आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ
याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-21
यमुना किनारे बसे खेर में पंद्रह दिन तक
रामलीला का मंचन कर, गांव वालों की सराहना, सद्भावना साथ लिये हम लोग साथी की ओर
लौट पड़े। मेरे साथ यमुना में डूबते-डूबते दैवयोग से बचने की आत्मा कंपा देने वाली
भयावह याद भी जुड़ी थी। उन क्षणों को आज भी याद करता हूं तो शरीर सिहर उठता है।
साथी लौट कर मैं गुरु जी से मिला और उनसे एक सप्ताह का अवकाश मांगा ताकि
गांव जुगरेहली जाकर माता-पिता जी से मिल सकूं। गुरु जी मुसकराते हुए मान गये।
मानते क्यों नहीं मैं उनके संबंधी की रामलीला में काम करने को जो बिना नानुच के
राजी हो गया था।
दूसरे दिन मैं गयाप्रसाद भैया से पूछ कर गांव
जुगरेहली की ओर चल पड़ा। शाम ढलते-ढलते मैं गांव पहुंच गया। अम्मा मुझसे लिपट कर
रोने लगीं। मैं उनकी परेशानी जानता था। मैं महसूस कर पा रहा था कि मुझे जान से बढ़
कर मानने वाली मां को मुझे अपने से दूर करने पर कैसे दिल पर पत्थर रखना पड़ता
होगा। उन पर सारी गृहस्थी का भार उस पर नेत्र दृष्टि खो बैठे मेरे बाबा की सेवा,
देखभाल। उस पर वह खुद भी बीमार। उसे बीच-बीच में हिस्टीरिया के दौरे पड़ते और वह
देर तक बेहोश पड़ी रहती।हम रोते हुए उनके होश में आने की प्रतीक्षा करते रहते। जाने
क्यों इस बार मेरे दिल में एक विचार कौंधा अम्मा और बाबा को इस तरह अकेला छोड़ कर
मेरे विद्या प्राप्ति का क्या लाभ। जब जरूरत में मैं उनकी सेवा नहीं कर पाया तो
मेरे होने का क्या लाभ। मैंने भीतर ही भीतर एक दृढ़ निश्चय कर लिया पर किसी से
प्रकट नहीं किया।
मैं यहां यह उल्लेख करता चलूं कि जब मेरा जन्म
हुआ था तो मेरे बाबा ने सही समय और दिन आदि के आधार पर मेरी जन्मकुंडली बनवा ली
थी। गांव में कोई पंड़ित था नहीं वे पैदल हमारे गांव से लगभग आठ किलोमीटर दूर
ब्यौंजा ग्राम गये थे। वहां काशी से संस्कृत और ज्योतिष विद्या की शिक्षा लेकर
लौटे एक विद्वान ब्राह्मण से मेरी जन्मकुंडली बनवायी थी। वह आज की तरह साफ्टवेयर
के आधार पर बनी साधारण कंप्यूटराईज कुंडली नहीं अपितु घटी, पल,नक्षत्र आदि की
विधिवत, शास्त्रोक्त ढंग से जांच-परख कर बनायी गयी जन्मकुंडली थी। यह जन्मकुंडली
पूरी तरह से संस्कृत भाषा में लिखी गयी थी जो पहले मेरी समझ में नहीं आती थी लेकिन
गुरुकुल के अध्ययन ने इस योग्य तो कर दिया था कि मैं संस्कृत में लिखी बातों का
अर्थ समझ सकूं।
यहां यह भी बताता चलूं कि मेरा अपनी
संस्कृत भाषा, ज्योतिष, वेद, पुराण, संहिताओं पर अगाध विश्वास है। जो इनको उपहास
में टालते हैं उनसे मेरा केवल यही प्रश्न है कि अगर कोई ज्योतिष का प्रकांड पंडित
हो तो उसकी गणना सदा सच क्यों साबित होती है जैसा मेरे साथ हुआ। किसी को अपनी प्राच्य
भाषा पर विश्वास नहीं है तो यह उनकी व्यक्तिगत राय है लेकिन इससे हमारे उस ज्ञान
को नकारा नहीं जा सकता जिसका लोहा पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक व विद्वान मानते
हैं।। भारत अपनी इसी विद्या के चलते विश्वगुरु रहा है।
अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मेरे साथ खेर
के पास यमुना में जो दुर्घटना होते-होते बची देखें कहीं मेरी जन्मकुंडली में इसका
कोई योग तो नहीं है।
मैंने अम्मा से जन्मकुंडली मांगी और उसे पढ़ने
लगा। मेरे जन्म के नक्षत्र, राशि,गण आदि के विवरण के बाद जहां से भविष्य फल शुरू
होता है उसमें यह स्पष्ट लिखा था कि जिस आयु में मेरे साथ यमुना नदी में दुर्घटना
होते-होते बची थी उसी वर्ष मेरी जल में डूब कर मृत्यु हो जानी थी। मृत्यु की पूरी
संभावना तो बन ही गयी थी पर मेरे माता-पिता के आशीर्वाद या प्रभु की कृपा पर मेरी
अगाध आस्था से उनकी कृपा से मैं बच गया।
मैंने मेरे साथ हुई दुर्घटना के बारे में
अम्मा को कुछ नहीं बताया। वह बहुत परेशान हो जाती। रात भर जाने क्यों मुझे चिंता
में नींद नहीं आयी, बार-बार मतिष्क में यही प्रश्न घूम रहा था कि अगर वाकई यमुना
में मैं डूब गया होता तो मेरे माता-पिता का क्या हाल होता। जन्मकुंडली पढ़ने के
बाद मैंने यह तय कर लिया कि अब जीवन भर जलाशयों से सावधान रहूंगा।
दूसरे दिन भैया अमरनाथ द्विवेदी यह सुन कर
कि मैं गांव लौटा हूं मुझसे मिलने घर आये। वह इलाहबाद में पढ़ रहे थे और छुट्टी पर आये थे। उन्होंने मुझसे मेरा हाल-चाल
जाना, मैंने कहा सब ठीक है। यमुना नदी में जो दुर्घटना होते-होते बची वह बात मैं
उनसे भी छिपा गया।
उन्होंने मेरी अम्मा से कहा-लड़के को
संस्कृत पढ़ा कर क्या बनाना चाहती हो बीस आने में सत्यनारायण कथा कहने वाला पंडित
या विवाह आदि करानेवाला पुरोहित। अरे काकी, क्यों लड़के भाग्य से खिलवाड़ कर रही
हो।
अम्मा बोली-तुमहीं बतावा मैं का करौं, मैं कोहू
का जानत नेह्यांव मैं कहां जांव (तुम बताओ में क्या करूं, मैं किसी को जानती तक
नहीं कहां जाऊं)।
इस पर अमरनाथ भैया बोले-काकी तुम्हें अब कुछ
नहीं करना अब इसे पढ़ाने का जिम्मा मेरा। मैं कल सुबह आऊंगा और इसे ले जाकर कालेज
में भर्ती कर दूंगा। तुम चिंता मत करो।
अम्मा ने भी हामी भर दी। दरअसल हमारे पूरे परिवार को अमरनाथ भैया पर अगाध
विश्वास और भरोसा था। यह भी कि वे मेरे लिए जो करेंगे अच्छा ही करेंगे। उनके कहे
पर हमारे परिवार में कभी भी कोई प्रश्न उठाये बगैर राजी हो जाया जाता था।
दूसरे दिन भैया अमरनाथ अपने साथ मुझे ले गये और
बाकायदा कालेज में भर्ती करा दिया।
यहां से मेरे अध्ययन जीवन का नया अध्याय
प्रारंभ हुआ। मेरा प्रवेश कक्षा छह में हुआ। पाणिनी के व्याकरण लघु सिद्धांत
कौमुदी के इको यणचि, अक: सवर्णे दीर्घ: से मैं ए फार एपल के दौर में आ गया।
यहां सब कुछ नया था। अंग्रेजी मेरे लिए बिल्कुल
नया विषय थी लेकिन मैंने तय किया था मुझे पूरे मनोयोग से पढ़ना है क्योंकि यहां कि
असफलता मुझे या तो वापस गुरुकुल भेज देगी या फिर घर बैठा देगी। मेरे पढ़ने का सपना
अधूरा ही रह जायेगा।
यह जब की बात है तब हमारा हाईस्कूल बबेरू में
मढ़ीदाई के मंदिर के पास के दो टीलों में हुआ करता था। दोनों टीलों में कक्षा छह
से लेकर कक्षा दस तक की पढ़ाई हुआ करती थी। जब हमारा कक्षा छह में प्रवेश हो गया
तो एक दिन बांदा से एक फोटोग्राफर आया और उसने सभी छात्रों की फोटो खींची। हमने
पूछा कि यह फोटो क्यों खींची जा रही है। फोटोग्राफर ने बताया कि-आप लोगों के
विद्यार्थी परिचय पत्र बनेंगे। हमें जान कर बड़ी खुशी हुई। सोचा चलो हम लोगों को
परिचय पत्र भी मिलेगा। कुछ सप्ताह बाद हमें अपने परिचय पत्र भी मिल गये।
यहां यह बता दूं कि फोटो खिंचवाने का यह मेरा
दूसरा अनुभव था। पहला अनुभव तब हुआ जब कोलकाता में रह रहे मेरे भैया रामखिलावन
त्रिपाठी ‘रुक्म’ ने चिट्ठी लिख कर मेरी अम्मा से मेरी फोटो की मांग की।
तब बबेरू में कोई फोटो स्टूडियो नहीं था। हमें
विजयादशमी के मेले तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। विजयादशमी में कानपुर से एक फोटोग्राफर
बबेरू आते थे और लगभग माह भर अपना अस्थायी स्टूडियो बना कर फोटो खींचते थे।
मां विजयादशमी के दिन मुझे बबेरू ले गयी
फोटो खिंचवाने के लिए। मैंने देखा एक छोटा-सा पंडाल है जिसके भीतर एक कैमरा है
जिसके पीछे काला पाजामा जैसा लगा है। फोटग्राफर ने मुझे कैमरे के सामने एक टूल पर
बैठा दिया और कैमरे की आंख की ओर देखने को कहते हुए बताया कि-देखो बच्चा पलक
झपकाये बिना कैमरे की आंख में देखना यहां से एक रंगीन चिड़िया निकलेगी। चिड़िया
देखने के लोभ में मैं एकटक ताड़ता रहा उधर फोटोग्राफर ने अपना मुंह काले पाजामे के
भीतर घुसा दिया।
थोड़ी देर बाद फोटोग्राफर ने काले पाजामे से सिर
निकाला और बोला –बेटा उठ जाओ हो गया।
मैंने पूछा-चिड़िया तो आयी नहीं।
वह मुसकराते हुए बोला-आयी तो थी तुम देख
नहीं पाये।
उसने हमें कुछ देर बाद आ कर फोटो ले लेने
को कह कर वह दूसरे व्यक्ति की फोटो खींचने लगा।
हमने वह फोटो ली और डाक के जरिये भैया को
कोलकाता भेज दी। (क्रमश:)
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