Monday, November 29, 2021

कुत्ते के काटने के कष्ट के बाद एक सुख भी मिला

 आत्मकथा-13

कुछ याद रहा, कुछ भूल गया

राजेश त्रिपाठी

(भाग-13)

चौदह इंजेक्शन मैं किसी तरह झेल गया और कुत्ते के काटने के बाद होनेवाली दूसरी तकलीफों का डर नहीं रहा।    एक दिन की बात है अम्मा मुझसे बोली-उस दुश्मन (अम्मा-बाबा जब गुस्सा होते वे भैया रामखिलावन को यही कहते थे) को चिट्ठी लिख दो कि तुम्हें कुत्ते ने काटा है। हम लोग तो जैसे उसके लिए मर गये, देखो शायद भाई का मोह उसे यहां तक खींच लाये।

 अम्मा के कहने पर मैंने चिट्ठी लिख कर भैया के पते पर डाल तो दी लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि वे आयेंगे।

 चिट्ठी भेज कर मैं भूल भी गया। दो हफ्ते बीत गये लेकिन कलकत्ता से भैया ने चिट्ठी का जवाब नहीं दिया।

 एक दिन सुबह मैं घर के बाहर चबूतरे पर बैठा था कि एक लड़का दौड़ते हुए आया और बोला-कुन्नू (बचपन में मुझे गांव में इसी नाम से बुलाया जाता था। कुन्नू का मतलब छोटा) भैया चलौ टेरियां बनिया के घर के सामने कोई बाहर से आपसे  मिलने के लिए आया है। काशीप्रसाद काका ने आपको बुलाया है।

  मुझसे मिलने कोई आया है सुन कर मैं उस लड़के साथ चल दिया। टेरियां बनिया के घर के सामने देखा काफी भीड़ जुटी है। उस भीड़ में एक ओर लंबा-सा अजनबी कमीज और पैंट पहने चुपचाप खड़ा है। मैं भी जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।

  वहां हमारे गणमान्य काशीप्रसाद काका भी बैठे थे। उन्होंने बाहर से आये उस अजनबी से कहा-रामखेलावन, पहचानो तुम्हारा भाई कौन है।

  अब मुझे पता चला कि मेरी चिट्ठी काम कर गयी। यह तो मेरे कलकत्ता वाले भैया हैं जो मुझे कुत्ता काटने की खबर सुन कर देखने आये हैं। मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा पर मैं चुपचाप खड़ा रहा।

   शहर से कोई अजनबी आया है यह देख-सुन कर वहां अच्छी-खासी भीड़ जुट गयी थी।

 काशीप्रसाद काका के प्रश्न करने के बाद भैया की नजरें उस भीड़ में अपने भाई को खोजने लगीं। भीड़ में मेरे समवयसी साथी भी थे लेकिन संयोग देखिए भैया की आंखों ने मुझे पहचान लिया और मेरी ओर इशारा करते हुए वे काशीप्रसाद काका से बोले-मामा मेरा भाई तो यही हो सकता है।

   काशीप्रसाद काका मुसकराये और बोले- अरे रामखेलावन तुमने तो इसे कभी देखा नहीं फिर भी पहचान लिया। ठीक कहा है कि नजरें अपने-पराये में भेद करना जानती हैं।

  इसके बाद काका मेरी ओर देखते हुए बोले-जाओ बेटा भैया को घर ले जाओ, लंबी यात्रा करके आया है आराम कर लेगा।

    मैं आगे चल पड़ा और भैया मेरे साथ चलते हुए घर पहुंचे। भैया को देखते ही अम्मा और बाबा लिपट कर बिलखने लगे- अरे दुश्मन एक बार भी देखने नहीं आये कि हम मरे या जिंदा हैं।

  भैया बोले-मामा काम में इस तरह फंस गया कि फुरसत ही नहीं मिली। फिर दूर इतना है कि वहां से आना मुश्किल भले ना हो कठिन तो है। मैं आप लोगों को भूला नहीं हूं। मामा आप ना होते तो शायद मेरे रिश्तेदारों ने जमीन हड़पने के लिए जाने कब मुझे मार दिया होता। मैं कुछ भी करूं आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकता।

   खैर थोड़ी देर में स्थिति सामान्य हो गयी और अम्मा भैया के लिए नाश्ता बनाने में लग गयी।

  अम्मा ने मुझसे कहा-भैया को लेकर बाबूलाल (हमारे अभिन्न मित्र अब सेवानिवृत जज) के कुएं में जाकर नहलाओ लाओ।

  भैया ने मुझसे कहा- चलो तुम भी अपने कपड़े ले लो वहां नहा लेना।

  मैं भैया के साथ हो लिया। हम जब बाबूलाल भाई के कुएं पहुंचा तो बाबूलाल जी भी वहां मौजूद थे। उस कुएं के आसपास उन्होंने अच्छा बगीचा लगा रखा था। अब वह बगीचा तो नहीं पर टूटा-फूटा ही सही वह कुआं मौजूद है। उसके पास ही एक हैंडपंप लगा दिया गया है। भैया कलकत्ता से एक साबुन लेकर गये थे जो कुछ-कुछ पारदर्शी थी। वे उसे लगा-लगा कर मेरी पीठ धोते और बड़े प्यार से नहलाते।



 उसकी भीनी-भीनी सुगंध और पारदर्शी रूप देख बाबूलाल जी ने भैया से पूछा- भैया जी यह कौन सी साबुन है।

  भैया जी ने बताया-यह बंगलक्खी साबुन है कलकत्ता की बनी। यह पारदर्शी इसलिए है क्योंकि यह ग्लिसरीन से बनी है।

 हमारे परम मित्र बाबूलाल यादव जी (सेवानिवृत जज) को अब तक उस साबुन का नाम याद है। जब भी उनके साथ भैया रामखिलावन का जिक्र होता है तो वे बंगलक्खी साबुन को याद कराना नहीं भूलते।

   भैया जिस दिन से आये मैं कुत्ता काटे का सारा दुख भूल गया। मैं सोच रहा था कि कुत्ते के काटने और फिर चौदह इंजेक्शन पेट में चुभवाने का दुख तो मैंने झेला लेकिन इसने मुझे एक सुख भी दिया, सुख मेरे उस भाई से साक्षात करने और उनका प्यार पाने का जिनसे मेरा परिचय अब तक केवल पत्रों के जरिये होता था।

 भैया आये तो हमारे सूने से घर में लोगों का जमघट लगने लगा। कुछ लोग भैया को देखने को आते तो कुछ उनसे कलकत्ता के किस्से सुनने।

  भैया कलकत्ता के किस्से सुनाते हुए बताते शहर इतना बड़ा है कि हमारे गांव जुगरेहली जैसे सैकड़ों गांव समा जायेंगे फिर भी शहर को पूरा नहीं ढंक पायेंगे।

   भैया स्वाधीनता संग्राम के किस्से सुनाते जिसमें देश के बंटवारे के समय हुए भीषण दंगों का भी जिक्र आ जाता। भैया ने बताया था कि जब देश स्वाधीन हुआ उन दिनों वे और भाभी निरुपमा जुगरेहली में थे।वहां वह कुछ अरसे तक रहने के लिए आये थे। 15 अगस्त 1947 के दिन हमारे गांव जुगरेहली में घनघोर वर्षा हो रही थी। भाभी कागज काट कर रंग कर छोटे-छोटे तिरंगे बना कर बंदनवार की तरह दीवारों और द्वार पर टांग रही थीं और भैया आजादी पर अपनी अमर कविता लिख रहे थे। पूरी कविता तो नहीं याद पर उसमें जिस दिन, जिस घड़ी जिस नक्षत्र में देश स्वाधीन हुआ था उसका पूरा ब्यौरा था और अंतिम पंक्ति थी-हिंद की गुलामी का रुक्म आज बेड़ा पार है। रुक्म भैया का साहित्यिक उपनाम था। भैया ने बाद में मुझे बताया था कि उन दिनों उन्हें अक्सर कवि सम्मेलनों में बुलाया जाता और उनसे लोग आजादी वाली कविता सुनाने का आग्रह करते और जब वे कहते –हिंद की गुलामी रुक्म आज बेड़ा पार है उस वक्त वहां उपस्थित सारे लोग उनके साथ यह पंक्ति दोहराते।

  *

कुछ दिन रह कर जब भैया वापस जाने लगे तो मुझसे बोले-थोड़े और बड़े हो जाओ फिर तुम्हें कलकत्ता घुमाने ले जाऊंगा। मैं और तुम्हारी भाभी भी तो अकेले हैं। मैं मामा से तुम्हें मांग लेता लेकिन फिर ये दोनों अकेले रह जायेंगे। हां, मैं बीच-बीच में आकाशवाणी के कलकत्ता स्टेशन से वार्ता पढ़ता हूं जो यहां भी तुम रेडियो में सुन सकते हो। मैं पत्र में पहले से उसकी डेट टाइम और स्टेशन लिख भेजूंगा।

   भैया जिस दिन वापस जाने लगे मैं उनसे लिपट कर बहुत रोया। मैंने पाया अम्मा,बाबा भी सिसकियां भर कर रो रहे हैं। भैया भी रो रहे थे। वे बाबा से बोले-मामा रोइए मत मैं जल्दी-जल्दी आने की कोशिश करूंगा। जाते-जाते भैया अम्मा से कहते रहे –मामी भाई को बैठा कर मत रखो जैसे भी हो इसे पढ़ाओ जरूर। अम्मा ने सिर हिला कर हामी भर ली।

  भैया चले गये,कुछ दिन की खुशी देकर हम सबको फिर घोर उदासी के माहौल में छोड़ कर जहां परिवार का भार अकेली उठाने वाली मां और धीरे-धीरे आंखों की ज्योति खोते बाबा हैं जो यह सोच कर दुखी रहते कि उनके बढ़ते बेटे को जब उनके हाथों का सहारा चाहिए वे अपने स्वास्थ्य को लेकर विवश थे। सात-सात लोगों का अकेले मुकाबला करने वाला व्यक्ति आज अपना खुद का ख्याल रखने लायक नहीं रहा।

  भैया ने कलकत्ता वापस लौटने के कुछ दिनों बाद ही पत्र भेजा जिसमें उन्होंने अपनी रेडियो वार्ता की डेट और समय व स्टेशन का नाम लिख भेजा था। संयोग से उन दिनों अमरनाथ भैया गांव में ही थे। मैं शाम को भैया का पत्र लेकर उनके पास गया। उनके पास एक बड़ा-सा रेडियो था जिस पर काठ का बक्सा था। उसके अंदर तीन लंबे से बल्ब थे जो जलते रहते थे। अमरनाथ भैया ने स्टेशन खोज कर लगाया तो वहां से घोषणा सुनायी दी-यह आकाशवाणी का कलकत्ता केंद्र है अब आप रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म से सुनिए वार्ता। अब वार्ता का शीर्षक तो याद नहीं आ रहा लेकिन उस वार्ता को वहां बैठे सभी लोगों ने आश्चर्य और हर्ष से सुना। आश्चर्य इस बात का कि हजारो मील दूर बैठे उनके व्यक्ति की आवाज वे सुन पा रहे हैं। हर्ष इस बात का कि गांव के मान रामखिलावन उनसे दूर रह कर पास हैं वे उनको सुन पा रहे हैं।

  काशीप्रसाद काका भी बड़े आश्चर्य से वार्ता को सुन रहे थे। वे बोले-अरे भाई द्याखौ कितनी दूर बैठा रामखिलावन बोल रहा है और हम सुन पा रहे हैं। भाई कमाल है।

*

 भैया चले गये। कई दिन तक घर में उदासी छायी रही। अम्मा-बाबा अपने भांजे की याद में खोये-खोये रहे फिर धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो गयी।

 पिता जी की आंखों की बिगड़ती स्थिति से मैं और अम्मा बहुत परेशान थे। करते तो क्या आसपास कोई आंख का अस्पताल ही नहीं था। गांव में जो कोई कुछ बताता वही करते। अम्मा आंख का अच्छा अंजन बनाना जानती थीं उसे आजमाया गया लेकिन फायदा नहीं हुआ। वह कहते हैं ना कि अपनी दवाई अपने को नहीं लगती।

 एक दिन पास के एक गांव से एक बुजुर्ग वैद्य आया जो लौकी का बना कमंडल हर वक्त लिये रहता था। इसी वजह से लोग उसे लोग लउकहवा (लौकी का कमंडल रखनेवाला) वैद्य कहते थे। कुछ लोगों के कहने पर बाबा को उनको दिखाया तो वे बोले आंखें ठीक हो जायेंगी। उन्होंने निर्गुंडी और ऐसी ही कुछ औषधियों का सेवन करने को कहा इसके अलावा लहसुन का काढ़ा पिलाने को कहा। हमें कोई समझ नहीं थी हम जून के महीने में लहसुन का काढ़ा पिलाते रहे। तब मुझे यह पता नहीं था कि लहसुन की तासीर गरम होती है। जो होना था वही हुआ। कुछ दिन में बाबा की बाईं आंख की पुतली में सूजन आ गयी। एक दिन अचानक उनकी उसी आंख से खून रिसने लगा। संयोग से उन दिनों अमरनाथ भैया गांव में ही थे। मैं दौड़ा-दौड़ा उनके घर गया और रोते-रोते सारा हाल बताया। उन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा-चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा।

 घर पहुंचते ही उन्होंने हमारे पड़ोसी झल्ला बापू को बैलगाड़ी तैयार करने को कहा। इसके बाद मेरी अम्मा से बोले-काकी काका को बांदा ले जाना पड़ेगा वहीं इनका आपरेशन हो पायेगा। सड़क तक बैलगाड़ी में ले जायेंगे फिर वहां से बस पकड़ लेंगे।

 वह लोग बाबा को बांदा ले गये इधर हम चिंता में बैठे रहे अम्मा और मैं दोनों ने वह वक्त रोते गुजारा जब तक बाबा बांदा के अस्पताल से वापस नहीं आ गये। उनकी वह आंख निकालनी पड़ी थी। हम लउकहवा वैद्य के लहसुन के काढ़े को दोष देते या अपनी तकदीर को कोई लाभ नहीं था जो नुकसान होना था वह तो हो ही गया था।

मेरे बाबा (पिता जी) स्वर्गीय मंगल प्रसाद तिवारी
 बाबा एक-दो हफ्ते में ठीक हो गये। इस बीच अमरनाथ भैया हर दूसरे दिन उनकी आंख की पट्टी बदल जाते नये ढंग से टिंचर और दवा डाल कर। जब बाबा का घाव भर गया तो भैया अमरनाथ ने बाबा से कहा-काका अब आप ठीक हैं। चिंता की कोई बात नहीं अब मुझे इलाहाबाद कालेज लौटना है।

  बाबा बोले-बेटा भगवान तुम्हारा भला करें। तुमने मेरी जिंदगी बचा ली। कोई बात नहीं तुम जाओ जैसा तुम बता जाओगे दवाई खाता रहूंगा। बाबा को प्रणाम कर अमरनाथ जी लौट गये और दूसरे दिन इलाहाबाद के लिए रवाना हो गये।

*

काफी दिनों से मेरे पढ़ाई छोड़ घर में बैठे रहने से अम्मा भी बहुत परेशान थीं। वे चाह रही थीं कि किसी ना किसी तरह से मेरी आगे की पढ़ाई शुरू हो।

  हमारे घर की दायीं ओर एक घर था जिसमें मथुरा प्रसाद कुर्मी रहते थे। उनके एक भाई गयाप्रसाद हमारे गांव से तकरीबन आठ किलोमीटर दूर गांव साथी में रहते थे। वे अक्सर अपने भाई मथुरा प्रसाद के पास आते थे और हम सब उनसे अच्छी तरह परिचित थे।

 एक दिन अचानक गयाप्रसाद अपने भाई से मिलने हमारे गांव जुगरेहली आये। जब वे अपने भाई के घर आये उस समय हम लोग घर के सामने ही खड़े थे। अम्मा को देख कर गयाप्रसाद ने कहा-तिवारिन दाई पांयलागी (चरण स्पर्श)।

अम्मा ने उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद गयाप्रसाद ने पूछा-तिवारिन दाई बेटा कहां पढ़ रहा है।

  अम्मा ने जवाब दिया-कहीं नहीं घर में बैठा है किसी स्कूल में नहीं भेज पा रहे।

 गयाप्रसाद-अरे इसमें चिंता की क्या बात है। हमारे साथी में एक संस्कृत गुरुकुल है जहां संस्कृत की पढ़ाई होती है। गुरुजी भी बहुत अच्छे हैं। आप मेरे साथ चलो बेटे को लेकर चिंता की क्या बात है अपना घर है हम लोगों के साथ रहेगा मानो अपने घर में रहेगा। ऐसे तो विद्यालय में भी रहने की व्यवस्था है लेकिन जब अपना घर है तो यह वहां में क्यों रहेगा।

 मां बहुत देर तक आनाकानी करती रही। वह मुझे अपनी नजरों से दूर नहीं भेजना चाहती थी लेकिन मेरे भविष्य को लेकर भी उसे चिंता थी। बहुत समझाने पर अम्मा मान गयी हालांकि मेरा गांव से जाने का मन नहीं था  लेकिन अम्मा के समझाने पर मन मार कर मैं मान गया। अम्मा ने बाबा की देखरेख का जिम्मा अपनी एक विश्वसनीय प़ड़ोसन को सौंप दिया।

 दूसरे दिन अम्मा, मैं और गयाप्रसाद साथी गांव के लिए रवाना हो गये। किसी सवारी वगैरह की कोई सुविधा तो थी नहीं हम तीनों को आठ किलोमीटर का लंबा सफर पैदल तय करना पड़ा। अम्मा मुझे संस्कृत विद्यालय में छोड़ कर वापस जाने लगी तो मैं यह सोच कर रोने लगा कि अम्मा तो जा रही है अब ना जाने कितने दिन बाद गांव लौटना और मां से मिलना हो सकेगा। मां को अपने से जितना दूर होते देखता मेरा रोना उतना जोर होता जाता था।

 संस्कृत विद्यालय के प्राचार्य गौर वर्ण,हृष्ट पुष्ट शरीर वाले थे। उन्होंने मुझे बहुत देर तक प्रेम से समझाने का प्रयत्न किया पर मेरा रोना बंद  ना हुआ। जब मां आंखों से ओझल हो गयी तो मैं और जोर-जोर से रोने लगा। हमारे आचार्य जी का धैर्य टूट गया। उन्होंने जोरदार चांटा मेरे मुंह पर मारा और कहा-अब चुप हो जाओ वरना मेरा गुस्सा बढ़ जायेगा। तुम्हारी मां तुम्हें यहां पढ़ने और अपना भाग्य बनाने के लिए रख गयी है। तुम्हें अब यहां रह कर पढ़ना है।

  मैं सिसकते-सिसकते चुप हो गया तो आचार्य ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-बेटा मुझे क्षमा करना मैंने तुम पर हाथ उठाया। मैं तुम्हें रोते नहीं देख पाया। बेटे हमें भी पढ़ने के लिए गृहत्याग करते समय रोना आ गया था। अच्छा यह बताओ तुम्हारे रहने का प्रबंध यहां अन्य विद्यार्थियों के साथ करना होगा ना।

 मैंने आचार्य जी के चरण छुए और कहा-नहीं गुरु जी यहां मेरे परिचितों का घर है मैं वहीं रह लूंगा।

 उस दिन गुरु जी ने मुझे कुछ पुस्तकें दीं जिनमें पाणिनी की लघुसिद्धांत कौमुदी, रघुवंश महाकाव्य, हितोपदेश, अभिज्ञान शाकुंतलम् आदि थीं।

  मैं संस्कृत विद्यालय से वापस अपने परिचित गयाप्रसाद के घर आ गया जो अब साथी गांव में मेरा ठिकाना था। गयाप्रसाद के घर में उनकी पत्नी, बेटा और बहू थे। मेरे वहां जाने से उनके घर के सदस्यों में एक और जुड़ गया था।

  अम्मा की याद बराबर आती लेकिन अब मैंने रोना बंद कर दिया था क्योंकि रोता तो मेरे आश्रयदाता गयाप्रसाद को भी बुरा लगता और संस्कृत विद्यालय के गुरु जी को भी।

 संस्कृत मेरे लिए ऐसी भाषा थी जिससे अब तक मेरा कोई संबंध नहीं था। अब लघुसिद्धांत कौमुदी का एक-एक सूत्र याद करने में पसीने छूट रहे थे। उदाहरण के लिए एक सूत्र था –इको यणचि अर्थात संधि होने पर इ का य हो जाता है या अक:सवर्णे दीर्घ: अगर अ और अ हों तो दोनों मिल कर दीर्घ अर्थात आ हो जाते हैं। कठिनाई इन्हें याद करने में नहीं थी इसकी पूरी प्रक्रिया के लिए जो सूत्र होता था वह इतना लंबा होता की उसे याद करने में पसीने छूट जाते थे।

 धीरे-धीरे चीजें संस्कृत विद्यालय में सहज होने लगीं। गुरु जी मुझसे विशेष स्नेह करने लगे थे शायद यह सोच कर कि में विद्यालय में सहज हो सकूं। मैं तो अपने आश्रयदाता गयाप्रसाद के घर में ही खाता था मेरे बाकी सहपाठी विद्यालय में बने कमरों में रहते थे वही भोजनालय में भोजन बनाते और पाते थे।

 हमारे गुरु जी भी विद्यालय में ही रहते थे और वहीं के भोजनालय में भोजन ग्रहण करते थे। मैं देखता था कि वे दोपहर को जब भोजन ग्रहण करने जाते तो पहले नीम की पिसी पत्तियों का एक गोला पानी के सहारे गटक लेते फिर भोजन पाते।

  हमारे विद्यालय में एक गोरा-चिट्टा सहपाठी था जिसका चेहरा सुर्ख रंग का था लगता था थोड़ा जोर से खरोंच लगे तो खून टपकने लगे। उसका नियम था वह रोज शौच आदि से निवृत होकर एक उपले का अंगारा लाता और विद्यालय के प्रांगण में रख कर उसमें दो हरड़ भूनता और पानी के साथ निगल जाता। यह उसका नित्य का नियम था। वह ऐसा क्यों करता है बाद में पता चला जब कहीं यह पढ़ा कि-हरत हरड़ सब रोग।

  संस्कृत विद्यालय के प्रांगण में एक बड़ा पीपल का पेड़ था। जब पतझड़ का मौसम आता तो उससे झड़े पत्तों से उसके नीचे का परिसर भर जाता। ऐसे में हम लोगों को झाड़ू से वे सूखे पत्ते साफ करने पड़ते थे। इसमें एक के बाद एक छात्र की बारी पड़ती थी। ऐसे ही एक दिन उन सूखे पत्तों की सफाई करने की मेरी बारी आयी। मैं झाड़ू लेकर पत्ते साफ कर रहा था सामने हमारे आचार्य जी बैठे थे। मैं पूरे बांह वाली शर्ट पहने था। अचानक मेरी दायीं बांह के अंदर कुछ कुलबुलाता महसूस हुआ। मैंने आचार्य जी को बताया उन्होंने कहा-बांह की बटन खोल कर झिटक दो।

    मैंने वैसा ही किया। मेरे बांह झटकते ही सामने एक सपोला (सांप का बच्चा) धरती पर गिर कर तिनतिनाने लगा।

  गुरु जी उसे देखते ही चौंक गये और बोले –देख लो इसने काटा तो नहीं।

मैंने बांह सिकोड़ कर देखा और पूरी तरह से आश्वस्त होकर बोला-नहीं गुरु जी काटा तो नहीं।

  वे भी आश्वस्त हुए और बोले-छोड़ दो और सफाई नहीं करनी होगी। कल कोई मजदूर लगवा कर सफाई करा लेंगे। अब से किसी छात्र को इस काम में नहीं लगाया करेंगे।

 *

 संपोले वाले प्रसंग से मुझे अपने बाबा की याद आ गयी जो सांप काटे का मंत्र जानते थे और उनके कुछ शिष्य भी उनके साथ मिल कर सांप काटे व्यक्ति को झाड़ते और औषधि देते थे। हमारे गांव से सांप के काटे किसी व्यक्ति को कभी अस्पताल नहीं जाना पड़ा। बाबा और उनके शिष्य शाबर मंत्र और आयुर्वेद की औषधि से विषैले से विषैले सांप के काटे व्यक्ति को ठीक कर देते। यह हमने प्रत्यक्ष देखा है।

 शाबर मंत्र विचित्र होता इसमें सांप झाड़नेवाले कई व्यक्ति धीरे-धीरे मंत्र बोलते और अंत में सांप काटे व्यक्ति के कान के पास जाकर जोर से चिल्लाते-विष खरररा। अगर विष ज्यादा चढ़ गया होता और सांप काटे व्यक्ति को बार-बार तंद्रा सी आने लगती तो उसके पैर के नाखूनों को संडसी से जोर से दबा कर उसे हर हालत में जगाये रहने की कोशिश की जाती। इसके बारे में मुझे बताया गया था कि अगर व्यक्ति सो जाता है तो इसका मतलब यह कि विष पूरे शरीर में व्याप गया है और फिर उसे विष से उबारना मुश्किल हो जायेगा। जब रोगी विषमुक्त हो होश में आ जाता तो उसे एक जड़ी बूटी का घोल पिलाया जाता। यह जडी-बूटी बाबा और उनके शिष्य खोद कर लाते थे। इसे लाने का भी एक विधान था। पहले दिन उस औषधि के पास जाकर प्रणाम कर उसे आमंत्रित किया जाता है कि कल हम आपको लेने आयेंगे। दूसरे दिन कुदाल लेकर उस औषधि की ज़ड़ काट कर ले आते थे। सांप काटे व्यक्ति को इसी को पीस कर पिलाया जाता था।

  एक बार अम्मा ने बाबा से कहा-अरे एक बार बेटे को भी ले जाइए इसे भी औषधि की पहचान करा दीजिए।

 बाबा बोले-इसे मत भेजो, यह डर जायेगा।

 अम्मा बोली- इसमें डरने की क्या बात है ले जाइए ना।

 बाबा मुझे ले जाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन अम्मा की जिद के आगे उन्होंने हामी भर ली।

  जिस दिन औषधि को खोद कर लाना था उस दिन सूरज उगने से पहले उन्होंने मुझे जगाया और बोले-चलो औषधि लेने जाना है।

   मेरी जाने की इच्छा नहीं थी लेकिन अम्मा की जिद के आगे मन मार कर मैं बाबा और उनके शिष्यों के साथ चल दिया। उनके हाथ में एक कुदाल था। गांव से तकरीबन डेढ़ मील दूर हम एक जंगल में पहुंचे। वहां एक जगह मोटे पत्तों वाली वह औषधि दिखी। यह एक छोटे आकार का पौधा था। वहां जाकर बाबा के एक शिष्य ने औषधि को प्रणाम कर जैसे ही उसकी जड़ में पहला कुदाल चलाया। अब तक साफ पड़ी उस जगह में  अचानक जाने कहां से कई सपोले (सांप के बच्चे) निकल कर तिनतिनाने लगे उन्हें देखते ही मेरे होश उड़ गये मैं उलटे पैर घर की ओर भागा। देखा बाबा और उनके शिष्य बिना डरे औषधि की जड़ की संग्रह में लगे हैं।

  घर पहुंचा तो अम्मा ने पूछा-क्या हुआ भाग आये।

 मैं बोला-क्या करता वहां सांप निकलने लगे थे।

 बाबा जब लौटे तो अम्मा को डांटने लगे- कहा था ना इसे मत भेजो डर  कर भाग आया। हम लोगों का तो रोज का काम है। वे सपोले एक तरफ भाग गये और यह देखो हम दवा ले आये।

  मैंने देखा उनके हाथ में सफेद रंग की कई जड़ें थी। इसे ही पीस कर वे उस व्यक्ति को पिलाते थे जिसे सांप ने काटा होता था। यह भी देखा करता था कि उस व्यक्ति का जहर उतरा है या नहीं इसके लिए उसे सूर्य लहर दिलायी जाती थी। सूर्य लहर दिलाने के लिए उस व्यक्ति को काठ के पीड़े पर खड़ा कर के सूर्य की ओर देखने को कहा जाता था। सूर्य की ओर ताकते समय अचानक उसके शरीर में एक झटका सा लगता वह एक ओर झुकते हुए कांपता और फिर धीरे से सीधा खड़ा हो जाता। इसका मतलब यह लगाया जाता कि वह व्यक्ति विषमुक्त हो गया है। अपने बचपन में हमने बाबा और उनके शिष्यों को सांप काटे कई व्यक्तियों को ठीक करते और सूर्य लहर लिवाते देखा था।

  बाबा से एक बार सांप काटे के उपचार में प्रयोग आने वाले शाबर मंत्र के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह मंत्र स्वयं शिवजी द्वारा बनाया गया है। इस बारे में एक कथा प्रचलित है कि एक बार शंकर जी को भी सृष्टि की रचना की इच्छा हुई तो उन्होंने सांप, बिच्छू जैसे जहरीले जंतु रच डाले। इस पर पार्वती जी बोलीं-संसार के लिए आपने यह मुसीबत तो रच दी अब इससे बचने का भी कोई उपाय बता दीजिए जिससे इनके काटने से व्यक्ति को मरने से बचाया जा सके। इसके बाद शिवजी ने शाबर मंत्र की रचना की जो निरर्थक होते हुए भी सार्थक कार्य करते हैं। इन मंत्रों को दीपावली की मध्यरात्रि को सिद्ध किया जाता है। यह काम हर वर्ष दीपावली के दिन करना पड़ता है। बाबा भी अपने शिष्यों के साथ हर वर्ष यह मंत्र सिद्ध करते थे जिसे वे लोग मंत्र जगाना कहते थे। (क्रमश:)

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