Friday, October 5, 2018

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी भाग-29



 हमारे सिर से उठ गया अभिभावक का साया

  पहले तो आप सबसे इस जीवनगाथा को एक साल से अधिक समय तक न लिख    पाने के लिए क्षमा मांग लूं। इसकी निरंतरता में आये व्यवधान के कई कारण थे। पहले तो शारीरिक अस्वस्थता व अन्य परेशानियां दूसरी बात ये कि जाने क्यों इस कथा को अंत की ओर ले जाते वक्त दिल भारी हो रहा है। हिम्मत नहीं कर पा रहा कि लिखूं कि जिसकी छत्रछाया में बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया उसका साया सिर से उठ गया। फिर सोचा मेरे ना लिखने से सच तो झूठ नहीं हो जायेगा और फिर इस कथा को शुरू किया तो समाप्त तो करना ही होगा।
   जैसा पहले की किस्त में बता आये हैं कि भाभी निरुपमा त्रिपाठी के जाने के बाद भैया रुक्म जी ऐसे हो गये थे जैसे वे जी ना रहे हों जिंदगी को ढो रहे हों। उनके चेहरे पर हमेशा विषाद की छाया देख कर हमें बहुत डर लगने लगा था। हमारी भी समझ में आ गया था कि शायद हम उन्हें बचा नहीं पायेंगे लेकिन फिर भी यह आस लगाये हुए थे कि शायद कोई चमत्कार हो जाये। उनमें फिर जीने की ललक जग जाये। वे असह कष्ट भोग रहे होते पर जब तक बरदाश्त होता, हममें से किसी को परेशान नहीं करते थे।  कभी-कभी तो ऐसा भान करते जैसे वे ठीक हो रहे हैं।
     उनका कष्ट अक्सर रात को बढ़ जाता था। घर में आक्सीजन सिलिंडर और नेबलाइजर रख ही लिया गया था। रोज रात अढ़ाई-तीन बजे वे चिल्लाते और मैं दौड़ कर उनके नाक में आक्सीजन मास्क लगा कर उनकी पीठ और छाती सहलाने लगता ताकि उनको राहत मिले। यह सिलसिला लगातार चलता रहा। मुहल्ले के ही डाक्टर उन्हें देख रहे थे, उन्होंने साफ कह दिया था कि ये अब ठीक होने वाले नहीं बस इसी तरह जितने दिन खींच सकेंगे खींच ले जायेंगे। ये किसी भी क्षण आप लोगों का साथ छोड़ सकते हैं।

     यहां बड़े कष्ट के साथ यह लिखने को बाध्य हो रहा हूं कि भैया रुक्म ने जिन लोगों की मदद की, उन्हें लिखने का हौसला दिया वे उन्हें देखने तक नहीं आये।  जो कभी उनके गुण गाते नहीं अघाते थे उनके पास शायद इतना भी समय नहीं था कि वे उस शख्स को देखने आ सकें जिनका कभी ना कभी उनकी जिंदगी में योगदान रहा था। शायद उन्हें यह भय सताता रहा हो कि कहीं उनसे कोई आर्थिक मदद ना मांगने लगे। यहां यह भी बताता चलूं प्रभु की कृपा से हम इतने सक्षम थे कि भैया का उपचार अपने बलबूते करा सकें, हमने किसी के सामने हाथ नहीं पसारे। हां कोई उनकी खोज-खबर लेने आता तो यह एहसास दे जाता कि हमारा परिवार बड़ा है। खैर जो लोग फोन के माध्यम से ही सही उनकी खबर लेते रहे हम उनके दिल से आभारी हैं। किसी के देखने आने से किसी की बीमारी कम नहीं हो जाती उसे सुकून मिलता है कि उसकी चिंता करने वाले कई लोग हैं। यह भी कि जिनके कुछ बनने में उसका किंचित मात्र भी योगदान रहा हो वे उन्हें भूले नहीं। खैर आप किसी के मानस या उसके  सोच को बदल नहीं सकते। कुछ लोग होते हैं जो मतलब निकलते ही किनारा कर लेते हैं और कुछ ऐसे जो किसी का रंचमात्र उपकार भी आजीवन नहीं भूलते। हमें इसका कोई गिला नहीं कि भैया के बारे में कौन चिंतित था कौन नहीं हम चिंतित थे तो उनके दिन ब दिन गिरते स्वास्थ्य से। डाक्टर ने तो कह ही दिया था कि वे कभी भी हमारा साथ छोड़ सकते हैं।
     वह 2 नवंबर 2014 का दिन था। मैं दोपहर जब सन्मार्ग कार्यालय के लिए निकलने वाला था उस वक्त भैया रुक्म की तबीयत काफी ठीक थी। उन्होंने खुद रेजर से दाढ़ी बनायी और मुझे सन्मार्ग के उनके नियमित स्तंभ चकल्लस के लिए लिखी कविता थमा दी। मैंने घर से निकलने के पहले पूछ लिया-भैया ठीक हैं ना?’ वे बोले-हां मैं ठीक हूं। मेरे जीवन में भैया के यही शब्द ही आखिरी बन जायेंगे यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। जिसने जन्म लिया है उसका अंत निर्धारित है फिर भी हम अपनों के बारे में यह सोच ही नहीं पाते।
  मैं सन्मार्ग के अपने कार्यालय में काम कर रहा था कि अचानक शाम साढ़े चार बजे बड़े बेटे अनुराग त्रिपाठी का फोन आया-पापा, जो भी कर रहे हों छोड़ कर तुरत घर आइए। उसका स्वर भारी था और तुरत घर आइए शब्द सुन कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ गयी। सच कहूं मेरी आंखें भर आयीं मैंने अपने संपादक हरिराम पांडेय जी से कहा –भाई साहब मुझे तुरत घर जाना होगा, बेटे का फोन था लगता है भैया की तबीयत ज्यादा खराब हो गयी। उन्होंने मुझे छुट्टी दे दी।
   मैं आफिस से निकला, दुख और आशंका से मेरे पैर जैसे मन भर भारी हो गये थे। मुझसे चला नहीं जा रहा था। पूरा शरीर कांप रहा था, दिल धड़क रहा था। किसी तरह ऑटो पकड़ कर घर आया। देखा मेरे बड़े भैया रुक्म का निस्पंद, निर्जीव शरीर मेरे सामने था। मैं उस व्यक्तित्व को अपने सामने इस रूप में देख कर बिलख पड़ा जिसने एक तरह से हाथ पकड़ कर मुझे लिखना सिखाया। मैं जो भी थोड़ा कुछ लिख पाता हूं वह उन्हीं का श्रेय है। वह बड़े भैया जो जब तक मैं घर ना पहुंच जाऊं खाना नहीं खाते थे। मुझे अगर कार्यालय से लौटने में अस्वाभाविक देरी होने लगे तो बेचैन हो जाते थे। वापस पहुंचता तो उलाहने के स्वर में कहते –‘यार देरी होने लगे तो फोन तो कर दिया करो, जब तक पहुंचते नहीं जान सांसत में रहती है। मेरी इतनी चिंता करने वाले भैया चले गये, मेरे गुरु चले गये, मेरे अभिभावक चले गये, मैं अकेला पड़ गया। अब किससे कविता की मात्राएं ठीक कराऊंगा।
 हमारे घर में एक अजीब-सा सूनापन और उदासी छा गयी थी। कालोनी के सारे लोग जुट आये, भैया को सभी मानते और श्रद्धा करते थे। सबकी आंखों में आंसू थे, उनके त्रिपाठी जी, चले गये। मेरे बच्चे भैया को ताऊजी की जगह अउआजी कहते थे और भैया पूरी कालोनी के बच्चों के अउआजी हो गये थे। जिसने भी उनके निधन की खबर सुनी वही दुखी हो गये। उनके बांदा में बालसखा रहे कन्हैयालाल गुप्त निरंकार को जब मैंने फोन पर यह दुखद समाचार दिया तो वे बहुत दुखी हुए। वे बचपन की उन यादों खो गये जब बांदा में वे और रुक्म जी साथ-साथ खेला और पढ़ा करते थे।
   फिल्म अभिनेता अंजन श्रीवास्तव को भी जब यह खबर दी तो उन्होंने भी बहुत दुख जताया और यह कहना भी नहीं भूले कि उनकी प्रेरणा से ही वे मुंबई गये और फिल्मी दुनिया में अपना एक खास मुकाम बनाया।
  उनके निधन का समाचार पाकर प्रसिद्ध पत्रकार,संपादक, लेखक गीतेश शर्मा भी बहुत दुखी हुए। वे हमेशा भैया को गुरु जी कह कर ही संबोधित करते रहे। वे भैया के श्राद्ध के दिन आये और उन्हें याद कर रोने लगे।
  उनके लिए एक और जिस इनसान को फूट-फूट कर रोते देखा वे प्रसिद्ध चित्रकार और इंडियन आर्ट कालेज के पूर्व प्रिंसिपल होरीलाल साहू जी थे। वे भाभी के निधन के वक्त भी आये थे, दिल के मरीज हैं फिर भी उस वक्त भी बिलख-बिलख कर रोये थे। भैया रुक्म जी से उनका परिचय बहुत पुराना था। जब वे बंबई में थे और प्रसिद्ध चित्रकार रामकुमार शर्मा के सहायक के रूप में फिल्मों के कला निर्देशन में सहयोग किया करते थे उस वक्त वहां रुक्म जी से उनकी भेंट हुई थी। उसके बाद होरीलाल जी कलकत्ता आकर बस गये। उसके बाद रुक्म जी से उनका निरंतर मिलना-जुलना होता रहा और मित्रता प्रगाढ़ता में बदल गयी और फिर दोनों के परिवारों में भी प्रगाढ़ता हो गयी जो अरसे तक बरकरार रही। रुक्म जी ने सन्मार्ग के पूजा-दीपावली विशेषांक का संपादन कई वर्षों तक किया। एक साल उस पूरे अंक का चित्रांकन होरीलाल जी ने किया था। उस वर्ष उनके चित्रांकन की काफी प्रशंसा हुई।
भैया रुक्म जी चले गये, हम सबके जीवन में एक कभी ना पूरा होनेवाला शून्य छोड़ कर। उनके निधन के बाद हमारे घर का वह कोना उदास और सूना हो गया जहां बैठ कर उन्होंने अनेक उपन्यास, दर्जनों कहानियां, गीत और हजारों व्यंग्य कविताएं, नाटक व अन्य रचनाओं का सृजन किया।  (शेष अगले अंक में)

श्रद्धांजलि
भैया रुक्म जी के साथ ब्लागर राजेश त्रिपाठी

 हर कदम अब साथ केवल आपके आशीष हैं
जग के बंधन तोड़ करअलविदा आप यों कह गये।
अब दुख  के  तूफानों  में,  हम  अकेले रह गये।।
सर पे साया आपका था, आशीष का शुभ हाथ था ।
आपके रहते हमें कुछ न होगा, ये अटल विश्वास था।।
वटवृक्ष थे आप जिसके सहारे, हम तृण सदृश पलते रहे।
राह सच्ची दिखाई आपने, हम बांह थामे सदा चलते रहे।।
जो भी सीखा आपसे, जो भी जाना  वह  भी  आप  से।
आपके जाने से अब, लड़ना है अकेले जग के हर संताप से।।
आपने हमको सिखाया, आदमी गर कर ले दिल में हौसला।
उसको हिला सकता नहीं, तब दुनिया का कोई जलजला।।
आपका  हर  शब्द ही  हम सबके  लिए जीवन-मंत्र था।
आपसे बेधड़क हर बात करने को, परिवार भी स्वतंत्र था।
आपसे सर्वदा हमको मिलता रहा,  जो  असीम प्यार है।
अब तो बस  जिंदगी जीने का, इक  वही  आधार  है।।
आपकी  हर  सांस  में,  बस  इक  यही  परिवार  था।
नेक अभिभावक के जैसा,  हर  एक  से  व्यवहार  था।।
आपके  जाने  से   जानें,   कितनी   आंखें  नम  हुईं।
हमसे पूछे आके आपके जाने का क्या  है  गम  कोई।।
इक शाम सहसा जिंदगी में,  गहरा  अंधेरा  छा  गया।
जिंदगी में आपकी यादों का, बस केवल  सहारा रह गया।।
आपको  अश्रुपूरित  नयन  से हम सादर नवाते शीश हैं।
जिंदगी के हर कदम पर, साथ केवल आपके आशीष हैं।।



 

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