव से गया तो उसे साक्षात प्रभु का साथ मिला और विजयश्री उसे ही प्राप्त हुई।
प्रभु कृष्ण की लीलाएं अनंत हैं। कोई कितना गान करे। प्रभु को कौन किस दृष्टि से देखता है यह उसके अपने मनोभावों पर निर्भर है। कहा भी है कि- जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। जब जिनके विचार ही कलुषित हों, जो विचार की संकुचित सीमाओं से ऊपर न उठ सके हों उनके किसी भी सोच से प्रभु की महत्ता तो कम नहीं होगी। कभी हमारे संस्कृत के आचार्य मान्यवर विदयाभूषण द्विवेदी जी ने संस्कृत का कोई पाठ पढ़ाते समय पूछा था कि हम कृष्ण को किस रूप में याद करना चाहेंगे, माखनचोर, रास रचैया या धर्म का साथ देने अधर्म का नाश करने वाले कृष्ण के रूप में। स्पष्ट है कि हम सबने ने यही कहा कि धर्म की रक्षा करने वाले कृष्ण ही हमारे आदर्श हैं। हमारे आदर्श वे द्वारकाधीश कृष्ण हैं जो गरीब सुदामा से मिलने सिंहासन छोड़ दौड़े आते हैं और उन्हें अपने सिंहासन पर बैठा उनका आदर सम्मान करते हैं। (आज के शासकों की तरह नहीं जिनके पास उस जनता के लिए ही समय नहीं होता जिसकी वजह से वे सत्ता सुख भोग रहे होते हैं। ठंड़े घरों में बैठ ये उस भोली जनता को सुनहरे सपने दिखाते और फिर निर्ममता से उन्हें तोड़ते रहते हैं। जनता का दुख सुनने के लिए जो जनता दरबार लगाने का नाटक करते हैं लेकिन उनके दुख दूर करने के लिए रंचमात्र भी प्रयास नहीं करने। हम लानत भेजते हैं ऐसे शासकों पर जो जनसेवा के अपने कर्तव्य को भूल बैठे हैं।)
कृष्ण के जगकल्याणकारी रूप को हम नमन करते हैं। हम योगेश्वर, कर्मयोगी, धर्मरक्षक कृष्ण का वंदन करते हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि वे स्वार्थ, भोग लिप्सा, कदाचार, व्याभिचार में डूबी भारत भूमि की रक्षा करें। यहां की जनता की करुण पुकार करें और कुछ ऐसा चमत्कार करें कि भारतवर्ष के जनता के प्रति उदासीन शासक नींद से जागें और अपने कर्तव्य को निभायें ताकि इस पावन भूमि के प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित स्थान, सम्मान मिले। दीनता मिट जाये, सर्वत्र सुख का साम्राज्य हो। भागवत् का प्रारंभ भी कृष्ण वंदना से ही हुआ है-सच्चिदानंद रूपाय, विश्व उत्पत्ति हेतवे, तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्ण वयं नुमः।
कृष्ण को नमन-वासुदेव सुतं देवम् कंस चानुर मर्दनम् देवकी परमानंदम् कृष्णम् वंदे जगदगुरुम्।।
Apne gagar mein sagar bhar diya hai! yadi koi gita ya mahabharat na padh sake to apka ye sulekh hi kafi hai.
ReplyDelete