कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
(भाग-4)
जिस दिन से मंगल प्रसाद तिवारी को यह पता चला
कि उनकी बहन रानी उम्मीद से है उसी दिन से वे उसकी आनेवाली संतान के बारे में तरहृ-तरह
के सपने बुनने लगे। उन्हें उस दिन का इंतजार था जब उनके जीजा के घर आनेवाला कोई
नया मेहमान उन्हें मामा कह कर पुकारे। उसके आने के बाद उनकी जिम्मेदारियां और भी
बढ़ जायेंगी।
यह कहानी अब जिस गांव बिलबई में पहुंच गयी है वह बांदा-बबेरू रोड के किनारे स्थित है। सड़क के पास से ही एक छोटी नदी बहती है। इस गांव के ऊंचे हिस्से पर घा मुखिया शिवदर्शन त्रिपाठी का घर जहां मंगल प्रसाद तीवारी भी अपने जीजा जी के साथ रहते थे।
उधर पीलीकोठी संस्कृत विद्यालय में मंगल प्रसाद
तिवारी के छोटे भाई ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी. उन्हें लौटना तो जुगरेहली ही था
लेकिन उन्हें बड़े भैया मंगल प्रसाद से पता चल गया था कि ले जुगरेहली छोड़ चुके
हैं और बिलबई में जीजा जी के साथ रहने लगे हैं.। अब उनके पास बिलबई लौटने के अलावा
और कोई रास्ता नहीं था। वे वेद, पुराण, व्याकरण आदि में निपुण हो चुके थे और
संन्यासी जीवन बिताने का निर्णय कर चुके थे।
बिलबई
लौट कर उन्होंने बड़े भैया से संन्यासी होने का अपना निर्णय बता दिया.। बड़े भाई
मंगल प्रसाद ने उन्हें अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया लेकिन वे
अपने निर्णय पर अडिग रहे। उन्होंने बिलबई के पास ही नदी के किनारे अपनी कुटी बनायी
और अपना नाम रख लिया स्वामी कृष्णानंद जी।
यहां यह बताना प्रासंगि्क होगा कि कृष्णानंद जी
इस ब्लागर (राजेश त्रिपाठी) के सगे चाचा थे। मेरे चाचा स्वामी कृष्णानंद जी की
पीतल की एक छोटी बालटी भी थी जिसमें नीचे उनका नाम खुदा था-स्वामी कृष्णानंद जी, कुटी बिलबई। वह जाने कहां खो गयी पता
नहीं चला।.स्वामी कृष्णानंद जी संस्कृत के निष्णांत विद्वान थे। उन्होंने सांसारिक
बंधनों में फंसने के बजाय स्वामी बनना पसंद किया और बांदा-बबेरू रोड में बिलबई
ग्राम के पास एक कुटी बनायी, वहां एक मंदिर और कुएं का निर्माण कराया। मैंने (ब्लागर राजेश
त्रिपाठी) अपने चाचा को देखा नहीं उनके जीवन की कहानियां पिता जी मंगल प्रसाद
जिवारी से ही सुनी। पिता जी ने बताया कि जब चाचा ने मंदिर और कुंआ बनाया तो ईंटें
पथवाईं और उन्हें पकाने के लिए भट्ठा लगवाने के लिए सड़क किनारे के पेड़ काट कर उस
लकड़ी का इस्तेमाल कर लिया। जब सरकारी मोहकमे को पता चला कि स्वामी जी ने सरकारी
पेड़ कटवा लिये तो केस दर्ज हो गया। स्वामी कृष्णानंद जी को कोर्ट में तलब किया
गया।
बिलबई में कृष्णानंद जी द्वारा बनवाया मंदिर और कुआँ
जहां यह विद्यालय है वहीं कभी कृष्णानंद जी की कुटी थी
जज ने उनसे पहला सवाल किया-स्वामी जी। आपने यह
क्या किया, सरकारी
पेड़ काट कर भट्ठे में लगा डाले।
स्वामी कृष्णामंद जी -क्या करे हुजूर, कुआं बनवाना था, वहां बांदा-बबेरू मार्ग के यात्री पल
भर रुक कर गर्मी के दिनों में पानी पीते हैं, कुटी में थोड़ा सुस्ता लेते हैं और फिर
अपने गंतव्य को बढ़ जाते हैं। प्रभु का
छोटा- सा मंदिर भी बना लिया है।
जज- वह सब तो ठीक है लेकिन सरकारी संपत्ति का
बिना इजाजत इस्तेमाल कर आपने गलत काम किया है आपको जुर्माना तो देना ही पड़ेगा।
स्वामी कृष्णानंद-हुजूर मैं तो ठहरा भिखारी।
जुर्माना भरने के लिए तो मुझे लोगों के सामने झोली फैलाने पड़ेगी। मैं शुरुआत आपसे
ही कर रहा हूं। जितना जुर्माना बनता हो आप ही भर दें हुजूर। मैं कहां से लाऊं।
स्वामी कृष्णानंद जी का जवाब सुन जज मुसकराये
और बोले –जाइए
स्वामी जी, आपसे
कौन पार पायेगा। अब से ऐसा मत कीजिएगा।
स्वामी- नहीं हुजूर, अब ऐसी गलती नहीं होगी।
2016 में मैं (राजेश त्रिपाठी) 35 साल बाद जब
गांव गया तो स्वामी कृष्णानंद जी की कुटी देखने भी जाने का सुअवसर मिला। मैं तो
पहले भी गांव में था तो बांदा आते-जाते कुटी में जरूर उतरता था। पिछली बार जाकर
देखा की कुटी तो नहीं रही लेकिन कुछ सुजान लोगों ने उस जगह पर विद्यालय बनवा दिया
है जहां बच्चे पढ़ते हैं। किसी ने मंदिर और कुएं में रंग-रोगन भी करवा दिया था। यह
देख कर अच्छा लगा कि चाचा जी की स्मृति को कई दशक बाद भी गांव वालों ने संभाल कर
रखा है। उनके प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त करें कम होगी।
कहते हैं हम उन्हीं स्वामी कृष्णानंद जी के
अवतार हैं। हम नहीं जानते कि यह कहां तक सच है लेकिन एक बात तो है कि अगर हममें
कूट-कूट कर धार्मिक प्रवृत्ति भरी है तो यह हमारे पूर्वजों की ही प्रेरणा और देन
हो सकती है। संयोग कुछ ऐसा बना की हमारे विद्यारंभ का प्रारंभ भी संस्कृत गुरुकुल
से ही हुआ।
हमारी
तरफ ऐसी मान्यता है कि परिवार का कोई दिवंगत सदस्य अपने परिवार की महिला से स्वप्न
में कुछ खाना मांगे तो माना जाता है कि वह उस परिवार में आना चाहता है। मेरे चाचा
जी भी मां के स्वप्न में आये थे और उनसे कुछ खाना मांगा। मां ने उन्हें भोजन
करवाया और उनकी नींद टूट गयी। उन्होंनें देखा
कि कहीं कोई नहीं है। लेकिन उसके कुछ
काल बाद वह उम्मीद से हुईं और फिर मेरा जन्म हुआ। इससे पहले मां अपनी दो
संतानें खो चुकी थीं। यहां चाचा जी के संदर्भ में यह जिक्र दिया। मंगल प्रसाद
तिवारी के विवाह और इस अकिंचन के जन्म की कथा अगली किस्तों में आयेगी। (क्रमश:)
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