Wednesday, July 7, 2010

घुट रहा है गंगा का दम


-राजेश त्रिपाठी

• गंगोत्री से गंगासागर तक घोला जा रहा है जहर

• मनुष्यों के पीने योग्य तो दूर, नहाने लायक भी नहीं रहा गंगाजल

• चेतो भारतवासियो! यह जीवनरेखा सूखी तो खत्म हो जायेगा देश

पुण्य सलिला सुरसरी, पतितपावनी, जगउद्धारिणी गंगा जिसका हर भारतवासी से जन्म से लेकर मरण तक का अटूट नाता है। जिसे श्रद्धा से गंगा मैया कह कर बुलाते हैं और जो  जाने कितनी संस्कृतियों की साक्षी और इतिहास की गवाह है। जिसके तट पर संस्कृतियां जन्मी, जिसने सदियों से जमाने का हर दर्द सहा फिर भी लोगों में बांटती रही अमृत। वह गंगा जिसके बारे में कहा जाता है-गंगा ही हिंदुस्तान, हिंदुस्तान है गंगा, सच पूछो तो इस देश की पहचान है गंगा। आज उसी गंगा की पहचान खो रही है। सदियों से भारतवर्ष की जीवनरेखा रही सुरसरी की अपनी सांसें फूल रही हैं, घुट रहा है उसका दम। गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक उसमें घोला रहा है जहर और वह अब प्रदूषण के पंक में डूब कर अपनी पहचान ही खोती जा रही है। साल दर साल सिकुड़ता जा रहा है उसका आंचल। अपने किनारे उग आयी जाने कितनी औद्योगिक इकाइयों के गलीज, विषैले कचड़े को लीलने को विवश है हमारी मां गंगा।
चाहे कानपुर में चमड़े का शोधन करने वाली टेनरियां हों या गंगा किनारे बसे कुल 2073 कस्बे और शहर सभी के गंदे नालों का पानी बिना शुद्ध किये सीधा गंगा में जाता है। शहरों-कस्बों की इस गंदगी ने गंगा के 75 प्रतिशत पानी को प्रदूषित कर दिया है। इसके अलावा उसमें पड़ने वाले औद्योगिक कचड़े स्थिति और शोचनीय कर दी है। इससे अमृत जैसा गंगा का पानी विष में बदल गया है।
केद्र सरकार की एक रिपोर्ट ही यह दरशाती है कि ऋषिकेश से लेकर गंगासागर तक का गंगा का पानी मनुष्य के पीने लायक नहीं रहा। यहां तक कि मनुष्य इसमें स्नान तक नहीं कर सकता। वैज्ञानिक मानते हैं कि इसमें नहाने से कैंसर व अन्य बीमारियों के होने का खतरा है। वही गंगाजल जिसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि इसे वर्षों रखे रहो पर इसमें कीड़े नहीं पड़ते आज विषैला हो गया है कि अब मानवों के प्रयोग लायक नहीं रहा जो वर्षों से इसे पूजा अर्चना स्नानादि में काम में लाते रहे हैं। औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ का खामियाजा, इसका अपने हिस्से का दुख भोगने को गंगा भी विवश है। हम इसे अकाल मौत की ओर बढ़ते देख रहे हैं, किंकर्तव्य विमूढ़ हैं क्योंकि जिनके हाथों में सत्ता है उन्हें अपने राजनीतिक दांवपेचों से फुरसत नहीं। गंगा की सोचने के लिए उनके पास वक्त कहां। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की प्रधानमंत्री की मंशा सराहनीय और साधुवाद की परिचायक है लेकिन गंगा को अकाल मौत से बचाने के लिए कोई सार्थक प्रयास सत्वर और नितांत आवश्यक है। इसके बिना गंगा नहीं बचेगी और अगर गंगा के अस्तित्व पर संकट आया तो यह संकट देश पर भी होगा।

सरकार ने गंगा के प्रदूषित पानी के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के जरिये जो अध्ययन करवाया था उसके अनुसार ऋषिकेश से पश्चिम बंगाल तक कुल 23 जगहों से गंगा के पानी के नमूने लेकर उनका परीक्षण किया गया और पाया गया कि इन नूमनों में से कहीं का भी पानी मनुष्य के पीने योग्य यानी प्रथम श्रेणी का नहीं है। ऋषिकेश का पानी दूसरे दर्जे का यानी स्नान लायक पाया गया। हरिद्वार तक पहुंचते-पहुंचते वही पानी तीसरे दर्जे का हो गया जिसे शुद्धीकरण के बिना प्रयोग ही नहीं किया जा सकता। यह हाल है गंगा के उस पानी का जो कभी अमृत माना जाता था। आज वह स्नान लायक भी नहीं रहा। गंगा शुद्धीकरण के

अब तक सभी प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुए हैं। यही वजह है कि इनका कोई फल सामने नहीं आया। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 1985 में गंगा एक्शन प्लान के बैनर में एक योजना बनायी गयी थी जिसके तहत गंगा में गिरने वाले औद्योगिक कचड़े और शहरी सीवेज को रोकने के लिए वाटर ट्रीटमेंट प्लांट आदि लगाने की योजना बनायी गयी थी। इस प्लान में 2000 करोड़ रुपये स्वाहा हो गये लेकिन गंगा प्रदूषण मुक्त होने के बजाय और भी प्रदूषित हो गयी।

अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस समस्या को गंभीरता से ले रहे हैं। उनकी अध्यक्षता में हुई गंगा बेसिन अथॉरिटी की बैठक में गंगा के शुद्धीकरण के बारे में विचार-विमर्श किया गया। इस अथॉरिटी में उन पांच राज्यों को शामिल किया गया है जिनके पास से गंगा बहती है। इस बैठक में प्रधानमंत्री ने यह कहा कि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के इस कार्य में आने वाले खर्च का 70 प्रतिशत व्यय केंद्र सरकार देगी और 30 प्रतिशत संबंधित राज्यों को वहन करना होगा। इस योजना को किस तरह से लागू किया जायेगा यह रूपरेखा अभी योजना आयोग को बनानी है। इस योजना में गंगा के अलावा उसकी सहायक नदियों को भी प्रदूषण मुक्त करना शामिल है ताकि प्रदूषण के उत्स को ही नष्ट किया जा सके। बक्सर, पटना, मुंगेर, भागलपुर आदि का गंगा जल तीसरे दर्जे का है। यह ऐसा है कि इसका प्रयोग सिर्फ शुद्धीकरण के बाद ही किया जा सकता है। वाराणसी, कानपुर, इलाहाबाद का गंगा जल तो सिर्फ जानवरों के पीने लायक ही रह गया है। गंगा प्राणदायिनी है, देश की आधी आबादी की प्यास यही बुझाती है। खेतों और दियारा में हर साल नयी मिट्टी लाकर धरती पर सोना उपजाती है गंगा। इस तरह यह अन्नदायिनी भी है। यह सूखी तो सूख जायेंगे खेत, सूख जायेंगी न जाने कितनी जिंदगियां। गंगा को सर्वाधिक प्रदूषित करते हैं शहरों की गंदी नालियां। रही-सही कसर औद्योगिक इकाइयों से निकता कचड़ा पूरी कर देता है। हमारे देश में औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ के आगे आम जनता के हित-अनहित की बात नहीं सोची जाती। आज हम औद्योगिक इकाइयों से निकले प्रदूषित कचड़े को शुद्ध कर गंगा में डालने की बात कर रहे हैं लेकिन जब ये औद्योगिक इकाइयां स्थापित की गयीं तो उनको यह निर्देश क्यों नहीं दिये गये कि वे अपने औद्योगिक कचड़े के ट्रीटमेंट के लिए संयंत्र लगायें तभी उन्हें लाइसेंस दिया जायेगा? जिन अधिकारियों ने इनको लाइसेंस दिये उन्होंने पहले इस बात का जायजा क्यों नहीं लिया कि इससे परिवेश और पर्यावरण के लिए क्या-क्या संकट आ सकते हैं? उनकी इस उदासीनता का कारण क्या था? कौन सी ऐसी मजबूरी थी कि उन लोगों ने उस वक्त यह नहीं सोचा कि औद्योगिक कचड़ा एक दिन गंगाजल की प्राणवायु ही छीन लेगा? उनके सामने ऐसा क्या दबाव या प्रलोभन रहा होगा जिसके चलते उन्होंने देश की जीवनरेखा गंगा को ही दांव पर लगा दिया? ऐसे जाने कितने और भी सवाल हैं जो आज देश की जनता के जेहन में हैं। वह गंगा को तिल-तिल कर मरता देख रही है और सोच रही है कि आखिर वे कौन से खलनायक हैं जिन्होंने गंगा को इस हाल तक पहुंचने दिया है। हम आज गंगा के शुद्धीकरण की बात करते हैं वही गंगा जो और को तारती है आज खुद अशुद्ध है और आज उनकी ही मुंहताज है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसे दूषित करने के गुनहगार हैं। आज तक जितने सरकारें हुईं, किसी ने भी गंगा के बारे में गंभीरता से सोचा हो ऐसा नहीं लगता। लगता है कि सबने इसे सिर्फ एक नदीं के रूप में देखा और माना जिसके मरने या बचने से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन गंगा नदी नहीं एक पावन सरिता है, वह जीवनधारा है, जीवन शैली है। ऋषियों मुनियों ने इसमें अवगाहन कर मोक्ष पाया। सदियों से यह पतित पावनी और सुरसरि यानी देव सरिता कहलाती रही है। इसे वही सम्मान मिलना चाहिए। यह मां है और इसे बचाना हर देशवासी का कर्तव्य है। अब तक जो भूल हुई है उसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। हम पुण्य सलिला गंगा को कीचड़ और गलीज से सनी नदी के रूप में बदलते देख रहे हैं और दुखी हो रहे हैं यह सोच कर कि एक संस्कृति, एक जीवनधारा एक समृद्ध, पुनीत इतिहास हमारे सामने धीरे-धीरे विलुप्त होने की दिशा में बढ़ रहा है। भगीरथ कठिन तप कर गंगा को धरा पर लाये थे ताकि उनके पूर्वज सगर पुत्र तर सकें। उनकी लायी सुरसरी उसके बाद से सदियों से जगत को तार रही है लेकिन हमने इसकी रक्षा नहीं की और यह सूखी तो फिर कोई भगीरथ नहीं आयेगा धरती पर गंगा को दोबारा लाने के लिए। तब अनर्थ के सिवा और कुछ नहीं होगा।

गंगा में जगह-जगह बांध बनाये गये हैं जिनसे विद्युत उत्पादन हो रहा है और खेतों की सिंचाई में भी उसके पानी का इस्तेमाल हो रहा है। यमुना नदी जिसका प्रदूषण दिल्ली में चरम स्तर पर है अपने प्रदूषित जल के साथ गंगा में इलाहाबाद के संगम में मिलती है। इसके अलावा दूसरी प्रदूषित नदियां भी गंगोत्री से गंगासागर तक के गंगा के मार्ग में विभिन्न स्थानों पर उससे मिलती हैं और उसके प्रदूषण का स्तर और बढ़ाती चलती हैं।

पता नहीं देश जीवनदायिनी गंगा के प्रति उदासीन क्यों हो गया है। गंगा जो इस देश का आधार और इसकी संस्कृतियों की संवाहक है। वैसे इस अंधेरे में भी प्रकाश की किरणें नजर आ रही हैं जो सुखद संकेत है। देश के विभिन्न हिस्सों में गंगा के प्रदूषण के प्रति जनमानस में चिंता जगाने, उन्हें गंगा की रक्षा में प्रवत्त करने की दृष्टि से कई प्रयास किये जा रहे हैं। इनमें ही एक गंगा आरती है जो हरिद्वार के परमार्थ आश्रम में वर्षों से होती आ रही है। बनारस में भी होती है पिछले कुछ दिनों से हावड़ा के रामकृष्णपुर घाट में भी अशोक पांडेय के नेतृत्व में कुछ उत्साही लोगों ने ऐसी ही आरती शुरू की है जिसका उद्देश्य गंगा के प्रदूषण के बारे में जन जागरण फैलाना है। माना कि ऐसे प्रयासों से गंगा प्रदूषण मुक्त नहीं होगी लेकिन इससे गंगा की दुर्दशा के बारे में देश में चिंता जगाने का काम तो किया ही जा सकता है जो संभव है कल एक ऐसे सद्प्रयास में बदल जाये जो गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के सत्कार्य में सहभागी बन जाये। गंगा को भगवान का ही रूप मानने वाले एक महान व्यक्ति हैं केंद्रीय विश्वविद्यालय इलाहाबाद के वनस्पति विज्ञान वित्भाग के वरिष्य़ आचार्य डाक्टर दीनानाथ शुक्ल ‘दीन’ जो गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने के संकल्प ले चुके हैं। उन्होंने कहा है कि गंगा को प्रदूषम मुक्त करा कर ही वे उसमें स्नान करेंगे। वे प्रदर्शनियां लगा कर और गोष्ठियां आदि आयोजित कर गंगा के प्रदूषण और उसके खतरों के बारे में जनजागरण फैलाते हैं और इस अभियान से करोड़ो लोग जुड़ चुके हैं। वे तथा उनकी तरह के अन्य लोगों के प्रयास से यह आशा जगी है कि पावन सुरसरी आज नहीं तो कल अवश्य प्रदूषण मुक्त होगी।
गंगा एक्शन प्लान के तहत 1990 तक गंगा को पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त हो जाना था लेकिन वह हुआ नहीं। अभी सरकार से कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि वह योजनाएं बनाने में माहिर होती है उसका कार्यान्वयन जरूरी नहीं कि हमेशा हो और वह भी सुचारू रूप से। ऐसे में देशवासियों को वे जहां हैं वहीं से गंगा को बचाने का प्रयास करना है। अगर कहीं भी ऐसी कोई औद्योगिक इकाई स्थापित होती है जिसका प्रदूषित कचड़ा गंगा में जायेगा तो स्थानीय जनता को अधिकारियों से अनुरोध कर पहले उस कचड़े के शुद्धीकरण का संयंत्र लगवाने की शर्त रखवानी चाहिए। वह बन जाये तभी कारखाने को बनाने की अनुमित दी जानी चाहिए। अगर इस नियम का कड़ाई से पालन हो (जो अभी तक शायद उस तरह नहीं हुआ जैसा होना चाहिए) तो कचड़ा स्वच्छ जल के रूप में गंगा में मिलेगा और इस तरह से उसके प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी।
हर नागरिक को गंगासेवक बनना है और गंगा को और नुकसान न पहुंचे इसके लिए चौकस रहना है। ऐसा न हुआ तो गंगा का अस्तित्व मिट जायेगा फिर न पूजा के लिए इसका शुद्ध जल उपलब्ध होगा न इसके तट किसी पावन पर्व में स्नान लायक रह जायेंगे। शायद वह दिन कोई सच्चा हिंदुस्तानी नहीं देखना चाहेगा। क्योंकि गंगा न रही तो फिर सुहागन किससे निहोरा करेगी-गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो सैंया से करदे मिलनवा। सुहागन की मनकामना पूरी होती रहे, वह अपने सैंयां की सलामती के लिए गंगा मैया में चुनरी चढ़ाती रहे, पुण्य सलिला मां गंगा भारत भूमि पर अपने स्वच्छ अमृतमय जल के साथ अनवरत काल तक अबाध प्रवाहमान रहे यही हम सबकी कामना और प्रार्थना है। देशवासियो जागो, गंगा को बचाओ, गंगा की रक्षा आत्म रक्षा है। गंगा नहीं बची तो भारत का अस्तित्व भी संकट में आ जायेगा।
गंगा है देश का मान, देश की जान है गंगा। भारत के भारत होने की पहचान है गंगा।


जय जय गंगे, जय जय मां गंगे










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