Saturday, November 15, 2014

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-3

बड़े-बड़े फिल्मी सितारे तक बने दोस्त
राजेश त्रिपाठी
(भाग-3)
           धर्मेंद्र भी खुद रुक्म जी के सामने स्वीकार करते थे कि एकमात्र वही थे जिन्होंने अपने लेखन में उनका पक्ष लिया और दावे के साथ यह कहा कि धर्मेंद्र एक न एक दिन शीर्ष पर होंगे।इस समर्थन के लिए वे बहुत मानते थे। रुक्म जी से उनकी घनिष्ठता धीरे-धीरे इतनी बढ़ती गयी कि धर्मेंद्र ने उनसे यहां तक कहा कि वे कहानी लेकर बंबई आ जायें, वे उनकी फिल्म में काम करेंगे और फाइनांसर की भी व्यवस्था कर देंगे।  रुक्म जी को कलकत्ता  से प्यार था इसलिए वे यहीं रह गये। हां, धर्मेंद्र से उनकी दोस्ती और प्रगाढ़ होती गयी। धर्मेंद्र उन पर इतना विश्वास करते थे कि जब उन्हें एक बेहतर सेक्रेटरी की जरूरत पड़ी तो उन्होंने रुक्म जी से कहा कि वे उनके लिए एक योग्य सेक्रेटरी खोज दें। उन दिनों रुक्म जी स्क्रीन हिंदी के संपादक थे और बंबई में उनके सहायक थे दीनानाथ शास्त्री और संदीप शर्मा। दीनानाथ शास्त्री पत्रकार भी थे और बलवीर के नाम से एक प्रसिद्ध फिल्म पत्रिका में कालम भी लिखा करते थे। संदीप शर्मा बाद में फिल्म निर्माण से जुड़ गये थे। राजेश खन्ना के मामा के.के. तलवार की फिल्म रोटी के निर्माण में उनका भी सहयोग था।
      रुक्म जी ने धर्मेंद्र को अपने सहायक दीनानाथ शास्त्री का नाम सुझाया और उन्होंने उनको अपना सेक्रेटरी रख लिया। दीनानाथ भी धर्मेंद्र के लिए बेहतर सेक्रेटरी साबित हुए। बाद में जब दीनानाथ ने फिल्म धरती कहे पुकार के बनायी तो उसके निर्माण में धर्मेंद्र ने काफी सहयोग किया। उन दिनों जब रुक्म जी कभी बंबई में होते तो धर्मेंद्र उनसे अक्सर अपने यहां आने का अनुरोध करते। साथ ही यह भी जोड़ देते- आप मेरे यहां शायद ही आ पायें। आप तो दिलीप साब के यहां जायेंगा, राज साहब के यहां जायेंगे। और कई बार ऐसा हुआ भी।
      आज के गायक एक-एक दिन में कई गीत  रिकार्ड कराते हैं लेकिन पहले के गायक इसके लिए कई बार रिहर्सल करते और जब तक संतुष्ट नहीं हो जाते रिकार्ड नहीं कराते थे। ऐसी ही एक घटना के गवाह रुक्म जी भी बने। बंबई के आर. के. स्टूडियो में फिल्म संगम के गीत ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ करकी रिकार्डिंग चल रही थी। शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में यह गीत मशहूर गायक मोहम्मद रफी गा रहे थे। उन्होंने चार-पांच बार रिहर्सल की और फिर संगीतकार द्वय से कहा कि वे गीत रिकार्ड करें। गीत रिकार्ड किया गया और संगीतकारों ने उसे ओके कर दिया लेकिन रफी साहब संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने संगीतकारों से कहा-एक बार और ट्राई कर लेते हैं।
      इस तरह से रफी साहब और संगीतकारों के बीच ट्राई का सिलसिला चलता रहा। रिकार्डिंग के वक्त फिल्म  के निर्माता और नायक राज कपूर भी मौजूद थे। उस दिन रुक्म जी उनके अतिथि थे। उन्होंने जब रिकार्डिंग में अप्रत्याशित विलंब होते देखा तो अपने बेटे डब्बू से से कहा-जाओ कैंटीन से रुक्म जी को खाना खिला लाओ। रफी साहब काफी समय लेंगे।वाकई रफी साहब जब पूरी तरह संतुष्ट हुए तभी शाम पांच बजे के करीब यह रिकार्डिंग हो सकी। इस एक घटना से पता चलता है कि रफी साब के लिए गायन सिर्फ पेशा नहीं एक तपस्या थी।
  
मित्र के.एल. गुप्त 'निरंकार' उनकी पत्नी गीता, निरुपमा त्रिपाठी के साथ रुक्म जी

   बंबई में रुक्म जी का एक और ठिकाना था बोरीवली का माधव निवास। वहां उनके बचपन के (बांदा के) दोस्त के.एल. गुप्ता निरंकार का घर है। वहां आज भी वे अपनी पत्नी गीता के साथ रहते हैं। उनके भाई मनीष गुप्त मशहूर पेंटर थे। निरंकार और रुक्म जी बांदा में साथ-साथ खेले और पढ़े थे इसलिए दोनों में गाढ़ी दोस्ती थी जो अंत तक बरकरार रही। निरंकार अक्सर उनसे फोन में पर बातें करते और कलकत्ता आते तो रुक्म जी से मिलना नहीं भूलते थे। निरंकार भी लिखने-लिखाने का शौक रखते थे इसलिए दोनो दोस्तों में खूब जमती थी। दोनों बैठते तो बचपन की यादों के वर्क दर वर्क पलटने लगते और यह बातचीत धीरे-धीरे वर्तमान के राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों पर आ ठहरती।
  संपादन फिल्म साप्ताहिक स्क्रीन का कर रहे थे इसलिए रुक्म जी का एक कदम बंबई में ही रहता था। फिल्मी दुनिया से उनका करीबी नाता था और उनसे जुड़े अभिनेता, गीतकार, संगीतकार और दूसरे लोगों से भी उनकी गहरी दोस्ती थी। इनमें गीतकार हसरत जयपुरी भी थे जिन्होंने फिल्मों को कई मशहूर गीत दिये हैं। इन गीतों में एक तेरी प्यारी-प्यारी सूरत में किसी की नजर ना लगे की रचना के बारे में उन्होंने एक रोचक घटना अपने दोस्त रुक्म जी को बतायी। उन्होंने बताया कि मजाक में उन्होंने एक  छोटी बच्ची से कह दिया कि यह गीत उन्होंने उसकी खूबसूरत दीदी को देख कर लिखा है। बच्ची बहुत खुश हुई कि किसी ने उसकी दीदी  को देख कर गीत लिखा है। उसने यह बात खुशी-खुशी पिता से कह दी। पिता खुश होने के बजाय खफा हुए और हसरत जयपुरी के पास दौड़े गये और उन्हें ताकीद की कि वे उनकी बेटी पर गीत लिखने की हिमाकत न करें।
    बंबई की फिल्मनगरी बहुत ही विचित्र है। आर्क लैंप की चुंधिया देनेवाली रोशनी के पीछे कैसा काला
अभिनेता राजेश खन्ना के साथ रुक्म जी

अंधेरा है यह हर वह आदमी जानता है जो इससे करीब से जुड़ा रहा है। उगते सूरज को सलाम करने वाली इस दुनिया में उन लोगों पर बहुत कम लोगों का ही ध्यान जाता है तो ढलती उम्र में काम करने के लायक नहीं रह जाते। रुक्म जी ने भी इन स्थितियों को देखा और उन्हे अपनी कलम के जरिये लोगों तक पहुंचाया भी। बाद में तो ऐसे कलाकारों की मदद के लिए फिल्म वर्कर्स एसोसिएशन जैसी संस्थाएं बनीं जिससे असक्त और बेकार कलाकारों की आर्थिक मदद होने लगी।
 रुक्म जी की हर बंबई यात्रा में उनके परिचय और मित्रों का दायरा बढ़ता गया।  देव आनंद, राजकुमार, जैसे अभिनेताओं केदार शर्मा, मोहन सहगल व कई जाने-माने निर्देशक उनके परिचितों के दायरे में आ गये। इस दौरान उन्होंने फिल्मी दुनिया के कई रंग देखे। एक बार जब वे किसी निर्माता-निर्देशक से मिलने गये तो देखा कि वहां हिंदी के मशहूर कवि बैठे इंतजार कर रहे हैं। रुक्म जी उनको पहचान गये और पूछा कि आखिर वे यहां क्यों बैठे हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत पहले अपना कार्ड भेजा है लेकिन अभी तक बुलाया नहीं गया। रुक्म जी भीतर गये और उन्होंने निर्माता से कहा कि उन्होंने जिन्हें बाहर बैठा रखा है वे हिंदी के मशहूर कवि हैं। तब कहीं जाकर उन्हें अंदर बुलाया गया। बाद में इस तरह की घटना की तल्खी उनके गीतों में भी झलकी। 
    बंबई में रुक्म बजरिये नाटक फिल्मों में आये राजेश खन्ना से उनके आशीर्वाद बंगले में मिले। यह उन दिनों की बात है जब वे सुपर स्टार थे। उन्होंने उन पर एक जीवनीमूलक पुस्तक भी लिखी।

  
रविंद्र जैन
रुक्म जी खुद तो बंबई जाते ही रहे लेकिन कई लोगों के लिए उन्होंने बंबई की राह खोली। इनमें  संगीतकार-गीतकार रवींद्र जैन भी रहे। रवींद्र जैन ने कलकत्ता के महाजाति सदन में मंचित रुक्म जी के नाटक 'अलका' में संगीत दिया था। इस नाटक की नायिका यानी अलका का असली नाम लोग नाटक के बाद भूल गये और वे उसके बाद से अलका के नाम से ही पहचानी जाने लगीं। बाद में उन्होंने अपना यही नाम रख लिया। रविंद्र जैन ने 'अलका'  नाटक में संगीत दिया तो रुक्म जी उनकी प्रतिभा के कायल हो गये। उन्होंने उनसे कहा-
यहां क्यों अपना समय बरबाद करते हो, बंबई जाओ, तुम्हारे हुनर की कद्र वहां होगी। इस पर रविंद्र जैन ने कहा- रुक्म जी क्यों मजाक करते हैं। वहां लोग आंखों वालों को नहीं पूछते, मुझ जैसे नेत्रहीन को कौन पूछेगा। लेकिन रुक्म जी नहीं माने और वे लगातार रविंद्र जैन को बंबई जाने के लिए प्रेरित करते रहे। आखिरकार रविंद्र जैन बंबई गये और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे रुक्म जी से इस कदर परिचित हो गये थे कि उनकी आवाज से उन्हें पहचान लेते थे । (शेष अगले भाग में)

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