आत्मकथा-48
यह तो पहले ही बता आये हैं कि रविवार को पाठकों की नब्ज पकड़ने में
देरी नहीं लगी। दूसरी पत्रिकाओं के मुकाबले इसे पाठकों ने सर्वाधिक पसंद किया।
इसका एकमात्र कारण य़ह था कि इसने जहां आवश्यक समझी सत्ता के शीर्ष तक सवाल उठाने
में झिझक नहीं दिखायी। इसी क्रम में देश की एक बड़ी नेता की उपाधि गलत छप गयी।
रविवार की एक-एक लाइन लोग ध्यान से पढ़ते थे। विधानसभाओं में तो इसे किसी घोटाले
आदि के प्रमाण के रूप में उछाला जाता था।
जिस घटना का हम जिक्र कर रहे हैं उसमें देश की एक बड़ी नेता की उपाधि गलत छप गयी थी। रविवार के किसी सजग पाठक ने पंक्ति और शब्द गिन कर संपादक को पत्र लिखा कि आप चाहे जितने व्यवस्था विरोधी संपादक हों पर आपको शालीनता नहीं त्यागनी चाहिए। पाठक ने यह भी पूछा था कि यह सायास है या अनायास। मतलब असावधानी से ऐसा हो गया या इरादन ऐसा कर दिया गया। इस घटना के बाद हमारे संपादक एस पी सिंह ने संपादकीय विभाग के सभी साथियों को बुलाया और उस पाठक का पत्र दिखाते हुए कहा-आज आप लोगों के चलते मेरा सिर नीचा हो गया। मैंने बार-बार कहा है कि आप लोग आपस में एक-दूसरे से अपना मैटर चेक करा लीजिए। आपकी गलती आपका साथी देखेगा तो वह ठीक करा देगा। आपको उसके सामने लज्जित होने की बात नहीं क्योंकि वह आपको सही कर रहा है।
देखिए आपमें से किसी एक की गलती के लिए मुझे शर्मिंदा होना पड़ रहा है। मैं रविवार पत्रिका में ही पूरे पेज का जवाब लिख रहा हूं यह स्पष्ट करते हुए कि हम कितने भी व्यवस्था विरोधी पत्र हों पर हम कभी अपनी शालीनता नहीं छोड़ेगे।
साल बीतते-बीतते हमारी टीम में कुछ और लोग जुड़ गये। शिशिर गुप्त और विजय कुमार मिश्र रविवार की टीम में जुड़ गये। शिशिर गुप्त को पत्रकारिता विरासत में मिली थी। उनके पिता साहित्यकार मोहनलाल गुप्त भैयाजी बनारसी के नाम से ख्यात व्यंग्य कवि और पत्रकार थे।
विजय कुमार मिश्र बिहार से आये थे। उनके पिता जी कोलकाता में किसी सर्विस में थे।
उदयन शर्मा दिल्ली में विशेष प्रतिनिधि के रूप में थे। वे एक स्तंभ कुतुबनामा भी लिखा करते थे जो एक तरह से साप्ताहिक दिल्ली डायरी हुआ करती थी।
यहां एक बात बताता चलूं कि मुझे और दो-एक जन को छोड़ कर बाकी लोग अक्सर एस पी सिंह के केबिन में जाकर बातें करते रहते थे। कुछ दिन बाद मुझे लगा कि कहीं एस पी यह ना सोच बैठें कि मैं अहंकारी हूं और उनसे मिलने की जरूरत नहीं समझता। अपनी इस उलझन को सुलझाने के लिए एक दिन मैंने उनके केबिन में प्रवेश किया और नमस्कार किया।
एस पी बोले-बैठिए राजेश जी कैसे आना हुआ, कुछ कहना है।
मैंने कहा –जी हां।
एस पी बोले-बोलिए निस्संकोच बोलिए।
मैंने कहा- भाई साहब कई लोग आपके केबिन में बैठ कर बातें करते रहते हैं। मेरे मन में आपके लिए बहुत सम्मान है पर मेरी अपनी धारणा है कि हम कार्यालय में काम करने आते हैं ना कि आपके बहुमूल्य समय में आपके पास बैठ कर गप हांकने। मैं काम के लिए आता हूं और आफिस आवर्स का एक-एक मिनट हमारा काम के लिए समर्पित होना चाहिए। आप कुछ अन्यथा ना सोच बैठें इसलिए अपने मन की बात कहने आया।
एस पी बोले-अरे राजेश जी, मैं खुद उन लोगों से परेशान होता हूं लेकिन मना नहीं कर पाता कि यह कहीं मेरे विरुद्ध ही प्रचार ना करने लगें कि संपादक घमंडी है सहयोगियों से बात ही नहीं करता। आपको तो मैं हरदम काम करता पाता हूं आपसे मुझे क्या शिकायत हो सकती है। आप अपने मन से यह सब निकाल दीजिए आराम से काम कीजिए।
मेरा मन हलका हो गया कि चलो संपादक का मन मेरे प्रति साफ है।
समय बीता और रविवार में फिल्मों आदि पर भी लेख जाने लगे। अक्सर जब खाली समय होता और एस पी कार्यालय में नहीं होते तो मुझमें और सुदीप जी में खूब बातें होतीं। इनमें फिल्मों के बारे में मेरी जानकारी की भी बात होती।मेरी बातें सुदीप जी गौर से सुना करते थे।
एक दिन क्या हुआ कि मैं नीचे प्रेस में किसी स्टोरी का फाइनल प्रूफ पहुंचाने गया। लौट कर आया तो अपनी सीट पर बैठ पाऊं इससे पहले एस पी ने मुझे बुला लिया-राजेश जी इधर आइए।
मै उनके पास गया और उनकी अनुमति मिलने के बाद उनके सामने की कुर्सी में बैठ गया।
एस पी बोले-कल मुझे वी शांताराम पर एक लेख चाहिए।
मैंने कहा-भैया मुंबई वाले तो लिख रहे हैं उन्हीं से लिखवा लीजिए ना।
वे बोले-नहीं आप ही लिखेंगे।
मैं समझ गया कि जब तक मैं नीचे प्रेस से लौटा सुदीप जी ने एस पी को मेरे फिल्मी ज्ञान का परिचय दे दिया है। मैंने सुदीप जी की ओर देखा तो वे मुसकराये, मुझे मेरा जवाब मिल गया।
उसके बाद से तो अक्सर फिल्मों पर मेरा कोई ना कोई लेख जाता रहा।
कुछ अरसा बाद अभिनेत्री नरगिस की लंबी बीमारी के बाद मृत्यु की खबर आयी। एस पी ने फिर कहा-इस पर भी आपको लिखना है।
मैंने एक बार फिर कहा-भैया इसे तो मुंबई वालों से करा लीजिए वे पूरे घटनाक्रम से जुड़े रहे होंगे।
एस पी ने कहा-नहीं यह आपको ही लिखना है और यही लगे कि किसी मुंबई वाला पत्रकार जैसा लिखता आपने उससे बेहतर लिखा है।
अब मेरे सामने यह चुनौती थी। चुनौतियां मुझे डराती नहीं मुझमें नया हौसला जगाती हैं। मैंने सोच लिया कि जब एस पी ने मुझे पर भरोसा किया है तो उस पर मुझे खरा उतरना है।
मैंने नरगिस की नृत्यु पर आलेख तैयार किया। एस पी को पढ़ने को दिया तो उसे पढ़ने के बाद वे मुसकराते हुए केबिन से बाहर आये और राजकिशोर को वह आलेख देते हुए बोले-राजेश जी ने बहुत अच्छा लिखा है अब आप इसका एक अच्छा-सा शीर्षक लगा दीजिए। राजकिशोर जी ने पढ़ा और कहा-वाकई राजेश जी ने अच्छा लिखा है।
राजकिशोर जी ने शीर्षक भी अच्छा लगाया-जिंदगी की बड़ी कशिश थी पर मौत का एक दिन मुअय्यन था। मुअय्यन अर्थात निश्चित।
लेख रविवार में प्रकाशित हो गया। उसके दो-चार दिन बाद अनिल सारी नामक एक फिल्म पत्रकार मुंबई से कोलकाता एस पी से मिलने आये। तब तक रविवार कार्यालय उसी ब्लिडिंग में बाहरी दीवाल से सटी जगह में आ गया था जहां सबसे अंत में एस पी का केबिन था और बाहर एक लंबे रो में हम सब बैठते थे।
अनिल सारी और एस पी केबिन से बाहर आकर बातें कर रहे थे कि तभी अनिल सारी ने पूछा-यार एस पी यह राजेश त्रिपाठी कौन है जिसने नरगिस की मृत्यु पर लिखा है। ऐसा लगता कि जैसे वह उसकी आती-जाती सांसें गिन रहा था। क्या खूब लिखा है।
एस पी ने कहा-मुंबई में एक नया लड़का आया है तुम नहीं जानते।
अनिल सारी ने कहा- क्या बात करते हो मैं मुंबई के एक-एक फिल्म पत्रकार को जानता हूं। वहां इस नाम का कोई नहीं है।
जब एस पी ने देखा कि अनिल परेशान हो रहे हैं तो उन्हें लेकर मेरे पास आये मैंने खड़े होकर दोनों को नमस्कार किया।
एस पी बोले-यह हैं हमारे राजेश त्रिपाठी, इन्होंने लिखी है वह रिपोर्ट।
अनिल सारी ने मुझे हृदय से लगा लिया और कहा-वाकई यह है सच्ची पत्रकारिता। अगर एस पी नहीं बताते तो मैं भ्रमित रहता और जाकर मुंबई में राजेश त्रिपाठी को खोजता। वाह भाई वाह।
उतने बड़े पत्रकार की यह वाह वाही मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार था।
इस किस्त को समाप्त करते करते एक अच्छी खबर भी सुनाता चलूं। हमारे घर पहली संतान के रूप में कन्या आयी थी सबको इंतजार एक बेटे का था प्रभु ने वह इच्छा भी पूरी कर दी एक संतान देकर जिसका नाम हमने चंद्रमौलि रखा। चंद्रमौलि अर्थात जिनके शिर पर चंद्रमा हैं यानी भगवान शिव।
उन्हीं दिनों गांव जुगरेहली से पिता जी के अस्वस्थ होने की खबर आयी। मैं तो नहीं जा पाया लेकिन भैया गांव गये और पिता जी के कानों में कह आये कि आपके नाती हुआ है। पच्चानबे वर्ष की वय में पहुंचे पिता जी कुछ बोल तो नहीं पाये हां हाथ हिला कर संकेत दिया कि अच्छा है। (क्रमश:)
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