Monday, October 5, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी - भाग-22




कई समाजसेवी, पत्रकार,शिक्षक भी थे उनके मित्र
राजेश त्रिपाठी


 न्यूमैंस महानगर गार्जियन के संपादक के रूप में वे बहुत से नये लोगों के संपर्क में आये लेकिन इसके पहले ही सन्मार्ग और स्क्रीन में रहते हुए भी उनके परिचय का दायरा बहुत बड़ा हो गया था। कोलकाता से मुंबई तक उनके परिचितों और दोस्तों का एक लंबा सिलसिला था। कोलकाता में जहां एक ओर ललित निबंधकार और शिक्षाविद डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र जी उनके अनन्य मित्रों में थे वहीं कवि . नगेंद्र चौरसिया तो उनको अपना बड़ा भाई ही मानते थे। वे उनका बहुत सम्मान करते थे। उनके असामयिक निधन से रुक्म जी बहुत दुखी हुए थे। कोई अपना बिछड़ता तो हम कभी-कभी जानबूझकर उनसे यह खबर छिपा लेते कि इस उम्र में इस तरह के सदमे ठीक नहीं होते लेकिन पता तो चल ही जाता था। तब नाराज होते –यार तुमने बताया नहीं। किसी तरह समझाते कि आपको सुन कर दुख होता इसलिए नहीं बताया।
      डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी जी से भी उनका अच्छा परिचय था। प्रेमशंकर जी सुरेंद्रनाथ कालेज में मेरे बड़े बेटे अनुराग के शिक्षक थे इसलिए उनसे और परिचय हो गया था। जब उनको पता चला कि अनुराग मेरा बेटा और रुक्म जी का भतीजा है तो उसे वे घर के बच्चे की तरह ही मानने लगे। उससे अक्सर रुक्म जी की खबर लिया करते थे। प्रेमशंकर जी सचमुच अपने ऩाम को सार्शक करते हैं वे बहुत ही प्रेमी और अच्छे स्वभाव के हैं। उनसे भले ही अक्सर मिलना ना होता हो लेकिन जब कभी बात होती अवश्य बेटे के बारे में और भाई जी के बारे में पूछते थे।
      कवि डॉ. अरुणप्रकाश अवस्थी भी रुक्म जी के अनन्य मित्रों और प्रशंसकों में से थे। अक्सर जब भी कोई नयी रचना लिखते उन्हें सुनाते और रुक्म जी भी उन्हें बहुत प्रोत्साहित करते थे। अवस्थी जी लयबद्ध कविता के पक्षधर थे और उसी विधा में उन्होंने ज्यादा लिखा।
      रामेश्वरनाथ मिश्र अनुरोध भी अक्सर रुक्म जी से मिलने सन्मार्ग जाते थे। वे भी बहुत अच्छे कवि हैं और कई खंडकाव्य रच चुके हैं। वे कभी-कभी रुक्म जी मिलने उनके कांकुड़गाछी वाले फ्लैट में भी आते थे। कविता या गीत सुनाने में ऐसी रुचि लेते थे कि उन्हें समय का ज्ञान भी नहीं रहता था। एक बार तो ऐसी घटना का साक्षी यह ब्लागर भी रह चुका है। यह ब्लागर तब आनंद बाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक रविवार में काम करता था और अक्सर जब भैया रुक्म जी की ड्यूटी दिन की होती तो सन्मार्ग आ जाता और घर वापस उनके साथ ही जाता था। उस दिन भी ऐसा हुआ। जब यह ब्लागर सन्मार्ग पहुंचा अनुरोध जी भैया रुक्म जी के साथ बैठे थे। मुझे आया देख भैया जब निकलने को हुए तो अनुरोध जी भी हमारे साथ हो लिए। वे हमसे बात करते हुए सन्मार्ग के पास महाजाति सदन के फुटपाथ तक आये और वहीं नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर लिखे अपने काव्य को सुनाने लगे। उनकी स्मित शक्ति भी बहुत खूब है। नेताजी पर लिखे काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा वे सुना गयेष तकरीबन एक घंटा हम फुटपाथ पर ही खड़े होकर उनका काव्य सुनते रहे।  भैया रुक्म जी में यह खूबी थी कि वे किसी के लिखे को सुनने, पढ़ने या सुधारने में कभी भी कृपणता नहीं दिखाते थे और ना ही रुष्ट होते थे। आज भी ऐसे कई लेखक हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि रुक्म जी ने नये लोगों को काफी प्रोत्साहित किया।
      प्रसिद्ध समाजसेवी सरदारमल कांकरिया जी से भी रुक्म जी का अच्छा परिचय था। मूलतः व्यवसाय से जुड़े कांकरिया जी अपने सामाजिक सेवा के कार्यों के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। इसके गवाह हैं वे अस्पताल और शिक्षण संस्थाएं जो उन्होंने स्थापित कीं। इनमें एक जैन विद्यालय भी है। इस ब्लागर के छोटे बेटे अवधेश त्रिपाठी को जैन विद्यालय में नौवीं कक्षा में दाखिल कराना था। यह बात मैने भैया रुक्म जी से कही और उनसे कांकरिया जी से अनुरोध करने को कहा। कांकरिया जी न सिर्फ तुरत राजी हो गये अपितु उन्होंने छुट्टी के दिन अवधेश के दाखिले के लिए साक्षात्कार की विशेष व्यवस्था की। जैन विद्यालय में कुछ अरसे में ही अवधेश सभी शिक्षकों से परिचित हो गया और उसके अध्ययन में भी प्रगति हुई। जब तक जैन विद्यालय में रहा प्रथम श्रेणी में पास होता रहा। बाद में उसे दूर कांकुड़गाछी से स्कूल के समय में पहुंचने में काफी दिक्कत होने लगी इसलिए स्कूल बदलना पड़ा। हम कांकरिया जी के जीवन भर ऋणी रहेंगे कि उन्होंने अवधेश की शिक्षा में जरूरत के वक्त मदद की। बाद में तो उनके बेटे ललित कांकरिया से इस ब्लागर की अच्छी दोस्ती हो गयी थी। उनकी एक फिल्म वितरण संस्था थी जिसके चलते अक्सर किसी भी नयी फिल्म की रिलजी की पार्टी में उनसे मिलना-जुलना होता ही रहता था। एक बार उनसे पूछ ही लिया-क्या ललित भैया आप लोग भी फिल्म क्यों नहीं बनाते। वे हंसते हुए बोले- अरे ये फिल्म-उल्म का बिजनेस अपने को नहीं भाता, अपने फिल्म वितरण तक ही ठीक हैं।
            अब अवधेश के विद्यालय बदलने की जरूरत हुई लेकिन तब तक हर कालेज में दाखिले के समय खत्म हो चुका था। क्या किया जाये, बच्चे का एक साल जाया होने का प्रश्न था। तभी भैया रुक्म जी को प्रोफेसर अनय जी की याद आयी जो उन दिनों सेंट पॉल्स कालेज में पढ़ाते थे। उन्होंने उनसे बात की कि-यों तो दाखिले का समय खत्म हो चुका है लेकिन देखिए कुछ हो सकता है क्या?’ इस पर अनय जी का जवाब था-समय बीत गया तो क्या हुआ, घर का लड़का है उसका एक साल थोड़े ही बरबाद होने दिया जायेगा। कल भाई राजेश के साथ उसे सेंट पॉल भेज दीजिए।
           
मैं दूसरे दिन बेटे अवधेश के साथ सेंट पॉल कालेज पहुंच गया। अनय जी से मिला तो उन्होंने कहा पहले एक एडमीशन फार्म उठा लीजिए। हमने वैसा ही किया। अनय जी ने उसमें उस फार्म के एक कोने में अपने हस्ताक्षर कर दिये और हमसे कहा-आप इसे प्रिंसिपल रेवरेंड मुखर्जी के पास ले जाइए। देखिए क्या बोलते हैं। हम रेवरेंड मुखर्जी के पास पहुंचे उन्होंने फार्म देखा और कहा-एडमीशन तो कब का क्लोज हो चुका है, आपने बहुत देर कर दी है। हमने बात बिगड़ते देख अनय जी के दस्तखत दिखाते हुए आग्रह किया –सर प्रोफेसर अनय जी ने भेजा है। अनय जी के दस्तखत देखते ही उनके चेहरे के   भाव बदल गये । उनके उन भावों में हम अपने प्रति अनुकूलता  भांप रहे थे लेकिन उनके शब्दों से व्यक्त होने की देर थी। थोडी देर चुप रहने के बाद उन्होंने हमसे ही पूछा- अच्छा तब तो कर देना चाहिए क्यों ?’ हम उनकी सदाशयता और विनम्रता देख मन ही मन पुलिकत हो गये। आज के युग में ऐसे व्यक्ति मिलना नामुमकिन भले ही ना हो लेकिन दुर्लभ तो है ही। अवधेश को वहां दाखिला मिल गया और उसने वहां से फिजिक्स विषय में ग्रेजुएशन किया। अनय जी की हमेशा उस पर बड़ी कृपा रही। उससे सदा उनका व्यवहार अपने छोटे भाई के बेटे जैसा ही रहा। अवधेश से अक्सर वे रुक्म जी का हाल-चाल पूछते रहते थे।  
      पत्रकारों में रणधीर साहित्यालंकार, स्नेही आत्मा, विमल राय, सुदामा सिंह, तारकेश्वर मिश्र, रमाकांत उपाध्याय व तत्कालीन कई अन्य़ पत्रकारों से उनका अच्छा परिचय था। बंगलाभाषी पत्रकारों सेवाब्रत गुप्त (आनंदबाजार प्रकाशक की सिनेमा पत्रिका आनंदलोक के तत्कालीन संपादक), मनुजेंद्र भंज (आऩंदबाजार पत्रिका के तत्कालीन सिने संपादक), विजय राय, फिल्म प्रचारक पंचानन, चंचल ब्रह्म व अन्य कई लोग उनके परिचितों में थे। (शेष अगले भाग में)

No comments:

Post a Comment