आत्मकथा-15
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग- (15)
चित्रकूट का विहंगम दृश्य |
मैं साथी में जिन गयाप्रसाद भैया के यहां रहता था उन्हें गांजा पीने की लत थी। गांजे के नशे में होते तो कोसों पैदल चले जाते। थकान महसूस होती तो फिर चिलम में गांजा रख कुछ कश लगाते और ‘बोल बम’ कह कर आगे बढ़ लेते।एक बार उनके ‘बोल बम’ के चक्कर में मैं भी खूब रगड़ गया। हुआ यह कि एक दिन गयाप्रसाद भैया ने कहा कि –चलो तुम्हें चित्रकूट के दर्शन करा लाते हैं जहां भगवान राम ने वनवास के लगभग बारह वर्ष बिताये थे।
मैने टालने के लिए कहा-भैया
गुरु जी नाराज हो जायेंगे।
उन्होंने कहा-गुरु जी को
छोड़ो लौट कर मैं उन्हें बता दूंगा कि तुमको मैं ले गया था।
इसके बाद मेरे पास खुद को
रोकने का और कोई कारण ही नही बचा ना चाहते हुए भी उनकी बात मान लेनी पड़ी। उस वक्त
चित्रकूट जाने के लिए आवागमन के कोई साधन नहीं थे हमें पैदल ही जाना था।
दूसरे दिन हम लोग सुबह-सुबह ही पैदल ही चित्रकूट के लिए निकल पड़े।
गयाप्रसाद भैया अपनी चिलम और गांजा ले जाना नहीं भूले।
हम लोग चलते रहे। जब
गयाप्रसाद भैया को थकान महसूस होने लगती वे आसपास कहीं से भी आग तलाश कर गांजे के
कश लगाते और ‘बोल बम’ कह कर आगे बढ़ जाते। थकान मुझे भी होती और मैं उनसे बोलता –भैया थोड़ा
सुस्ता लेते हैं।‘ वे ‘बोल बम’ कह कर
आगे बढ़ लेते। अब उनके चक्कर में पड़ गया था। पैर लड़खड़ाते हुए चलने के अलावा
मेरे पास कोई विकल्प नहीं था।
हम लोग दिन भर चलते रहे।
गयाप्रसाद भैया ने जब देखा कि मुझे चलने में दिक्कत हो रही है तो वे एक पेड़ के
नीचे सुस्ताने के लिए बैठ जाते।
हम चलते जा रहे थे पर रास्ता
है कि खत्म होने को ही नहीं आ रहा था। दूसरे दिन हम लोग दोपहर बाद चित्रकूट
पहुंचे। गयाप्रसाद भैया ने चित्रकूट के परिक्रमा पथ से पहले एक मिठाई की दूकान में
समान रखा और बोले- अभी चल कर आये हैं अभी ही परिक्रमा कर लेते हैं नहीं फिर आलस
में कल नहीं कर पायेंगे।
मैं चलने की स्थिति में नहीं
था लेकिन उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने मिठाई की दूकान से आग लेकर अपनी चिलम सजायी और गांजे की कश लगा कर बोले ‘बोल बम’ और
मुझे साथ चलने के लिए इशारा किया। हमने पता किया कि परिक्रमा कितनी लंबी है पता
चला पांच किलोमीटर है। हम साथी से तकरीबन 80 किलोमीटर का फासला पैदल तय कर के आये
थे उसके बाद और पांच किलोमीटर! कोई
चारा नहीं था, गयाप्रसाद भैया जब बोल बम बोल दें तो वह ब्रह्मवाक्य की तरह था।
यानी चलना है तो चलना है।
हम परिक्रमा पथ पर चल पड़े।
थकान के बावजूद यह सोच कर मन प्रफुल्लित हो रहा था कि हम उस भूमि पर चल रहे हैं
जहां शताब्दियों पूर्व राम, लक्ष्मण, सीता रहे थे।
इसी परिक्रमा पथ पर मुझे वह
पीलीकोठी संस्कृत विद्यालय भी दिखा जहां मेरे चाचा स्वामी कृष्णानंद ने संस्कृत की
शिक्षा पायी थी। चाचा की स्मृति से जुड़े उस शिक्षा संस्थान को मन ही मन प्रणाम
किया और आगे बढ़ चले। परिक्रमा पथ पर विविध मूर्तियों के दर्शन करते हुए भरत मिलाप
स्थल पहुंचे। यह वह जगह हैं जहां वनवास में राम के चित्रकूट में रहने के दौरान भरत
उनसे मिलने आये थे। कहते हैं कि परिक्रमा पथ के जिस स्थान पर राम और भरत का मिलाप
हुआ था वहां दोनो भ्राताओं का अटूट प्रेम और विरह भाव देख कर शिलाएं तक पिघल गयी
थीं और उन पर उन भाइयों के चरण चिह्न अंकित हो गये थे। यह चरण चिह्न अब भी देखे जा
सकते हैं।
परिक्रमा पथ पर चलते और विविध
मंदिरों में दर्शन करते-करते शाम ढल गयी। जब तक उस मिठाई की दूकान तक लौटे रात हो गयी थी।
दूकान में लौट कर हम लोगों ने
खाना खाया और मैं तो थका था इसलिए दूकान के मालिक से पूछ कर लेट गया। थका हुआ था
पर नयी जगह होने के कारण नींद नहीं आयी। गयाप्रसाद भैया को लगा कि मैं सो चुका
हूं।
मिठाई की उस दूकान का मालिक
ब्राह्मण था और गयाप्रसाद भैया से उनका पुराना परिचय था।
गयाप्रसाद भैया उन पंडित जी
से बातें कर रहे थे। कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद गयाप्रसाद भैया ने पंडित जी
से पूछा-अरे पंडित जी आपकी एक कन्या है ना, क्या हुआ उसका कहीं विवाह तया हुआ।
पंडित जी बोले-नहीं भैया जी
नहीं तय हुआ। उसी को लेकर तो बहुत चिंता है।
गयाप्रसाद भैया बोले-समजो
आपकी चिंता दूर हो गयी।
पंडित जी बोले-भैया वह कैसे?
गयाप्रसाद भैया ने कहा-अरे मेरे साथ जो यह लड़का आया है ना बहुत अच्छे
परिवार का है, हमारे यहां संस्कृत विद्यालय में पढ़ रहा है। यह लोग तिवारी हैं
आपको इस पर आपत्ति तो नहीं, आप हां करें तो इसे, इसके माता-पिता को मनाना मेरे
बायें हाथ का खेल है।
पंडित जी खुशी-खुशी बोले-अरे
भैया मुझे क्यों आपत्ति होने लगी। ब्राह्मण का लड़का देखने में भी ठीक-ठाक है,
संस्कृत पढ़ रहा है। मैं राजी हूं आप बात आगे बढ़ाओ।
मैं चुपचाप सारा कथोपकथन सुन
रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि सुबह होते ही यहां से खिसक लेना है वरना
गयाप्रसाद भैया तेरा विवाह करा कर छोड़ेंगे। मैं सनाका मारे चुपचाप लेटा तो रहा
लेकिन चिंता में मुझे नींद नहीं आयी। चिंता इस बात की कि मैं साथी आया हूं शिक्षा
पाने, अपने जीवन को ज्ञान से समृद्ध करने और भैयाजी चले हैं अभी से मुझे नून,तेल,
लकड़ी के फेर में डालने। मैंने मन ही मन तय किया सुबह नाश्ता आदि कर के ही निकल
पड़ना है वरना भैया जी पंडित जी मिल कर कहीं संबंध पक्का ही ना कर दें। अभी मेरी
उम्र ही क्या है जो मैं अपने उद्देश्य से भटक कर कोई ऐसा राह पकडूं जो अभी मेरा
काम्य नहीं है।
मैं रात भर इसी चिंता में
डूबा रहा कि गयाप्रसाद भैया को किसी ना किसी तरह वापस लौटने के राजी करना ही है।
*
दूसरे दिन सुबह होते ही हम लोगों ने नित्य कर्म से निवृत हो स्नान आदि
कर के नाश्ता किया। उसके बाद मैंने गयाप्रसाद भैया से वापस चलने का आग्रह किया।
गयाप्रसाद भैया बोले- अरे
तुम बहुत थक गये होगे आज और रुक कर आराम कर लेते हैं कल निकल चलेंगे।
मैं भांप गया कि भैया जी का
इरादा गलत है। यह हर हाल में मुझे बंधन में बांध कर ही यहां से वापस लौटेंगे।
मैंने झूठ बोल दिया-भैया गुरु
जी नाराज हो जायेंगे।उनसे बोले बगैर आये हैं और दो दिन बाद ही कोर्रम में रामलीला
होना है। आप तो जानते ही हैं कि मैं वहां की रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका कर रहा
हूं। मेरा पहुंचना जरूरी है। अभी हमें लौटना होगा।
मैंने गुरु जी के गुस्सा होने
और रामलीला में भाग लेने की बात कही तो भैया गयाप्रसाद जी ने रुकने की जिद छोड़
दी।
हम लोग साथी के लिए वापस लौट
पड़े। जहां दोपहर हुई वहां सड़क किनारे की एक दुकान में खाना खाया और फिर चलने
लगे। थके हुए थे इसलिए तेज नहीं चल पा रहे थे। गयाप्रसाद भैया जी के पास तो अपनी
बूटी थी उसका एक कश लगाते ही उनका सारा दर्द और थकान मिट जाती और वे आगे बढ़ लेते।
मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं था मुझे थकान के साथ ही अपने पैर खींचते हुए चलना था।
दूसरे दिन जब रात हुई और
बरसात भी होने लगी तो हमारी किस्मत अच्छी थी कि चांदनी रात थी हम चलने लगे। आसपास
दीपक की रोशनी दिखती तो मैं गयाप्रसाद भैया से कहता चलिए ना गांव में कहीं रात
बिता लेते हैं यह कुर्मियों के ही गांव होंगे। गयाप्रसाद भैया भी जाति से कुर्मी
थे। उन्होंने मेरी बात नहीं मानी और ‘बोल बम’ बोल कर आगे बढ़ते रहे। गनीमत यह थी
रास्ते में एक छोटी नदी पड़ती
थी। जब हम उसके करीब पहुंचे तो देखा कि नदी पुल के ऊपर से बह रही है। पुल के बीचों
बीच कोई लंबी सी चीज हिल-डुल रही थी। मुझे लगा कि यह कोई जीव है। मैंने गयाप्रसाद
भैया का ध्यान इस ओर खींचा तो उन्होंने कहा- कुछ नहीं कोई लकड़ी है जो कहीं से बह
कर आ गयी है।
अभी उन्होंने इतना कहा ही था
कि पानी में हमारे पैरों की छप-छप सुन कर वह जीव हिला-डुला और तेजी से तैरता हुआ
पुल पर से नदी की ओर चला गया। मैं समझ गया वह घड़ियाल था। मैंने भैया से कहा-भैया
लकड़ी नहीं वह घड़ियाल था।
जब हम साथी पहुंचे सुबह हो
रही थी। घर पहुंचे तो पाया कि मेरे पैर फूल चुके थे। गयाप्रसाद की पत्नी ने जब
मेरी यह हालत देखी तो बहुत गुस्सा हुई। उन्होंने अपने पति गयाप्रसाद को डांटते हुए
कहा-तुम तो गांजा के नशे में चले गये देखा इनको कितनी तकलीफ हो गयी। पैर फूल गये
हैं इनके। इतना कहने के बाद उन्होंने पानी गरम किया और उसमें नमक डाल कर मुझे देते
हुए कहा कि-आप इसमें थोड़ी देर पैर डाल कर सेंक लीजिए दर्द ठीक हो जायेगा। उस घर
में वही थीं जिनमें मां की मूर्ति दिखती थी। वे मेरा बहुत खयाल करती थीं। (क्रमश:)
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