Monday, April 24, 2023

कैसे कैसे किस्से, कैसे कैसे लोग

 


आत्मकथा-55

आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक रविवार में कार्य के दौरान विविध प्रकार के अनुभव हुए। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलने साहित्यकार और पत्रकार तो आते ही रहते थे। कई बार ऐसे लोग भी आते थे जो अपने व्यक्तित्व और कार्य में औरों से अलग और अनोखे होते थे। ऐसे ही एक व्यक्तित्व का यहां उल्लेख करना जरूरी है। उनका नाम था वसंत पोतदार। लंबे-चौड़े डीलडौल और बुलंद आवाज वाले वसंत पोतदार अच्छे वक्ता और एकल अभिनय में माहिर तो थे ही वे अच्छे लेखक भी थे। एकल अभिनय में वे हिंदी, मराठी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में प्रस्तुति देते थे। कहते हैं कि जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में एकल अभिनय करते थे तो पूरे हाल में सन्नाटा छा जाता था। बस कुछ सुनाई देता था तो लगातार बजनेवाली तालियां और वसंत पोतदार का विवेकानंद के रूप में उनके संदेश का बुलंद स्वर। उनका भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर आधारित वंदे मातरम कार्यक्रम भी बहुत चर्चित और प्रशंसित हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व अन्य महान व्यक्तित्वों के चरित्र पर वे एकल अभिनय करते थे। उन्होंनेकई पुस्तकें भी लिखी थीं।

वसंत पोतदार
 सुरेंद्र जी में एक खूबी यह भी थी कि वे कुछ देर किसी से मिल कर ही यह पहचान लेते थे कि उसमें क्या माद्दा है। वसंत पोतदार की प्रतिभा को पहचानने में भी उनको देर ना लगी। उन्होंने उनसे कहा-वसंत हमारे लिए एक साप्ताहिक स्तंभ लिखना है आपको।

वसंत पोतदार-अरे यार मैं क्या लिखूंगा काहे बेमतलब में मुझे फंसाते हो।

सुरेंद्र जी-कोलकाता महानगर में तो तुम भटकते ही रहते हो देखो कई ऐसे लोग तुम्हें यों ही जीते मिल जायेंगे। बेमतलब जीते इन लोगों में कोई ना कोई प्रतिभा होगी. बस वही तुम्हें उभारना है। स्तंभ का नाम होगा-कुछ जिंदगियां बेमतलब।

 दूसरे दिन से ही वसंत ने काम शुरू कर दिया। उन्होंने कोलकाता के गली-कूचों और कोने-कोतरे में पड़े ऐसे कलाकारों और हुनरमंद लोगों की कहानी लिखनी शुरू कर दी जो काफी लोकप्रिय हुई। कुछ जिंदगियां बेमतलब स्तंभ कुछ दिन में ही लोकप्रिय हो गया। इसमें वसंत ऐसे व्यक्तित्वों की कहानी कहते जो दुनिया से विलग अपनी गुमनाम सी जिंदगी जी रहे थे। वे बस अपनी कला या हुनर में खोये रहते थे।

 वसंत यायावर का-सा जीवन बिताते थे। एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। वे मुंबई वापस जाते  और कुछ महीने बाद फिर वापस आते। एक बार की बात है वे बहुत दिन बाद हमारे रविवार के कार्यालय में आये उन्होंने संकेत से जानना चाहा कि सुरेंद्र जी हैं क्या। मैं सझ गया था पर मैंने ऐसा भान किया कि मैं समझा नहीं। इसके बाद वसंत पोतदार ने जेब से एक कागज निकाला और उस पर लिखा-इन दिनो मेरे मौन व्रत चल रहा है, बोल नहीं रहा हूं। सुरेंद्र जी कहां हैं।

  मैंने उत्तर दिया- अरे वसंत जी आपके जैसा व्यक्ति जिसकी आवाज ही उसकी पहचान है वह इस तरह मौन धारण कर लेगा तो कैसे चलेगा।

  मेरी बात सुनते ही वसंत पोतदार ने बुलंद ठहाका लगाया और बोले-अरे आपने ने तो मेरा मौन व्रत तोड़वा दिया। कई महीने से मौन था आपकी बातों से वह प्रण टूट गया।

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हमारे संपादक सुरेंद्र जी बहुत ही ईमानदार और उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में भी काम किया कभी किसी भी प्रकार की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता नहीं होने दी। `रविवार' के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये मांगे और कहा कि यह पैसा वे `रविवार' के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल गये उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार वे कोलकाता आये तो एसपी ने एक मोटा लिखने का पैड उन्हें दिया और अपने चैंबर में बैठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें। बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं वे चार लेख तैयार कर लें तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुसकराते हुए चैंबर से बाहर आये और कहा-` लो भाई चुका दिया एसपी का कर्जा, अब तो मैं जाऊं। वाकई एसपी जैसा कोई और नहीं होगा।' उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की बेचारगी से बचा लिया।

थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। इतने ईमानदार और उसूल के पक्के थे वे।

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प्रसिद्ध फोटो जर्नलिस्ट सुधीर उपाध्याय द्वारा कोलकाता के महाजाति सदन के सामने खींची गयी मेरे परिवार की फोटो में बायें से दायें-भैया रुक्म जी, बेटा अवधेश,भाभी निरुपमा,बेटी अनामिका, बेटा अनुराग, मेरी सहधर्मिणी वंदना त्रिपाठी और मैं


हमारे परिवार में पहली संतान के रूप में बेटी अनामिका, दूसरा बेटा अनुराग और मेरे रविवार में जाने के बाद छोटे बेटे अवधेश का जन्म हुआ। इस पर भी सुरेंद्र जी से जुड़ा एक प्रसंग यादा आया। भैया हमारी तीसरी संतान होने की खुशी में रविवार के हमारे साथियों के लिए मिठाई लेकर गये। सबने बहुत प्रसन्नता जतायी। प्रसन्न सुरेंद्र जी भी हुए पर साथ ही उन्होंने भैया के माध्यम से मुझ तक यह संदेश भी भेजा-अब आगे नहीं अन्यथा संजय गांधी को बुला लेंगे।(क्रमश:)

 

 

 

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