Saturday, June 18, 2022

इस तरह मैं बन गया साप्ताहिक ‘स्क्रीन’ का प्रबंध संपादक

आत्मकथा-36

भाग-36
 राजेश त्रिपाठी
 सन्मार्ग में मेरा प्रशिक्षण सही ढंग से चल रहा था। मैं वहां के संपादकीय विभाग के वरिष्ठ जनों के लिए अब अपरिचित नहीं रहा था। मैं उनके सहयोगी रामखिलावन त्रिपाठी का भाई हूं इसलिए उनसे भी बड़े भाइयों-सा स्नेह पा रहा था। मेरी कुछ आदतें आज के युग के अनुरूप नहीं हैं। मैं मितभाषी हूं और जब तक किसी से सहजता अनुभव ना करूं बातचीत में पहल करने में असहजसता महसूस करता हूं। सन्मार्ग में जब कोई मुझसे कुछ पूछता तभी मैं उत्तर देता था। अब जरा उस वक्त के संपादकीय विभाग के कुछ ऐसे जनों का परिचय देता चलूं जो अपने मिसाल आप थे। एक हरेंद्रनाथ झा थे जो शिफ्ट इंचार्ज हुआ करते थे और ठीक टेलीप्रिंटर के पास बैठते थे जिस पर लगातार एजेंसी की खबरें अंग्रेजी में आती रहती थीं। झा जी पूरी तरह शूटेड,बूटेड टाई बांधे हुए साहब से ही लगते थे। जब तक वह आफिस में रहते अपनी वजनी आवाज में निर्देश देते रहते। मैं उनसे कभी सहज नहीं हो पाया क्योंकि उनके व्यक्तित्व में सहजता कम दंभ अधिक झलकता था। एक थे लाल जी पांडे मितभाषी, जिनके अधरों पर सदा स्मित हास्य थिरकता रहता था। उदयराज सिंह लक-दक कुरते और धोती में रहते थे। बड़े सज्जन थे। तारकेश्वर पाठक जी समाचार संपादक थे। बड़े ही सज्जन और बहुत धीमे स्वर में बोलने वाले । कभी-कभी तो उनके बोले शब्द समझने में दिक्कत होती थी। संपादकीय विभाग में रमाकांत उपाध्याय जी भी थे जो जब मूड में होते तो अपने सहयोगियों से एक चिरपरिचत गाली के साथ संवाद करते थे। हां जब तक मैं विभाग में रहता वे अपनी वाणी में नियंत्रण रखते थे जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। लोग जो उनकी इस आदत से परिचित थे वे उन्हें चिढ़ाने के लिए उन्हें देख कर काफी देर तक खामोश रहते। तब वह अपने चिरपरिचत अंदाज में बोलते****(गाली) बोलते क्यों नहीं मुंह में दही जमा रखा है क्या। इस पर सभी एक साथ खिलखिला उठते और माहौल खुशनुमा हो जाता। उनके लिखे संपादकीय बहुत चर्चित होते थे। लेकिन उसकी लिखावट इतनी अस्पष्ट होती थी कि कंपोजीटर मुश्किल से पढ़ पाते थे। वे वापस उनके पास पूछने आते तो कभी-वे खुद अपना लिखा नहीं पढ़ पाते थे। कहते हैं कि एक बार वे संपादक रामअवतार गुप्ता जी की अनुपस्थिति में उनकी मेज पर कुछ संदेश लिख कर रख गये। गुप्ता जी आये तो उन्होंने उस संदेश को पढ़ने की बड़ी कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाये। हार कर उन्होंने एक कंपोजीटर को बुलाया जिसने तुरत वह संदेश पढ़ दिया। रमाकांत जी मुझसे बड़े भाई-सा व्यवहार करते थे इसका एक कारण यह भी था कि वे मेरे भैया रुक्म जी का बहुत आदर करते थे। वे अच्छे कवि भी थे। उन्होंने एक बार बातों बातों में बताया था कि जिस तरह गोस्वामी बिंदु जी ने भजन-कीर्तन की ‘मोहन मोहिनी’ लिखी है उसी तरह मैंने भी एक पुस्तक लिखी है। अब नाम याद नहीं आ रहा लेकिन उन्होंने उसकी कई रचनाएं मुझे सुनायी थीं। * सन्मार्ग में रहते हुए ही मुझ पर एक और दायित्व आ पड़ा। यह था ब्राडशीट पर निकलनेवाले हिंदी फिल्म साप्ताहिक ‘स्क्रीन’ का प्रबंध संपादक बनना। इसके मालिक महावीर प्रसाद पोद्दार जानते थे कि मैं सन्मार्ग में सीख रहा हूं। स्क्रीन महावीर प्रसाद पोद्दार के पिता आर.के. पोद्दार ने निकाला था जिसके संपादक भैया रुक्म थे। उन दिनों मुंबई के फिल्म जगत और युवाओं में स्क्रीन की धूम थी। उसमें ऐसी-ऐसी धमाकेदार स्टोरी छपती थीं कि उन्हें पढ़ने के लिए युवा वर्ग सबसे अधिक लालायित रहता था। स्क्रीन की लोकप्रियता का आलम यह था कि मुंबई से निकलनेवाला लोकप्रिय फिल्म साप्ताहिक टिक नहीं पाया और बंद हो गया। भैया रुक्म जी ने मुंबई में अपने दो सहायक रख रखे थे। एक थे मशहूर स्तंभकार दीनानाथ शास्त्री और दूसरे एक और जिनका नाम याद नहीं। अभिनेता धर्मेंद्र भैया को बहुत मान देते रहे हैं। इसका कारण यह रहा कि जब आर्य समाजी पिता के पुत्र धर्मेंद्र पंजाब से मुंबई फिल्मों में अभिनय करने आये तो शुरू-शुरू में सभी ने उन्हें हतोत्साहित किया। एकमात्र भैया ऐसे पत्रकार थे जो अपनी स्क्रीन में लगातार धर्मेंद्र के बारे में लिखा करते थे कि-इस अभिनेता में गजब की अभिनय क्षमता है अगर कोई अच्छा निर्देशक मिल जाये तो यह बहुत आगे जा सकता है। बाद में यह बात सच साबित हो गयी। धर्मेंद्र ने अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया। वह इसी से भैया को बहुत मानते रहे। यहां तक कि जब धर्मेंद्र को एक सचिव की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने भैया से ही कहा-रुक्म जी मुझे एक अच्छा सेक्रेटरी दिला दीजिए। इस पर भैया ने अपने सहायक दीनानाथ शास्त्री का नाम सुझाया जिसे धर्मेंद्र ने तुरत मान लिया। बाद में दीनानाथ शास्त्री फिल्म निर्माता बन गये। उन्होंने एक सफल फिल्म बनायी थी ‘धरती कहे पुकार के’। उसी स्क्रीन का भार मुझे सौंपा गया। मैं दिन में सन्मार्ग में सीखता और शाम स्क्रीन कार्यालय चला जाता और वहां तीन-चार घंटे काम देखता। सन्मार्ग में तो मैं केवल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद और समाचार आदि की हेडिंग भर देना सीखता था स्क्रीन में समाचार, संपादकीय लिखना, पूरे पेज का मेकअप करवाना सब कुछ देखना पड़ता था। मैं खुश था कि चलो कुछ नया काम सीख रहे हैं। जब मेरे संपादकत्व में स्कीन का पहला अंक छप कर आया तो प्रबंध संपादक के रूप में अपना नाम छपा देख कर बहुत खुशी हुई थी। मेरा रोज का क्रम था अपने कांकुड़गाछी वाले फ्लैट से पहले सन्मार्ग और फिर स्कीन कार्यालय जाना और फिर घर वापस आना। * कुछ दिन ऐसा ही चलता रहा फिर मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया। हुआ कुछ यों कि नगर के महात्मा गांधी रोड पर स्थित सचदेव पुस्तकालय के मालिक सचदेव जी ने भैया रुक्म को अपने पास बुलाया। भैया की पुस्तकें प्रकाशित होती रहती थीं इसलिए हिंदी के प्राय: सभी प्रकाशक उनसे परिचित थे। सचदेव जी ने भैया से कहा- रुक्म जी लखनऊ से ज्ञानभारती बाल पाकेट बुक ने बच्चों के लिए छोटे साइज में कहानियों की पुस्तकें निकाली हैं जिनका मूल्य एक रुपया रखा गया है। वह बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं। हम सोचते हैं कि क्यों ना हम लोग भारत की दूसरी बाल पाकेट बुक अपने यहां से प्रकाशित करें। हर माह चार पुस्तकों का सेट प्रकाशित करना पड़ेगा। भैया ने हामी भर ली कि हो जायेगा। नाम रखा गया राजू बाल पाकेट बुक्स। 
मेरी कुछ बाल पाकेट्स बुक के कवर


सचदेव जी से बात करके भैया घर आये तो मुझसे बोले एक बड़ा काम आया है तुम्हें मेरी मदद करनी होगी। मैंने कहा क्या है। इसके बाद उन्होंने ज्ञानभारती बाल पाकेट बुक्स की चार किताबें मेरे पास रखते हुए कहा कि यह भारत की पहली बाल पाकेट बुक है। इसी तरह की बाल पाकेट बुक्स कलकत्ता के मेरे परिचित निकालना चाहते हैं। हर महीने चार पुस्तकें लिखनी पड़ेंगी। मैं दो लिख लूंगा, दो तुम लिख देना। मैंने आज तक कुछ भी नहीं लिखा था लेकिन चुनौती स्वीकारते हुए हामी भर ली। मेरा भरोसा थीं राजा रानी राक्षसों की वह कहानियां जो हमारे प्यारे झल्ला बापू ने हमें जाड़े में अलाव के सामने सुनायीं। उनका मूल नाम हममें से बहुत कम ही लोग जानते थे वे हम सबके प्यारे झल्ला बापू थे। झल्ला का एक अर्थ होता है लंबी डींग हांकनेवाला लेकिन वे बहुत सहज थे और लंबी कहानियां सुनाते थे। वे थोड़ा तोतलाते थे और उनकी हर कहानी कुछ इस तरह से शुरू होती थी-होटे कट्टे एक राजा थे (होते करते एक राजा था)। दूसरी सुबह से शुरू हुआ एक लेखक के रूप में मेरा नया अध्याय। माह में दो उपन्यास हर हाल में लिखना। इसके लिए मैं रात जागता क्योंकि हमारे सामने एक चुनौती थी। पहले कुछ उपन्यासों को भैया ने संपादित किया और फिर मेरी गलतियों को बताते हुए कहा कि –यह गलती दोबारा नहीं होनी चाहिए। 



                                मेरी कुछ बाल पाकेट्स बुक के कवर


 हालांकि यह कहानी परी कथाओं, राजा, रानियों पर आधारित होती थीं लेकिन हमारी कोशिश होती कि ये शिक्षाप्रद भी हों। इनकी सबसे पहली शर्त होती थी इनका मनोरंजक होना। पहले ही सेट से ही राजू बाल पाकेट बुक्स की धूम मच गयी क्योंकि यह देश की दूसरी पाकेट बुक थी। यह देश भर में छा गयीं। ए.एच.ह्वीलर के स्टालों के जरिए देखते ही देखते इनकी बिक्री बढ़ती गयी। सचदेव खुश थे। हमारा क्रम बन गया। महीने में दो बाल उपन्यास मैं लिखता और दो भैया रुक्म जी। सचदेव पुस्तकालय में सुशील दास नामक एक दिव्यांग चित्रकार बैठते थे जो इन बाल पाकेट बुक्स के सुंदर कवर डिजाइन करते थे। वे बहुत धीरे बोलते थे लेकिन थे बड़े भले। सचदेव पुस्तकालय के दो मालिक थे। बड़े भाई का तकिया कलाम था ‘आप समझे नहीं’ वे लोगों से फोन पर बात कहते हुए भी दोहराते रहते- ‘आप समझे नहीं’। एक बार मैं उनकी दूकान में ही था कि तभी किसी का फोन आया इधर सचदेव जी का तकिया कलाम शुरू हो गया –आप समझे नहीं, आप समझे नहीं। शायद फोन के दूसरे छोर का आदमी उनके तकिया कलाम से चिढ़ गया और उन्हें जोर से डांट दिया। बड़े सचदेव ने फोन रखते हुए मुझे देखा। उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। मैंने पूछा-क्या हुआ भाई साहब आप परेशान क्यों हैं। वे बोले-फोन पर उस व्यक्ति ने मुझे बड़ी जोर से डांटते हुए कहा-क्या समझे नहीं, समझे नहीं की रट लगाये हो मुझे निरा बेवकूफ समझा है क्या। मैंने हंसते हुए कहा-भाई साहब अगले ने सही कहा आप ही बताइए अगर यही बात आपसे कोई बार-बार कहे तो क्या आपको बुरा नहीं लगेगा। हम दोनों भाइयों ने सैकड़ों बाल पाकेट बुक लिख डाली थीं। (क्रमश:)

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