आत्मकथा-54
आनंद बाजार पत्रिका के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह जिन्हें हम सब एसपी दा के नाम से पुकारते थे उनकी भाषा बहुत ही सशक्त पर सरल और सबकी समझ में आनेवाली थी। वे बहुत अच्छा लिखते थे। लेकिन पता नहीं क्यों ‘रविवार’ में वे कुछ भी नहीं लिखा करते थे। यह हमें अच्छा नहीं लगता था कि एक सशक्त कलम ‘रविवार’ जैसा सशक्त माध्यम पाकर खामोश रहे। हम लोगों के बार-बार आग्रह करने पर वे प्रसिद्ध पत्रकार जनार्दन ठाकुर की ‘आल द प्राइम मिनिस्टर्स मैन’ पुस्तक के एक चैप्टर का हिंदी में अनुवाद करने पर राजी हुए। आपातकाल की पृष्ठभूमि पर लिखी इस चर्चित पुस्तक का उन्होंने इतना सुंदर अनुवाद किया कि लगता यह था कि यह अनुवाद नहीं बल्कि मूल लेखक की ही हिंदी में लिखी रचना हो। इतने वर्ष बीत जाने पर पूरा तो याद नहीं ना ही ‘रविवार’ का वह अंक ही मेरे पास है। उसकी बानगी के लिए एक पंक्ति ही काफी है-‘खेतों पर हवा और सड़क पर पुलिस गश्त कर रही थी।’ ‘धर्मयुग’ में रहते हुए उन्होंने बहुत कुछ लिखा और ख्याति पायी। धर्मयुग में जाने और धर्मवीर भारती जैसे कड़क मिजाज संपादक के सामने बेखौफ जवाब देने में वे नहीं चूके। कहते हैं कि इंटरव्यू के दौरान जब धर्मवीर भारती ने पूछा कि -धर्मयुग में ही क्यों काम करना चाहते हो? एसपी ने तपाक से जवाब दिया-अच्छा अवसर पाने के लिए। भारती जी का अगला प्रश्न था-इसका मतलब यह है कि अगर इससे अच्छा अवसर मिला तो तुम धर्मयुग छोड़ दोगे?एसपी ने बिना एक पल भी गंवाये जवाब दिया-बेशक।
सुरेंद्र प्रताप सिंह |
‘रविवार’ में ऐसा संपादक पाकर हम धन्य हो गये। ऐसा संपादक जिसने पत्रकारिता को नये आयाम नये तेवर दिये। उसे स्वामिभक्ति और सुदामा वृत्ति से मुक्त किया। अनुवाद पत्रिका से अधिक उन्होंने मौलिक और साहसिक पत्रकारिता को प्रोत्साहित किया। जिन्होंने ‘रविवार’ का एक अंक भी देखा होगा वे मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उससे पहले इस तरह की साहसिक पत्रकारिता करने का साहस शायद ही कोई कर पाया हो। शायद यही कारण है कि यह लोगों में व्यवस्था विरोधी पत्रिका के रूप में विख्यात थी।
एसपी स्पष्ट वक्ता थे और खबरों पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। इसका एक उदाहरण दे रहा हूं। भागलपुर के कुख्यात आंखफोड़ कांड की याद कुछ लोगों को अवश्य होगी। इसका समाचार बिहार से प्रकाशित होने वाले एक हिंदी दैनिक में कुछ पंक्तियों में ही सलटा दिया गया था। उस समाचार को ऐसे किसी स्थान पर दिया गया था जहां वह खो जाये। उस समाचार को देख कर एसपी ने हम सबको बुलाया और कहा –देखिए इस तरह की जाती है एक महत्वपूर्ण समाचार की हत्या। इसके बाद उन्होंने रविवार में हमारे साथी अनिल ठाकुर को लभेजा और कहा कि इस घटना की विस्तृत रिपोर्ट तैयार कीजिए। अनिल ठाकुर का घर भागलपुर में ही था इसलिए उन्हें आंखफोड़ कांड पर सशक्त रिपोर्ट तैयार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। वह हमारे रविवार की कवर स्टोरी बनी और बहुत हिट रही। बाद में फिल्म निर्माता प्रकाश झा ने इसी घटना पर आधारित फिल्म ‘गंगाजल’ बनायी थी।
*
पहले ही बता चुके हैं कि रविवार में हमारे वरिष्ठ सहयोगी सुदीप जी थे। उनका पूरा नाम गुलशन कुमार था और सुदीप उनका उपनाम था। वे प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'सारिका' से आये थे। स्वभाव में बड़े सज्जन थे जिससे मन मिल जाये उससे खूब बातें करते थे। रविवार के संपादकीय विभाग में मुझसे और निर्मलेंदु साहा से उनकी खूब बनती थी। वे अक्सर अपने मुंबई के संस्मरण सुनाया करते थे। वहां वे फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन का कार्य भी करते थे।
दिन, महीने वर्ष ऐसे ही गुजरते रहे। सुदीप जी बीच-बीच में बंबई जाते जहां उनका परिवार था। उनकी पत्नी उन दिनों मुंबई में ही पढा़ती थीं। हम पाते थे कि जब सुदीप जी मुंबई में अपने परिवार से मिल कर आते तो कुछ दिनों तक उनके चेहरे पर उदासी के भाव रहते थे। परिवार से बिछुड़ने का दुख उनके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। उन्हें सहज होने में कुछ दिन लगते।
सुदीप जी |
डोसे खत्म होते-होते तक हमने पाया कि सुदीप जी की आंखें भर आयीं थीं। उनके चेहरे पर उभरी उदासी अब और गहरा गयी थी जो साफ नजर आ रही थी।
अचानक वे बोले-‘राजेश जी और निर्मल भाई, मैं कल मुंबई वापस लौट रहा हूं हमेशा के लिए। मैंने इस्तीफा दे दिया है। आप जैसे प्यारे भाई बहुत याद आयेंगे।‘ इतना कहते-कहते वे रोने ही लगे।
हम लोगों की भी आंखें भर आय़ीं। मैंने पूछा-,’क्या हुआ भाई जी अचानक।‘
वे दुख से अपनी भर आयी आवाज को संभालते हुए बोले-‘हां राजेश जी, अचानक ही यह फैसला लेना पड़ा। इस बार जब मैं मुंबई पहुंचा तो मेरी बेटी इतना खुश हुई, उसका चेहरा इतना खिल गया कि मैं कह नहीं सकता। मैंने बहुत गहराई से सोचा कि मैं क्यों इतनी मेहनत कर रहा हूं अपने परिवार के चेहरे पर खुशी और हंसी देखने के लिए ना। पर मैं ऐसा कर कहां पा रहा हूं। जब कई महीने बाद मैं इनसे मिलते आता हूं तो इनके चेहरे खिल जाते हैं, खुशी का ठिकाना नहीं रहता। जब मैं वापस लौटने लगता हूं तो उन्हें लगता है जैसे उनसे उनकी सारी खुशियां ही छीन ली जा रही हैं। इस बार मैंने बहुत गंभीरता से सोचा कि मैं इनकी इच्छा के विपरीत इऩसे दूर रह रहा हूं जो ठीक नहीं है। क्या है मुंबंबई में रह कर पटकथा वगैरह लिख लूंगा। कम पैसे मिलेंगे लेकिन सबसे बड़ी खुशी तो मिलेगी अपनों के चेहरों पर खुशी की मुसकान। कल मुंबई के लिए निकल रहा हूं तुम लोगों की बहुत याद आयेगी।‘
सुदीप जी अब इस दुनिया में नहीं हे लेकिन उनका अपने से कनिष्ठों से भी भ्रातृवत व्यवहार हमें हमेशा याद आता रहेगा। आपसे जो जाना, जो सीखा आपका जो स्नेह मिला वही हमारे जीवन की संचित निधि है।
*
रविवार में रहते हुए भी मैं बीच-बीच में फिल्म कलाकारों के कोलकाता में होनेवाले प्रेस कांफ्रेंस वगैरह कवर कर लेता था। ऐसा ही एक कांफ्रेस जलाल आगा का था जो उस टीवी धारावाहिक के बारे में था जो पति-पत्नी के संबंधों के बारे में था। जलाल आगा उसी का प्रचार करने आये थे। जो लोग जलाल आगा को नहीं पहचानते उन्हें बता दें कि वे मशहूर अभिनेता आगा के बेटे थे। जलाल आगा ने यों तो कई फिल्मों में काम किया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ के महबूबा महबूबा वाले गीत दृश्य में उन्होंने हिस्सा लिया था।
अभिनेता जलाल आगा द्वारा खींची मेरी तस्वीर |
वे पत्रकारों से बातें कर रहे थे और अपने कैमरे से कई लोगों के फोटो ले रहे थे। उन्होंने अपने कैमरे का रुख मेरी ओर किया देखा उसका लेंस बाहर निकल आया और जलाल आगा ने किल्क कर दिया फ्लैश की लाइट के साथ मेरी इमेज कैमरे में कैद हो गयी। मैंने कहा- आपने हमारी तस्वीर कैद तो कर ली हमें मिलेगी क्या।जलाल आगा का जवाब था-पता दीजिए भेज दूंगा मैंने पता दिया और सचमुच जलाल आगा ने अपना वादा निभाया कुछ दिन बाद मेरे पास वह फोटो आ गयी। वाकई वह अब तक खींची गयी फोटो में सबसे अच्छी है। वह फोटो मैं इस पोस्ट के साथ दे रहा हूं। (क्रमश:)
No comments:
Post a Comment