भाग-3
नया संदर्भ नयी मान्यताएं
भोर
होत जो ‘बेड टी’ पावै । अंत
समय सो सुरपुर जावै।।
धन संपत्ति अपार जग माही । बिन तिकड़म कोउ पावत
नाहीं।।
चाटुकार
जितने जग माही। सकल सुलभ कछु दुर्लभ नाहीं ।।
परिजन
संग प्रेम अचि गाढ़ा। लागत नीक
सिनेमा भांड़ा ।।
पाइपगन, बम छुरा दिखावै। सो जन मनवांछित फल पावै
।।
बस में लटक सिनेमा जावै । फिसल जाय तो सद्गति
पावै।।
‘ह्वाइट’ तजि जो ‘ब्लैक’ कमावै। जहां जाय
तंह आदर पावै।।
जांगर तोड़ करै जो कामा । सो जन उचित न पावै दामा
।।
काम छोड़ जो गप्प लड़ावै । सो जन तुरत तरक्की पावै।।
परनिंदा जेहिं लागै नीका । लीन्हे जग सुधार का ठींका
।।
जनसेवा का वह अधिकारी । जेहिं केवल है कुर्सी
प्यारी ।।
झूठ बोल स्वामी बहकावै ।दुलहन वही जो पिया मन भावै।।
जो
परोक्ष में देते गारी । वही कहाते जन हितकारी ।।
लीडर सो
जो गाल बजावै । काम-काज से देह चुरावै ।।
अनजाना जो संग चल देई । राह बताय लूट सो लेई ।।
चाहे जितना करो उपाया । पुलिस संग नहिं लागै
माया।।
समय समय की बात
शुद्ध वस्तु दुर्लभ भई, काह कहें अब तात।
बड़ी मिलावट चल रही, सही न होती बात।।
समय समय की बात है।समय समय की चाल।
चलचे फिरते जीव को, लोग कह रहे माल ।।
उलटा सीझा जस बने, तस लें तुरत कमया ।
जैसा अवसर चल रहा, बार-बार नहिं आय।।
नहीं व्याकरण जानते, नहीं पढ़ाते शुदध।
ऐसे शिक्षक ही सदा, छात्रों पर हों क्रुद्ध ।।
नाज
सभी विदेशी
निज संस्कृति पर, करते हैं जब नाज।
वहीं विदेशी चाल चलन पर, भारत को है नाज ।।
अपनी
भाषा नहीं सुहाती,
प्रादेशिक या हिंदी ।
अंग्रेजी ही अधिक सुहाती, ज्यों
माथे की बिंदी ।।
लगता
एक समय आयेगा, भूलेंगे निज नेम ।
अपने घर की बहुएं होंगी, केश कटा कर मेम ।।
अपना
बेटा अंग्रेजी पढ़,
जब जाता साहब ।
पिता-पुत्र का हो जाता तब, असली रिश्ता गायब।।
सावधान रहना
जो भी झूठी करे प्रशंसा, उनसे सदा दूर ही रहना।
ऐसे अवसरवादी होते, विदुर नीति का है यह कहना।।
दुश्मन हंसते मिलने आये, फौरन सावधान हो जाना।
समझें बुरी नीयत है उनकी, हंसना उनका एक बहाना।।
दुश्मन अक्सर हंस कर मारे,अब तक यही देखते आये।
हम ही नहीं बिदुर जी के संग, यही सत्य चाणक्य
बताये।।
दुश्मन को जो मित्र बनाते, वे अक्सर ही धोखा खाते ।
वार सदा करता पीछे से, जिसको पहले समझ न पाते।।
शाप और वरदान
अंत:करण शुद्ध हो जिनका,
वही श्रेष्ठ होता वरदानी।
आशीर्वाद उसी का फलता, जो भी कहे सत्य हो वाणी।।
शाप और वरदान हृदय से, जो भी नहीं दिये जाते हैं।
उनका असर नहीं कुछ होता, वे सब सदा व्यर्थ जाते
हैं।।
ऋषि मुनियों का युग ऐसा था, वे सब होते थे
वरदानी।
उनका कहा
सत्य होता है, ऐसे होते थे वे ज्ञानी ।।
आज प्रदूषण पूर्ण हृदय में,केवल कलुषित भाव भरे
हैं।
ऐसा नहीं कभी भी देखा, शाप दिये पर लोग डरे हैं।।
महामानव
मानवता के शत्रु अनेकों, ईर्ष्या,द्वेष,जलन,
परनिंदा।
ये ऐसा धीमा विष होते, रहने दें ना सुख से
जिंदा।।
पर की घी से चुपड़ी लख कर, सूखी रोटी खानेवाले।
ईर्ष्या से जल भुन जाते हैं,कोस-कोस खा रहे
निवाले।।
ऐस यत्न नहीं करते वे,जिससे मालपुआ खुद खायें।
नहीं दूसरों को कोसें फिर, और दूजे को ललचायें।।
जो परहित चाहा करते हैं, उनकी प्रभु करते हैं
रक्षा।
वही महामानव कहलाते, उनकी पूरी हो सब इच्छा।।
आइए भगवान प्यारे
आइए भगवान प्यारे, बात कर लें काम की।
कब तलक इज्जत बचेगी, अब तुम्हारे नाम की।।
अब न बातें हो रही हैं, स्वर्ग की या नर्क की ।
सिर्फ चर्चा हो रही है, इंसा के बेड़ा गर्क की।।
आलसी तुम हो गये हो, कहो क्या यह झूठ है।
माल सप्लाई किया, उसकी मची अब लूट है।।
मौन सब देखते, जैसे
कोई सरकार हो ।
जिसे जनता से नहीं, बस चेयर ही से प्यार हो।।
लोग
कुछ शत प्रतिशत
झूठ बोल कर,अपना काम बनाते लोग।
कहते कुछ हैं,
कुछ करते हैं, ऐसे बहुत मिलेंगे लोग।।
पैसा माई-बाप मानते, ऐसे भी हैं कितने
लोग ।
शेखी सदा बघारा
करते, यदाकदा मिल जाते लोग ।।
तानाशाही हुक्म
चला कर, जम कर रौब जमाते लोग।
ऐसों से सब
नफरत करते, नहीं सुहाते ऐसे लोग ।।
जो उपकार किया करते हैं, बहुत भले लगते वे लोग ।
पर दुख को जो
निज दुख मानें, ऐसे कम मिलते हैं लोग।।
इलाज
सिर्फ डाक्टरी
धंधा ऐसा, जिसमें मोल-भाव ना होता।
उपचारक जो भी लिख देते, वह सब टेस्ट कराना होता।।
नहीं पूछते वे रोगी से, कितने टेस्ट करा पाओगे ।
पैसे बहुत लगेंगे इसमें , क्या जुगाड़ तुम कर
पाओगे।।
किंतु आज
ऐसा होता है, एक रोग पर सात दवाएं ।
कोई काम करेगी इनमें, डाक्टर यही सोच लिख जायें।।
पहले नब्ज देख उपचारक, तुरत रोग पहचाना करते ।
केवल एक दवा देकर वे, रोगी को थे चंगा करते ।।
बढ़ती जाती आग
अपनी खिचड़ी आप पकाते,कहते इसका स्वाद अनोखा ।
मिलो हमारे दल में आकर, और सभी दल देते धोखा।।
इस दल में ऐसी ताकत है, पलक मारते आग बुझाये।
जब तक नहीं मिलेगी सत्ता, ऐसी जहमत कौन उठाये।।
एक दूसरा
दल कहता है, बहुत पुराने हैं ये पापी ।
इनकी जड़ें विदेशों में हैं, काम नहीं कुछ व्यर्थ
प्रलापी।।
अपने घर से मोह न इनको, वरना कब की लपट बुझाते।
बुलवाते फायर ब्रिगेड को , जो चुपके से आग लगाते
।।
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