आत्मकथा-38
राजेश त्रिपाठी
दिन, माह तेजी से गुजरते रहे। वंदना अब अपनी गृहस्थी में पूरी तरह से
एडजस्ट हो गयी थी। हिंदी और हमारी अवधी भी सीखने, समझने को उसने चुनौती के रूप में
लिया। दो-एक बार एक शब्द का अर्थ जान लेने के बाद तीसरी बार उसे बताना नहीं पड़ता
था। हिंदी की वर्णमाला का उसे सम्यक ज्ञान था क्योंकि बांग्ला माध्यम से पढ़ने के
बावजूद उसका एक विषय हिंदी भी था। उसके आने से एक फायदा मुझे यह हुआ कि मैं जहां
भी बांग्ला में अटकता उससे मुझे मदद मिल जाती। एक ही कमी रह जाती कि मेरा बांग्ला
का उच्चारण वैसा ही होता जैसा किसी हिंदी भाषी का बांग्ला बोलते हुए होता है।
सन्मार्ग में प्रशिक्षण,
स्क्रीन के प्रबंध संपादक के रूप में काम और बाल उपन्यासों के लेखन का सिलसिला
जारी था। इस बीच राजू बाल पाकेट बुक्स के मालिक छोटे सचदेव ने मुझसे कहा कि-राजेश
जी, हम चाहते हैं कि एक ऐसी पुस्तक निकालें जिसमें 100 से ज्यादा नये-पुराने फिल्म
कलाकारों का सचित्र परिचय हो। इस किताब का नाम होगा ‘फिल्मी सितारे’ और यह आपको लिखना
है। यह मेरे लिए चुनौती थी और चुनौतियां उठाना मुझे हमेशा ही अच्छा लगा। समय तो
लगा लेकिन फिल्मी सितारे प्रकाशित हुई और बहुत लोकप्रिय भी हुई। फिल्मी कलाकारों
के प्रति लोगों खासकर युवा वर्ग की बहुत दिलचस्पी रहती है। वे अपने प्रिय कलाकार
की जिंदगी के बारे में लालायित रहते हैं। ‘फिल्मी सितारे’ ने उनकी यह इच्छा पूरी कर दी। छोटे सचदेव भी खुश थे। चार पाकेट बुक्स
के सेट का सिलसिला तो निरंतर जारी ही था। इनमें दो भैया रुक्म जी लिखते और दो मैं
लिखता था। भैया ने सामाजिक उपन्यास भी राजू बाल पाकेट बुक्स के लिए लिखना शुरू कर
दिया था। इनमें अनचाही प्यास, मेरे दुश्मन मेरे मीत,बर्फ की आग,अंगूरी आदि बहुत ही
लोकप्रिय हुए। प्रकाशक की जिद पर उन्होंने एक जासूसी उपन्यास ‘नीली रोशनी’ भी लिखा लेकिन
उसमें उन्होंने अपना मूल नाम रुक्म ना देकर छद्म नाम इंस्पेक्टर राज दिया।
*
एक दिन की बात है वंदना भाभी निरुपमा के साथ पड़ोस की ही दुकान पर गयी
थी। वह ठीकठाक थी लेकिन थोड़ी देर में ही वह चक्कर खाकर गिर गयी और बेहोश हो गयी।
भाभी को काटो तो खून नहीं। वह मदद के लिए चिल्लायीं-कोई मेरी बहू को बचाओ।‘ उनकी आवाज सुनते ही आसपास से
कई औरतें और लोग आ गये। दूकानदार भी पहचान का था उसने भी मदद की। वंदना को पास के
एक घर में ले जाया गया और मुंह पर पानी वगैरह छिड़क कर उसे सामान्य स्थिति में
लाया गया।भाभी निरुपमा लगातार रोये जा रही थीं। मदद करने वाली महिलाओं ने कहा-बहन
जी रोइए मत,आपकी बहू अब ठीक है।
भाभी दूसरे दिन ही वंदना को
एक महिला डाक्टर के पास ले गयीं। महिला डाक्टर ने वंदना की जांच-परख कर भाभी से
कहा-चिंता की नहीं खुशी की बात है। आपकी बहू उम्मीद से है। कुछ माह बाद यह आपके घर
एक नन्हीं खुशी लाने जा रही है।
भाभी ने डाक्टर से पूछा-हमें
क्या करना होगा बहन जी।
डाक्टर-कुछ नहीं उसे पौष्टिक खाना दीजिए, उसे रक्ताल्पता की शिकायत है
मैं आइरन टानिक लिख देती हूं नियम से देती रहिएगा और चिंता की कोई बात नहीं सब ठीक
है।
वंदना उम्मीद से है वह हमारे
परिवार में कुछ माह बाद नन्हीं खुशी जोड़ने वाली है यह हम सबके लिए बहुत ही हर्ष
की बात थी। भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ और भाभी निरुपमा निस्संतान थे।
मैं कोलकाता आया तो उन्हें बहुत खुशी हुई थी। मैं तो आया था भैया-भाभी को
देख कर कुछ दिन कोलकाता में बिता कर वापस लौट जाने के लिए लेकिन जब भी लौटने की
बात करता उनका चेहरा उतर जाता। आखिरकार मैं कोलकाता में ही रह गया।
जब वंदना की डिलीवरी के तीन माह रह गये तो हमने उसके
मायके बजबज भेजने का निश्चय किया। यहां कोलकाता में हमारे परिवार में महिला के नाम पर सिर्फ भाभी थीं। वह भी
उम्रदराज थीं और वह अकेले वंदना की देखभाल नहीं कर सकती थीं। वंदना के मायके में
मां, चाची और दूसरी महिलाएं थीं जिनके बीच उसकी अच्छे ढंग से देखभाल हो सकती थी। सबने
मिल कर यही निर्णय लिया की वंदना की डिलीवरी अपने मायके में हो यही अच्छा है।
दूसरे दिन मैं और भाभी वंदना को उसके मायके छोड़ आये।
उसके माता-पिता भी इस खबर को सुन कर बहुत खुश हुए कि वह मां बनने वाली है।
दिन बीतते देर नहीं लगती। तीन माह यों ही गुजर गये। एक
दिन बजबज से खुशखबरी आयी कि हमारे परिवार में एक सदस्य की वृद्धि हो गयी। वंदना ने
एक पुत्री को जन्म दिया है। भाभी की खुशी का ठिकाना ना रहा। भैया भी खुश थे कि
नन्हीं खुशी उनके घर आयी। भाभी ने जिद कर ली कि बिटिया को और वंदना को देखने
जायेंगी।
एक हफ्ते बाद
हम लोग कालिकापुर गये। नन्हीं बिटिया को देख भाभी और हम सब बहुत खुश हुए। वह बहुत
छोटी है यह सोच कर हमने सोचा कि वह एक माह की हो जाय तब उसे कोलकाता ले जाना ठीक
होगा। यही तय हुआ।
मेरी पत्नी वंदना त्रिपाठी
एक माह बीत जाने के बाद हम लोग वंदना और नन्हीं बेटी को
कोलकाता ले आये। हमारी कालोनी में रहनेवाली पास-पड़ोस की महिलाएं बिटिया को आशीष
देने आयीं। हम सबने प्यार से बिटिया का नाम अनामिका रखा। वह कुछ बड़ी हुई तो भैया
रामखिलावन त्रिपाठी की यह ड्यूटी हो गयी थी कि वह रोज उसे गोद में लेकर घुमाने जाया
करते थे। हमारे घर बिटिया का जन्म हुआ है यह सुन कर भैया के गहरे मित्र और मेरे भी
परिचित प्रसिद्ध चित्रकार होरीलाल साहू जी एक छोटी सी गाड़ी ले आये जिसमें भैया
उसे बैठा लेते और उसी से उसे पार्क घमाने ले जाते थे।
*
भैया रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म सन्मार्ग के सिनेमा पेज
का संपादन भी करते थे जिसमें एक कालम पाठकों के प्रश्नों के उत्तर का भी था जिसका
नाम था लाल बुझक्कड़। उसमें नगर कोलकाता और उपनगरों से लोग प्रश्न करते थे। उनमें
से कुछ उनके परिचित भी हो गये थे। एक ऐसे ही युवक को फिल्मों में जाने का शौक था
और उसने कहीं विज्ञार्पन देखा था कि मुंबई में कोई प्राइवेट इस्टीट्यूट है जो ना
सिर्फ अभिनय का प्रशिक्षण देता है अपितु
अपने यहां से प्रशिक्षित छात्रों को फिल्मों में चांस भी दिलाता है। उसके यहां
अभिनय का प्रशिक्षण देने वालों में राजेश खन्ना, हेमा मालिनी व अन्य बड़े कलाकारों
के नाम थे। ऐसा शायद इसलिए किया गया था ताकि विज्ञापन पढ़नेवालों को यह विश्वास हो
जाये कि जिस इंस्टीट्यूट से इतने बड़े-बड़े नाम जुड़े हैं वह जाली तो हो नहीं
सकता। वह युवक उपनगर में रहता था और अक्सर भैया से मिलने कोलकाता आता था। एक बार वह इंस्टीट्यूट का विज्ञापन लेकर आ गया
और भैया से जिद करने लगा कि-‘चाचा जी मुझे इस इंस्टीट्यूट में भर्ती होना है, आप मेरी मदद
कीजिए।’
भैया ने लाख
समझाया कि मुंबई की फिल्मी दुनिया को मैंने काफी करीब से देखा है। जब मैं ‘स्क्रीन’ हिंदी साप्ताहिक का संपादक था तो मेरा एक पैर मुंबई में ही रहता
था। वहां कई ऐसे ठग हैं जो आपसे फिल्म देने के नाम पर पैसा ऐंठते रहेंगे और अगली
फिल्म में काम देने का झांसा देते रहेंगे। जब आपसे पैसा मिलना बंद हो जायेगा तो
आपको पहचानना बंद कर देंगे।
लाख समझाने के
बाद उस युवक ने आखिरी दांव चला-चाचा जी मुंबई चलते हैं। वहीं असलियत का पता चलेगा।
पता चल जाने पर मैं भी उम्मीद छोड़ दूंगा आपसे फिर कुछ नहीं कहूंगा। मैं, आप और
राजेश जी मुंबई चलते हैं।
*
एक सप्ताह बाद वह युवक तीन लोगों के टिकट लेकर अपने
चाचा रुक्म जी से मिलने कोलकाता आया। यह मेरी और उस युवक की मुंबई की पहली यात्रा
थी। भैया तो अक्रसर मुंबई में जाते रहते थे। धर्मेंद्र, भारतभूषण, चंद्रशेखर,राज
कपूर व अन्य अभिनेताओं से उनका परिचय था। गीतकार हसरत जयपुरी, संवाद लेखक
ब्रजेंद्र गौड़ भी उनके घनिष्ठ मित्रों में थे। उनके द्वारा संपादित स्क्रीन
साप्ताहिक मुंबई के फिल्म उद्योग में काफी लोकप्रिय थी इसलिए सभी उनसे परिचित थे।
हम लोग मुंबई पहुंच कर हम दादर स्टेशन में उतरे। अभी हम
लोग प्लेटफार्म में ही खड़े थे तभी सामने देखा कि एक पुलिसवाले ने एक टैक्सी
ड्राइवर को टैक्सी के अंदर से खींच कर पटक दिया और डंडे से पीटने लगा। वह बार-बार
चिल्ला कर ड्राइवर से कह रहा था-पैसेंजर जहां जाना चाहता है वहां तुम्हें जाना
होना, मना नहीं कर सकते।‘
पुलिस की ऐसी
सतर्कता देख मन खुश हो गया। भैया जिस होटल अरोमा में अक्सर ठहरते थे वह पास ही था
तो हम उधर ही चल पड़े। उस होटल का मैनेजर गोवानीज था जिसका भैया से अच्छा-खासा
परिचय था। उसके रहते उन्हें कभी कोई समस्या नहीं होती थी और इस बार भी हमें होटल
में जगह मिल गयी।
भैया ने होटल
में सामान आदि रख कर कागज की चिट पर एक नंबर लिख कर मुझे दिया और कहा-जरा निर्देशक
केदार शर्मा जी को फोन करो तो। उनसे कल का समय ले लेते हैं अगर आसपास किसी
स्टूडियो में होंगे तो पहले उनसे मिल कर बात कर लेते हैं वे मेरे परिचित हैं मुझे
सही सलाह देंगे। ठगों से मिलने से मिलने से अच्छा है हम उनसे मिलें जो हमें सही
राय देंगे।
मैंने फोन
मिलाया तो दूसरी ओर से किसी महिला का स्वर सुनाई दिया। मैंने रिसीवर में हाथ लगा
कर भैया से कहा-भैया कोई महिला बोल रही है। भैया हंसते हुए बोले –वे केदार शर्मा
जी हैं उनकी आवाज बहुत पतली स्त्रियों जैसी है। मैंने केदार शर्मा जी से बात की
भैया का परिचय दिया और मिलने का समय मांगा तो वे बोले-अच्छा रुक्म जी आये हैं। मैं
कल आपको रूपतारा स्टूडियो में मिलूंगा। आ जाइए।
मैंने भैया को
सारी बातें बता दीं। दूसरे दिन नियत समय पर हम केदार शर्मा जी से मिलने पहुंच गये।
हम जब स्टूडियों में प्रवेश कर रहे थे तो देखा की हास्य कलाकार अभिनेता महमूद
जर्सी और निक्कर पहने हुए अपनी कार से निकले।
हम लोग केदार
शर्मा जी के कार्यालय में गये। उन्होंने भैया से नमस्ते किया और हम सबको भी पास
रखी कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया। इसके बाद भैया ने शर्मा जी को सारा हाल
बताया कि हम लोग वहां क्यों आये हैं।
सब कुछ सुन कर
शर्मा जी हमारे साथ के उस युवक की ओर मुखातिब हुए और बोले-बुरा ना मानना, कुम्हारे
पिता का कमाया फालतू रुपया है क्या जो तुम यहां बरबाद कर सको।अगर हां तो शौक से आ
जाओ। तुम मेरे परिचित रुक्म जी के साथ आये हो तो मैं तुम्हें धोखे में नहीं
रखूंगा। तुम्हें भले कड़वी लगे लेकिन मैं यहां की हकीकत बयान करूंगा। देखो इस
फिल्म उद्योग में कोई ‘ना’ नहीं कहता। आप जिस किसी के पास काम मांगने जायेंगे वह यही कहता
है-आह आपने देर कर दी हमने तो अपनी इस फिल्म की सारी कास्ट तय कर ली, अगली फिल्म
में आपको जरूर चांस देंगे। स्टूडियो के चक्कर काटते हुए आपके जूते घिस जायेंगे पर
वह अगली फिल्म कभी नहीं आयेगी। आप हीरो बनने आये थे और बाप के रोल वाली उम्र हो
जायेगी तब तक आपको चांस नहीं मिलेगा। यहां कुछ ऐसे ठग भी हैं जो दिलासा देकर आपका
सारा पैसा भी हड़प लेंगे।
फिल्म निर्देशक केदार शर्मा
हमारे साथ गया
वह युवक बड़े गौर से शर्मा जी की बातें सुन रहा था। उसके चेहरे की मुसकान जाने
कहां गायब हो गयी थी।
बात खत्म करने
के बाद शर्मा जी हम लोगों को साथ लेकर बाहर आये। स्टूडियो की कैंटीन ,सामने ही थी।
वहां एक हीरो जैसा सुंदर युवक प्लेटें धो रहा था। शर्मा जी ने हमारे साथ गये युवक
से मुखातिब होते हुए कहा –देख रहे हो इस सुंदर युवक को जो प्लेटें धो रहा है। यह
उत्तर प्रदेश के जमींदार घर का लड़का है। यह घर से पैसा लेकर हीरो बनने मुंबई भाग
आया। इसे भी लोग ‘अगली फिल्म में चांस’ का प्रलोभन देकर लटकाये रहे और इसका सारा पैसा खत्म हो गया। अब यह
ऐसे ही जिंदगी गुजार रहा है। पैसा गंवा चुका है शर्म के मारे घर जा नहीं सकता।
यहां केदार शर्मा का परिचय भी देते चलें। यह वही केदार शर्मा हैं जिनके एक थप्पड़
ने राज कपूर का कैरियर बना दिया। बात फिल्म ‘ज्वारभाटा’ के शूटिंग के दौरान की है। 'केदार
शर्मा उस फिल्म के असिस्टेंट डायरेक्टर थे और राज कपूर उनके सबसे जूनियर असिस्टेंट।
वे क्लैपर ब्वाय का काम कर रहे थे। जो फिल्म की तकनीक से परिचित हैं वे जानते
होंगे कि हर सीन के शूट करने के पहले क्लैपर ब्वाय कैमरे के सामने आकर फिल्म का
नाम, शाट का नाम कर के काठ के बने क्लैप बोर्ड को ठोंकता है। यह भी बताते चलें कि
फिल्म के एडीटर को एडिटिंग के समय़ इससे मदद मिलती है। वह समझ पाते हैं कि यह कौन
सा शाट है। हुआ यह कि जब वे शूट पर क्लैप
कर के शूट शुरू करने के लिए बोलते थे तब-तब राज कपूर कैमरे के सामने आकर बाल ठीक
करने लग जाया करते थे। दो-तीन बार देखने के बाद केदार शर्मा ने उन्हें एक थप्पड़ जड़
दिया। फिर उन्हीं केदार शर्मा ने अपनी फिल्म 'नीलकमल' में राजकपूर को मधुबाला के साथ
लिया। उस थप्पड़ ने राजकपूर की किस्मत ही बदल दी।' (क्रमश:)
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