डॉ. रुक्म (रामखिलावन त्रिपाठी 'रुक्म') मेरे गुरु मेरे बड़े भैया कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे।वे पूर्वी भारत के सर्वाधिक प्रसारित, लोकप्रिय हिंदी दैनिक 'सन्मार्ग' से आधी शताब्दी तक जुड़े रहे। उसके साहित्य संपादक के रूप में उन्होंने कई पूजा विशेषांकों का सफल संपादन किया। वे सन्मार्ग में दैनिक व्यंग्य कविता लिखते थे जो पहले 'उड़नझाइयां' उसके बाद 'चकल्लस' के नाम से दैनिक छपती रहीं। यहां तक की जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने चकल्लस के लिए कविता लिखी जो दूसरे दिन उनके मृत्यु के संवाद के साथ छपी। उनकी कविताएं लोग बहुत पसंद करते थे और कहते थे उन्हें पढ़ते हुए लगता था कि जैसे रोज सुबह अखबार के माध्यम से कोई उपदेशक आकर भले-बुरे की सीख दे रहा है।
क्यों?
आज सभी यह सोचा करते,
आगे जाने क्या होना है।
महंगाई यों उछल पड़ी क्यों,
बहुतों का बस यह रोना है।।
पहले ऐसा कभी न होता,
गुजर-बसर हो जाया करता।
पर गरीब आहें भर कर अब,
आजादी को कोसा करता।।
सोच रहा पहले अच्छे थे,
लोग नहीं भूखे मरते थे।
अन्न, दाल, चीनी सस्ती थी,
लोग प्रशासन से डरते थे।।
अब किसान खुदकुशी कर रहे,
जिसे अन्नदाता हैं कहते।
सरकारी गोदामों में जब,
बहुत अन्न सुनते हैं सड़ते।।
देवतुल्य है पूजा जाता
एक बात पर कायम रहता,
सबसे अच्छा कहलाता है।
ऐसा व्यक्ति सराहा जाता,
जहां जाय इज्जत पाता है।।
अवसर देख मुकर जाता जो,
गिरगिट जैसा रंग बदलता।
उससे दूर भागते हैं सब,
कुछ कहता है कुछ है करता।।
झूठ बोलने से बढ़ कर के,
कहलाता है पाप ना दूजा।
सदा सत्य जो बोला करता,
उसकी जग में होती पूजा।।
पर सेवा को धर्म समझता,
भेदभाव न मन में लाता।
जो उपकार सदा करता वह,
देवतुल्य है पूजा जाता।।
चाह
‘बड़ी चाह है बड़ी लगन है,
अभिनेत्री बन नाम कमाऊं।
जैसा कहिए वैसा अभिनय,
अभी यहीं पर कर दिखलाऊं।।’
कलकत्ता से बंबई आयी,
जरा सोचिए कितनी दूरी।
मुझे पता है, सिर्फ आप ही,
कर सकते हैं आशआ पूरी।।
सखी, सहेली मुझसे कहती,
ड्रीम गर्ल, तुम स्वप्न सुंदरी।
रग-रग में मादकता छायी,
बोली जैसे हो स्वर लहरी।।
आंखें ऐश्वर्या सी स्वप्निल,
चाल तुम्हारी है मुमताजी।
चांस तुरत निर्माता देगा,
पल भर में वह होगा राजी।।
हितोपदेश
उपदेशक कहते हैं बच्चा,
कुछ भी साथ नहीं जायेगा।
आज जिसे अपना कहता तू,
वह सब यहीं छूट जायेगा।।
धन-दौलत तो आनी-जानी,
जिसको प्रभु ने नहीं बनाया।
यह मनुष्य की निर्मित माया,
जिस पर तू फिरता इतराया।।
हम तो यही देखते आये,
तुमको छल-प्रपंच है भाया।
जितना लूट सके लूटे हो,
दोनों हाथ परायी माया।।
लेकिन नहीं कभी सॆचा है,
सब तो यहीं छूट जायेगा।
जो तूने सत्कर्म किया है,
केवल वही साथ जायेगा।।
आस्तिक-नास्तिक
स्वर्ग-नर्क वे नहीं मानते,
नहीं मानते हैं वैतरणी।
जब कोई भगवान नहीं है,
स्वयं बनी है सारी धरती।।
जाव-जंतु जितने दुनिया में,
वे भी अपने आप पधारे।
नहीं विधाता इन्हें बनाये,
ये भी स्वयं प्रकट हैं सारे।।
किंतु आस्तिक जन कहते हैं,
सारी है यह प्रभु की माया।
जीव-जंतु के पहले जिसने,
यह महान ब्रह्मांड बनाया।।
पुनर्जन्म भी निश्चित होता,
नास्तिक उसको भी झुठलायें।
इनकी अन्य मान्यता होती,
अपनी डफली अलग बजायें।।
चक्रपाणि
जो कुछ हुआ और होता है, अब हम नहीं चाहते वैसा।
भारत देवभूमि कहलाती , किंतु काम असुरों के जैसा।।
सरेआम हत्याएं होतीं, भय से होती नहीं गवाही।
कुछ आतंकी नक्सलवादी, नंगा नाचें करें तबाही।।
मानवता सहमी रहती है,पता नहीं कब क्या हो जाये।
बेगुनाह की हो किडनैपिंग, निर्भय बलात्कार हो जाये।।
चक्रपाणि सब देख रहे हो, या कर देते हो अनदेखा।
जितने दुनिया में अपराधी, उन पर चक्र नहीं क्यों फेंका।।
मतलब की यारी
किस पर अब विश्वास करें हम,
जो भी मिलता, वह है ठगता।
ऐसी हालत हुई हमारी,
अपनी छाया से डर लगता।।
दिल से चाहत वाली बातें,
अब लगती हैं बहुत पुरानी।
बिन मतलब के करे दोस्ती,
लगता है बिल्कुल बेमानी।।
अब संबंध तभी तक निभते,
जब तक स्वारथ सधता रहता।
मतलब निकल गया ऐसों से,
मिलने-जुलने से डर लगता।।
नहीं रहा उपकारों का युग,
अब सारी मतलब की यारी।
खुदगर्जों को कैसे जाने,
काम न करती अकल हमारी।।
वह कैसा भोला-भाला
भूजा है उसका ब्रेकफास्ट,
सतुआ का करता लंच, डिनर।
बस यही विटामिन हैं उसके,
बोझा ढोता उसके बल पर।।
वह संतोषी छल-कपट रहित,
कुछ नहीं शिकायत करता है।
कोई भी खबर नहीं लेता,
वह जीता है, या मरता है।।
वह पड़ जाता बीमार कभी,
तो दवा बिन रह जाता है।
जब नहीं कमाई होती है,
तो पानी पी सो जाता है।।
मानव होकर मानव ढोता,
यह कैसा है भोला भाला।
जनता का सच्चा सेवक है,
यह कलकतिया रिक्शावाला।।
आंखें
आंखों की भाषा सरल नहीं,
जो समझ गया वह पार हुआ।
जिसने थोड़ी-सी गलती की,
उसका ही बंटाधार हुआ।।
बरबस उसके मन को मोहें,
काली आंखें हो रसवंती।
पतझड़ के पथ से जो गुजरे,
उसको लगती ऋतु बासंती।।
पर कुछ आंखें ऐसी होतीं,
जो बरबस मार खिलाती हैं।
ऐसी आंखों की बहुत कमी,
जो सबका मन ललचाती हैं।।
कुछ आंखें ऐसी होती हैं,
जिनको कहते हैं दगाबाज।
है दृष्टि कहीं पर लक्ष्य कहीं,
इनका मिल पाता नहीं राज।।
नमस्कार
उनको नमस्कार नहीं करते,
जो बदले में कुछ ना बोलें।
हम विनम्रता दिखलाते हैं,
वे अपनी मस्ती में डोलें।।
हाड़, मांस के पुतले हैं वे,
एक रोज उनको मर जाना।
पर घमंड में ऐसे फूले,
जैसे हरदम यहीं ठिकाना।।
ऐसों को प्रणाम करने से,
घोर पाप अपने को लगता।
नहीं किसी से छिपा हुआ है,
सबके दिल में ईश्वर बसता।।
इससे बेहतर यही मानते,
मंदिर में जा शीश झुकायें।
नहीं अकारथ जायेगा वह,
प्रभु से मनवांछित फल पायें।।
रहें सुखी भरपूर
सदा वही सुख भोगते,
जो माया से दूर।
हानि-लाभ चिंता रहित,
रहें सुखी भरपूर ।।
यदि मैत्री निभती नहीं,
कदापि न कीजै बैर।
इससे तनिक न हानि हो,
होती सबकी खैर ।।
पहली-पहली भेंट में,
सब जन भले लखांय।
उऩमें कुछ ही साधु हों,
शेष अहित कर जांय।।
नहीं दूसरे की सुनें,
अपनी ही कह जांय।
ऐसे बकबासी कभी,
नहीं किसी को भांय।।
कैसे कहें जवान?
कहां गयी अपने तरुणों की,
केहरि सी वह चाल।
इस्पाती वक्षस्थल दिखता,
ज्यों राणा की ढाल।।
पदाघात करते धऱती से,
बह उठता था नीर।
झुका नयन ऐसे चलते हैं,
जैसे चलता दूल्हा।।
लज्जा से मुस्काती तरुणी,
देख लचकता कूल्हा।
तरुणायी में कटि झुक जाती,
कैसे कहें जवान।
इनसे तो बहु वृद्ध महाशय,
दिखते हैं बलवान।।
मानव – कृत्य
सृष्टि-विनाशक ताप अब बढ़ता जाता नित्य।
नहीं प्रकृति की देन यह, मानव का है कृत्य।।
मानव का है कृत्य प्रदूषण जो फैलाता।
पिघल रहे हिमखंड, प्रलय वह स्वयं बुलाता।
कहें रुक्म कविराय जलधि की वक्र देखते दृष्टि।
जलप्लावन से जलमग्न करके नष्ट करेगा सृष्टि।।
भ्रूण हत्या
कन्या भ्रूण विनष्ट कर,बनते हैं जो शूर।
दुनिया में उनसे बड़े , और नहीं हैं क्रूर।।
और नहीं हैं क्रूर, वक्त ऐसा आयेगा।
वधू बिना ही पुत्र, कुंआरा रह जायेगा ।।
कहें रुक्म कविराय,बचेगी जो भी धन्या।
वह मुंहमांगा ही दहेज, मांगेगी कन्या ।।
सीख
बॉस नहीं हूं चपरासी, मेरी बात अगर तुम मानो।
सच कहता हूं, मजा करोगे, सदा नौकरी पक्की जानो।।
क्या कहते हो, पढ़े लिखे हो,इससे क्या होता है भैया ।
डिगरी शहद लगा कर चाटो, यहां न उसका बाबा, मैया।।
जनरल नालिज में माहिर हो, हृष्ट पुष्ट हो, फुर्तीले हो।
साहब यह सब सुन लेंगे तो, कह देंगे ,’बुद्धू, ढीले हो।।
देखो, यहां वही जम पाता, जो मेरे कहने पर चलता।
जिसने मेरी बात न मानी, चला गया वह आंखें मलता।।
क्या मिला?
अब नहीं हमको गिला, उनसे रहा,
आदतों से वे बहुत मजबूर हैं।
दिल लगाना दिल्लगी उनके लिए,
हुस्न के गैरत से चकनाचूर हैं।।
जो किये वादे सभी बेकार थे,
यही आदत लीडरों को पड़ गयी।
लग रहा अनजान में या भूल से,
नजर दोनों की कहीं पर लड़ गयी।।
एक से नखरे करें, वादे गजब,
क्या मिला दोनों से हमको सोचिए।
फायदा उनको हुआ, हमको नहीं,
क्या कमी हममें है, किब्लां खोजिए।।
इश्क से अब तक हुआ किसका भला,
लीडरों से क्या मिला सुख-चैन है।
वक्त दोनों कर रहे बरबाद हैं, कुछ सोचिए,
बड़ी मुश्किल से कटे दिन-रैन हैं।।
गुरु-शिष्य
याद आ रहा हमें जमाना,जब हम छात्र हुआ करते थे,
अपने घर वालों से ज्यादा, अध्यापक जी से डरते थे।।
बेंत हथेली पर पड़ता था, रोते थे पर बुरा न माने।
नहीं ठीक उत्तर दे पाये,गलती हुई यही हम जानें।।
अगर साइकिल से जाते हों,पास दिखें गुरुदेव हमारे।
तुरत उतर पग छू लेते थे,हम भी लगते उनको प्यारे।।
किंतु आज के छात्र कहां हैं, जो अध्यापक को गुरु जाने।
ऐसा गजब जमाना आया, शिष्य स्वयं गुरु का ‘गुरु’ माने।।
चाह यही है
चाह नहीं मैं बनूं मिनिस्टर घर भरना कहलाऊं,
चाह नहीं झूठे वादे कर, सोने से तोला जाऊं।।
चाह नहीं फिल्मी एक्टर बन, रह रह कूल्हे मटकाऊं,
चाह नहीं धर्मेंद्र बन कर, हेमाओं को फुसलाऊं।।
चाह नहीं चमचा बन कर, व्यर्थ किसी के गुण गाऊं,
चाह नहीं गुंडा बन कर के,चमचम छूरा चमकाऊं।।
चाह नहीं माला बन कर के, जूड़े में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं छप्पन प्रकार के, नित्य-नित्य भोजन पाऊं।।
समस्या
कितनी सरकारें आयी हैं, किंतु समस्या जस की तस है,
लौटा ले कश्मीर हमारा, लगता नहीं किसी का वश है।।
बातें ही होती रहती हैं, बातों से क्या होना जाना।
लगता कोई नहीं चाहता, जटिल समस्या को सुलझाना।।
कांटा से ही कांटा निकले,जहर जहर से मारा जाता।
जो विवाद जैसे उलझा हो, वैसे ही सुलझाया जाता।।
शांति-वार्ता सिर्फ ढोंग है, नहीं समस्या को सुलझाते।
पांच साल पूरा होते ही , जिम्मेदारी से हट जाते ।।
नेता : तब के अब के
पहले जैसे नेताओं के, शायद कभी न दर्शन होंगे।
आजादी पाने की खातिर, कारागार कष्ट जो भोगे।।
महा क्रूर गोरों ने जिनको, ‘काला पानी’ में था ठूंसा।
भरे गये कोठरियों में वे, जैसे ठूंसा जाता भूसा।।
बीमारी से मरे अनेकों, जिनको दवा नहीं मिल पायी।
उनकी दशा देख कर गोरे, हंसते थे ज्यों क्रूर कसाई।।
पर अब के नेता यह भूले, उन्हें दिखाई देता पैसा।
जितना चाहो खूब बटोरो, मौका नहीं मिलेगा ऐसा।।
जनता अनाड़ी
जितनी बातें होती रहतीं, उतना काम नहीं है होता।
सरकारी दफ्तर का बाबू, फाइल से मुंह ढंक कर सोता।।
काम किये बिन पैसा मिलता, तो शरीर को कौन खटाये।
नींद तुरत खुल जाया करती, रिश्वत मैया जो सहलाये।।
विकसित राष्ट्र बनेगा भारत, इसे ठिठोली वे सब माने।
जैसा चलता, वही चलेगा, वही सत्य है वे सब जानें।।
मंत्री सांसद और विधायक, इन सबको है कुर्सी प्यारी।
तभी शगूफा छोड़ा करते, जिनको जनता लगे अनाड़ी।।
सट्टेबाजी
थोड़ा उठते थोड़ा गिरते, चलती रहती सट्टेबाजी।
किंतु अचानक लुढ़का देते,ऐसे भी होते हैं पाजी।।
ऐसा होते देखा सबने, कितने थे इतने घबड़ाये।
साठ गुना पाने की खातिर,प्रभु का पूजा पाठ कराये।।
लाखपती से खाकपती हो, कितने रोते हैं पछताते।
फिर से आज गगन को छू ले, ऐसी हैं वे आश लगाते।।
पर भगवान यही कहते हैं, भक्त नहीं लालच में आओ।
जितना भाग लिखा है तेरे, उतने से संतोष मनाओ।।
समझ रहे हैं हमें अनारी
किस किस पर विश्वास करें अब, किसको समझें परम हितैषी।
संसद में भी घुसे हुए हैं, घूसखोर, ठग सांसद वेशी।।
जहां समर्थन पाने खातिर मोटी रकम वसूली जाती।
ऐसे नीच अधर्मी नेता, कमबख्तों को शर्म न आती।।
एकमात्र संसद बचती थी, जो थी परम पवित्र कहाती।
दुष्टजनों ने किया कलंकित, जिनकी शान से फूले छाती।।
पूरे कुएं में भंग घुली है, हवा चली है भ्रष्टाचारी।
चोर उचक्के हैं कुछ नेता, समझ रहे जो हमें अनारी।।
शहर गांव में घुसा
शहर गांव में घुस आया है, फैशन की बलिहारी।
टेरीकाटन पहन रही है, घुरहू की महतारी ।।
मिस्सी नहीं लिपस्टिक आयी, स्नो की है डिबिया।
पहन मैक्सी मटक रही, बुधुआ की है बिटिया ।।
ट्रांजिस्टर लटकाये कामता, भैंस चराने जाता।
आल्हा नहीं रफी के स्वर में, फिल्मी गाने गाता।।
पैंट, शर्ट घुसपैठी बन कर, धोती को दुतकारें।
नहीं बैलगाड़ी अब आती, चलतीं बाइक, कारें।।
अति भक्ति
अधिक भक्ति जो भी दिखलाता, उससे बड़ा चोर न होता।
जो उसके चक्कर में पड़ता, अपना धन दौलत है खोता।।
बड़ा चतुर जो माना है, जम कर चूना उसे लगाता।
जी हां, हां जी बटरिंग करके, जो चाहे सब कुछ पा जाता।।
‘ ज्यादा भक्ति चोर के लक्षण ’, सही कहावत है कहलाये।
झूठ नहीं यह बिल्कुल सच है,हम इसको हैं खुद अजमाये।।
चोर चोर से खुश रहता है, उसको वह अपना ही जाने।
लेकिन जो सज्जन होता है, उसे सदा दुर्जन ही माने।।
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