आत्मकथा-43
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आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक के लिए अप्लीकेशन देकर मैं वहां से उत्तर के इंतजार में था। इधर सन्मार्ग में एक बात हुई मुझे एक नया दायित्व दे दिया गया। मुझसे सन्मार्ग के मालिक रामअवतार गुप्त ने एक दिन अपने केबिन में बुलाया और कहा-देखो आप यहा मुंबई से आनेवाले फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू व बड़े-बड़े फिल्मी इवेंट कवर कर लिया करो। तुम्हारे भैया रुक्म जी को फुरसत नहीं। यहां से ऐसे लोग चले जाते हैं कि बाद में पाठकों के फोन आने लगते हैं कि यह कैसे हुआ।
मैंने उनका आदेश शिरोधार्य किया और दूसरे दिन से फिल्म संबंधी हर कार्यक्रम सन्मार्ग के लिए अटेंड करने लगा। इनमें नयी फिल्मों के रिलीज में मुंबई के कलाकारों के साथ होनेवाली प्रेस कांफ्रेस हो या फिर दूसरा कोई कार्यक्रम मैं वहां कवरेज के लिए जाता था। जितेंद्र, चंद्रशेखर,आदित्य पंचोली, संजीव कुमार,तापस पाल, ऐसे तमाम कलाकारों से मिलना उनके बारे में जानना, उनकी फिल्मों के बारे में जानना यह क्रम चलता रहा लेकिन मेरे इस कार्य का सबसे बड़ा दिन वह था जब मैं महान अभिनेता, निर्देशक, निर्माता सर रिचर्ड एटेन बरो
सर रिचर्ड एटेन बरो
से मिला।लाजवाब अभिनेता, बेमिसाल इनसान थे वे। उन्होंने ‘गांधी’ जैसी कालजयी फिल्म बनायी। कुछ भारतीय फिल्मकारों ने उस वक्त शंका जतायी थी कि एक विदेशी निर्माता गांधी के चरित्र से कितना न्याय कर पायेगा लेकिन जब फिल्म बनी तो लोगों के मुंह बंद हो गये क्योंकि उन्हें उन पर उंगली उठाने जैसा कुछ दोष मिला ही नहीं।1977 में एटेनबरो महान भारतीय फिल्मकार सत्यजित राय की फिल्म ’शतरंज के खिलाड़ी’ में काम करने भारत आये थे। महान कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद की इसी नाम की कहानी पर आधारित इस फिल्म में उन्होंने लेफ्टीनेंट जनरल आउट्राम की भूमिका निभायी थी। फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद फिल्म के निर्माता सुरेश जिंदल ने कोलकाता के ग्रांड होटल में फिल्म के बारे में जानकारी देने के लिए संवाददाता सम्मेलन बुलाया था। इस सम्मेलन में जाने का मुझे भी मौका मिला। वहीं रिचर्ड एटेनबरो से मुलाकात हुई। यह गरमी की उमस भरी दोपहर थी। एटेनबरो मलमल के सफेद कुरते और पाजामे थे। सुर्ख रंगत वाला गोरा-चिट्टा चेहरा और उस पर छोटी से मुसकराती आंखें, चेहरे पर हलकी दाढ़ी कुल मिला कर उनका व्यक्तित्व भीड़ में उन्हें अलग करता था। वैसे भी भारतीयों की भीड़ में एक ब्रिटिश अभिनेता को पहचान पाना आसान था। वे सबसे बातें कर रहे थे और फिल्म में अभिनय के बारे में, पहली बार भारतीय फिल्म में काम करने के बारे में अपने अनुभव साझा कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि सत्यजित राय से अपनी पहली मुलाकात और इस फिल्म में भूमिका मिलने के बारे में बताइए। उन्होंने कहा कि सत्यजित राय उनको आउट्राम की भूमिका के लिए सेलेक्ट करने के लिए लंदन गये थे। वहां रहते वक्त उन्होंने एटेनबरो से फोन पर बात की और बातचीत के दौरान यह साफ कर दिया कि सत्यजित राय की फिल्म में काम करना है तो पूरी स्क्रिप्ट पढ़ कर अपने चरित्र और कहानी की आत्मा के बारे में जानना जरूरी है। ऐसा उन्हें (एटनेबरो) भी करना होगा। इस पर एटेनबरो का जवाब था कि सत्यजित राय जैसे महान निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिले तो वे पूरी टेलीफोन डाइरेक्टरी तक पढ़ने को तैयार हैं। यहां यह बताते चलें कि उस वक्त तक सत्यजित राय पूरी दुनिया में एक सशक्त और सफल फिल्म निर्देशक के रूप मे प्रतिष्ठित हो चुके थे। जब एटेनबरो सत्यजित राय की फिल्म में काम करने आये थे तब तक वह भी अभिनेता के रूप में अपार ख्याति पा चुके थे। लेकिन उनसे मिल कर, उनके व्यवहार से कभी नहीं लगा कि हम इतने बड़े कलाकार से मिल रहे हैं। अपने यहां तो किसी कलाकार की एक फिल्म भी हिट हो गयी तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर होता है, वह सामान्य आदमी को कुछ नहीं मानता और ना ही उससे सामान्य ढंग से मिलने-जुलने में विश्वास रखता है। अगर ऐसे कलाकार की फिल्म 100 करोड़ के क्लब में पहुंच जाये तो फिर पूछना ही क्या। वैसे भी ये कलाकार खुद को भगवान जैसा मानते हैं । एटेनबरो में ऐसा कुछ भी नहीं था। जब तक वे हमसे मिले, सहजता से बात की, हमेशा चेहरे पर स्मित हास्य तैरता रहा, न कोई तनाव ना ही माथे पर कोई शिकन।
वह मुलाकात बहुत याद आती है क्योंकि ऐसे व्यक्तित्व धरती पर बार-बार नही आते। एटेनबरो महान अभिनेता पर बहुत ही सरल, हंसमुख और लाजवाब इनसान थे। किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसका स्वभाव एक बार की मुलाकात में भी परखा जा सकता है अगर वह व्यक्ति एटेनबरो जैसा निश्छल, निर्मल और निराला हो। यह बात उन पर कतई लागू नहीं होती जो होते कुछ और हैं और कोशिश कुछ और दिखाने की करते हैं। ग्रांड कोलकाता की वह दोपहर हर उस व्यक्ति के लिए यादगार बन गयी जो उनसे मिल या उन्हें सुन सका। उनकी महानता, सरलता के किस्से उन लोगों ने भी बखान किये जिन्होंने ’शतरंज के खिलाड़ी’ में उनके साथ काम किया। कोलकाता के इंद्रपुरी स्टूडियो व शहर के अन्य स्थानों पर इसकी शूटिंग हुई थी। स्टूडियो के सभी कर्मचारी ’साहेब’ के साथ काम करने को लेकर आशंकित थे। एक तो साहब उस पर भाषा का व्यवधान और उस पर इतने बड़े कलाकार, पता नहीं कौन-सी बात उन्हें बुरी लग जाये। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गरमी के उन दिनों में हालांकि उनको एयरकंडीशंड मेकअप रूम दिया गया था पर वे घंटों सेट के सज जाने या लाइटमैन के लाइट्स और कैमरामैन के कैमरा एंगल वगैरह सहेज, सजा लेने तक धैर्य से प्रतीक्षा करते रहते। ना उस गरमी की परेशानी से शिकायत और ना ही माथे पर कोई शिकन। यहां अपने यहां के कलाकारों की स्थिति बयान करते चलते हैं। इसे विषयांतर ना समझें इस घटना से आपको यह पता चल जायेगा कि कलाकार-कलाकार में फर्क क्या होता है। कहानी यों है- दक्षिण के एक फिल्म निर्माता ने हिंदी में फिल्म बनानी चाही। उन्होंने उसमें उस वक्त के हिंदी के बहुत बड़े कलाकार को लेना चाहा। कलाकार ने काम करने की शर्तें रख दीं, मसलन स्टूडियो एयरकंडीशंड होना चाहिए, गाड़ी एयरकंडीशंड होनी चाहिए और ना जाने क्या-क्या। निर्माता इस पर भी राजी हो गये। उस अभिनेता के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब वह मद्रास एयरपोर्ट पर उतरा तो एक नहीं कई इम्पाला एयरकंडीशंड गाड़ियां उसके स्वागत के लिए खड़ी थीं। वह स्टूडियो पहुंचा तो वह भी एयरकंडीशंड मिला। खैर काम शुरू हुआ। वह अभिनेता अपनी आदत के मुताबिक मद्रास में भी स्टूडियो में देर से आने लगा। स्टूडियो के दरबान ने दो-चार दिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया, सोचा साहब नये-नये हैं शायद दो-एक दिन में अपनी आदत सुधार लेंगे, समय से आने लगेंगे लेकिन वैसा नहीं हुआ। इस पर दरबान ने निर्माता ने उन साहबान की लेटलतीफी की शिकायत कर दी। निर्माता ने दरबान को ताकीद कर दी कि अगर अब वे लेट आते हैं तो उनसे कहना वहीं से सीधे एयरपोर्ट जायें और मुंबई लौट जायें। मुझे ऐसे अभिनेता के साथ काम नहीं करना। दरबान ने अगले दिन अभिनेता से वैसा ही कह दिया। इस पर अभिनेता झेंप गये, उन्हें लगा कि यह मुंबई नहीं मद्रास है और उनका पाला किसी कड़े और वक्त के पाबंद निर्माता से पड़ा है। उस अभिनेता की आदत सुधर गयी, स्टूडियो वे समय से आने लगे, फिल्म बनी और जबरदस्त हिट हुई। माना कि विषयांतर हुआ लेकिन यह कहानी इनसान-इनसान के व्यवहार और प्रकृति में अंतर बताने के लिए जरूरी थी।
वापस एटेनबरो के प्रसंग पर लौटते हैं। वे स्टूडियो में बड़े धैर्य से शूटिंग शुरू होने की प्रतीक्षा करते। कैमरामैन से पूछते कि क्या वे शॉट लेने के तैयार हैं। बंगला फिल्मों से थोड़ा-सा भी संबंध रखने वाले लोग जानते हैं कि लोग यहां पर सत्यजित राय को प्यार से ’मानिक दा’ कह कर बुलाते थे। स्टूडियो में लोगों से उनके लिए यह संबोधन सुन कर एटेनबरो भी उन्हें इसी नाम से बुलाने लगे थे। कहते हैं जब फिल्म की शूटिंग खत्म हुई और वे लंदन वापस जाने लगे तो उन्होंने उन तकनीशियनों को उपहार तक दिये जो ’शतरंज के खिलाड़ी’ से किसी भी तरह से जुडे थे। उनसे मिल कर यह जाना कि कितना अच्छा हो अगर कोई इनसान अपने काम में महान होने के साथ ही व्यवहार में भी महान हो।
इस तरह के आयोजनों के कवरेज करते-करते मेरे अनुभव में कुछ और जुड़ाव हुआ। अपने भैया रुक्म जी से सुना था कि संजीव कुमार और रविंद्र जैन को मुंबई जाने के लिए उन्होंने ही प्रेरित किया था। संजीव कुमार कोलकाता में नाटकों में काम करते थे और
संजीव कुमार
भैया के पास अपने नाटकों का समाचार छपवाने आते थे। एक बार भैया ने कहा-अच्छा अभिनय कर लेते हो यहां क्यों समय बरबाद कर रहे हो मुंबई जाओ। तुम्हें अपने हुनर को निखारने का मैदान वहां मिलेगा। भैया की यह बात संजीव कुमार के दिल में लग गयी। वे वहां गये संघर्ष किया और फिल्म अभिनेता के रूप में वह स्थान हासिल किया जो बहुत कम लोग ही हासिल कर पाते हैं। भैया के प्रति संजीव की श्रद्धा बरकरार रही। मैं इस बात का गवाह हूं। किसी फिल्मी पार्टी के लिए कोलकाता आये थे। तब तक वे प्रतिष्ठित अभिनेता बन गये थे। वे सभी पत्रकारों से औपचारिक रूप से मिलने के बाद जब भैया के पास आये तो बाकायदा उनके चरण स्पर्श किये। यह मैं सुनी सुनायी बात नहीं कह रहा। मैं उन क्षणों का साक्षी रहा हूं।
उन्होंने संगीतकार रवींद्र जैन को भी मुंबई जाने को प्रेरित किया था। रवींद्र जैन ने भैया रुक्म जी के लिखे नाटक 'अलका' के मंचन के दौरान संगीत दिया था। उसके बाद भैया ने उनसे भी कहा-यहां समय मत बरबाद करो मुंबई जाओ वहां तुम्हें अपनी प्रतिभा को दिखाने का अच्छा मौका मिलेगा।
इस पर रवींद्र जैन का जवाब होता-रुक्म जी वहां नेत्रों वाले मारे-मारे फिरते हैं, मुझे कौन पूछेगा। भैया बोलते-तुम्हारी प्रतिभा की मांग और मान होगा।
भैया की बात सुन वे भी मुंबई चले गये। और वक्त गवाह है कि उन्होंने वहां फिल्मों में संगीत निर्देशक के रूप में जो मुकाम हासिल किया वह हासिल करने में नेत्रों वालों के पसीने छूट जाते हैं।
रवींद्र जैन में एक खूबी थी वे लोगों को आवाज से पहचान लेते थे। एक बार की बात है कि मैं अपने भैया रुक्म जी और मित्र राज मिठौलिया के साथ उस कार्यक्रम में गया था जहां रवींद्र जैन की उपस्थति होनेवाली थी। यह कार्यक्रम कोलकाता के रिट्ज होटल में था। कार्यक्रम जिस हाल मेंथा हम लोग वहां पहुंचे ही थे कि तभी रवींद्र जैन वहां आये।भैया ने कहा-अभी देखना रवींद्र मुझे आवाज से पहचान लेगा। इतना
रवींद्र जैन
कह कर वे मुझसे और राज मिठौलिया से जोर-जोर से बातें करने लगे। अचानक रवींद्र जैन ने लोगों से कहा- आप जरा शांत हो जायें, मुझे अपने रुक्म जी की आवाज सुनायी दे रही है। मेरी प्रार्थना है वे जहां हों मेरे पास आयें।
भैया ने जाकर उन्हें गले से लगा लिया और बोले-रवींद्र तुम मुझे अब तक नहीं भूले।
रवींद्र जैन ने कहा-रुक्म जी जिंदगी भर आपको नहीं भूलंगा। आपने हौसला बढ़ाया तभी ना मैंने यह मुकाम पाया।
इस तरह की घटनाओं ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। पहली बात तो यह कि इस बदलती दुनिया में आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने साथ किये उपकार को भूलते नहीं। उनके प्रति आजीवन कृतज्ञ रहते हैं जिन्होंने कभी उनकी मदद की, हौसला बढ़ाया।
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प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुईं। आनंद बाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक में कार्य के लिए किये गये आवेदन का जवाब आ गया। मेरे पास इंटरव्यू के लिए लेटर आया था। मैं इंटरव्यू के लिए तैयारियां करने लगा। मेरी जो-जो रिपोर्ट छपी थीं उनकी छाया कापी करवायीं। कुछ बाल उपन्यास भी इकट्ठा किये और इंटरव्यू के दिन की प्रतीक्षा करने लगा। (क्रमश:)
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