Saturday, March 7, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-15


भाग (15)
राजेश त्रिपाठी
आपातकाल में भी कुंद नहीं हुई उनकी कलम की धार

      रुक्म जी सन्मार्ग में साहित्य संपादन तो करते ही थे, कुछ कालम भी लिखते थे। इनमें पहले कुछ समय उड़नझाइयां चलीं जिसमें वे कपूत कलकतिया उपनाम से व्यंग्य कविताएं लिखते थे। इन कविताओं में जहां चुटीला व्यंग्य होता वहीं कभी-कभी समाज के प्रति सीख भी होती। उड़नझाइयां का क्रम कई साल तक चला। उसके बाद फिर वे चकल्लस स्तंभ में व्यंग्य कविताएं लिखने लगे। इसमें वे अपने उपनाम डॉ. रुक्म त्रिपाठी के नाम से व्यंग्य कविताएं लिखते थे। एक वक्त था जब कपूत कलकतिया और डॉ. रुक्म त्रिपाठी सन्मार्ग में जाना-पहचाना नाम था। उनकी व्यंग्य कविताओं में व्यंग्य के अलावा कभी-कभी समाज के लिए शिक्षा भी होती थी। उनके प्रशंसकों का कहना है कि उनकी इन कविताओं को पढ़ते वक्त उनको लगता था जैसे कोई उपदेशक या घर का बड़ा बुजुर्ग कविताओं के माध्यम से रोज उनके घर आकर उनको जमाने के ऊच-नीच से सावधान करता चलता है। उन्हें बताता चलता है कि क्या अच्छा, क्या बुरा है।
     उन्होंने कुछ समय तक सन्मार्ग का लस्टम-पस्टम स्तंभ भी लिखा। देश में जब आपातकाल लगा और प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया था, उस वक्त भी उनकी कलम की धार कुंद नहीं पड़ी। वह अन्याय और स्वेच्छाचार के खिलाफ पहले की तरह दहाड़ती रही। उन दिनों स्थिति यह थी कि अखबार में छपनेवाली एक-एक सामग्री राज्य सरकार के सूचना विभाग में भेजी जाती थी और वहां से पास होने के बाद ही छप पाती थी। जाहिर है ऐसे में भारत सरकार (तत्कालीन) की आलोचना का एक शब्द भी छपना नामुमकिन था। रुक्म जी अपने स्तंभ और कविताओं में पहले जैसे ही चुटीला व्यंग्य कर रहे थे। उसे देख कर सन्मार्ग के उनके साथी अक्सर कहते – रुक्म जी आज तो आपका लिखा पास नहीं होगा। इस पर रुक्म जी जवाब देते –देखते हैं, वे समझ पायेंगे तभी न काटेंगे। वे सीधी भाषा समझते हैं, मैंने जिस तरह से लिखा है वह पहली नजर में समझ ही नहीं आयेगा और देखिएगा पास हो जायेगा। वैसा ही होता था अभिधा और परोक्ष भाव में लिखी उनकी सामग्री पास होकर आ जाती थी और छपती भी थी।
     उन दिनों एक तरह से सारा देश ही जेलखाना बन गया था। वरिष्ठ और वयोवृद्ध नेता जेलों में ठूंस दिये गये थे ऐसे में लेखकों के लेखन में भी इस दुरावस्था की झलक आनी ही थी और वह आती थी। उन दिनों रुक्म जी की कविताओं में भी तल्खी आ गयी थी। उनमें मनोरंजन का तत्व कम और व्यंग्य का पक्ष प्रधान हो गया था। इस पर उनके जो पाठक उनसे मनोरंजन की सामग्री चाहते थे वे उनको फोन करने लगे कि –यह आप क्या करने लगे, क्या लिखने लगे, इससे तो मनोरंजन ही नहीं हुआ।इस पर रुक्म जी ने जवाब भी अपनी कविता में ही दिया जिसकी दो पंक्तियां इतनी सारगर्भित हैं कि उस वक्त का सच बयान करती हैं। रुक्म जी ने लिखा-क्या कहते हैं क्या लिख डाला हुआ नहीं मनरंजन । श्मशानों में बैठ भला क्या रुचिकर लगता व्यंजन।
            उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का सफल संपादन किया और अपने संपादन में नये-नये प्रयोग भी किये। ऐसी ही एक पत्रिका थी पागल। इसमें पत्रिका के मास्टहेड के नीचे एक स्लोगन रहता था- पागल बन कर जगत भ्रमण कर देख रहा हूं होकर मौन ।  स्वार्थ और परमार्थ विषय रत जग में पागल कितने कौन।यह स्लोगन रुक्म जी ने ही लिखा था। इसका अर्थ वह इस तरह बताते थे कि-स्वार्थ दो तरह का होता है, एक मतलब का या अपने लिए सोचा गया और एक दूसरों की भलाई के लिए। जगत में दो तरह के स्वार्थी हैं। पहले जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं दूसरों का हित जिनके लिए कोई मायने नहीं रखता और दूसरे वे जो दूसरों की मदद के लिए अपना सब कुछ भुला कर पागलों की तरह लगे रहते हैं। पत्रिका के स्लोगन के माध्यम से जैसे उसका संपादक समाज को पारखी से परख रहा है कि उसमें कौन किस भावना का पोषक है।
  
   उनकी पत्रकारिता न दैन्यम् न पलायनम् की पक्षधर थी और सच को सच की तरह पेश करने में कभी झिझकी नहीं। लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के प्रति उनमें पूरी श्रद्धा थी और इसके पतन और दिशाहीनता के प्रति वे चिंतित भी थे तभी तो वे इस पर भी उंगली उठाने या इसके खिलाफ बोलने से नहीं चूके। हिंदी पत्रकारिता की 186 वर्ष की यात्राः एक सिंहावलोकनविषय पर जून 2012 में परिचर्चा और हिंदी के पांच वयोवृद्ध पत्रकारों के सम्मान का समारोह कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद में आयोजित किया गया था। इसमें अन्य पत्रकारों के साथ डॉ. रुक्म त्रिपाठी को भी सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. रुक्म त्रिपाठी ने कहा-मैंने आधी शताब्दी से भी अधिक समय पत्रकारिता और लेखन में गुजारा है। मैं पत्रकारिता के अतीत से वर्तमान तक से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा हूं और इसके उत्थान-पतन का साक्षी रहा हूं। आज जब हम इसकी उपलब्धि का आकलन करते हैं तो हमारे सामने इसके उत्कर्ष और पतन के पक्ष उजागर होते हैं। पत्रकारिता का जिसे स्वर्ण युग कह सकते हैं वह इसके प्रारंभ के वर्ष थे जब इसका उद्देश्य, इसके सिद्धांत और निष्ठा ही इसका सबसे बड़ा धन होते थे। यह सत्यम् शिवम् सुंदरम् के उद्देश्य पर आधारित पत्रकारिता थी। यानी जो सत्य है कल्याणकारी है उसकी प्रतिष्ठा और जो स्वेच्छारिता, अन्याय अनाचार है उसकी निर्भीक होकर समालोचना ही इसका धर्म था। तब पत्रकार एक ध्येय एक निष्ठा लेकर चलते थे जो बिकाऊ नहीं थी। तब पैसे के मोह में सामाजिक दायित्वों को तिलांजलि दे कोई ठकुरसुहाती नहीं लिखता था। वह स्वाधीनता आंदोलन का युग था। हिंदी पत्रकारिता ओतप्रोत भाव से इस आंदोलन को प्रोत्साहित करने, इसे अपना सक्षम समर्थन देने में जुटी थी। पत्रकारिता के कई मनीषियों को इसके चलते ब्रिटिश राज का कोपभाजन भी बनना पड़ा लेकिन वे अपने उद्देश्य से नहीं डिगे। हिंदी पत्रकारिता का अतीत जितना निर्मल और उज्जवल था, इसका वर्तमान उतना ही कलुषित, दिशाहीन और सामाजिक सरोकार से कटा हुआ है। आज जब हम इसके अतीत और वर्तमान का आकलन करने बैठते हैं तो सबसे पहले यही प्रश्न आता है कि क्या वर्षों पूर्व जब पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था, तब से आज तक क्या यह अपने उद्देश्यों और सिद्धांतों पर अडिग रह पायी है। हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि पत्रकारिता अपने मूल्य उद्देश्यों और सिद्धांतों से न सिर्फ भटकी है अपितु दिशाहीन भी हो गयी है। आज इसमें मूल्यों का क्षरण, सिद्धांतों और उद्देश्यों का निर्मम हनन हो रहा है। यह अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों से विमुख हो स्वेच्छाचारी और स्वार्थी हो गयी है।
     कभी पत्रकारिता मिशन थी आज मोनोपोली है। जिसकी जैसी इच्छा अपने हित में इसका इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में इसका सत्यम् शिवम् सुंदरम् का सिद्धांत छीजता जा रहा है। कभी देश के स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरक और प्राण शक्ति रही पत्रकारिता उद्देश्यहीन हो बाजार में आ खड़ी हुई है। जो चाहता है इसकी मुंहमांगी कीमता चुकाता है और यह उसके ही बोल बोलने लगती है। अपने सामाजिक सरोकारों को तिलांजलि दे यह ऐसे हाथों में खेलने लगी है, जो इसे स्वेच्छाचारी और स्वार्थी बना रहे हैं। यह पतन की उस राह पर चल पड़ी है, जहां से अगर इसे अभी नहीं उबारा गया तो बहुत देर हो जायेगी।
 वैसे इस अराजक दौर और निराशा के घटाटोप में भी ऐसे निष्ठावान पत्रकार आज भी हैं जिनकी कलम बिकाऊ नहीं है। यही भविष्य के लिए उम्मीद की किरण हैं। आज पत्रकारिता ऊहापोह और विवशता के दोराहे पर आ खड़ी हुई है। दोराहा जहां उसके सामने व्यावसायिकता और राजनीतिक व अन्य दबावों का संकट है। दिनों दिन प्रकाशन संबंधी वस्तुओं की कीमतों से उसके सामने अस्तित्व का भी संकट है जिसके चलते उसे न चाहते हुए भी कुछ ऐसे समझौते करने पड़ते हैं जहां मूल्यों और सिद्धांतों को बलि देने को विवश होना पड़ता है। गलाकाट प्रतियोगिता और बदलते सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों से उपजे दबाव के चलते पत्रकारिता अपने मूल्य उद्देश्यों से भटकती जा रही है। ऐसे में हमें यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या वाकई पत्रकारिता 186 साल बाद उस ऊंचाई पर पहुंची है जहां उसे होना चाहिए था। जहां उसके पहुंचाने का स्वप्न इसके पुरोधाओं ने देखा था। क्या वाकई वह सार्थक और सक्षम तौर पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका निभाने में सफल रही है। जहां तक पत्रकारिता की प्रगति का प्रश्न है इसने तकनीकी ढंग से बेहद प्रगति की है लेकिन उसके नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। आज जो चाहे इसे अपने ढंग से इस्तेमाल कर सकता है। वैसे आज भी कुछ सार्थक पत्रकारिता के सारथी हैं जिन्हें अपने ध्येय, अपनी निष्ठा और सिद्धांतों से प्रेम है, वे बिके नहीं और यही हमारे लिए आशा की किरण के समान हैं। इन्हें प्रणाम और इसके कार्य को साधुवाद।(शेष अगले भाग में)




           


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