आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
(भाग-11)
राजेश त्रिपाठी
समय पंख लगा कर उड़ने लगा। हमारे गांव की चौपाल में चलनेवाली पाठशाला
बंद हो चुकी थी। पढ़ने के लिए अब मैं पास के गांव हरदौली जाने लगा था। हरदौली गांव
हमारे गांव से कुछ दूर था। रास्ता सुनसान रहता था। यह बताने में मुझे कोई संकोच या
झिझक नहीं कि एकाकी सुनसान रास्ते मुझे डराते थे। यही लगता रहता था कि जाने कब किस
कोने से कोई आ जाये। आसपास की कोई भयानक आवाज मुझे डरा ना दे इसलिए उस सुनसान
रास्ते में मैं जोर-जोर से कोई गाना गाता जाता था। उन दिनों रेडियो में फिल्मी
गाने खूब आते थे। हमारे बुंदेलखंड के गांवों में उन दिनों रेडियो के गाने या फिर
आल्हा-ऊदल के शौर्य की गाथा या नाटक-नौटंकी के अलावा और दूसरा मनोरंजन का साधन
नहीं था।
एक बार मेरे कानों में किसी
फिल्मी गाने की एक पंक्ति पड़ गयी-या अल्लाह या अल्लाह मेरा दिल ले गयी। पढ़ने के
लिए हरदौली जाते वक्त अकेले डर लगता तो मैं गाने की यही पंक्ति चिल्लाने लगता।
मुझे यह पता नहीं था कि मैं ऐसा कर के अपना बहुत अनर्थ कर रहा हूं।
एक शाम मैं जब हरदौली से लौटा
तो मां से बोला-मैं आज खाना ना खइहौं तबियत ठीक नहीं लागत।
मां ने मेरा बदन छूकर देखा-अरे दादू (हमारी तरफ बच्चों को इसी संबोधन
से बुलाते हैं) तोहीं तौ बोखार है। बदन तप रहा है ठीक है तैं चुपचाप सो जा।
मैं खाट पर सो गया सोया क्या
बेहशी के बुखार में बेसुध-सा हो गया। अचानक किसी अज्ञात शक्ति ने मुझे खाट से
उठाया और नीचे जमीन पर पटक दिया। मां मेरी चिंता में जगी बैठी थी उसने तुरत मुझे
उठा कर कुछ पूछा पर कहते हैं मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में मां ने बताया कि
बेहोशी में मैं चिल्ला रहा था-मोरे सिर पर याल्ला याल्ला करेगा।
मां दूसरे दिन ही गांव के एक
गुनी ( भूत-प्रेत झाड़नेवाले) दशरथ काका को बुला लायी। उससे बताया कि बुखार की
बेहोशी में मुझे किसी ने खाट के नीचे पटक दिया और कोई मेरे मुंह से कहलवा रहा
था-मेरे सिर पर याल्ला याल्ला करेगा।
दशरथ काका जानते थे कि मैं पढ़ने हरदौली जाता हूं। उन्हें यह भी पता
था कि जिस रास्ते से मैं जाता हूं उसमें
एक पीर बाबा की मजार भी है। मुझे इस बात का पता नहीं था। उन्होंने मां से कहा-दादू
को कल लेकर जाइए रास्ते में जाते समय दायीं ओर पीर बाबा की मजार है वहां माथा टेक
कर माफी मगवा दीजिए। कहिएगा –पीर बाबा बच्चा है गलती हुई माफ कर दीजिए अब ऐसा नहीं
होगा और दादू को भी समझा दीजिए कि फिर वहां कभी चिल्लाये नहीं। मां ने वैसा ही
किया और मुझे मना कर दिया कि अनजाने में तुमसे भूल हो गयी अब ऐसा मत करना। मैंने
कसम खा ली कि जितना भी डर लगे अब खामोशी से ही रास्ता तय करूंगा।
हरदौली की पाठशाला की ही एक
घटना और याद आती है। उन दिनों स्कूलों में चेचक का टीका लगा करता था। हमारे स्कूल
में भी एक दिन अध्यापक ने घोषणा की कि –कल सभी बच्चे स्कूल जरूर आयें। कल सरकार की
ओर से सभी को चेचक का टीका लगाया जायेगा।
अब हम तो ऐसे थे कि हमें
इंजेक्शन से बड़ा डर लगता था। यह भी बता दें कि उन दिनों जिससे चेचक का टीका लगाते
थे वह छोटी-सी मथानी जैसी वस्तु होती थी जिसमें हलके-हलके कांटे से लगे रहते थे उसे
दवा में डुबो कर टीका लगाने वाला बांह में तीन जगह चुभा कर घुमा देता था। यह देख
कर ही डर लगता था।अब तो यह उतना डरावना नहीं रहा।
घोषणा तो हो गयी लेकिन दूसरे
दिन आधा स्कूल नदारद। हम लोग हाजिरी देकर एक-एक कर ज्वार के खेतों में छुपे रहे और
शाम होते ही चुपचाप अपने बस्ते उठा कर अपने-अपने घर लौट गये।
अध्यापक हम लोगों की चालाकी
समझ गये। एक बार उन्होंने बताया ही नहीं कि कल टीका लगना है। हम लोग चुपचाप पढ़
रहे थे कि तभी अचानक दो-चार अजनबी अंदर आये और एक-एक कर सभी लड़कों टीका लगाने
लगे। उस दिन हम भी पकड़ में आ गये। मैंने डर के मारे मुंह दूसरी ओर घुमा दिया और
डर के मारे हाथ कड़ा रह गया जिससे दर्द की एक लहर सी उठी और हाथ से खून भी निकल
गया। अध्यापक पर बड़ा गुस्सा आ रहा था जिसने हमें इस बात से अनजान रखा कि टीका
लगाने वाले आनेवाले हैं।
*
हमारे बुंदेलखंड में पहलवानी की प्राचीन और समृद्ध परंपरा रही है। अब
की बात नहीं जानता पहले अक्सर हर गांव में अखाड़ा होता था और बच्चे छोटी उम्र से
ही अखाड़े में दंड, बैठक और कुश्ती का अभ्यास करने लगते थे। हम लोगों ने भी अपने
गांव के बाहर महुए के एक पेड़ के नीचे
अखाड़ा बना रखा था। उसकी मिट्टी को हम इतना भुरभुरा और नरम रखते थे कि वह रुई के
गद्दे का एहसास दे। उसमें मैं,बाबूलाल यादव (अब सेवानिवृत जज),शिवरोमन यादव और
अन्य कई लोग व्यायाम करते और कुश्ती का अभ्यास करते थे। हम लोग सुबह-सुबह अखाड़े
में पहुंच जाते वहां व्यायाम आदि कर के वापस आते और थोड़ा विश्राम कर स्नानादि कर
के पढ़ने जाते थे।
एक दिन की बात है कि जब मेरे
बाकी साथी व्यायाम और कुश्ती का अभ्यास करने के बाद पास ही बैठे विश्राम कर रहे थे
उस वक्त मैं चारों तरफ घूम-घूम कर ताल ठोंक रहा था। जो पहलवानी और कुश्ती से परिचित
हैं वे जानेते होंगे कि दो पहलवान कुश्ती शुरू करने के पहले जांघ में हथेली मार कर
ताल ठोंकते हैं और कुश्ती चलते समय बीच-बीच में ऐसा करते रहते हैं। उस दिन ताल
ठोंकना मेरे लिए मुसीबत का कारण बन गया।
अचानक जाने कैसे किसी ने
मुझे उठा कर उछाल दिया और मैं महुए की डाल से टकरा कर अखाड़े में आ गिरा। मुझे लगा
कि मेरे साथियों में से किसी ने यह शरारत की होगी। मैं उन लोगों को टेढ़ी नजरों से
घूरने लगा जो खुद हक्का-बक्का होकर मुझे देख रहे थे।
मैं गुस्से में बोला-कौन है
जिसे कुश्ती लड़ने का इतना शौक है कि मुझे धोखे में उछाल कर फेंक दिया, आओ सामने
से लड़ लो।
सब एक साथ बोले-भैया हम सब
अचंभे में हैं, हमने देखा किसी अदृश्य शक्ति ने आपको उठा तक उछाल दिया। हम तो बहुत
देर से यहां बैठे ही हैं। हममे से कोई अखाड़े के अंदर नहीं गया।
इतना सुनना था कि मैं अंदर तक
कांप गया। अगर मेरे साथियों ने कुछ नहीं किया तो फिर किस अदृश्य शक्ति के कोप का
मैं शिकार हुआ।
घर आने के कुछ देर बाद ही
मुझे बुखार आ गया। कुछ देर में बेहोशी का बुखार आ गया। कहते हैं कि मैं बेहोशी में
चिल्ला रहा था-मेरे सामने ताल ठोकोंगे इतने बड़े पहलावन हो गये तुम।
मां फिर परेशान हो गयी और गुनी दशरथ काका को बुला लायी। उनसे बताया कि
मैं बेहोशी के बुखार में क्या चिल्ला रहा था।
वे जानते थे कि हम लोगों का
अखाड़ा कहां पर है। सब सुन कर वे बोले-जहां इन लोगों का अखाड़ा हैं वहां पीपल का
पेड़ है जिसके अंदर बरगद और नीम भी उग आयी है। जहां भी ऐसा पेड़ होता है उसमें
बरंबाबा (ब्रह्मदेव) का वास होता है। लगता है भूल से दादू बरंबाबा की ओर मुंह कर
ताल ठोंक बैठे हैं इसी से बरंबाबा नाराज
हो गये हैं। कल नहा कर बरंबाबा के पास जाइए नारियल, बतासा चढ़ा कर दादू से
कहिए कि हाथ जोड़ कर क्षमा मांगे कि हे प्रभु भूल हो गयी अब ऐसा कभी नहीं होगा।
मां ने वैसा ही किया और एक दिन बाद मेरा बुखार ठीक हो गया।
दशरथ काका ने यह भी सलाह दी
थी हम वहां से अखाड़ा हटा लें। हमने उनकी यह बात भी मान ली और फिर अखाड़ा गांव में
बना लिया। यह शिवरोमन .यादव के घर के बगल के बड़े चबूतरे पर बनाया गया जहां हम लोग
नीम के पेड़ के नीचे व्यायाम और कुश्ती का अभ्यास करने लगे।
*
हरदौली दूर पड़ता था और पीर बाबा वाली घटना के बाद वहां जाने में डर
लगता था इसलिए हमें हमारे गांव के पास के एक दूसरे गांव अछाह की पाठशाला में भरती
करा दिया गया।
अछाह की हमारी पाठशाला के
अध्यापक बहुत गुणी और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। वे हमें हमारे विषय पढ़ाने के
साथ ही नीति वाक्य, गीता आदि के संदेश भी बताते थे दलित वर्ग से थे लेकिन उनकी
विद्वता कमाल की थी। वे बबेरू से आते थे। बबेरू हमारी तहसील थी। एक दिन पता नहीं
उनके मन में क्या आया मुझे साइकिल में बैठाया और कहा चलो मैं तुम्हें अपना घर दिखाता
हूं फिर तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगा।
मैं उनके साथ चला गया। उनके
घर जाकर जो देखा अवाक रह गया। उनके घर में केवल एक तस्वीर थी कुरुक्षेत्र में
अर्जुन को संदेश देते योगेश्वर कृष्ण की बाकी पूरी दीवार प्रेरणात्मक संदेशों के
पोस्टरों से पटी थी जो हमारे अध्यापक महोदय ने स्वयं तैयार कर लगाये थे। आपकी नजर
जाये उधर ही कोई पोस्टर आपको इस बात से आगाह करता हुआ कि पाप क्या है, पुण्य क्या,
जीने की कौन राह सच्ची है और कौन गलत। अभी मैं पोस्टरों की इबारत में खोया था कि
तभी हमारे उन अध्यापक जी ने अपनी बेटी को बुलाया जो मुश्किल से चार-पांच साल की
रही होगी। उससे उन्होंने कहा कि इनको गीता के श्लोक और दूसरे जो श्लोक तुम्हें आते
हैं सुनाओ। वह बच्ची बिना अटके धाराप्रवाह गीता के श्लोक व संस्कृत के कई नीति
वाक्य सुनाती रही। मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता और अपने शिक्षक पर गर्वित होता रहा कि
वे अपनी कन्या को किस तरह मानवता और अध्यात्म के मूल्यों से समृद्ध कर रहे हैं।
मैंने उस कन्या के सिर पर हाथ फेरा मन अपने आदर्श अध्यापक की अध्यात्म चेतना लख
गद्गद् हो गया।
हमारे इन आदर्श अध्यापक का
साथ हमें अधिक दिनों तक नहीं मिल पाया और उनका तबादला हो गया। नये अध्यापक भी जो
आये उनका साथ भी कम दिनों तक ही मिला किसी बीमारी में उनका निधन हो गया। किसी नयी
नियुक्ति तक के लिए स्कूल बंद कर दिया गया।
अब हमारे सामने घर में बैठे रहने के अलावा कोई
रास्ता नहीं था। कुछ दिन यों ही बैठे रहे फिर किसी ने सुझाया कि गांव से आधा मील
दूर आलमपुर है वहां मौलबी साहब मदरसा चलाते हैं वे हिंदी भी जानते हैं वहां इसे
भेजा कीजिए। कुछ ना कुछ पढ़ता रहेगा तो अभ्यास बना रहेगा।
आलमपुर में मेरी मां का जिन्हें
मैं अम्मा कह कर पुकारता था कई चाचियों से अच्छा परिचय था। मेरे पिता जी जिन्हें
मैं बाबा कह कर पुकारता था क्योंकि वे गांव भर के तिवारी बाबा थे और यह सुनते
सुनते मेरे मुंह से भी एक बार बाबा निकला तो फिर पिता जी के लिए यही संबोधन बराबर
चलता रहा। पिता जी का भी आलमपुर के ईजाद चाचा व अन्य लोगों से अच्छा परिचय था। हम
छोटे से अम्मा और पिता जी के साथ मोहर्रम और ईद में आलमपुर जाते थे मोहर्रम में
सबके दुख में दुखी होते और ईद में सिवंइयां खाते थे। बड़ी मोहब्बत थी लोगों में
कहीं कोई दुराव, मनमुटाव नहीं वे दिन आज भी याद आते हैं तो बिसूरना पड़ता है कि सब
कुछ कैसे बदल गया।
तो हम आलमपुर के मदरसे में
भरती हो गये। वहां हमारे मुसलिम सहपाठी अलिफ,बे, ते, से,खे, हे, दोचश्मीहे. स्वाद, ज्वाद पढ़ते और हम अपनी
हिंदी की पुस्तकें पढ़ते रहते। हमारी प्रार्थना ‘हे
प्रभू आनंददाता’ से बदल कर ‘पहला कलमा त्वैयब का
ला इलाहा इल्लल्ला’ हो गयी थी.।
आलमपुर और हमारे गांव
जुगरेहली के बीच में एक मटियारा नाला बहता है। वह कहने को तो नाला है लेकिन बरसात
में जब उफनता है तो रौद्र रूप धर लेता है। उसकी तेज धार को पार करना मुश्किल हो
जाता है। जब कभी जोर से बरसात होती तो मां हमारे घर के बगल में रहनेवाले शिवबालक
नाई से कहती-भैया जाओ जरा आलमपुर से दादू को ले आओ, नदी उफान पर है वह कैसे आयेगा।
शिवबालक अपनी तिवारिन दाई का आदेश पाते ही जाता
और मुझे कंधे पर बैठा कर उफनती नदी से पार करा के गांव से आता था। (क्रमश:)
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