आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-25
इंटर कालेज बबेरू में मेरी पढ़ाई सुचारु रूप से चल रही थी। कालेज के
सभी अध्यापक बहुत ही सहयोगी थे। सभी छात्रों को बड़ी लगन से पढ़ाते और कोई नया
विषय सेलेबस में शामिल हो तो उसके लिए एक्सट्रा क्लास लेकर उसकी भरपाई कर देते थे।
इसके लिए अलग से कोई शुल्क भी नहीं लेते थे। हमने अपने समय में कोचिंग सेंटर आदि
का नाम भी नहीं सुना था। सभी छात्र आपस में एक-दूसरे का सहय़ोग करते थे। जो छात्र
किसी विषय में कमजोर हो वह अपने उस सहपाठी से मदद ले लेता था जो उसको अच्छी तरह
जानता हो। बदले में वह अपने साथी को वह विषय समझा देता जिसमें वह माहिर होता था।
ट्रिग्नोमेट्री विषय हमारे
यहां नया-नया शुरू हुआ तो हम सभी उससे पूरी तरह अनजान थे। सिन थीटा, सिन बीटा जैसे शब्द हमें एलियंस से लगते थे। विषय
नया था और हम सभी इससे अनजान थे। कालेज ने तय किया कि जो शिक्षक इस विषय को पढ़ाता
है वह कालेज समाप्त होने के बाद एक घंटा इस नये विषय से छात्रों को परिचित कराया
करे। यह सिलसिला शुरू हो गया। हमें भी कालेज की नियत अवधि के बाद रुकना पड़ा।
उन दिनों बबेरू-बांदा के बीच
बहुत कम बसें चलती थीं और देर शाम बंद हो जाती थीं क्योंकि उसके बाद सवारियां नहीं
मिलती थीं। ऐसे में हमारे पास पैदल जाने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। कई दिन
हमने ऐसा ही किया।
एक दिन जब हमारी अतिरिक्त
क्लास खत्म हुई तो भैया अमरनाथ साइकिल लेकर निकल रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा-चलो
साइकिल में निकल चलते हैं मैं भी घर लौट रहा हूं।
मैंने बिना किसी ना नुकुर के
उनकी बात मान ली। शाम का धुंधलका उतर चुका था। भैया अमरनाथ साइकिल चला रहे थे मैं
सामने हैंडल के पास बैठा था। अभी हम बबेरू की नहर पार ही की थी कि सामने साइकिल पर
आता युवक हमारी साइकिल से टकरा गया। मैं साइकिल से गिर गया। मेरे दायें हाथ के अंगूठे
के बीच चोट आयी थी।
भैया अमरनाथ साइकिल से उतरे,धुंधलके
में उन्होंने पहचान लिया वह कालेज का ही लड़का था।
अमरनाथ जी ने उसे एक जोरदार
थप्पड़ जड़ा और बोले-अबे अंधे हो क्या दिखता नहीं।
वह लड़का भी उन्हें पहचान गया
था। हाथ जोड़ कर बोला-सर माफ कर दीजिए आंख में कीड़ा घुस गया मेरी आंख बंद हो गयी
थी।
भैया अमरनाथ जी कुछ बोलें
इसके पहले मैंने कहा-भैया जाने दीजिए।
वह लड़का चला गया। मेरे काफी
दर्द हो रहा था। उसके साइकिल की घंटी का दबा कर बजानेवाला हिस्सा मेरे दायें हाथ
के अंगूठे और तर्जनी के बीच घुस गया था। उस धुंधलके में भी मुझे लगा कि हाथ से कुछ
बह रहा है। हाथ से छुआ तो पता चला यह खून है। भैया अमरनाथ ने देखा तो वे भी दुखी
हुए उन्होंने रूमाल से कस कर उस हिस्से को बांध दिया।
वे बोले-उस समय अगर पता चलता कि चोट इतनी गहरी है तो उस नालायक को और
दो थप्पड़ लगाता।
मैंने कहा-जाने दीजिए भैया।
दुख इसी बात का है कि दो दिन बाद परीक्षा शुरू हो रही है, चोट है वह भी दायें हाथ
में। पट्टी बांध कर परीक्षा देनी होगी।
हम लोग जब गांव लौटे तब तक
रात हो चुकी थी। भैया अमरनाथ के पास टिंचर, रुई दर्द निवारक गोलियां आदि रखी रहती
थीं। उन्होंने वहां अच्छी तरह टिंचर लगा कर रुई लपेट कर पट्टी बांध दी और एक दर्द
निवारक गोली दे दी और कहा-खाना खाने के बाद इसे खा लेना, दर्द दम हो जायेगा।
उसी तरह पट्टी बंधी स्थिति
में मैंने परीक्षा दी। पूरा भय था कि शायद ही पास हो पाऊंगा मगर प्रभु कृपा से
निकल गया। सामान्य स्थिति में जितना अच्छा लिख पाता चोट के चलते उतना नहीं कर
पाया।
*
कहते हैं ना कि अच्छे दिन सदा साथ नहीं रहते मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
पता नहीं अचानक क्यों मुझे पेट दर्द की शिकायत शुरू हो गयी। तमाम घरेलू दवाएं आजमायीं
पर कोई फायदा ना हुआ। मैं इस तकलीफ के साथ ही कालेज जाता लेकिन स्थिति सुधरने के
बजाय बिगड़ने लगी। मैं पैदल कालेज जाते हुए कभी-कभी दर्द से तड़प कर खेत की मेड पर
गिर कर तड़पता रहता। गांव का कोई आदमी गुजरता तो मुझे संभाल कर घर ले आता।
मैं गहरी तकलीफ के दौर से
गुजर रहा था लेकिन मां समझती थी कि मैं पढ़ाई से जी चुराता हूं और बहाना बना कर घर
लौट आता हूं। मैं लाख समझाता लेकिन वह समझती नहीं। जब मेरी भूख पूरी तरह खत्म हो
गयी तब मां भी डर गयी। उसने मेरी आंखें देखीं जो पूरी तरह पीली पड़ गयी थीं।
वह बोलीं-अरे तुम्हें तो
पीलिया (जांडिस) हो गया है। झड़वाना पड़ेगा।
मैंने कहा-आंखें ही नहीं मेरे कहीं कट जाता है तो पीला खून निकलता है।
मां बहुत चिंतित हो गयीं।
गांव में एक मेहतर था जो पीलिया झाड़ता था। मां ने उसे बुलाया और सारी बात बतायी।
वह रोज मेरे नहाने के पहले आने और पीलिया झाड़ने लगा। मुझे बड़ा अजीब लगता था।वह
एक पीतल की परात पर मुझे बैठा देता और सिर से पैर तक पानी डालते हुए अपने हाथ से
शरीर को मलता। मैं यह देख कर अचरज में पड़ जाता कि जाने कैसे मेरे शरीर से डाला
गया रंगहीन पानी पीला हो जाता जैसे उसमें हल्दी घोल दी गयी हो।
यह सिलसिला कई दिन चला लेकिन
मेरी स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी। हार कर मां मुझे बबेरू एक डाक्टर के
पास ले गयी। अब नाम तो याद नहीं लेकिन बबेरू के लौंगहाई तालाब के सामने उनका चैंबर
था। कोई दीक्षित थे उन्होंने मेरी जांच-पड़ताल करके मां से कहा- अब लायी हो, इतनी देर कर के इसका
लीवर खराब हो गया है, मैं क्या कर सकता हूं। एक सिरप दे देता हूं उसे पिलाना बाकी
भगवान मालिक है।
यह सुन मां जोर-जोर से रोने
लगी। मैंने उसे ढांढ़स बंधाया-रोती क्यों हो अभी मैं जिंदा हूं,चलो घर चलो।
मैं मां को ढांढस तो बंधा रहा
था लेकिन मैं खुद भी भीतर से कांप गया था। डाक्टर का शब्द ’अब लायी हो’ मुझे भी डरा रहा
था।
दूसरे दिन मुझे देखने भैया अमरनाथ आये तो मां ने ने रोते हुए उनसे
डाक्टर की सारी बातें बतायीं।
यह सुन कर भैया अमरनाथ बहुत
गुस्सा हुए और बोले-उस डाक्टर की तो मैं आज ही खबर लेता हूं।
भैया अमरनाथ दूसरे दिन सचमुच
उस डाक्टर के पास गये और उसे जम कर झाड़ा कि रोगी से इस तरह बात करते हैं, उसका
हौसला बढ़ाने के बजाय उसे डरवाते हैं। दीक्षित अपना तरीका बदल दो नहीं मैं
तुम्हारी डाक्टरी बंद करवा दूंगा।
मैं अपनी बीमारी से परेशान
था, मां भी अक्सर रोती रहतीं। मेरी हालत देख कर उसे भी बहुत दुख था।
अचानक गांव के ही एक बुजुर्ग
व्यक्ति मुझे देखने आये। वे मेरे लिए भगवान ही साबित हुए। उन्होंने सारा हाल सुन कर
कहा-किसी डाक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं मैं एक दवा बताये देता हूं। उस दवा से
इसके शरीर का पीलापन मिट जायेगा देह में लाल रंगत आ जायेगी। इसे एक महीने तक महुए
की खीर खिलाइए। उसे बनाने का तरीका यह है कि महुओं को दूध में पकाइए, रात भर के
लिए ओस में रख दीजिए और फिर खिला दीजिए। अब से इसका खाना यही होगा।
उनकी सलाह के अनुसार मां ने
एक माह तक मुझे महुए की खीर खिलायी। इससे मेरी पेट की तकलीफ भी ठीक हो गयी और शरीर
में भी ताकत आ गयी। जो लोग एलोपैथी दवाओं के आदी हैं और पंचमुख से इसकी तारीफ करते
हैं उनके लिए मुझ पर आजमाया गया यह इलाज भले ही झूठा लगे लेकिन मैं कैसे भूल सकता
हूं कि इससे मेरी जिंदगी बच गयी।
लोग आयुर्वेदिक चिकित्सा की
खिल्ली उड़ाते हैं लेकिन सच यह है कि औषधि विज्ञान हो या शल्य चिकित्सा सदियों
पहले भी चिकित्सकों ने असाध्य साधन किया है। अगर चरक ने औषधियों पर शोध नहीं किया
होता तो शायद आज धड़ल्ले से हो रहा औषधि निर्माण भी नहीं हो पाता।
अपने ऊपर महुए की खीर के
चमत्कारी प्रभाव को देख कर मुझे राजस्थान के एक युवक की घटना याद आ गयी जो उसने
अपने फेसबुक में साझा की थी। वह दिल्ली में रहता था और वहीं उसे पेट दर्द की शिकायत
हुई। उसने कई डाक्टरों को दिखाया पर कोई फायदा नहीं हुआ तो एम्स (आल इंडिया
इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज) गया। वहां इलाज के पहले उसके हजारों रुपये के
परीक्षण कराये गये उसके बाद दवा दी गयी। उसने महीनों दवा खायी लेकिन कोई फायदा
नहीं हुआ। वह छुट्टी लेकर अपने घर राजस्थान लौटा और घर वालों को अपनी पेट की
बीमारी के बारे में बताया।
परिवार वालों ने उसे गांव के 80 साल उम्र वाले एक पुराने वैद्य जी को दिखाया। वह युवक एम्स में कराये हजारों रुपये के टेस्ट की रिपोर्ट अपने साथ ले गया था उसने वह रिपोर्ट वैद्य को दिखानी चाही पर वैद्य जी ने रोक दिया और उसकी नाड़ी परीक्षा कर के खुद उसकी तकलीफ बता दी। उस युवक को बहुत आश्चर्य हुआ कि जिस बीमारी को जानने के लिए उसने हजारों रुपये के टेस्ट कराये उसे वैद्य जी ने उसकी नाड़ी की गति से पहचान लिया। नाडी विज्ञान रोग निर्णय की प्राचीन विधा है जिसमें लंकापति रावण दक्ष था। महर्षि भारद्वाज ने नाडी ज्ञान तरंगिणी में लिखा है-दर्शनस्पर्शन प्रश्नै: परीक्षेताथ रोगिणीम। रोगांश्च साध्यान्नश्चत्य ततोभैषज्य माचरेत।। दर्शनान्नेत्रजिह्वादै:स्पर्शनान्नाडिकादित:।प्रश्नाहूतादिवचनेै: रोगाणां कारणआदिभि:।।अर्थात रोगी को देख कर उसे स्पर्श कर के उससे कुछ प्रश्न कर के व उसकी नाड़ी परीक्षा करके ही औषधि का निर्णय करना चाहिए।
नाड़ी देखने के बाद वैद्य जी ने उस युवक को बीस दिन की दवा दी और खाने की विधि बता दी।
युवक ने पूछा- वैद्य जी फिर कब आना होगा।
वैद्य जी ने कहा- कभी नहीं, इतना ही काफी है तुम्हारा रोग ठीक करने के लिए।
उस युवक ने अपने फेसबुक में लिखा कि वह जिस रोग के लिए इतना परेशान था वह वैद्य जी के चूर्ण ने हमेशा के लिए ठीक कर दिया।
इसलिए अपनी तपस्या और साधना से सिद्ध प्राचीन विद्याओं का आदर करना सीखना चाहिए क्योंकि जब एनीसथीसिया नहीं था तब भी सदियों पूर्व सुश्रुत ने बड़े बड़े आपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी तक की थी। (क्रमश:)
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