आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-20
खेर में सुबह नहा धोकर हलका नाश्ता कर हम
लोग यमुना नदी के किनारे स्थित सिंहवाहिनी मंदिर पहुंचे। उस दिन वहां कोई विशेष
तिथि थी। मंदिर में बकरों की बलि चढ़ायी जा रही थी। हमने मंदिर परिसर में प्रवेश
किया तो वहां भी रक्त फैला था जो हमारे तलवों में लग रहा था। यह देख कर बड़ा अटपटा
लगा। मैं ऐसे माहौल में पला था जहां अपने सुख के लिए किसी पशु-पक्षी की जान लेना
अपराध माना जाता रहा है। अब किसे कौन समझाये कि हर प्राणी को अपनी पूरी जिंदगी
जीने का अधिकार है अपनी किसी कामना को पूरा करने के लिए उसका जीवन लेना कहां का
पुण्य है। मानाकि अब इस प्रथा पर कुछ विराम लगा है लोग अब कुम्हड़े को काट कर
सांकेतिक बलि करने लगे हैं लेकिन अभी भी कुछ लोगों का मानस नहीं बदला।
मन
में व्यथा और वितृष्णा लिए हम लोग मंदिर से बाहर आये। हम जब यमुना किनारे पहुंचे
तो देखा कि एक आदमी ऐसे आदमी को डांट रहा था जो अपनी धोती यमुना की कगार से नीचे
डाल कर धोने की कोशिश कर रहा था। आदमी उससे कह रहा था-अरे भाई क्यों अपनी जान
मुसीबत में डाल रहे हो। यहां ऐसा करना खतरनाक है। हमें उत्सुकता हुई कि अगला नदी
के किनारे ऊपर खड़ा है यहां से क्या खतरा हो सकता है।
हमने उस व्यक्ति से जो दूसरे को डांट रहा था
पूछा- भाई साहब यहां कैसा खतरा।
उस व्यक्ति ने कहा-जरा दूर से नीचे नजर
डालिए।
हम लोगों ने नीचे देखा तो दिल कांप गया।
नीचे नदी का कोना कट कर कुंड बन गया था जिस पर 20-25 मगर इधर उधर घूम रहे थे।
उस व्यक्ति ने कहा-पिछले साल यहां एक
व्यक्ति इसी तरह धोती धोने की कोशिश कर रहा था कि मगरों ने धोती सहित उसे खींच
लिया और खा गये। पूरा कुंड खून से लाल हो गया था।
मैंने कहा-भाई साहब जिला या तहसील प्रशासन
से कह कर यहां एक बोर्ड लगवा दीजिए कि यह जगह खतरनाक है।
उस व्यक्ति ने कहा-भाई साहब बोर्ड लगा था
कगार कटने से गिर गया। प्रशासन को कहा पर आप जानते ही हैं कि वहां काम कैसे होता
है।
हमारे साथ वे लोग भी थे जो रामलीला कराने वाले
थे। उन लोगों ने हमें पंडाल में बने उस मंच को दिखाया जिस पर रामलीला का मंचन होना
था।
उसके बाद से यह क्रम हो गया कि हम रात को
रामलीला का मंचन करते और दिन में आराम करते। जिस कमरे में मुझे ठहराया गया था
उसमें मेरे एक साथी भी साथ रहते थे। उस कमरे में ऊपर की ओर एक अटारी थी जिसमें
प्रवेश के लिए एक बड़ा-सा छेद था। एक रात की बात है। अचानक मेरी आंख खुली तो मुझे
अंधेरे में कुछ शब्द सुनाई दिया। मैंने देखा मेरा साथी गायब था। अचानक मेरी नजर
अटारी के उस छेद की ओर गयी तो दीपक के हलके प्रकाश में दो चमकीली आंखें मुझे घूरती
दिखीं। इतना भयावह था वह चेहरा कि मैं कमरे के भीतर एक पल भी नहीं रुक पाया। मैं
बाहर आ गया और वहीं एक चबूतरे पर बैठ गया। कमरे की सांकल मैंने बाहर से लगा दी कि
कहीं वह भयानक चेहरेवाला आदमी बाहर ना आ जाये।
आधे घंटे बाद हमारे लोग वापस आये। मुझे छोड़ सभी
लोग बाहर चले गये थे।
उन लोगों ने मुझे बाहर बैठे देखा तो पूछा-तुम
यहां क्यों बैठे हो।
मैंने सारी बात बता कर पूछा-मुझे इस तरह
छोड़ आप क्यों चले गये।
उन लोगों ने बताया कि पास के घर से चोर
चार बैल चुरा ले गये थे। हम लोगों के पास बंदूकें हैं यह वे लोग देख चुके हैं
जिनके बैल चोरी गये हैं। वे दौड़े-दौड़े हमारे पास आये और गिड़गिड़ाने लगे-भैया
हमारे बैल बचा लीजिए अभी-अभी चोर खोल कर ले गये। उन लोगों ने हमें उस दिशा की ओर
दिखाया जिधर उनका शक था कि उधर ही चोर गये होंगे।
हम लोग गांव के बाहर कुछ दूर तक गये तो थोड़ी
दूर पर चोर बैल लेकर जाते दिखे।हमने एक हवाई फायर कर ललकारा- जान बचाना है तो बैल
छोड़ कर भागो वरना अगली गोली शरीर पर लगेगी। शायद उनके पास कोई शस्त्र नहीं था वे
बैलों को छोड़ कर भाग गये।
मैंने कहा-चाहे चोर आयें, डकैत या तूफान अब से
आप लोग मुझे अकेला छोड़ कर नहीं जायेंगे। जहां जाइएगा,हमें भी ले जाइएगा।
हमारी रामलीला के मैनेजर ने कहा-गलती हो गयी। अब
जहां भी जायेगी सारी टीम जायेगी।
दूसरे दिन गांव के एक व्यक्ति ने हमारी टीम के
मैनेजर से कहा-आपकी रामलीला तो कल नहीं होगी आज की रात क्यों ना कुछ मनोरंजन कर
लिया जाये। हमारे गांव से एक कोस दूर यमुना किनारे गोरखपुर से कुछ लोग आये हैं जो
दिन भर महुए के पेड़ काटने का काम करते हैं और रात को कुछ देर बहुत अच्छा
गाना-बजाना करते हैं। हमारी टीम के मैनेजर ने हामी भर ली।
चांदनी रात थी, गाना-बजाना सुनने के लिए जब हम
एक कोस भर का फासला तय कर पहुंचे तो पाया कि दिन भर मेहनत करने के बाद वे सभी
मजदूर गीत-संगीत में पूरी तरह खोये झूम रहे थे। वे भोजपुरी भाषा में बहुत अच्छा गा
रहे थे। हम लोगों ने भी उनके गायन का बहुत आनंद लिया। कई दशक बीत गये पूरी तरह तो
याद नहीं हां एक पंक्ति अब भी मानस में बसी है-उर्वशी मोह गयी लख अर्जुन केर
सुरतिया छबीली गइली आधी रतिया,गइली गइली छबीली गइली आधी रतिया।
दूसरे दिन से रामलीला का मंचन फिर शुरू हो गया।
हमारे लिए खुशी की बात यह थी कि गांव वालों को हमारी रामलीला बहुत पसंद आ रही थी।
रामलीला देखने पूरा गांव उमड़ पड़ता था।
मेरा कुछ ऐसा क्रम था कि दिन में कुछ देर सोता
और फिर शाम को एक पैकेट छिलके वाली मूंगफली खरीद यमुना के घाट में पहुंच जाता और
वहां लंगर डाले किसी नाव पर चढ़ जाता। मूंगफली खाता और नाव के पीछे लगे पतवार को
पकड़ कर घुमाता तो नाव पानी पर कभी दायीं तो कभी बायीं ओर चली जाती। इसमें मुझे बहुत
आनंद आता था। यहां यह बता दूं कि उस समय मैं किशोरवय में था, बुद्धि पूरी तरह परिपक्व
नहीं थी।
यमुना नदी |
यह मेरा रोज का क्रम था। मूंगफली खाना
पतवार के सहारे नाव को इधर-उधर चलाना। एक दिन की बात है घाट पर पूरा सन्नाटा था,
वहां कोई नहीं था और शाम का धुंधलका छा रहा था और मैं सब कुछ भूल नाव का पतवार
घुमा कर नाव को चलाने का आनंद ले रहा था। मेरी दृष्टि नदी की मझधार की ओर थी।अचानक
मैंने देखा कि नाव इधर-उधर जाने की बजाय मझधार की ओर बढ़ चली है। मुझे काटो तो खून
नहीं मौत साक्षात सामने खड़ी नजर आ रही थी। मैंने किनारे की ओर मुड़ कर देखा मेरी
कारस्तानी से बालू में ढीला लगा लंगर खुल चुका था और नाव नदी की मझदार की ओर बढ़
चली थी। उस समय वहां कोई नहीं था फिर भी मैं चिल्लाया ‘बचाओ बचाओ’ इसके साथ जितने
देवताओं के नाम याद आये पुकार गये कि कोई तो मेरी प्राण रक्षा किसी भी रूप में कर
दे। शाम का धुंधलका यमुना का काला पानी और उसमें बीच-बीच में उछलती सुइस (डाल्फिन)
सब कुछ बहुत डरावना लग रहा था। डाल्फिन को हमारी तरफ सुइस कहते हैं क्योंकि
बीच-बीच में वह सुई की आवाज कर फिर पानी में डूब जाती है।
मैं जब अपने बचने की सारी उम्मीद छोड़ चुका था तभी यमुना की ऊंची कगार से
फिसल कर कोई व्यक्ति नीचे उतर कर आता दिखा। उसे देख मेरी जान में जान आयी। वह
व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और तैरते हुए नाव के नजदीक पहुंचा और लंगर की रस्सी पकड़ उसे
किनारे तक खींच लाया।
किनारे आकर उसने मुझे नाव से नीचे उतारा
और हृदय से लगा कर विलाप करने लगा-लखनलाल जी आज आप सारे गांव को रुला देते। आपकी
नाव के मझधार पहुंचने में कुछ मिनट ही बाकी थे। मझधार जाने के बाद यमुना मैया पता
नहीं आपको कहां तक ले जातीं। आप इलाहाबाद में रुकते या सीधे गंगासागर में जाकर।
वैसे इस बीच अंधेरे में डर कर ही आप मर जाते।
यहां यह बता दूं कि वहां हो रही रामलीला में मैं
लक्ष्मण की भूमिका करता था। मेरा नाम किसी को पता नहीं था इसलिए वहां के लिए तो
मैं लखनलाल ही था। जो देवदूत बन मुझे बचाने आया था वह गांव का एक मल्लाह था। वह
शाम को अपनी गाय लेने आया था। (हमारी तरफ फसल कट जाने पर गायों को दिन भर के लिए
छोड़ देते हैं वह खेत में बचे फसल के डंठल खाती रहती हैं। शाम को लोग उन्हें घर ले
जाते हैं) उसने बताया कि शाम के सन्नाटे में जब पूरा घाट खाली है उस वक्त कौन बचाओ
बचाओ चिल्ला रहा है यह सुन कर जब उसने नीचे देखा तो मुझे नाव के साथ बहते पाया और
बचाने के लिए सीधे कगार से घिसटता हुआ आया। मैंने देखा उसके पैर छिल गये थे और
उनसे खून बह रहा था।
मैंने उसका बहुत-बहुत आभार जताया और कहा-भैया आज
के बाद की जिंदगी आपकी दी हुई है। मैं जिंदगी भर आपका यह एहसान नहीं भूलूंगा।
उसने कहा –एहसान नहीं मेरा फर्ज है लखनलाल
जी। अच्छा हुआ कि मैं इस वक्त यहां अपनी गौमाता को लेने आ गया। यह आपके माता-पिता
का आशीर्वाद है कि आप जीवित बच गये।
मैंने
देखा वह बराबर रोये जा रहा था। मैंने गांव लौट कर वहां के लोगों से उस व्यक्ति के
बारे में बताया तो पता चला वह गांव का बहुत अच्छा तैराक है और यमुना को आसानी से
तैर कर पार कर जाता है। इतना ही लोगों ने बताया कि बीच धारा से डाल्फिन से लड़ कर
पकड़ लाया था।
मैंने अपनी रामलीला मंडली के मैनेजर से
सारी बात बतायी और यह भी कहा कि ऐन वक्त पर अगर मल्लाह देवता बन कर ना आ जाता तो
आज मेरा गोविंदाय नमो नम: होना तय
था। उस दिन मुझे मैनेजर ने बहुत डांटा और एक व्यक्ति को यह जिम्मा सौंप दिया कि वह
हमेशा मेरे साथ रहे और इधर-उधर ना जाने दे।
मौत के मुंह से लौटा था मैं मैंने भी कसम खा ली
अब जब तक यहां हूं यमुना की ओर नजर नहीं करूंगा। (क्रमश:)
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