आत्मकथा-52
दिन बीतते रहे रविवार हिंदी साप्ताहिक लोकप्रियता के शिखर चढ़ता रहा। हम उससे जुड़े रहे थे इसलिए ऐसा कह रहे हैं यह बात नहीं है। आप खुद पता कर देख सकते हैं कि उस वक्त रविवार की टक्कर की कोई पत्रिका नहीं थी। रविवार ने कभी सच को सच की तरह कहने में कोई झिझक नहीं दिखाई। ऐसे में अक्सर किसी ना किसी प्रदेश से उस पर मुकदमा होता ही रहता था। आनंद बाजार प्रकाशन में इससे निपटने के लिए एक लीगल डिपार्टमेंट था ऐसे मुकदमे वही संभालता था जिसके प्रमुख थे विजित बसु जो हमारी पत्रिका रविवार के प्रिंटर भी थे।
कुछ दिन और बीते,आनंद बाजार
प्रकाशन से एक बच्चों की बंगला पत्रिका ‘आनंद मेला’ निकलती थी। उसे हिंदी में ‘मेला’ के नाम से निकालने
की योजना बनी तो उसके संपादक के रूप में योगेंद्र कुमार लल्ला जी को बुलाया गया।
उनके साथ कथाकार सिद्धेश भी जुड़े और हरिनारायण सिंह भी। कुछ दिन बाद ही मेला निकलने
लगी और बाल पाठकों में लोकप्रिय हुई।
यही समय था जब सिद्धेश जी ने
हिंदी भाषा के प्रख्यात कथाकारों की कहानियां बांग्ला में अनुदित करा कर आनंद
बाजार प्रकाशन की बांग्ला की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘देश’ में प्रकाशित
करवाना प्रारंभ किया। इस क्रम में मेरा भी नंबर आया और मेरे हिस्से आयी प्रसिद्ध
राजस्थानी कथाकार रामेश्वर दयाल श्रीमाली की कहानी ‘यशोदा’। मैंने उसका बांग्ला अनुवाद किया और वह ‘देश’ पत्रिका में
प्रकाशित हुई। मेरे लिए सबसे हर्ष की बात यह थी कि बांग्ला पत्रिका ‘देश’ के स्वनाम धन्य
संपादक सागरमय घोष ने पीठ ठोंक कर प्रशंसा की और कहा-तुम हिंदी भाषी हो पर
तुम्हारे लिखे पर मुझे कलम नहीं चलानी पड़ी।
*
आगे बढ़ने से पहले यह बताता चलूं कि हमारे रविवार में श्रीलाल शुक्ल
का ‘राग दरबारी’ उपन्यास, शरद जोशी
का व्यंग्य स्तंभ ‘नावक के तीर’
नियमित छपता था। उसी वक्त हम लोगों की पत्रिका के लिए कोल इंडिया की
ओर से कई पृष्ठों का विज्ञापन मिला। उसका विज्ञापन मैटेरियल लाने का भार सुरेंद्र
प्रताप सिंह ने मुझ पर और हरिनारायण सिंह पर सौंपा। हम दोनों गये और वहां के प्रमुख कृष्ण चंद्र
चौधरी जी से बात की। उन्होंने सब कुछ समझा कर हमें विज्ञापन की सामग्री सौंपी फिर
हम लोगों से बोले-अरे भाई अपने संपादक जी से बोलिए हमें भी कुछ लिखने का अवसर दें।
हम लोगों ने कहा-आप अपना लिखा लेकर आइए हमारे संपादक जी से मिलिए वे
अवश्य आपका लिखा छापेंगे।
कुछ दिन बाद ही कृष्णचंद्र चौधरी हमारे रविवार के प्रफुल्ल चंद्र
सरकार स्ट्रीट कोलकाता स्थित कार्यालय में आये।
वे सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से थोड़ी देर बात करने के बाद चले गये।
जीत् समय वे अपना एक मैटर देते गये। उनके जाने के बाद सुंरेंद्र जी चौधरी जी का
लिखा मैटर पढ़ने लगे। वे थोड़ी पढ़ते फिर तेजी से ठहाका लगाते पढ़ते फिर ठहाका।
थोड़ी देर बाद उनकी हंसी थमी तो वे बोले –भाई इस आदमी के तो जैसे
तीसरी आंख है। क्या है और क्या देख लिया।
यह उन दिनों की बात है जब कांग्रेस का चुनाव चिह्न गाय और बछ़ड़ा था।
चौधरी साहब ने लिखा था कि कुछ कांग्रेस गाय और बछड़ा को देख कर खुसफुस कर रहे
थे-अरे गाय तो यह रही बछड़ा कहां है। किसी कांग्रेसी नेता ने उस वक्त के चर्चित
युवा नेता की ओर इशारा कर दिया।
एसपी (हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह) ने कहा हम छापेंगे लेकिन इस
स्तंभ का नाम क्या रखें पहले से ही हम शरद जोशी जी का ‘नावक के तीर’ छाप रहे हैं।
मैंने कहा –भैया आपने ही तो
कहा-अगले के तो जैसे तीसरी आंख है। तीसरी आंख ही रख लीजिए।
स्तंभ का नाम ‘तीसरी आंख’ रख दिया गया। यह
रविवार के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित होता था। कुछ महीने में ही यह स्तंभ बहुत
लोकप्रिय हो गया।
हम लोगों को इसका पता तब चला जब रविवार में हमने एक फार्म प्रकाशित
किया ’रविवार और आप’। इसका उद्देश्य यह
जानना था कि पाठकों को रविवार में क्या पसंद आता है और उसके बारे में उनकी क्या
राय है।
आप यकीन नहीं करेंगे कि उस वक्त शत प्रतिशत पाठकों की यही राय थी कि
हम रविवार को आखिरी पृष्ठ यानी ‘तीसरी आंख’ स्तंभ से पढ़ना शुरू करते हैं।
कृष्णचंद्र चौधरी सरकारी नौकरी मे थे और अपने व्यंग्य बाण तीसरी आंख
से वे सरकार पर भी चलाते थे। इस पर आपत्ति आयी तो फिर उन्होंने अपना लेखकीय नाम
बदल कर किट्टू कर लिया और इसी नाम से ‘तीसरी आंख’ स्तंभ लिखते रहे।
एक बार हमारे संपादक सुरेंद्र जी ने कृष्णचंद्र चौधरी को जो अब किट्टू
हो गये थे अपने कार्यालय बुलाया। कुछ समय में ही बिहार में चुनाव होने वाले थे।
सुरेंद्र जी ने किट्टू जी से कहा-आपको एक बड़ा काम सौंप रहा हूं बिहार में चुनाव
होनेवाले हैं आपको बिहार का कवरेज करना है।
किट्टू जी एसपी से अनुनय करते से बोले-अरे सुरेंद्र जी क्यों हमें
कांटों में घसीटना चाह रहे हैं। बस थोड़ा-मोड़ा लिख लेते हैं, रिपोर्टिंग हमारे बल
की नहीं।
सुरेंद्र जी ने कहा- आपसे
रिपोर्टिंग कौन करा रहा है, हम तो चाहते हैं कि आप बिहार घूम आयें और वहां जो
देखें वह लिख दें। हम उसे ‘बिहारी की
डायरी’ में छाप देंगे।
इस पर किट्टू मान गये और
उन्होंने बिहार घूमा खूब घूमा और उनकी आंखों से देखे गये बिहार को रविवार ने अपने
पाठकों को दिखाया। लोगों ने वह बिहार डायरी बार-बार पढ़ी। एसपी भी किट्टू की कलम
के कायल हो गये। एक व्यंग्यकार ने एक प्रदेश की बदहाली का वह कच्चा चिट्ठा खोला कि
खुद बिहारवासी दंग रह गये। सभी चौक गये बिहार की सच्ची तस्वीर देख कर। कृष्ण चंद्र
चौधरी थे तो दक्षिण के लेकिन फर्राटे से भोजपुरी बोलते थे।
बाद के दिनों में वे सन्मार्ग
हिंदी दैनिक में भी स्तंभ लिखने लगे थे।
इसके कुछ अरसे बाद वे अपने बेटे के पास मुंबई चले गये और वहीं उन्होंने
अंतिम सांस ली।
*
उदयन शर्मा दिल्ली से कुतुबनामा स्तंभ लिखते थे जो एक तरह से दिल्ली
डायरी थी। दिल्ली की राजनीतिक गतिविधियों पर आधारित थी यह। उदयन जी बड़े हिम्मत थी
एक बार उन्होंने तय किया कि बीहड़ में जाकर फूलन देवी से भेंट करनी है। उन पर
स्टोरी बनानी है। उन्होंने लेखक कल्याण चटर्जी को साथ लिया और बीहड़-बीहड़ फूलन
देवी की तलाश करने लगे। अंतत: उन्हें सफलता मिली।
उनसे भेंट के वक्त के दृश्य के बारे में वे लिखते हैं-नार्थ स्टार के जूते हम
दोनों के पैरों में थे और वही फूलन देवी के पैरों में भी थे। फूलन की स्टोरी तो कर
ली अब समस्या यह थी कि कवर पर फोटो किसकी दी जाये। अब उदयन जी और कल्याण बनर्जी के
दिमाग में आया क्यों ना फूलन के गांव बहमई चला जाये। वहां जाकर उन लोगों ने फूलन
की बहन को देखा जिसका चेहरा थोड़ा अपनी बहन की तरह था। बस फिर क्या था आर्टिस्ट की
मदद से फूलन की बहन की पेंटिंग बनायी गयी और वही रविवार के कवर पर छपी। कहते हैं
जब किसी ने फूलन को रविवार की कापी दिखायी तो उसने हंसते हुए कहा-यह मैं थोड़े ही
हूं यह तो मेरी बहन की फोटो लगती है।
*
दफ्तर से बाहर सुरेंद्र प्रताप जी का एक अनोखा रूप हमने उनके गृहनगर
श्यामनगर के गारुलिया अंचल में देखा। गारुलिया में एसपी अपने बड़े भाई नरेंद्र प्रताप सिंह, छोटे भाई
सत्येंद्र प्रताप सिंह और परिवार के बाकी सदस्यों के साथ रहते थे। जब से उन्होंने
आनंद बाजार प्रकाशन में काम करना प्रारंभ किया वे कोलकाता के पाम एवेन्यू स्थित एक
फ्लैट में रहते थे। गाहे-बगाहे वे गारुलिया भी जाते रहते थे। गारुलिया में हमारे
परिचित शिवशंकरलाल श्रीवास्तव का घर है। एक बार उन्होंने सपरिवार अपने यहां
बुलाया। हम वहां पहुंचे तो भैया ने कहा-यहीं कहीं सुरेंद्र जी का घर है चलो देखें
कहीं वे घर ना आये हों। संयोग से सुरेंद्र सिंह घर में मिल गये। साथ में उनके भैया
नरेंद्र प्रताप भी थे। वे मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ से उनके जरिए
परिचित थे और उन दिनों उनके द्वारा लिखे जाने वाले लस्टम-पस्टम व व्यंग्य कविताएं
पढ़ते थे।
हम लोग अभी बातें कर ही रहे थे कि तभी एसपी बोले- चलिए आपको फुटबाल
मैच दिखाते हैं।
हम उनके पीछे-पीछे हुगली नदी (जो गंगा है जिसकी एक शाखा बांग्लादेश की
तरफ गयी है और पद्मा कहाती है) के किनारे एक मैदान में गये। बरसात के दिन थे चारों
ओर गड्ढ़े थे जिन पर पानी भरा था। आनन-फानन शुरु हुआ फुटबाल का खेल। एसपी को हमने
पहले बार इस तरह उत्साह से फुटबाल खेलते देखा था। कुछ देर में शाम होने को आयी और
खेल खत्म हुआ। तब तक सभी कीचड़ से बुरी तरह नहा गये थे। एसपी का भी चेहरा पहचान
में नहीं आ रहे थे। सभी हुगली नदी में नहाने चले गये और हम लौट पड़े कोलकाता की
ट्रेन पक़ड़ने के लिए। (क्रमश:)
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