Wednesday, May 26, 2010
पत्रकारिता के नाम पर कलंक
(संदर्भ ‘अंबेडकर टुडे’ पत्रिका में ईश निंदा)
-राजेश त्रिपाठी
कुछ मंद बुद्धि (इसे दुष्ट बुद्धि या कुंठाग्रस्त कहना ज्यादा उचित होगा) लोग आगे बढते समाज को जबरन मध्ययुगीन बर्बरता और आदिम सोच की ओर खींच ले जाना चाहते हैं। यह काम कोई अनपढ़ जाहिल आदमी करता तो समझा जाता कि उसकी अल्पबुद्धि से यह गलती हो गयी। यह काम तो पढ़े-लिखे एक जाहिल ने किया है जिसके बौद्धिक दिवालियेपन का जायजा उसकी सोच से ही मिलता है। मेरा इशारा जौनपुर से प्रकाशित ‘अंबेडकर टुडे’ के स्वानामधन्य (?) संपादक डा. राजीव रत्न की ओर है जिन्होंने अपनी इस पत्रिका में देवताओं को ऐसी गालियां दी हैं जिन्हें एक सभ्य-सुंस्कृत व्यक्ति बोलना तो दूर लिखने का भी दुस्साहस नहीं करेगा क्योंकि उसकी शिक्षा, उसका परिवेश उसके हाथ बांध लेगा। शायद ऐसे संस्कार इन राजीव रत्न जी को नहीं मिले तभी इन्होंने पत्रिका के माध्यम से समाज में एक गंदगी फैलाने, वर्ग विद्वेष की आग भड़काने का कुकृत्य किया है जिसके लिए उन्हें जितना धिक्कारा जाये कम है। उस पर तुर्रा यह कि जनाब ने माफी मांगते हुए यह फरमाया है कि यह लेख उनकी गैरजानकारी में छपा है। हे ईश्वर ऐसा धृतराष्ट्र बन बैठा है संपादक। आंख में पट्टी बांधे बैठे इस व्यक्ति और इसकी पत्रिका पर जितना जल्द नियंत्रण किया जाये उतना ही अच्छा वरना भविष्य में यह कुछ भी छाप कर देश और समाज को संकट में डाल सकता है। भगवान की महती अनुकंपा है कि उत्तर प्रदेश सरकार तत्काल चेत गयी और पत्रिका के कुत्सित अंक जब्त कर लिये गये। अब सुना है इस घिनौने कांड की सीबी सीआईडी जांच के आदेश भी दे दिये गये हैं। भला हो सरकार का पर ऐसा कुत्सित काम करने वाले को तो सबक मिलना ही चाहिए।
ऐसे दो-चार रत्न और देश में पैदा हो जायें तो फिर दुश्मनों की जरूरत नहीं। देश अपने आप विद्वेष की ज्वाला में जल जायेगा। ये राजीव रत्न बसपा के एक बड़े नेता के कुलदीपक हैं। ब्राह्मण, ईश्वर, उपनिषद, वेद, रामायण और हिंदुओं को चुनिंदा गाली देने वाले इस पागल संपादक ने यह शायद राजनीतिक फायदे के लिए किया हो लेकिन यह कर के उसने अपने आपको देशद्रोही, समाज और वर्गद्रोही की पांत में खड़ा कर दिया है।
हमारे कुछ भाइयों में यह गलत धारणा घर कर गयी है कि सवर्ण या ऊंची जाति का अर्थ है शोषक। हम मानते हैं कि अतीत में ऐसी कुछ गलतियां शासकों, जमींदारों या श्रीमंतों से हुई होंगी जिसके लिए समाज और ऊंच-नीच के भेदभाव के पोषक लोगों को शर्मिंदा होना चाहिए। समाज में सभी अपने भाई हैं, अपना समाज हैं, सबको साथ लेकर चलने की भावना ही श्रेयस्कर है। हर शुभ बुद्धि संपन्न व्यक्ति को इन विचारों का न सिर्फ पोषण अपितु संवर्धन करना चाहिए। आज अब समाज बदल रहा है, गांवों की छोड़ दें तो शहरों में ऊंच-नीच की खाईं पट रही है, जो एक सुखद संकेत है ऐसे में राजीव रत्न जैसे कुछ तत्व विष घोल कर समाज के सौहार्द्र के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देन चाहते हैं। ऐसे शरारती तत्वों को हर हाल में रोकना जरूरी है। आज जरूरत सामाजिक समरसता बढ़ाने की है, जो गलत हुआ है उसे परिष्कार करने की आवश्यकता है। पत्रिका में प्रकाशित यह सामग्री समाज का कैसा हित करती है? मैं नहीं समझता कि बसपा में अगर चंद शुभ बुद्धि संपन्न लोग भी हैं तो वे इस कार्य का किसी भी रूप में समर्थन करेंगे। खुद मायावती जी भी शायद ऐसा नहीं चाहेंगी क्योंकि सवर्णों का एक बड़ा वर्ग उनकी पार्टी का समर्थक बन गया है केवल इसलिए कि उन्हें उनमें कहीं एक सही राष्ट्रीय विकल्प दिखता है। ऐसा विकल्प जो दबे-कुचले लोगों की भाषा बोलता तो है, खुद अपने लोगों के बीच संभावना की एक किरण के रूप में जिसे देखा जा रहा है। उनके अपने लोग इस तरह की शरारत करेंगे तो खतरा है कि सवर्ण हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग कहीं उनसे दूर न छिटक जाये। हिंदू धर्म इतना उदार है कि वह कभी किसी पर अत्याचार करने या किसी का दिल दुखाने की इजाजत नहीं देता। अगर धर्म के नाम पर पहले किसी हिंदू ने अपने दूसरे भाइयों पर जुल्म किया है तो वह धार्मिक नहीं ढोंगी रहा होगा और उसके उस कृत्य की जितनी निंदा की जाये कम है। ऐसे कृत्यों से ही हमारे अपने भाइयों का एक वर्ग अपने लिए अलग एक धर्म चुनने को मजबूर हुआ। जिस राम को दलित विरोधी मान कर गालियां दी जा रही हैं उसने वनवास के समय शबरी नाम भीलनी के जूठे बेर खाये, उसे गले लगाया। राजीव रत्न जी शबरी ब्राह्मण या क्षत्री नहीं थी वह आदिवासी थी आप उसे दलित कह सकते हैं। यह शब्द मैं प्रयोग नहीं करूंगा क्योंकि हमारे राष्ट्र में अगर कोई भाई दलित है तो यह राष्ट्र के लिए शर्म की बात है जो समाजवाद लाने का दंभ भरता है।
पता नहीं समाज में जो हमारे कुछ भाई अपने को दलित के श्रेणी में पाते हैं उनमें अतीत के कुंठा की ग्रंथियां इतनी गहरी क्यों बैठ गयी हैं कि उनको समाज का सार्थक बदलाव तक नहीं दिख रहा जहां भेदभाव की बेड़िया तोड़ समाज मुक्त हो रहा है। हो सके तो कुंठा से बाहर आइए, इस बदलाव और प्रगति से हाथ मिलाइए। दलित-दमित की शब्दावली छोड़ सीधे-सादे भारतीय बनिए और हर भारतीय को अपना भाई मानिए। हमारा धर्म किसी को मजबूर नहीं करता कि वह उस पर या उसके प्रतीकों या आस्था के केंद्र बिंदुओं पर आस्था रखे लेकिन एक बहुजन समाज (आपकी पार्टी का नारा नहीं हमारा अपना संपूर्ण भारतीय समाज। चलिए आज आपकी खुशी के लिए हम इसे इसी नाम से पुकारते हैं) आपको यह इजाजत या छूट भी नहीं देता कि आप उन्हें गाली दें जिन्हें हम पूजते हैं। आप नहीं पूजते नहीं मानते ,यह आपका सोच है, आपकी खुशी है इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं। लेकिन अगर आप सामाजिक प्राणी हैं, उसके बीच में रहते हैं तो फिर उसके सामान्य शिष्टाचार को मानने के लिए आप बाध्य हैं। यह सवर्णों की दादागीरी नहीं सामाजिक समरसता को बनाये रखने के लिए एक देश के नागरिक होने के नाते आपका परम कर्तव्य है। ‘अंबेडकर टुडे’ पत्रिका में गंदगी करके आप न सिर्फ उस कर्तव्य से विमुख हुए हैं अपितु आपने महान आत्मा अंबेडकर का (जिन्हें हम आदर से बाबा साहब करते हैं) नाम बदनाम किया है। इसके लिए आपको समाज और पत्रकार बिरादरी से भी क्षमा मांगनी चाहिए। आपने पत्रकारिता धर्म को भी कलुषित किया है। राजीव रत्न जी कोई जाति इस तरह की टुच्चई (नंगई कहना बेहतर होगा क्योंकि आपने जैसे शब्द अपने लेख में प्रयोग किये हैं वह कोई नंगा ही कर सकता है) से आगे नहीं बढ़ती। नवयुवकों में इस तरह की कुंठा जगा कर आप उन्हें घृणा-द्वेष की ऐसी सुरंग में धकेल रहे हैं जहां सिर्फ और सिर्फ अंधेरा है।
राजीव रत्न जी पत्रकारिता एक पुनीत धर्म है। इसका काम समाज को दिशा देना और सत्यम् शिवम् सुंदरम् के आदर्श पर चलना होता है, तभी इसे गणतंत्र के चौथे पाये जैसा सम्मानित नाम मिला है। इसमें आ गये हैं तो आप जैसे लोगों को झेलने के लिए समाज विवश है पर कृपा करके गंदगी तो मत फैलाइए। संभव हो तो सामाजिक विद्वेष और घृणा की ग्रंथिया दूर कीजिए, अपने समाज को भी उदारमन का बनाइए क्योंकि ऐसा ही उस महान आत्मा ने चाहा था जिसके नाम का आपने सहारा लिया है। भारत सबका है, सभी यहां समान हैं यही भाव जगाइए। यह सब मैं एक भारतीय के नाते लिख रहा हूं किसी जाति विशेष का होने के नाते नहीं। समाज में हूं तो इसके अच्छे-बुरे पर बात करने का हक भी मेरा है। उसी नाते आपको और समाज के सुहृद बंधुओं को संबोधित कर रहा हूं। अब इस पर मुझे गालियां या तालियां कुछ भी मिले मुझे स्वीकार हैं।
समाज में एक अच्छा परिवर्तन आ रहा है तो उसमें भागीदार बनिए, खलनायक बन कर समरता के इस उद्यान को उजाड़िए नहीं। वक्त की यही मांग है, वक्त की यही मांग है, वक्त के साथ चलिए। धारा के विपरीत बहने वाले भले ही चंद लमहों के लिए सराहे जाते हों लेकिन उनका एकदिन डूबना तय है। मुख्यधारा में आइए , समरसता का पाठ सीखिए और अपने सामाजिक दायित्वों को सजगता और शुचिता से पालन कीजिए। आपसे यही प्रार्थना और अपेक्षा है।
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सांसारिक दलितता (दरिद्र्दा ) आप मिटा सकते है , मानसिक नहीं !
ReplyDeleteआपने बहुत संतुलित और उचित प्रतिक्रियात्मक आलेख दिया है- साधुवाद! यह सभी पाठकों का मनचीता है जिसको आपने अभिव्यक्ति दी है.-सुरेन्द्र वर्मा
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