सन्मार्ग’ से ‘ स्क्रीन’ तक मची धूम
(भाग-2)
राजेश त्रिपाठी
सन्मार्ग हिंदी दैनिक में रुक्म जी
के प्रवेश के कुछ अरसे बाद ही उसमें बदलाव दिखने लगा। उसमें रविवारी परिशिष्ट
जुड़ा जिसमें साहित्य, धर्म और मनोरंजन से जुड़ी कथाओं के साथ ही बच्चों के लिए
बाल विनोद और महिलाओं के लिए भी अलग से पेज दिये जाने लगे। शुक्रवार को सिनेमा
परिशिष्ट भी जुड़ा जिसमें फिल्मी दुनिया की रोचक खबरों के साथ ही एक सवाल-जवाब का
कालम भी शुरू हुआ- लालबुझक्कड। इसमें लालबुझक्कड यानी रुक्म जी पाठकों के विविध
प्रश्नों के रोचक उत्तर देने लगे। बहुत जल्द ही ये परिशिष्ट पाठकों में बेहद
लोकप्रिय हो गये। उन दिनों आज की तरह स्तंभ लेखक तो थे नहीं कि पृष्ठ भरने में
आसानी होती। ऐसे में संपादक को ही कई
स्तंभ लिखने पड़़ते थे। रुक्म जी महिला पाठकों के लिए सुशीला दीदी के नाम से
स्तंभ लिखा करते थे। इससे कई बार बड़ी दिलचस्प स्थिति आ जाती थी। महिलाएं अपनी
प्रिय लेखिका सुशीला दीदी से मिलने आतीं तो सन्मार्ग में रुक्म जी के सहकर्मी मजा
लेने के लिए उनकी ओर इशारा कर कहते-‘मिल लीजिए, वे बैठी हैं आपकी सुशीला दीदी।‘ जाहिर है महिला पाठक पहले
कुछ झेंपतीं फिर मुस्करा देतीं। वे अरसे तक सुशीला दीदी बने रहे फिर उन्होंने
लेखक-लेखिकाओं को तैयार करना शुरू किया। सन्मार्ग आज पूर्वी भारत का सर्वाधिक
लोकप्रिय दैनिक है। इसकी एक बड़ी भूमिका यह भी रही कि इसने बहुत से नये लेखकों को
अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का मौका दिया। इसमें रुक्म जी का बी बहुत बड़ा योगदान रहा।
रुक्म जी की एक विशेषता यह भी थी
कि वे नये लेखकों से बराबर संपर्क भी रखते थे। कलकत्ता से बाहर रहनेवाले लेखक भी
उनसे मिलने आते तो उनकी सदाशयता और आतिथ्य के कायल हो जाते। जब लोग उनसे पूछते कि
हर संपादक जमे-जमाये प्रतिष्ठित लेखकों को छापता है ताकि उनके अखबार की बिक्री
बढ़े फिर आप नये लेखकों को छापने का जोखिम क्यों उठाते हैं। उनका जवाब होता कि-‘ ये नये लेखक ही एक दिन
प्रतिष्ठित लेखक बन सकते हैं इन्हें मौका न दिया तो फिर ये कैसे आगे बढ़ पायेंगे।
आज जो प्रतिष्ठित लेखक हैं वे तो मां के गर्भ से सीख कर नहीं आये। उन्हें भी सही
मौका मिला, प्रतिभा थी, आगे बढ़ गये।‘ नंयी लेखकों की कहानियां, कविताएं वे सुधार कर,
उनका पुनर्लेखन कर छापते थे। उनसे भेंट होती तो समझाते कि कैसे लिखना चाहिए। कुछ
साल बीते सन्मार्ग आगे बढ़ता गया। फिर इसमें एक और महान व्यक्तित्व रामअवतार गुप्त
का प्रवेश हुआ। वे अच्छे प्रशासक थे और उनकी छत्रछाया में सन्मार्ग दिनों दिन
प्रगति करने लगा । उन्होंने भी रुक्म जी की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें सन्मार्ग
के पूजा-दीपावली विशेषांक के संपादन का दायित्व दे दिया। इस दायित्व का भी
उन्होंने बखूबी पालन किया। उनके संपादन के दौरान विशेषांक में लिखने वाले लेखक
लेखिकाओं के नाम पर नजर डालने से ही पता चल जायेगा कि यह विशेषांक नामचीन
लेखकों में कितना लोकप्रिय था। इसमें
महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह 'दिनकर', ख्वाजा अहमद अब्बास, आरसी प्रसाद सिंह, शिवमंगल
सिंह सुमन व अन्य प्रसिद्ध लेखक-लेखिकाओं की रचनाएं छपती थीं। कई साल तक वे
विशेषांक का संपादन करते रहे और यह इतना लोकप्रिय था कि लोगों को इसकी प्रतीक्षा
रहती थी।
सन्मार्ग में काम करते वक्त भी
रुक्म जी का लेखन बराबर जारी रहा। वे उपन्यास, कहानियां और कविताएं, गीत आदि
लगातार लिखते रहे। रामअवतार गुप्त जी के आने के बाद सन्मार्ग ने काफी प्रगति की
लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब यह समाचारपत्र कठिऩाई के दौर से भी गुजरा। स्थिति यह
आ गयी कि स्टाफ का वेतन देना तक मुश्किल होने लगा। ऐसे में तय यह हुआ कि अगर
सन्मार्ग को बचाना है तो लोगों को अपना वेतन कटा कर काम करना होगा। यह प्रस्ताव
आते ही बहुत लोग संस्थान छोड़ कर चले गये लेकिन कुछ लोग वेतन कटा कर भी सन्मार्ग
को बचाने में लगे रहे। उन लोगों में रुक्म जी भी थे जिनका कहना था कि जो संस्थान
अपना अन्नदाता है उसे बचाने के लिए जो भी योगदान देना पड़े हम तैयार हैं। उनके कई
साथी भी डटे रहे और लोगों ने अपने संबंधों का इस्तेमाल कर विज्ञापन जुटाने शुरू कर
दिये। ऐसा कई माह तक चला फिर सन्मार्ग जो उठ कर खड़ा हुआ तो फिर दौड़ने लगा और
उसके बाद कभी नहीं रुका। रामअवतार गुप्त जी ने भी राहत की सांस ली और सन्मार्ग को
संवारने में लग गये। उनके कुशल पथ प्रदर्शन में सन्मार्ग दिनों दिन आगे बढ़ता गया और
इतना आगे निकल गया कि फिर दूसरा कोई पत्र उनके नजदीक तक नहीं पहुंच पाया। खुद
गुप्त जी भी मानते थे कि पत्र की प्रसार संख्या बढ़ने में रुक्म जी के द्वारा
संपादित परिशिष्टों की भी प्रमुख भूमिका है। यह बात बाद में उन्होंने राजश्री स्मृति
न्यास की ओर से आयोजित रुक्म जी के सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में
सार्वजनिक तौर पर भी स्वीकारी थी। उनके शब्द थे-‘ये तो हमारे लिए पारस पत्थर
हैं। इन्हें जो भी परिशिष्ट दिया इन्होंने चमका दिया।‘ व्यवस्थापक के रूप में
गुप्त जी सन्मार्ग से जुड़े फिर संपादक और मालिक बन गये लेकिन रुक्म जी के और उनके
संबंधों में कोई अंतर नहीं आया। दोनों में मालिक कर्मचारी का नहीं बल्कि मित्रवत
व्यवहार था जो गुप्त जी अंत तक निभाते रहे। उन दिनों रुक्म जी कपूत कलकतिया के नाम
से व्यंग्य कविताएं लिखते थे जो सन्मार्ग के ‘उड़नझाइंयां’ स्तंभ में कई सालों तक छपती रहीं और लोगों में काफी लोकप्रिय रहीं। बाद के दिनों में सन्मार्ग से हटने के बाद भी वे उसके ' चकल्लस' स्तंभ में व्यंग्य कविताएं जीवन के आखिऱी दिन तक लिखते रहे। उनके बाल
विनोद स्तंभ में लिखनेवाले कई लोग आज वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और पत्रों के संपादक
हैं। इनमें से कई हमेशा उन्हें ‘गुरु जी’ कह कर ही संबोधित करते रहे। गुप्त जी से अच्छे संबंधों और
तालमेल के कारण उन्होंने कई पत्रकारों के सन्मार्ग में प्रवेश पर अहम भूमिका
निभायी। यह कहानी नहीं हकीकत है और इसके कई प्रमाण आज भी मौजूद हैं।
सन्मार्ग में रहते हुए उन्होंने असंख्य कविताएं, कहानियां और उपन्यास लिखे। उनके उपन्यास रोशनी और रोशनी, अंगूरी, बर्फ की आग, अनचाही प्यास, मेरे दुश्मन मेरे मीत, नीली रोशनी (जासूसी) बहुत लोकप्रिय रहे। उनके काले मन उजले लोग, बहकी राहें, नरोत्तम नारायणी धारावाहिक प्रकाशित हुए। सन्मार्ग में उनके सिनेमा पृष्ठ को पढ़ कर आर. के .पोद्धार बहुत प्रभावित हुए और उनको अपने हिंदी सिने साप्ताहिक ‘स्क्रीन’ का संपादक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि रुक्म जी सन्मार्ग छोड़ दें और पूरी तरह से स्क्रीन से जुड़ जायें लेकिन रुक्म जी इसके लिए तैयार नहीं थे। आखिर एक बीच की राह निकाली गयी वह यह कि रुक्म जी सन्मार्ग में भी रहें और स्क्रीन का संपादन भी करते रहें। स्क्रीन के संपादक के रूप में उनका नाम भी छपता था। उस वक्त के सिने साप्ताहिकों में स्क्रीन जल्द ही नंबर वन बन गया जिसे कालेज के लड़के लड़कियां बहुत पसंद करते थे। रुक्म जी ने स्क्रीन में कई जबरदस्त रिपोर्ट्स प्रकाशित कीं जिन्हें आजकल स्कूप या स्पेशल रिपोर्ट कहा जाता है। स्क्रीन के लिए वे अक्सर बंबई जाते रहते थे और इस क्रम में राज कपूर, दिलीप कुमार, अशोक कुमार, भारत भूषण, किशोर कुमार, राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, जय मुखर्जी, शशधर मुखर्जी, हृषिकेश मुखर्जी, बीआर चोपड़ा, यश चोपड़ा, केदार शर्मा, ओपी रल्हन, सुनील दत्त व कई अन्य अभिनेताओं, निर्देशकों से उनकी दोस्ती हो गयी। हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध संवाद लेखक ब्रजेंद्र
बंबई में अपने दोस्त संवाद लेखक ब्रजेंद्र गौड़ (दायें) के साथ रुक्म जी |
बंबई में अभिनेता भारभूषण के साथ रुक्म जी |
स्क्रीन के
दिनों में ही उनकी दोस्ती ‘बैजू बावरा’ जैसी हिट फिल्म के नायक भारतभूषण से भी हो
गयी। भारतभूषण उऩ्हें बहुत मानते थे। फिल्मों में जब धर्मेंद्र का प्रवेश हुआ तो
सभी फिल्म समालोचकों ने उनको खारिज कर दिया। कई लोगों ने कहा कि यह देहाती कहां से
चलेगा। लेकिन एकमात्र रुक्म जी ही ऐसे पत्रकार थे जिन्हें धर्मेंद्र में अपार
संभावनाएं दिखीं। उन्होंने हमेशा यही लिखा कि अगर इस लड़के को सही फिल्म, सही निर्देशक का साथ मिल जाये तो यह चमत्कार कर
सकता है। अभिनय की अपार संभावना इसमें नजर आ रही है। कहना ना होगा कि आगे चल कर
धर्मेंद्र ने अपने कई आलोचकों को झूठा साबित कर दिया और लगातार हिट फिल्म देते हुए
हीमैन जैसे संबोधनों से संबोधित किये गये। कहते हैं कि उनके बारे में किसी विदेशी
पत्रकार ने लिखा था कि हिंदी फिल्मों में तो बस एक ही हीरो है धर्मेंद्र बाकी तो
सब हीरोइनें हैं। (शेष अगले भाग में)
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