वे परिवार से बहुत स्नेह करते थे
भाग (19)
राजेश
त्रिपाठी
डॉ. रुक्म त्रिपाठी की जीवनी को आगे
बढ़ाने से पहले यह बताते चलें कि उनकी कोई संतान नहीं थी लेकिन वे पूरी तरह
पारिवारिक थे और परिवार के हर सदस्य से स्नेह करते थे। स्नेह ऐसा कि अगर कभी किसी
को बाहर से वापस लौटने में देर हो जाये तो वे तब तक खाना नहीं खाते थे जब तक की वह
वापस ना आ जाये। उनके छोटे से परिवार में यह ब्लागर, ब्लागर की पत्नी और उसके तीन
बच्चे उनकी जान बने रहे। इनमें से किसी की तबीयत खराब हो तो वे बेचैन हो जाते और
जब तक वह सही ना हो जाता परेशान रहते। बच्चों के प्रति इतना स्नेह की उनके कुछ
मांगने भर की देर होती, कहीं से भी खोज कर ला कर देते थे। उसके बाद उनके चेहरे की
मुसकान देख कर उनका चेहरा भी खिल जाता था। बच्चों ने भी कभी अपने प्यारे अउआ
(बच्चे उनको इसी नाम से पुकारते थे जो ताऊ के लिए उनका अपना गढ़ा शब्द था) यह
महसूस नहीं होने दिया कि उनके अपनी कोई संतान नहीं है। बच्चे अक्सर उनके साथ उनकी
थाली में खाने बैठ जाते तो उनकी मां डांटती कि अलग खाओ, अउआ को खाने दो। दरअसल
होता यह था कि बच्चे थाली में जो भी अच्छा देखते वह अउआ के पहले गप कर जाते। यह
उनकी मां को अच्छा नहीं लगता था और वह उनको डांटती तो रुक्म जी तुरत मना करते-‘मत डांटो बहू, इन्हें खाने दो, अच्छा लगता है। अरे
हमारा जीवन इन्हीं की खुशी के लिए तो है। बच्चे हैं देखो कितने प्यार से खा रहे
हैं। इन्हें देख कर सचमुच लगता है कि बच्चे में भगवान होते हैं। कितने निश्छल,
निष्कपट और निर्मल हैं यह। ये खुश रहें तो घर कितना सुंदर लगता है।‘ जाहिर है उसके बाद उनकी बहु वंदना निरुत्तर हो
जाती। ब्लागर भाई के बच्चे अवधेश त्रिपाठी, अनुराग त्रिपाठी और बेटी अनामिका त्रिपाठी को हमेशा अउआ जी का भरपूर प्यार मिला।
जब तक वे
रहे इस ब्लागर को घर-गृहस्थी की कभी फिक्र नहीं रही। भैया ने कभी दूकान-बाजार जाने
नहीं दिया। घर-संसार का सारा भार वे संभाले रहे और मुझे नून-तेल के चक्कर में नहीं
पड़ने दिया।
ब्लागर की
पत्नी कभी कहती-‘अरे
दादा को परेशान क्यों करते हैं, कभी-कभी आप भी बाजार हो आया करो।‘
इस पर रुक्म जी मुसकरा कर कहते –‘रहने दो बहू! यह तो न भाव पूछेगा ना चुन कर सब्जियां लायेगा। दूकानदार
जो भी देगा समेट लायेगा और वह भी बिना मोल-भाव किये।`
इस पर इस ब्लागर का जवाब होता-‘अरे मुझसे मोल-भाव नहीं किया जाता। आखिर दूकानदार जो बोलता
होगा उचित ही बोलता होगा, उससे कम पैसों में देने के लिए कहने से मुझे संकोच होता
है।`
वे तुरत बोलते-‘देख
लिया बहू ऐसे ही लोग ठगे जाते हैं। इनको भूल कर बाजार-वाजार मत भेजना।`
बात यहीं खत्म हो जाती और वे हमेशा की तरह सौदा-सुलफ करने जाते रहते।
पास-पड़ोस के लोग भी मानते थे कि वे जिस तरह से चुन-चुन कर चीजें और सब्जियां लाते
हैं शायद हो कोई लाता हो।
बात उनके
परिवार के हर व्यक्ति के प्रति स्नेह और फिक्र की हो रही थी तो एक घटना का जिक्र
करना बहुत प्रासंगिक लगता है। घटना तब की
है जब यह ब्लागर आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार` में काम करता था। भैया रुक्म तब सन्मार्ग में थे और
साहित्य संपादन के साथ ही सिनेमा पृष्ठ भी
देखते थे। उनके पास अक्सर फिल्मों के प्रेस शो, मुंबई के कलाकारों के प्रोग्राम
वगैरह के ‘पास’ व कार्ड आते थे। भैया तो इनमें कभी-कभार जा पाते
थे लेकिन इस ब्लागर को अक्सर उनके कार्ड या ‘पास’ पर
जाने का मौका मिल जाता था। इस बात का मौखिक आदेश सन्मार्ग के मालिक-संपादक
रामअवतार गुप्त भी रुक्म जी को दे चुके थे। उनका कहना था कि –‘भाई राजेश
फिल्मों के जानकार हैं, अच्छी रिपोर्ट करते हैं, मैंने देखा है। आप ना जा
पायें तो इन्हें ही भेज दिया करें। कम से कम रिपोर्ट तो सही होगी।` दरअसल हुआ यह था कि सन्मार्ग के ही किसी पत्रकार
को एक बार रुक्म जी ने किसी फिल्म के प्रेस शो का कार्ड दे दिया था। उन पत्रकार ने
फिल्म तो देख ली लेकिन फिल्म के कलाकारों को पहचान नहीं पाये और नाम कुछ का कुछ
लिख दिया इस गलती पर लोगों ने फोन करके ध्यान दिलाया। इसी वजह से गुप्त जी के आदेश
पर यह ब्लागर सन्मार्ग के लिए अक्सर प्रेस शो, कलाकारों से इंटरव्यू और मुंबई के
कलाकारों के कार्यक्रम आदि कवर करने लगा था। इसी क्रम में गांधी के सर्जक सर
रिचर्ड एटेनबरो का इंटरव्यू भी इस ब्लागर ने किया था जो उसकी जिंदगी का बेहद ही यादगार
अनुभव था। एटेनबरो सत्यजित राय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की शूंटिग में भाग लेने कोलकाता आये थे और फिल्म के निर्माता
सुरेश जिंदल ने उनको पत्रकारों से मिलवाया था। इस ब्लागर की आनंदबाजार में सुबह 10
बजे से शाम 5 बजे तक ड्यूटी थी उसके बाद कोई कार्यक्रम होता तो यह सन्मार्ग के लिए
कवर कर लेता था।
ऐसे ही एक
शाम फिल्मी दुनिया के मशहूर पार्श्वगायक महेंद्र कपूर के गायन का कार्यक्रम
कोलकाता के कलामंदिर सभागार में था। पहले तो कार्यक्रम ही देर से शुरू हुआ फिर महेंद्र
कपूर के गायन से ऐसा समां बंधा कि इस ब्लागर को भी पता नहीं चला कि कब रात के 12
बज गये। सभागार के धुंधलके में किसी तरह से घड़ी पर निगाह डाली तो चौंक गया।12
बजने का मतलब है कि उधर से कांकुड़गाछी जाने के लिए बस या तो मिलेगी नहीं या फिर
देर से मिलेगी। हुआ भी वही यह ब्लागर कलामंदिर
से बाहर आकर सड़क पर खड़े होकर बस का इंतजार करने लगा। तकरीबन आधे घंटे तक
बस नहीं मिली जो आने-जाने वाली टैक्सियों की टोह ली लेकिन उनके ड्राइवर भी कांकुड़गाछी का नाम
सुनते ही ऐसे नाक-भौं चिढ़ाने लगे जैसे उन्हें होनोलूलू चलने को कहा जा रहा हो।
काफी देर
के इंतजार के बाद किसी तरह से एक बस मिली जिसने इस ब्लागर को मानिकतला के मोड़ पर
उतार दिया। वहां से एक शटल बस ने जब कांकुड़गाछी चौराहे तक पहुंचाया तो बस से उतर
कर इस ब्लागर ने देखा कि उसके भैया रुक्म जी कुर्ता, लुंगी पहने हुए बड़ी व्यग्रता
से इधर-उधर चहलकदमी कर रहे हैं और हर रुकने वाली बस पर नजर गड़ा देते हैं। उन्हें
बस स्टैंड पर पाकर इस ब्लागर को पता चल गया कि उसके देर तक घर ना लौटने की चिंता
ही उनको यहां तक खींच लायी।
ब्लागर
उनके पास पहुंचा और पूछा-‘भैया
आप यहां?`
`हां, क्या करूं तुम्हें देर होते देखा तो घर में
रहा नहीं गया। इतनी देर क्यों कर दी?`
‘क्या करूं , प्रोग्राम बहुत देर तक चलता रहा फिर बस देर से मिली।`
‘अरे तुम घर नहीं लौटे तो मुझसे खाना नहीं खाया गया, चलो जल्दी चलो, तुम्हारी
भाभी भी भूखी बैठी है। वह मुझ पर गुस्सा हो रही है कि मैंने तुम्हें ऐसी जगह क्यों
भेज दिया जहां से तुमको आने में देर हो रही है।`
‘अब से यह ध्यान रखना कि जिस प्रोग्राम में भी जाओ, उसका पूरा विवरण ले लो और
थोड़ी देर रह कर चले आओ। रिपोर्टिंग के लिए यह जरूरी थोडे है कि प्रोग्राम रात भर
चले तो वहां रात भर रहा जाये।`
इस ब्लागर ने उनकी हां में हां मिला दी। उसे भी अपनी गलती पर पछतावा हुआ जिसके
चलते उनके भैया को देर तक न सिर्फ उसका इंतजार करना पड़ा अपितु भूखा भी रहना पड़ा।
उन्हें पूरे परिवार के साथ बैठ कर खाना अच्छा लगता था। कहीं भी खाने वगैरह की कोई
अच्छी चीज दीखती तो वे परिवार के लिए जरूर
लाते पहले उन्हें खिलाते फिर खुद खाते। सन्मार्ग में भी दीपावली में लक्ष्मी पूजा
और रामनवमी के दिन समाचारपत्र के स्थापना दिवस पर मिठाई का पैकेट मिलता तो उसे
खोले बगैर घर ले आते। कहते –‘कुछ लोग तो वहां पैकेट साफ कर देते हैं, मुझसे परिवार के बिना खाया नहीं जाता।`
रुक्म जी बचपन से मामा मंगल प्रसाद त्रिपाठी के
साथ ज्यादा रहे इसलिए उन पर उनका गहरा असर पड़ा। मामा ने दुनिया देखी थी और उसके
ऊंच-नीच का उन्हें अच्छा ज्ञान था और वे रुक्म जी को भी जीवन का पाठ पढ़ाया करते
थे। मंगल प्रसाद बेहद साहसी थे और छह फुट से लंबे प्रभावी व्यक्तित्व के धनी थे।
वे बांदा में थे तब अक्सर रुक्म जी को यह बताते रहते थे कि आदमी को हमेशा आगे
बढ़ने की बात सोचनी चाहिए। छोटी-सी किसी असफलता से हिम्मत हार जाने वाले कभी अपनी
मनचाही मंजिल तक नहीं पहुंचते। दुनिया में ऐसे बहुत कम ही लोग हैं जिन्हें बिना
किसी मेहनत के एक बार में ही सफलता मिल गयी हो।
बांदा के वामदेवेश्वर पर्वत के वे संगीत निकालने वाले पत्थर |
बांदा
(उत्तर प्रदेश का एक जनपद) जिसके बारे में कहा जाता है कि यह कभी सप्तऋषियों में
से एक वामदेव ऋषि की तपस्थली थी। शहर के एक किनारे आज भी वह बांबेश्वर पर्वत (जो
पहले वामदेवेश्वर पर्वत के नाम से जाना जाता था) है जिसमें वामदेव तपस्या करते थे।
वहां प्राचीन काल का शिव मंदिर आज भी है जिसकी स्थापना स्वयं वामदेव ऋषि ने की थी।
कहते हैं कि अपने वनवास की अवधि में चित्रकूट में प्रवास के समय स्वयं भगवान राम
वामदेव ऋषि से मिलने इस पर्वत पर आये थे और उन्होंने शिव की पूजा की थी। बांदा
नगरी को वामदेव ने ही बसाया था जहां पहले उनके शिष्य रहा करते थे। कालांतर में
वामदेव की यह तपस्थली वामदेव से बिगड़ते-बिगड़ते बांदा हो गयी। वामदेवेश्वर पर्वत
भी बांबेश्वर हो गया। इस पर्वत की एक खास विशेषता है जो इसे अद्भुत बनाती है। इसके
पत्थरों को आपस में टकराने से इससे मधुर संगीत निकलता है। रुक्म जी जब मामा के साथ
बांदा में थे, वहां केन नदी में स्नान कर बांबेश्वर में अक्सर पूजा करते थे। वही
केन नदी जिसमें एक बार रुक्म जी तैरना ना जानने के कारण डूबते बचे थे। केन पर
भूरागढ़ के किले पर नावों को जोड़ कर बनाये गये अस्थायी पुल के केबल में वे अटक
गये थे और तैरना जानने वाले मामा जी ने उनको बचा लिया।
मामा जी में
साहसी होने के साथ कई गुण थे। वे अच्छे किस्सागो (कहानी कहने वाले) थे। यही वजह है
कि बच्चे से लेकर बूढ़े तक उनकी जिंदगी
के आखिरी पड़ाव तक उनको घेरे रहते और
बोलते-‘बाबा, कुछ सुनाइए ना।‘ बाबा भी उनका दिल ना तोड़ते कभी कहानियां सुनाते
तो कभी कैनाल सेक्शन में अंग्रेज अफसरों के साथ काम करने के अपने अनुभव। वे कवित्त
भी तैयार कर लेते थे। रुक्म जी को बचपन में उनसे कहानियां और कविताएं सुन कर शायद लिखने
की प्रेरणा मिली। मामा अक्सर उनसे कहा करते थे-‘आदमी को कभी किसी से हार नहीं माननी चाहिए। कोशिश
करते रहना चाहिए।‘ इस
कथन को सत्यापित करने के लिए रुक्म जी अक्सर मामा से सुनी एक सच्ची घटना सुनाते
थे। वे बताते थे कि जब उनके मामा बबेरू तहसील के गांव जुगरेहली में रहते थे उन
दिनों की घटना है। एक बार गांव जुगरेहली में किसी दूसरे गांव का एक कवि कविता की
लड़ाई लड़ने के इरादे से आया। उसने अपना उद्देश्य गांव के प्रधान दुबे जी को बताया।
दुबे जी सोचने लगे कि यह सीधे-सादे किसानों का गांव हैं जहां लोग दिन भर खेतों में
जी भर खटते हैं और रात को जो चादर तान कर सोते हैं तो सुबह ही उनकी आंख खुलती है।
उनका क्या कविता-कहानी से रिश्ता, कभी-कभार किसी से किस्सा तोता-मैना सुन लेते तो
कभी अगर कोई आल्हा (महोबा के क्षत्रियों आल्हा-ऊदल की जगनिक की लिखी शौर्य
गाथा) गाने आते तो प्रधान के द्वार पर महफिल जमती। पूरे गांव को न्यौता दिया जाता
सैरा (बुंदेलखंड में आल्हा को गांवों में इसी नाम से जाना जाता है) सुनने आने के
लिए। अब भला कवित्त का बहादुर कौन है जिसे इस दूसरे गांव से आये कवित्त लडाकू के
सामने बैठाया जाये।
प्रधान
दुबे जी काफी अरसे तक ऊहापोह में रहे फिर उनको मंगल प्रसाद त्रिपाठी यानी रुक्म जी
के मामा की याद आयी। वे शहर बांदा में रह चुके थे, गांव में भी लोगों के बीच
कवित्त और कहानी कहने के लिए मशहूर थे। प्रधान दुबे जी ने तुरत अपना एक आदमी भेज कर उनको बुला लिया। जाड़े की रात थी, प्रधान जी
के घर के सामने के आंगन में अलाव जल रहा था। गांव भर के लोगों को बुलाया गया जो
अलाव के इर्द-गिर्द जुट गये। मंगल प्रसाद त्रिपाठी और उनका प्रतिद्वंद्वी कवि एक
चटाई में आमने-सामने बैठ गये। इसके बाद प्रभु की वंदना कर कवित्त की लड़ाई शुरू हो
गयी। एक कवित्त मंगल प्रसाद त्रिपाठी कहते तो उसके जवाब में उनका प्रतिद्वंद्वी एक
कवित्त सुनाता। यह सिलसिला देर तक चलता रहा। पूर्व में ऊषाकाल की सुरमई रेख उभरने
को आयी लेकिन कवित्त की लड़ाई जारी थी। जब यह सिलसिला लंबा खिंचता दिखा तो मंगल
प्रसाद त्रिपाठी ने एक कवित्त सुनाया जिसका आशय था कि –अभी मेरे हजारों कवित्त
खेतों की रखवाली कर रहे हैं, सैकड़ों गायों की देखभाल कर रहे हैं और हजारों ऐसे
हैं जिन्हें मैंने याद ही नहीं किया। ये सारी बातें उन्होंने कवित्त में ही कही।
उनका यह कवित्त सुनने के बाद बाहर से आये उस कवि ने मंगल प्रसाद त्रिपाठी के चरण
स्पर्श किये और कहा-‘अरे
पंडित जी, आपके पास अभी इतने कवित्त बाकी हैं। मेरा तो यही आखिरी था। आप जीते, मैं
हारा। बहुत मुकाबले जीते पर पहली बार एक ऐसा कवि मिला जिसने मुझे हरा दिया।‘ सुबह हुई तो वह कवि वापस अपने गांव लौट गया। इसके
बाद प्रधान दुबे जी ने मंगल प्रसाद त्रिपाठी से पूछा-‘अरे त्रिपाठी! इतने हजारों कवित्त हैं तुम्हारे पास?’ मंगल प्रसाद त्रिपाठी ने जवाब दिया-‘अरे कहां, मेरा भी वही आखिरी कवित्त था। सोचा हार
क्या मानी जाये, कोई जुगत भिड़ाते हैं और उसे डरवाने के लिए मैंने यह कवित्त रच
डाला।‘ प्रधान दुबे जी
मुसकराये। मंगल प्रसाद की बुद्धि का वे
लोहा मान गये। उनकी इस बौद्धिक कुशलता और हाजिरजवाबी का काफी असर रुक्म जी पर भी
पड़ा। यही बात है कि वे इस ब्लागर व परिवार के दूसरे सदस्यों को अपने मामा की
कहानियां सुना कर प्रेरित करते थे कि जिंदगी को साहस के साथ और कुशलता से जीना ही
सही है। जिसने हिम्मत का साथ छोड़ दिया समझिए सफलता ने भी उससे सदा के लिए मुंह
मोड़ लिया।(शेष अगले अंक में)
No comments:
Post a Comment