Friday, November 25, 2022

‘रविवार’ का प्रवेशांक लोगों ने हाथों हाथ लिया

आत्मकथा-46


राजेश त्रिपाठी

आनंद बाजार प्रकाशन में ज्वाइन करने के दिन सुबह से उल्लास के साथ ही एक भय भी था। उल्लास इतने बड़े संस्थान में काम करने का मौका मिलने का और भय नये परिवेश, नये स्थान पर माहौल कैसा होगा इस बात का। मेरे भैया ने यह भांप कर कि कहीं मैं नर्वस ना हो जाऊं यह सोच कर मेरे साथ जाने का निर्णय लिया। हम कोलकाता के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट में स्थित आनंद बाजार कार्यालय पहुंचे तो बहुत बड़ी बिल्डिंग सामने थी। यही था आनंद बाजार पत्रिका का कोलकाता मुख्यालय। इस बात का तो पता ही था कि यहां से बांग्ला का सर्वाधिक प्रसारित दैनिक आनंद बाजार पत्रिका निकलता है।

अपनी एक आदत है कि जब भी किसी नये संस्थान में कार्य करने जाते हैं तो सबसे पहले मन ही मन प्रभु को प्रणाम करते हैं कि सब शुभ ही शुभ हो। मन में यह उलझन लिये कि जाने कैसे-कैसे अजनबियों से सामना होगा और कौन कैसा व्यवहार करेगा मैं और भैया नीचे गेट के अंदर घुसे। घुसते ही रिसेप्शन था। वहां पूछा कि आनंद बाजार प्रकाशन की हिंदी पत्रिका में ज्वाइन करना है किससे और कहां मिलना होगा।

रिसेप्शन में बैठे व्यक्ति ने एम.जे. अकबर से मिलने को कहा और बता दिया कि वे कहां बैठते हैं।

 एम.जे.अकबर साहब के कक्ष के सामने पहुंचे। भैया ने दरवाजे पर खटखट की तो भीतर से आवाज आयी- आ जाइए।

 आगे-आगे भैया और उनके पीछे मैंने उस कक्ष में प्रवेश किया तो पाया कि एक बहुत ही गौर वर्ण सज्जन कुर्सी पर बैठे हैं। उनके सामने की मेज में अंग्रेजी, हिंदी की पत्रिकाएं और कुछ कागज रखे हैं। मैंने उन्हें तुरत पहचान लिया कि यह वही सज्जन हैं जिन्होंने मुझसे इंटरव्यू के दौरान हाथ से लिखी उर्दू की चिट्ठी पढ़वाई थी। यह जानने के लिए कि मैंने जो अपनी सीवी में लिखा है  कि मैं उर्दू जानता हूं या नहीं।

 अकबर साहब कुछ बोलें इससे पहले मेरे भैया ने कहा-यह मेरा छोटा भाई है यह आज से यहां ज्वाइन कर रहा है।इसे छोड़ने आया हूं।

 अकबर साहब मुसकराते हुए बोले-निश्चिंत होकर छोड़ जाइए यह हमारे भी छोटे भाई हैं।

 उनकी यह बात सुन कर मैं भी आश्वस्त हुआ कि यहां माहौल अनुकूल ही होगा।

 अकबर साहब के कक्ष से निकलने से पहले भैया ने पूछा-सुरेंद्र प्रताप सिंह किस कक्ष में मिलेंगे।

 अकबर साहब ने सुरेंद्र जी के कक्ष का पता बताते हुए कहा-अवश्य मिल लीजिए और इनको भी उनके सुपुर्द कर दीजिए, हिंदी पत्रिका का कार्य वही देखते हैं।

  इसके बाद हम लोग सुरेंद्र जी के कक्ष में गये। भैया को देखते ही सुरेंद्र जी खड़े हो गये। उन्होंने भैया को प्रणाम किया और उन्हें पास की कुर्सी में बैठने को कहा। मुझे खड़ा देख कर उन्होंने कहा, आप भी बैठिए।

 यहां एक बार यह जिक्र और कर दें कि भैया सन्मार्ग के साहित्य परिशिष्ट का संपादन करते थे और सुरेंद्र प्रताप सिंह जी बचपन में उनके स्तंभ बाल विनोद के सदस्य थे इसलिए उनका बड़ा आदर करते थे।

  भैया ने बताया कि वे अपने भाई रामहित तिवारी को छोड़ने आये हैं। यह मेरा मूल नाम है जो मेरे गांव जुगरेहली की बड़ी-बूढ़ी महिलाओं ने रखा था। यहां यह भी बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में बच्चों के नाम किसी भगवान पर रखने की प्रथा थी। इसीलिए मेरा नाम राम से जोड़ कर रखा गया।

  भैया की बात सुन कर सुरेंद्र जी ने कहा-हां छोड़ जाइए, अभी तो पत्रिका की रूपरेखा का काम चल रहा है जिसका नाम रविवार रखा गया है। जल्द ही हम इसके प्रवेशांक पर काम शुरू कर रहे हैं। अच्छा होगा अगर यह भी उस प्रक्रिया में शामिल रहें।

  भैया ने उनकी बातों पर हामी भरी और मुझे छोड़ कर वापस चले गये।

 इसके बाद सुरेंद्र जी ने विभाग के अन्य सदस्यों से मेरा परिचय कराया जिनमें निर्मलेंदु साहा, सुदीप जी, राजकिशोर, मणि मधुकर थे।

 बाद में पता चला कि सुदीप जी का मूल नाम गुलशन कुमार है सुदीप उनका पेन नेम है जो वे अपने उपन्यास या अन्य लेखन में प्रयोग करते हैं। राजस्थान से आये मणि मधुकर कवि थे। राजकिशोर भी लेखक थे जो उपनगर हावड़ा में रहते थे। निर्मलेंदु साहा उपनगर खरदा के रहनेवाले। उन्हें ही सुरेंद्र जी ने मुझे प्रेस आदि दिखाने का जिम्मा सौंपा। वे पहले ही ज्वाइन कर चुके थे इसलिए वहां के हर विभाग की उन्हें अच्छी जानकारी थी। उन्होंने सब कुछ जानने समझने में मेरी काफी मदद की। प्रेस मुख्य बिल्डिंग के बेसमेंट में था वहीं बगल में प्रिंटिंग मशीन भी थी।

 सन्मार्ग के प्रेस में मैंने मोनो कास्टिंग मशीन देखी थी। उसमें एक तरफ गरम शीशा पिघलता रहता था और कास्टर जो भी अक्षर पंच करता वह तुरत ढल कर एक गैली में एक-एक अक्षर जाकर एक पंक्ति बना देता। उसी को सजा कर पेज बनाया जाता। आनंद बाजार के प्रेस में मैंने विशालकाय लाइनों मशीन देखी जिसमें भी एक तरफ शीशा पिघल रहा था और जैसे-जैसे आपरेटर एक-एक अक्षर दबा कर टाइप करता एक-एक अक्षर जाकर पिघले शीशे में डूब कर एक लाइन बना देते। मोनो और लाइनों में फर्क यह था कि मोनो में करेक्शन करने के लिए एक अक्षर सुधार देने से काम चल जाता था लेकिन लाइनों में सुधार के लिए पूरी लाइन बदलनी पड़ती। प्रेस से लेकर ऊपर के सभी विभागों तक जाने वाली एक छोटी से लिफ्ट थी जिसके लिए पत्र पत्रिकाओं के हर कमरे में एक खिड़की सी बनी थी। जब वह लिफ्ट पहुंचती हम लोग अपने मैटर का प्रूफ उठा लेते। बाद में वह प्रूफ देख कर करेक्शन के लिए उसी लिफ्ट से वापस प्रेस में भेज देते।

   मैंने जिस दिन ज्वाइन किया उस समय रविवार के प्रवेशांक का काम चल रहा था। प्रवेशांक की आमुख कथा थी रेणु का हिंदुस्तान

 दूसरे दिन से मैं नियमित कार्यालय जाने लगा और जोर-शोर से काम शुरू कर दिया गया। पहले कुछ दिन थोड़ा अटपटा लगा फिर वहां के वातावरण में मैंने एजस्ट कर लिया।

जब 28 अगस्त 1977 को रविवार का प्रवेशांक मार्केट में आया तो लोगों ने उसे हाथोंहाथ लिया क्योंकि तब तक उस तरह के तेवर की कोई पत्रिका नहीं थी जो सच के साथ डट कर खड़ी हो और आवश्यकता पड़े तो सत्ता के शीर्ष तक पर प्रश्न उठाने से ना हिचके। रविवार पत्रिका का हमेशा यही ध्येय रहा- न दैन्यंम न पलायनम्। ना दीनता दिखाई ना किसी सच्ची घटना को प्रस्तुत करने में हिचकिचाहट दिखायी। (क्रमश:)

  

 

 


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