यह देश तुम्हें न्याय नहीं दिला सका
-राजेश त्रिपाठी
भोपाल गैस त्रासदी पर न्यायालय के निर्णय पर कोई टिप्पणी करने का हमें अधिकार नहीं। हम गणतंत्र देश के वासी हैं, जहां हर तरह की आजादी है लेकिन सत्ता और न्याय के सर्वोच्च पद इतने ऊंचे हैं कि वहां आम भारतीय के ये अधिकार भी बौने लगते हैं। इन पर उंगली उठाना यानी अपनी सामत बुलाना। यह गणतांत्रिक देश हैं यहां हर तरह की आजादी है। अगर रसूख है, ऊंची पहुंच है तो हजारों बेगुनाहों की मौत किसी की वजह से क्यों न हुई हो, उसे छुट्टा घूमने की आजादी है। भोपाल गैस त्रासदी में यही हुआ। इस त्रासदी में जान गंवाने वाले, अब तक जिंदगी-मौत से जूझने वाले लोगों को न्याय दिलाने के लिए 25 साल तक न्यायिक प्रक्रिया कछुए की चाल चली। 15000 से भी ऊपर जाने इस त्रासदी ने लीं और पांच लाख से भी ज्यादा लोग जिससे प्रभावित हुए। ये लाखों लोग आज भी उस कष्ट को झेल रहे हैं जो गैस त्रासदी ने इन्हें दिया है। उस गुनाह के छह दोषियों को सजा मिली सिर्फ 2 साल की और साथ ही 1-1 लाख रुपये का आर्थिक दंड। इनके अपराध को जमानती माना गया और जाहिर है उन्हें जमानत मिलने में मुश्किल नहीं हुई। आज कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनतीं हैं, उनमें फैसले भी जल्द होते हैं फिर देश क्या दुनिया की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ऐसा क्यों नहीं हुआ? इतने दिन चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यह नतीजा? क्या यह उन लोगों के साथ अन्याय नहीं जिन्होंने औद्योगिक प्रगति की इतनी बड़ी कीमत चुकाई? आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमाने की आपाधापी में औद्योगिक इकाइयां लगाती हैं और सुरक्षा के सामान्य नियमों तक की कभी-कभी अनदेखी करती हैं जिसका खामियाजा भोपाल जैसी त्रासदियों में निरीह नागरिकों को भोगना पड़ता है। आज भोपाल के पीडि़त लोगों को उचित न्याय नहीं मिला तो इसके लिए देश को, हम सबको शर्मिंदा होना चाहिए कि हम अपने ही नागरिकों को न्याय नहीं दिला सके। बल्कि देश के ऊंचे पदों पर आसीन कई नौकरशाह और सत्ता के कई केंद्रों पर भी इसे लेकर उंगलियां उठने लगी हैं कि किस तरह भोपाल गैस त्रासदी के दोषी वारेन एंडरनसन को देश से भागने की सुविधा मुहैया करायी गयी। उसे सरकारी वाहन दिये गये और सलूट तक किया गया। ये खबरें अगर आज आम हैं तो इनका कोई आधार तो होगा ही। यों ही कोई किसी पर इतना बड़ा आरोप क्यों लगाने लगा। यह जांच का विषय है और जांच करके सच्चाई बाहर लायी जानी चाहिए।
अगर न्यायपालिका भोपाल गैस त्रासदी के गुनहगारों को कड़ी सजा नहीं दिला सकी तो जाहिर कि या तो यह मामला असरदार ढंग से नहीं पेश किया गया या जरूरी साक्ष्य ही नहीं जुटाये जा सके कि दोषियों को कड़ी सजा देने को न्यायालय बाध्य होता। इसके लिए दोषी किसे करार दिया जाये? लगता तो यह है कि अगर कुछ गैर सरकारी संस्थाएं इन गैस पीड़ितों के साथ न खड़ी होतीं तो शायद इनके दुख की दास्तान न न्यायालय पहुंचती और न ही उस पर कार्रवाई ही हो पाती। आखिर इतनी बड़ी औद्योगिक त्रासदी और उससे पीड़ित लाखों लोगों के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों? इसके पीछे किन शक्तियों का हाथ है या उनकी और सत्ता के किस केंद्र की दुरभिसंधि है? घटना ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। अब हर राजनेता भोपाल के गैस पीड़ितों का खैरख्वाह बन उनकी आवाज उठाने में लग गया है। अच्छा मौका है राजनीतिक रोटियां सेंकने का। पता नहीं 26 सालों तक ये नेता कहां थे जो गैर सरकारी संस्थाओं को इन गरीबों की लड़ाई लड़नी पड़ी।
आज चारों ओर यही सवाल उठाये जा रहे हैं कि यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद भी जमानत पर रिहा कर देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। एंडरसन को मध्यप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार करने के बाद 7 दिसंबर 1984 को जमानत पर रिहा कर दिया। अगर भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह की बात मानी जाये तो उनके अनुसार एंडरसन रिहा होने के बाद कार (जो एक राजनेता की बतायी जाती है) से हवाई अड्डे गये और वहां से दिल्ली के रास्ते अमरीका उड़ गये और फिर कभी नहीं लौटे। उन्हें बार-बार अदालत की ओर से समन जारी किये गये लेकिन वे भारत नहीं आये। इसके बाद 1992 में उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया। भारत सरकार ने एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध अमरीका सरकार से किया जो 2004 में ठुकरा दिया गया। अमरीकी मूल की कंपनी यूनियन कारबाइड के तत्कालीन चेयरमैन वारेन एंडरसन अब 89 वर्ष के हो गये हैं ऐसे में उनके न्यायिक प्रक्रिया के लिए भारत प्रत्यर्पण की आशा तो क्षीण ही है लेकिन भोपाल गैस त्रासदी के लाखों पीड़ितों को उचित मुआवजा दिला कर कम से कम उनके दर्द में थोड़ी तो मदद की ही जा सकती है।
भोपाल गैस त्रासदी लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है। याद है तब हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ’रविवार’ में थे। भोपाल गैस त्रासदी के पहले भी वहां स्थित यूनियन कारबाइड में गैस रिसाव की घटना हुई थी जिसमें कई श्रमिक प्रभावित हुए थे। उस वक्त एक स्थानीय पत्रकार के हवाले से यह रिपोर्ट स्थानीय समाचारपत्र में छपी थी। इस रिसाव के बारे में कहा गया था कि यह कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। वही हुआ भी। 2-3 दिसंबर 1984 की रात मौत दबे पांव आयी और जाड़े की उस रात में नींद में सोये हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गयी और लाखों को सारी जिंदगी बीमारियों से जूझने और तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर गयी। कारखाने से रिसी कई टन मिथाइल आइसो साईनेट गैस ने हजारों जानें ले लीं। अगर उस पत्रकार की बात को प्रबंधन ने गंभीरता से लिया होता और मरम्मत आदि की गयी होती तो शायद इतनी बड़ी त्रासदी न होती। कारखाना घनी आबादी के पास है इसलिए मौतें और ज्यादा हुईं। जिन लोगों ने गैस त्रासदी से मरे लोगों की बिखरी लाशों को देखा है, वे ताजिंदगी इस खौफनाक मंजर को भुला नहीं पायेंगे। इस त्रासदी पर एक पत्रकार की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक की समीक्षा ’रविवार’ के लिए मैंने ही की थी। उस पुस्तक के कवर का चित्र इस त्रासदी की भयावहता और खौफ को उजागर करने के लिए काफी था। कवर में एक मृत शिशु का चित्र था , पथरायी आंखों वाला मृत शिशु का शव जिसे पिता के हाथ जमीन में दफना रहे हैं। रोंगटे खड़े कर देनेवाला वही चित्र अब अखबारों में उन लोगों के बैनरों में दिख रहा है जो भोपाल गैस त्रासदी पर आये फैसले से नाखुश हैं और जगह-जगह इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस किसी भी इनसान में तनिक भी इनसानियत या संवेदना है उसके दिल को हिला देने के लिए वह चित्र ही काफी है। पर पता नहीं सरकारों का दिल क्यों नहीं दहला। आखिर वक्त रहते वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की गंभीर कोशिश क्यों नहीं की गयी? उसके बाद भी जो दोषी पाये गये उन्हें इतनी कम सजा क्यों दी गयी? होना तो यह चाहिए था कि इस गंभीर अपराध के लिए ऐसी सजा दी जाती जो आने वाले वक्त के लिए सबक होती और जिसके खौफ से कोई निरीह लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से डरता। आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? ऐसे हजारों क्यों हैं जिनके कठघरे में हर वह शख्स, नौकरशाह, सत्ता के वे केंद्र खड़े हैं जिन्होंने इस हादसे से पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में उदासीनता दिखायी और दोषियों के प्रति नरमी बरती।
आज राजनेता, सामाजिक संगठन और दूसरे कई संगठन भोपाल गैस त्रासदी पर आये निर्णय से असंतुष्ट हैं और चाहते हैं कि एक बार फिर नये सिरे न्यायिक प्रक्रिया चले और बिना किसी लागलपेट के सही-सही जांच और कार्रवाई हो। एंडरसन जिस कार से भोपाल से हवाई अड्डे तक गये वह एक कांग्रेसी नेता की बतायी जाती है। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहें और खबरें हवा में हैं जिनमें से कुछ तो यहां तक संकेत करती हैं कि किसी बड़े नेता के इशारे पर एंडरसन को भारत से जाने की सुविधा दी गयी। इस बारे में और कीचड़ उछले, कुछ और दामन दागदार हों इससे पहले सब कुछ साफ होना चाहिए। अब तो कांग्रेसी नेताओं ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि आरोप-प्रत्यारोप बंद होना चाहिए और अगर कुछ सच्चाई है तो उसे सामने आना चाहिए। जिन्हें इसके बारे में सच्चाई पता है उन्हें भी मौन तोड़ सामने आना चाहिए क्योंकि कहा भी है-‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।’ ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा होगा जो चाहेगा कि उसका इतिहास दागदार हो। जिसके पास जो भी जानकारी है उसे बाहर आना चाहिए, चाहे नौकरशाह हो या नेता अगर इस मामले को हलका करने, इसके दोषियों को बचाने की किसी ने भी कोशिश की है तो वह साफ होना चाहिए और उस पर नियमानुसार कार्रवाई भी होनी चाहिए। कारण,जो अभी हो रहा है, जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोपों को दौर चल रहा है वह नागरिकों की शंकाओं को और बढ़ा रहा है। शंकाओं में जीता समाज कभी निश्चिंत या सुरक्षित नहीं हो सकता। उसे हमेशा यह आशंका रहेगी कि अगर न्याय दिलाने का यह हाल है तो भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है और उस पर न्याय पाने के लिए पीढ़ियों तक लोगों को इंतजार करना पड़ सकता है। देश और देशवासियों के हित में यही है कि ऐसी घटनाओं की सही पड़ताल और उस पर उचित कार्रवाई हो। यह देश के नागरिकों की न सिर्फ आशा बल्कि अधिकार भी है। अब जब सरकार ने आरटीआई यानी सूचना के अधिकारी की सहूलियत राष्ट्र को दी है तो फिर ऐसी घटनाओं पर तैयार किये गये मामलों के बारे में भी यह जानकारी सामने आनी चाहिए कि यह मामला इतना लचर क्यों तैयार किया गया कि इसमें मामूली अपराध जैसी सजा मिली और मुख्य अभियुक्त तक न्याय के हाथ पहुंचे तक नहीं। यह सवाल है जो देश आज देश के कर्णधारों और इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अधिकारियों से पूछना चाहता है। इसके जवाब देने के लिए वे बाध्य हैं क्योंकि इसके लिए उनमें से अनेक शपथबद्ध हैं।
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