Saturday, October 2, 2010

कलकत्ता का गांधी भवन जहां गांधी ने कहा था- खून का बदला खून नहीं हो सकता

गांधी जयंती पर विशेष
-राजेश त्रिपाठी

देश जब आजादी से सिर्फ तीन कदम दूर था, पश्चिम बंगाल का कलकत्ता महानगर मानवता से कोसों दूर जा चुका था। हिंदू-मुसलिम दंगों का दावानल  नगर के कोने-कोने को भस्म कर रहा था और हर तरफ हो रहा था मानवता का हनन। यह 1947 के अगस्त महीने की बात है। देश के इस पूर्वी भाग को अंधी हिंसा ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। मानवता को इस कदर वहशी होते देख अंतर तक विचलित हो गये थे शांति के हिमायती, अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी। वे अपने सारे कार्यक्रम छोड़ कलकत्ता दौड़े आये ताकि दंगों की आग को ठंडा किया जा सके। हिंसा में बौराये लोगों को अपने ही भाई-बहनों की जान लेने से रोका जा सके। 1947 के अगस्त में पूर्वी कलकत्ता के बेलियाघाटा अंचल के जिस भवन में गांधी जी ठहरे थे, उसका नाम तब हैदरी मैन्सन था। 1985 में राज्य सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण किये जाने के बाद यह गांधी भवन हो गया। आलोछाया सिनेमा के पास बेलियाघाटा मेन रोड पर पंजाब नेशनल बैंक की बेलियाघाटा शाखा के सामने से निकली है डाक्टर सुरेशचंद्र बनर्जी रोड। इस रोड पर 20-25 कदम चलते ही 150/ बी सुरेशचंद्र बनर्जी रोड पर बाई ओर शांत खड़ा है श्वेत गांधी भवन। उस वक्त की हिंसा के दौर व उसे रोकने के लिए बापू के सद्प्रयासों का मूक साक्षी।
      गांधी भवन की बाहरी दीवार पर बायीं ओर लगे भित्ति प्रस्तर पर बंगला में इस बात का उल्लेख है कि 12 अगस्त 1947 को बापू यहां आये और ठहरे थे। 1997 में इस पावन भवन को देखने का अवसर मुझे मिला था। उस दिन गांधी भवन में प्रवेश करने पर दायीं तरफ के पहले कमरे में बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी जुगलचंद्र घोष से मुलाकात हुई। उस वक्त वे 86 साल की उम्र पार कर चुके थे। पता नहीं अब हों या न हों। वे उन दिनों कलिकाता गांधी स्मारक समिति के महासचिव थे। उन्होंने न सिर्फ 1947 में गांधी जी को इस भवन में देखा था बल्कि वे उस वक्त की दर्दनाक घटनाओं के साक्षी भी थे। उन्होंने गांधी के अनशन को देखा,दंगों को रोकने के उनके सद्प्रयासों के भी वे साक्षी रहे थे। घोष बाबू दिल के मरीज थे और जब मैं उनसे गांधी भवन में मिला था उसके कुछ दिन पूर्व ही उनको पेसमेकर लगाया गया था। उनके संकेतों को वहां मौजूद निखिल बंद्योपाध्याय ने शब्द दिये और वही हमारे बीच वार्ता में मददगार बने। जब गांधी जी ने पश्चिम बंगाल में दंगों के दावानल को शांत करने के लिए गांधीभवन में अनशन किया था, उस वक्त निखिल दा नारकेलडांगा हाईस्कूल में 9 वीं कक्षा में पढ़ते थे। उन्होंने गांधी जी को कई बार यहां कार से आते-जाते देखा था। इसके बाद निखिल दा ने कहा-अब जो कुछ भी मैं बताना शुरू कर रहा हूं वह बोल तो मेरे हैं लेकिन विचार पूरी तरह से जुगलचंद्र घोष दा के हैं। वे अस्वस्थ होने के नाते ज्यादा बोल नहीं सकते इसलिए उनकी बात मेरी जुबानी सुनिए। जो कहा जा रहा है उसकी बीच-बीच में वे हामी भरते रहेंगे कि वह ठीक है।इसके  बाद की कहानी इस तरह है-गांधी जी 1947 की 12 अगस्त को इस भवन में आये। तब इस क्षेत्र की 75 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की थी। यहां उनका बहुमत था। इस भवन का उस वक्त नाम था-हैदरी मैन्सन । यह ढाका के नवाब हबीबुल्ला बहार की बहार की संपत्ति थी। भवन खाली पड़ा था, कोई रहता नहीं था। बाद में यह भवन नवाब ने सूरत के एक कपड़ा व्यवसायी गनी मियां को बेच दिया। गनी मियां व्यवसाय के सिलसिले में आता तो लालबाजार के पास 36 नंबर छातावाली गली में रहते थे। उन्होंने इस भवन को अपनी बेटी हुसेनीबाई को दान दे दिया था। गांधी जी यहां आये और यहां रह कर कलकत्ता में दंगा रोकने  के लिए शांति यात्राएं शुरू कीं। गांधी के साथ उन दिनों उनके सचिव निर्मल बसु भी थे। इसके अलावा थीं गांधी जी के अपने परिवार की आभा गांधी व मनु गांधी।
कोलकाता का गांधी भवन
      उस वक्त पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे डाक्टर प्रफुल्लचंद्र घोष। पार्लियामेंटरी पार्टी में पश्चिम बंगाल मुसलिम लीग के नेता थे एचएस सोहरावर्दी। मुख्यमंत्री श्री घोष व सोहरावर्दी ने कलकत्ता की जनता से दंगा बंद करने की अपील की लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। दंगे चलते ही रहे।गांधी जी उस वक्त नगर के दंगाग्रस्त इलाकों बेलगछिया, मानिकतल्ला, राजाबाजार, टेंगरा,इंटाली वगैरह में चारों ओर दौरा कर रहे थे। सबसे उन्होंने दंगा रोकने की अपील की। इससे दंगों का ज्वार थोड़ा थमा जरूर लेकिन रूका नहीं। जब वे कलकत्ता आये थे, स्वाधीनता हमसे तीन दिन दूर थी। तीन दिन बाद देश स्वाधीन हुआ। स्वाधीनता के आनंद में लोग फूले नहीं समा रहे थे चारों ओर खुशियां मनायी जा रही थीं लेकिन गांधी जी का मन अशांत था। वे बेहद बेचैन थे। उन्होंने 15 अगस्त को मौनव्रत औप उपवास रखा। उनका कहना था-मैंने ऐसी खंडित आजादी तो नहीं चाही थी, जिसमें देश के ही दो टुकड़े हो जायें। ’ इसके बाद वे हैदरी मैन्सन में ही रहे। दूसरे दिन उन्होंने बेलियाघाटा के रासबागान में एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया। अब तक दंगे कुछ कम जरूर हुए थे लेकिन उन पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग पाया था। छिटपुट दंगे हो ही रहे थे।‘
      इतना कह निखिल दा जुगल बाबू की ओर देख आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि वे जो कह रहे हैं, वह ठीक है कि नहीं। उनकी स्वीकृति पा उन्होंने फिर बताना शुरू किया-‘1 सितंबर 1947 को हैदरी मैन्सन  से कुछ दूर आलोछाया सिनेमा के नजदीक राजेंद्रलाल मित्र रोड के पास दो हत्याएं हो गयीं। गांधी जी को जब इसकी खबर मिली तो वे खुद मृतकों को देखने गये। वहां से लौट कर आये तो बेहद मर्माहत थे। उन्होंने वहां मौजूद लोगों को बुला कर कहा-‘तुम लोग ये दंगे बंद करो वरना मैं आमरण अनशन करूंगा। ’ यह कह कर उन्होंने 1 सितंबर 1947 से आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनकी उम्र काफी थी, उस उम्र में आमरण अनशन। नेता चिंतित हो गये। किसी तरह से उनको आमरण अनशन त्यागने के लिए राजी करने की कोशिश शुरू हो गयी। इस कोशिश में देश के बड़े नेता तो थे ही राज्य के कई प्रमुख नेताओं-डाक्टर प्रफुल्लचंद्र घोष, जनाब एचएस सोहरावर्दी, निर्मलचंद्र चटर्जी, शरतचंद्र बसु, दुर्गापद घोष, हेमचंद्र नस्कर, जुगलचंद्र घोष व डाक्टर सुरेशचंद्र बनर्जी ने भी गांधी जी को लिखित आश्वासन दिया कि दंगे बंद होंगे। इसके बाद आभा गांधी व मनु गांधी ने 4 सितंबर को बापू को नींबू का रस दिया और इस तरह से उनका आमरण अनशन टूटा । यह 73 घंटे का अनशन था। इसके बाद दंगे भी करीब-करीब रुक गये। 7 सितंबर 1947 को गांधी जी  पंजाब यात्रा के लिए दिल्ली रवाना हो गये। ’
      उन दिनों गांधी जी जब दंगाग्रस्त नगर में शांति जुलूस निकालते थे उस वक्त उनके साथ होते थे तत्कालीन पुलिस कमिश्नर रायबहादुर एस, एन, चटर्जी। उस वक्त दंगों की बढ़ती आग को देख गांधी जी ने कहा था-‘खून का बदला खून नहीं हो सकता।’ ये बात जुगलचंद्र घोष को दिल की गहराइयों तक छू गयी और वे गांधी जी के सच्चे समर्थक और अनुयायी बन गये थे। कलकत्ता को दंगों से मुक्ति मिल गयी और लोग उस महात्मा गांधी को भूल गये जिसने हैदरी मैन्सन में रह कर इस आग को बुझाने में शीतल जल का काम किया।  वह इमारत जर्जर अवस्था में पड़ी रही। कोई उसकी देखरेख नहीं करता था। लेकिन जुगल बाबू नहीं भूले।वे राज्य और केंद्र के नेताओं से लगातार यह अपील करते रहे कि हैदरी मंजिल जहां गांधी ने बौराई हिंसा को शांत करने का महान व्रत लिया और पूरा किया, उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका अधिग्रहण किया जाये। 38 साल तक वे एकाकी अनथक  प्रयास करते रहे। कामयाबी मिली 1985 में , जब राज्य सरकार ने इसका अधिग्रहण कर पुनर्नवीकरण किया। यह राज्य के सूचना व संस्कृति विभाग के जिम्मे आयी और वही इसकी देखभाल कर रहा है। 2 अक्तूबर 1985 को राज्य के तत्कालीन लोकनिर्माण व आवास मंत्री यतीन चक्रवर्ती की अध्यक्षता में आयोजित समारोह में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल उमाशंकर दीक्षित ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
      उस दिन मैंने निखल दा से पूछा था कि क्या इस भवन में गांधी जी की यादों से जुड़ी कुछ चीजें आज भी हैं? उन्होंने बताया कि वह कमरा जहां गांधी जी 1947 में ठहरे थे आज भी उनकी कई चीजें सहेजे हुए है और उसमें बसी हैं उस महान आत्मा की यादें। यह कमरा भवन के दायीं तरफ का आखिरी कमरा है। अंदर जाते ही बायीं ओर शोकेस में नजर आते हैं गांधी जी के संदेश-‘बुरा मत कहो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।’ को मूक ढंग से प्रचारित करते तीन बंदर। पास ही हैं चरखे व भीतर अंबर चरखा। चरखों के पास गांधी जी की काती खादी के सूत की तीन लच्छियां आज भी मौजूद हैं। वहां काले पत्थर की थाली, पत्थर की कटोरियां, एक लालटेन, गांधी जी की चप्पलें व खड़ाऊं, लस्सी बनाने की छोटी हांडी और मथानी, बाग सींचने का झज्जर, उनका बिस्तर जिस पर दरी बिछी है व उस वक्त उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये दूसरे सामान मौजूद हैं। यह सब देख सुखद रोमांच-सा हो जाता है। लगता है इन सारी वस्तुओं को गांधी जी ने छुआ है, इस्तेमाल किया है, इनमें बसी है उनके स्पर्श की सुगंध। आज की पीढ़ी को उस महामानव के कहीं बहुत करीब ले जाती हैं ये चीजें। यह स्थूल, निर्जीव सही लेकिन शायद इनमें भी यह व्यक्त कर पाने की क्षमता है कि हम गवाह हैं एक ऐसे इतिहास की जो विश्व में अनोखा है। हमने देखा है एक ऐसे व्यक्तित्व को जिसके सामने आज के कई तथाकथित  महान लोग बौने साबित होते हैं।
      गांधी भवन प्रतीक है उस महात्मा के विचारों, उसके कर्मों का जिसने  दासता की चक्की में पिसते भारत के भाग्य को दिया एक नया मोड़, आजादी की सुबह  लेकिन वह रामराज्य एक सपना ही बन कर रह गया जिसकी कल्पना उन्होंने की थी। कल्पना ही नहीं जिस रामराज्य को उन्होंने अपने विचारों और कर्म में भी ढाल लिया था। परवर्ती नेता उनके आदर्शों को भूल  स्वार्थ सिद्धि और स्वजन पोषण में लीन हो गये और उनके इस आचरण में गांधी के आदर्श और सिद्धांत न जाने कहां विलीन हो गये। अब तो बापू को सिर्फ पुण्यतिथि और जयंती में रस्मअदायगी के लिए याद कर लिया जाता है उनके सिद्धांत और विचार किताबों में कैद होकर रह गये हैं। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं के कदमों की धमक, गांधी के तनाव, निराशा और क्षोभ भरे क्षणों का साक्षी यह गांधी भवन भी अगर अनुभूति रखता तो शायद देश की आज की बदहाली पर यह भी भीतर तक टूट चुका होता।
           

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