Saturday, December 4, 2021

जब मैं तेज उफनती नदी में बह गया

 आत्मकथा-14

कुछ भूल गया कुछ याद रहा

 राजेश त्रिपाठी

(भाग 14)

आत्मकथा

गांव साथी में मेरी शिक्षा चल रही थी। आचार्य जी अब वहां एक तरह से अभिभावक की भूमिका निभाने लगे थे। वे सदा पूछते रहते –तुम्हें अगर तुम्हारे परिचितों के यहां रहने में कोई परेशानी हो तो तुम यहां रह सकते हो। तुम्हारे कई सहपाठी रह रहे हैं हम व्यवस्था करा देंगे।

 मैंने जवाब दिया –नहीं गुरु जी कोई परेशानी नहीं, सब ठीक है। अगर परेशानी हुई तो आपसे ही कहूंगा मैं यहां किसी और को तो जानता नहीं।

  हम लोगों में अभी बात हो ही रही थी कि वहां एक अजनबी आया और उसने गुरु जी को प्रणाम किया और उनके पास ही बैठ गया।

  गुरु जी उसको पहचानते थे वह उनके परिचितों में था।

अचानक गुरु जी ने उससे कहा-देखो यही लड़का है जिसके बारे में मैंने तुमसे बात की है। इसका हिंदी का उच्चारण भी अच्छा है यह उस भूमिका के लिए ठीक रहेगा।

  मैं हक्का-बक्का सुन रहा था कि पता नहीं गुरु जी मेरे लिए किस भूमिका की बात कर रहे हैं। गुरु थे उनसे कोई प्रश्न करने का साहस नहीं हो  रहा था।

  अचानक गुरु जी मुझसे बोले-यह बगल के गांव की रामलीला कमेटी के मैनेजर हैं। यह मेरे पुराने परिचित हैं इनको अपनी रामलीला के लिए लक्ष्मण की भूमिका के लिए एक लड़के की आवश्यकता है।इन्होंने मुझसे बात की थी तो मैंने इनको तुम्हारा नाम सुझाया था उसीलिए यह तुम्हें देखने आये हैं।

   मैं बोला-गुरु जी मैं तो अभिनय का अ तक नहीं जानता।

 गुरु जी बोले-यह तुम्हारी चिंता नहीं है। यह सब सिखा लेंगे। ऐसा करो कि तुम आज इनके साथ चले जाओ। वहां कुछ दिन रह कर अभिनय का अभ्यास आदि कर लो फिर वापस आकर अपना अध्ययन प्रारंभ कर देना।

  गुरु जी से मैंने कहा-इनको रुकने को कहिए, मैं जहां रहता हूं उन्हें तो यह सूचना दे दूं कि मैं गुरु जी के कहने पर कुछ दिन के लिए साथी गांव से बाहर जा रहा हूं ।

  मैं गया और घर में गयाप्रसाद भैया से सारी बातें बतायीं पहले तो वह राजी नहीं हुए पर जब मैंने बताया कि गुरु जी का आदेश है तो वे राजी हो गये। मैंने अपने कुछ कपड़े लिये और गुरु जी के परिचित व्यक्ति के साथ चल दिया। जहां तक याद आ रहा है उस गांव का नाम कोर्रम था।

 कोर्रम में पहुंच कर दूसरे दिन से ही मेरा अभिनय का प्रशिक्षण शुरू हो गया। मुझे पता नहीं था कि दो-चार दिन बाद ही वहां रामलीला का मंचन भी शुरू हो जायेगा। वहां जाकर पता चला था कि वहां की रामलीला पूरी तहसील में प्रसिद्ध थी।

  जो सज्जन मुझे गुरु जी से लाये थे उनसे मैंने एक दिन पूछा- अच्छा राम, लक्ष्मण की भूमिका के लिए केवल ब्राह्मणों को ही क्यों लिया जाता है।

उन्होंने कहा-केवल राम, लक्ष्मण ही नहीं सीता और रावण की भूमिका भी ब्राह्मण ही करते हैं।

  इसका कारण उन्होंने बताया था कि रामलीला के दौरान राम, लक्ष्मण, सीता की आरती लोग उतारते हैं, चरण स्पर्श करते हैं इसलिए इस भूमिका के लिए ब्राह्मण ही रखे जाते हैं।

 दूसरे दिन से रामलीला शुरू हो गयी। पहला दृश्य विश्वमित्र के साथ राम, लक्ष्मण के उनके यज्ञ की रक्षा के लिए वन से गुजरने का था। मंच पर वन का दृश्य दरसाने वाले परदे लगाये गये थे। मैं राम और विश्वमित्र बने पात्रों के साथ धनुष बाण लिये चल रहा था। हम लोगों को यह भी सिखाया गया था कि राम, लक्ष्मण को मंच पर कैसे चलना होता है।

 हम मंच पर इस तरह चल रहे थे जैसे प्रतीत हो कि हम वन में कहीं दूर जा रहे हैं। मंच पर मेरा पहला दिन था। कहीं मुझसे कुछ गलती ना हो जाये मेरा ध्यान इसी में था कि अचानक परदे के पीछे से भयानक आवाज करती ताड़का आयी और मैं भय से झिझक गया।

  तभी मेरे साथ चल रहे राम बने पात्र ने धीरे से कहा-तुम लक्ष्मण हो, डरो नहीं।

 राम की बात सुन मैं तन कर खड़ा हो गया। किसी तरह उस दिन का मंचन समाप्त हुआ। निर्देशक ने मुझे समझाया –अभिनय में सफलता का सबसे पहसा गुर यही है कि तुम कौन हो यह भूल जाओ और उस वक्त क्या हो उसी सोच के साथ जियो तब तुम कामयाब हो जाओगे।

  एक सप्ताह बाकायदा रामलीला में भूमिका निभा कर मैं वापस साथी लौट आया और गुरु जी से बोला-गुरु जी अगर आप आज्ञा दें तो एक सप्ताह के लिए अपने गांव जुगरेहली हो आऊं, बहुत दिन से मां से नहीं मिला वे भी चिंतित होंगी।

  गुरु जी मुसकराते हुए बोले-मां की याद आ रही है, जाओ हो आओ एक सप्ताह में लौट आना।

  गुरु जी की आज्ञा पाकर मैं बहुत खुश हुआ। घर लौट कर मैंने गांव जाने की अपनी इच्छा साथी में अपने आश्रयदाता गयाप्रसाद भैया को बतायी तो उन्होंने भी अनुमति दे दी।

*

दूसरे दिन सुबह की मैं अपने गांव जुगरेहली की ओर चल पड़ा। उस वक्त आने-जाने का कोई साधन बस आदि तो थी नहीं मैं पैदल चल पड़ा। बरसात के दिन थे साथी से कुछ दूर आने के बाद ही बरसात होने लगी। मैं किरमिच  के जूते (केट्स) पहने था जो कीचड़ से पूरी तरह लथपथ हो गये थे। राह में मटियारा नाला पड़ता था जो बरसात में बहुत खतरनाक हो जाता था। हालांकि उसका पाट (एक किनारे से दूसरे किनारे की दूरी)तकरीबन 25 फुट थी किन्तु बरसात में जब वह उफनने लगता तो उसकी धार का वेग बहुत प्रखर हो जाता था।

  मैं नदी के किनारे पहुंचा तो उसकी धार की तीव्रता देख कर मेरा दिल कांप गया। सोचने लगा कि क्या किया जाये नदी तैरना तो मां ने सिखाया नहीं,तालाब में तैरना जरूर सिखा दिया था। 

  मैं नदी के किनारे किनारे चलने लगा कि कहीं धार पतली हो तो पार किया जायेगा अचानक मैंने देखा कि महुए का एक पेड़ गिरा हुआ है जिसने नदी के इस पार से उस पार तक एक पुल जैसा बना दिया है। मैंने सोचा लो भगवान ने मेरी सहायता के लिए प्राकृतिक पुल बना दिया है।

  मैं महुए के पेड़ पर चढ़ कर नदी पार करने लगा। मुझे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि मेरे जूते कीचड़ से भरे हैं। वही हुआ जो होना था। मैं नदी के मझधार के ऊपर था कि तभी कीचड़ सने जूते के चलते मेरा पैर फिसला और मैं नदी के बीच में गिर कर तेज धार के करंट में बहने लगा। मैं उस वक्त अकेला इसलिए डर रहा था कि कहीं मर-मरा गया तो घर वालों को पता तक नहीं चलेगा। 

  जैसे भी बन पड़ा मैं हाथ-पैर मार कर खुद को डूबने से बचाने की भरपूर कोशिश करता रहा। साथ ही यह कोशिश भी कहीं किसी पेड़ की जड़ वगैरह मिल जाये तो उसका सहरा लेकर तेज धारा के प्रहार से मुक्त हो किनारे जाया जा सके।

 मैं तेज लहरों के थपेड़े खाते लगभग आधा मील तक बह गया तभी मेरे हाथ किसी लकड़ी  के पाये जैसी चीज से टकराये। उसे पकड़ मैं थोड़ा सुस्ताने लगा क्योंकि लहरों से लड़ते-लड़ते मैं हांफ गया था। उस पाये जैसी वस्तु के सहारे मैं किसी तरह किनारे आया। बाहर आया तो देखा उसका एक पाया ऊपर किनारे में फंसा है। वह चारपायी थी। पास ही एक कोरा घड़ा पड़ा था। मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी। हमने माता-पिता से सुना था कि कुछ लोग अपने परिजनों के शरीर का दाह संस्कार नहीं करते जल में प्रवाहित कर देते हैं। मुझे समझते देर ना लगी कि वह किसी मुर्दे की खाट थी जिसने नदी की तेज धार से मेरी जिंदगी बचायी।

  गांव जुगरेहली तक पहुंचते-पहुंचते मेरा शरीर गर्म हो गया था। मां से बताया तो उन्होंने कहा कि –तुम बरसात में भीगते हुए आये हो इसलिए ठंड से हरारत हो गयी है। ठीक हो जायेगा। मैंने डरते-डरते मां से सारी घटना बता दी मैंने नदी के तेज बहवा से बचने के लिए जिसे पकड़ा वह मुर्दे की खाट थी।

 दूसरे दिन से मुझे तेज बुखार रहने लगा। मां को मैं सारी घटना बता चुका था इसलिए उन्होंने गुनी को बुला कर झाड-फूंक करायी मैं तकरीबन एक सप्ताह बाद ही ज्वर से मुक्त हो पाया। बहुत कमजोरी हो गयी थी तो मां ने कहा- एक सप्ताह और रुक जाओ फिर वापस जाना।

*

गांव में कुछ समय बिता कर मैं जब वापस साथी के संस्कृत विद्यालय के लिए लौटने लगा तो मां रोने लगीं । फिर यह सोच कर कि उनके आंसू कहीं मुझे कमजोर ना कर दें उन्होंने आंसू पी लिये। सचमुच माताएं कितने मजबूत हृदय की होती हैं। बेटे को कुछ बना देने का उनका सपना था।

 मेरे लौटते वक्त उन्होंने इतना भर कहा-बीच-बीच में आ जाया करो तुम्हारे ना रहने से पूरा घर सूना लगता है।

  मैं भी भीतर ही भीतर रो रहा था, मेरे आंसू मां को और दुखी ना कर दें मैं तेज कदमों से उस मंजिल की ओर बढ़ चला जो अभी मेरा गंतव्य मेरा आश्रय स्थल था।

साथी पहुंच कर मैंने थके होने के कारण एक दिन के लिए विश्राम किया फिर दूसरे दिन संस्कृत विद्यालय पहुंचा तो गुरू जी ने कहा-तुम तो एक सप्ताह  के लिए गये थे।

 जब मैंने उनको नदी में बहने और फिर तेज बुखार में पीड़ित होने की कहानी बतायी तो वे भी दुखी हो गये। उन्होंने मुझे सलाह दी कि अब से मैं अकेले गांव ना जाऊं अपने पहचान वाले किसी व्यक्ति को साथ ही लेकर जाऊंगा।

 मैं कोर्रम की रामलीला का अभिन्न अंग बन गया था और लक्ष्मण की भूमिका में पसंद किया जाने लगा था। मेरे गुरु जी इस बात को लेकर प्रसन्न थे कि उनका छात्र अभिनय में भी अपनी योग्यता दिखा रहा है। (क्रमश:)

 

 

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