इस तरह आये ‘ न्यूमेंस महानगर गार्जियन’ में
राजेश त्रिपाठी
रिटायर होने के बाद भी रुक्म जी बाकायदा सन्मार्ग में साहित्य संपादन का काम
कर रहे थे। उनके और श्री रामअवतार गुप्त जी के बीच की केमिस्ट्री कुछ ऐसी थी कि ना
रुक्म जी सन्मार्ग छोड़ना चाहते थे और ना ही श्री गुप्त जी रुक्म जी को। इसके पहले
ही बता आये हैं कि रुक्म जी को प्रसिद्ध फिल्म पत्रिका माधुरी के संपादन का
प्रस्ताव मिला था लेकिन उसके लिए उन्हें बंबई (अब मुंबई) जाना पड़ता। कलकत्ता (अब
कोलकाता) के मोह ने उन्हें मुंबई नहीं जाने दिया। मुंबई आने का निमंत्रण तो उन्हें
अभिनेता धर्मेंद्र ने भी दिया था जो उनकी लिखी कहानी पर फिल्म बनवाने के लिए
उत्सुक थे और निर्माता भी जुटाने के तैयार थे। इस पर भी वे मुंबई नहीं गये वरना
शायद फिल्मों के पटकथा और गीत लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठित हो चुके होते। कोलकाता
जहां उन्होंने अपने नन्हें बाल लेखकों को संपादक और प्रतिष्ठित लेखक बनते देखा,
उनका प्यारा नगर था। इससे उनका आधी सदी से भी अधिक का परिचय था। एक तरह से यह उनके
रग-रग में रच, बस-सा गया था। इसके गली-कूचे बाजार उन्हें बहुत ही भले लगते
थे।
रुक्म जी और सन्मार्ग जैसे
एक-दूसरे के पर्याय बन गये थे। बीमार भी रहते, हम लोग रोकते तो भी वे कार्यालय चले
जाते थे। काम के प्रति वे पूरी तरह समर्पित है। उनके साथ काम करने वाले गवाह हैं
कि वे हर कहानी, कविता का एक-एक शब्द पढ़ते थे और इंट्रो वगैरह बनाते थे। शायद ही
कभी कोई यह सोच भी सकता कि रुक्म जी सन्मार्ग से पूरी तरह से अलग होकर किसी दूसरे पत्र के संपादक बनेंगे।
इसके पहले उन्होंने सन्मार्ग में रहते हुए ही दूसरे कई पत्र-पत्रिकाओं का सफल
संपादन किया और उन्हें प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा कर ही छोड़ा। लेकिन आखिरकार एक
दिन ऐसा संयोग आ ही गया जब उनको सन्मार्ग छोड़ने का मन बनाना ही पड़ा।
रुक्म जी के सन्मार्ग छोड़ पूरी
तरह से किसी और पत्र से संपादक के रूप में जुड़ने की कहानी कुछ इस प्रकार है-एक
दिन इस लेखक के पास ‘ न्यूमेंस महानगर
गार्जियन’ के मालिक विनोद वैद
का फोन आया-‘राजेश जी, मैं चाहता हूं कि आप ‘ न्यूमेंस महानगर गार्जियन’ के संपादक का पद संभाल लें और जितना जल्द हो
सके, आप अपना कार्यालय ज्वाइन कर लें।‘
विनोद वैद जी का आफर अच्छा था पर यह देर से आया। मैं उसके एक सप्ताह पहले ही
अपने पुराने पत्रकार साथी (आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ के दिनों के) हरिवंश जी
( वर्तमान में राज्यसभा सांसद) के कहने से प्रभात खबर ज्वाइन कर चुका था। मैं
हरिवंश जी के संपादकत्व में निकलनेवाले हिंदी दैनिक प्रभात खबर के वेब एडीशन में
कंटेट चीफ के रूप में काम शुरू कर चुका था।
उन्होंने पूछा-‘देर, देर कैसी राजेश जी।‘
मैने उत्तर दिया-‘भाई साहब, मैं प्रभात खबर के वेब एडीशन में कंटेट चीफ
के रूप में ज्वाइन कर सका हूं। यह भी मैंने अपने पुराने साथी हरिवंश जी के कहने पर
स्वीकार किया है। मैं उन्हें ना नहीं कर सकता।‘
विनोद जी थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले-‘ मैने आपके बारे में ही
सोचा था। अब आप खाली नहीं तो बस एक नाम और दिमाग में आता है।‘
मैने पूछा-‘कौन-सा नाम?’
विनोद वैद बोले-‘ हमारे गुरु जी रुक्म जी का।‘
यहां यह बताता चलूं कि विनोद वैद जी के साथ रुक्म जी पहले भी काम कर चुके थे (उसमें वे सन्मार्ग में
रहते हुए पार्ट टाइम काम करते थे)। उनके एक पत्र ‘कोलकाता एक सप्ताह’ में जिसमें उनके सहायक के
रूप में थे पत्रकार प्रकाश चंडालिया जो बाद में ‘ न्यूमेंस महानगर गार्जियन’ के संपादक बने थे।
प्रकाश चंडालिया के अपना पत्र ‘राष्ट्रीय महानगर’ निकालने के लिए ‘ न्यूमेंस महानगर गार्जियन’ छोड़ने के बाद ही विनोद जी ने उसके नये संपादक की
खोज शुरू कर दी थी जिसके क्रम में मेरे बाद उनको कोई नाम याद आया तो भैया रुक्म जी
का।
मैने
उनसे कहा-‘तो क्या बात है, बात कीजिए ना।‘
वैद बोले-‘पता नही गुरु जी राजी होंगे या नही। उनको सन्मार्ग से
अलग कर पाना बहुत मुश्किल है।‘
मैने
कहा-‘ बात तो कीजिए।‘
उनके संपादन में ‘ न्यूमेंस महानगर गार्जियन’ ने सफलता की नयी ऊंचाईयां छुई। उस दौरान भी उन्होंने नये लोगों को प्रोत्साहन देने में आगे
रहे। वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और वर्तमान में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
विश्वविद्यालय वर्धा की कोलकाता शाखा के प्रभारी कृपाशंकर चौबे अक्सर उनके बारे
में कहा करते थे कि रुक्म जी ही ऐसे थे जो किसी की मदद के लिए हमेशा आगे रहते थे।
यहां तक कि किसी को काम दिलाने के वे किसी ऐसे व्यक्ति से भी अनुरोध करने में
गुरेज नहीं करते थे जिससे शायद वे अपने लिए कभी कुछ नहीं मांगते। (शेष अगले भाग
में)
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