एक दुर्घटना ने बदल दी जिंदगी
‘महानगर न्युमैंस
गार्जियन’ में रुक्म जी का
कार्य सुचारु रूप से चल रहा था। लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था। उनकी उम्र को
देखते हुए हम लोगो ने कह रखा था कि वे बस स्टाप तक रिक्शे से जाया करें फिर वहां
टैक्सी या बस जो मिले उससे दफ्तर चले जाया करें। हमें क्या पता था कि इससे कोई
मुसीबत आ जायेगी। वैसे इससे पहले भी वे एक दुर्घटना का शिकार हो चुके थे जिसमें एक
कार ने उनका पंजा कुचल दिया था। इस बार हुआ यह कि वे घर के पास ही रिक्शे में उठ
रहे थे। अभी एक पैर ही रिक्शे पर रख पाये थे कि रिक्शेवाले ने रिक्शा चला दिया। वे
असंतुलित होकर पीठ के बल गिर गये और उनकी रीढ़ में गहरी चोट आयी। उस वक्त दर्द का
एहसास ज्यादा नहीं हुआ और वे आफिस चले गये। रात घर लौटे तो रीढ़ का वह हिस्सा फूल
गया था और वहां असह्य दर्द हो रहा था। जिस वक्त यह दुर्घटना हुई यह ब्लागर
भुवनेश्वर में था। वहां ‘सन्मार्ग’ हिंदी दैनिक के ओडिशा संस्करण में स्थानीय संपादक के रूप
में कार्यरत था। बच्चे लोग उनको हड्डी के डाक्टरों के पास ले गये। डाक्टर ने
एक्सरे की सलाह दी। एक्सरे में रीढ़ की कसेरुका में चोट पायी गयी। कुछ दिन की दवा
से वे ठीक हो गये और उनका दफ्तर जाना जारी रहा। वैसे दुर्घटना के बाद से वे थोड़ा
कमजोर से हो गये। उसके बाद उनके हार्निया और प्रोस्टेट ग्लैंड का आपरेशन हुआ।
आपरेशन के काफी दिनों बाद तक उनके पेश से खून जाता रहा। इसके साथ ही उनकी पुरानी
ब्रांकाइटिस की तकलीफ भी उभर आयी थी। इन तकलीफों को दूर करने के लिए जो दवाई
डाक्टर ने दी उससे उनकी परेशानी और बढ़ गयी। एक दिन अचानक इस ब्लागर को आधी रात के
बाद बेटे अनुराग और अवधेश का फोन मिला। दोनो की आवाज से लग रहा था कि वे काफी
घबराये हुए हैं। उन लोगों ने कहा-‘अउवा (अपने ताऊ
रुक्म जी को वे इसी नाम से पुकारते थे) की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गयी है। वे हम
लोगों को पहचान नहीं पा रहे और अनाप-शनाप बक रहे हैं। हम क्या करें।‘ अब कोलकाता से तकरीबन 400 किलोमीटर दूर बैठा यह ब्लागर आधी रात को करता तो
क्या करता। बच्चों से कह दिया –‘किसी नजदीकी अस्पताल में
भर्ती कर दो मैं सुबह यहां से निकलता हूं।‘ मैंने सारी घटना
सन्मार्ग के निदेशक श्री विवेक गुप्त जी को बतायी। उन्होंने सलाह दी कि मैं सुब ही
शताब्दी से कोलकाता के लिए चल दूं। कोलकाता से संपादकीय का कोई स्टाफ धौली पकड़ कर
दोपहर तक भुवनेश्वर पहुंच जायेगा मेरी जगह एडीशन देखने के लिए। मैंने वैसे ही
किया। दोपहर तक मैं कोलकाता पहुंच गया और सीधे उस अस्पताल गया जहां रुक्म जी भर्ती
थे। मैं उनके बेड के पास गया तो उन्हें दवाओं के प्रभाव से अर्ध तंद्रा में पाया।
उनका हाथ ठोंक कर जगाने की कोशिश की तो
उन्होंने आंखें खोलीं लेकिन बिना मेरी ओर देखे फिर बंद कर लीं। उन्हें देख लग रहा
था कि जैसे दवाओं की वजह से वे नीम बेहोशी की स्थिति में हैं। मैं रोज जाता रहा।
जब उन्हें थोड़ा होश होता तो रोने लगते। कहते-‘तुम लोगों ने मुझे
यहां फेंक दिया और कोई देखने तक नहीं आता।‘ मैंने जवाब दिया –‘ मैं को रोज ही आता हूं और घंटे भर बैठा रहता हूं। आप ही दवाओं के नशे में
रहते हैं और कुछ समझ नहीं पाते।‘ वे बोले-‘मुझे भी लगता है कि मेरा कोई इलाज नहीं हो रहा। बस नींद की गोली देकर सुलाये
रहते हैं। दिन भर मैं नींद के ही आवेश में रहता हूं।‘ रुक्म जी की चिकत्सा का भार पांच डाक्टरों के एक पैनल के जिम्मे था लेकिन
मुझे दो के अलावा बाकी कभी नहीं दिखे। पता नहीं वे वास्तव में पैनल में थे या
सिर्फ लिस्ट भर में थे। पैनल के हेड डाक्टर नगर के एक ऐसे मशहूर चिकित्सक के बेटे
थे जिनका अप्वाइंटमेंट लेने के लिए लोगों को छहृ-छह महीने तक इंतजार करना पड़ता
था। एक दिन भाई से मिलने पहले मैं सीधा उनके पास ही जा धमका और उनसे पूछा-‘आर यू गिविंग योर पेसेंट ओनली ट्रैंक्वेलाइजर्स?’ डाक्टर साहब तपाक से बोले-‘नो।‘ प्रेसक्रिप्शन मेरे पास ही था। मैंने उनको एक-एक दवा गिना दी जिनमें
ट्रैक्वेलाइजर्स के अलावा कुछ भी नहीं था। अब वे सफाई देने लगे कि पेसेंट को
सिवियर पेन है इसलिए उनको ट्रैक्वलाइजर देकर रखा गया है। मैने पूछा –‘ लेकिन उनका इलाज कब शुरू होगा।‘ वे बोले –‘शुरू करेंगे । पांच डाक्टरों का पैनल है। वही उनकी कंडीशन मानीटर कर रहा है।‘ मैने कहा –‘पिछले कई दिनों से आ रहा हूं लेकिन मुझे तो आपके और हड्डी के डाक्टर के अलावा
और कोई नहीं दिखा।‘ उन्होंने सफाई दी-‘आप जब चले जाते हैं तब वे आते हैं।‘ मैंने कहा-‘ कभी मेरे सामने भी बुलाइए ताकि पता चल सके कि क्या हुआ है।‘ वे कुछ नहीं बोले। यहां यह बताते चलें कि पेशाब में खून जाने के अलावा उनकी
रीढ़ की चोट में भी गांठ पड़ गयी थी और उसमें भी तकलीफ बढ़ गयी थी। भैया रुक्म
अस्पताल में कुछ दिन में ही जाने कैसे हो गये थे। वे किसी को पहचानते नहीं थे तो
कभी अनाप-शनाप बकने लगते थे। एक बार मेरे सामने ही उनको फिजियोथेरेपी के लिए ले
जाया जा रहा था। फिजियोथेरेपी रूम की छत की ओर देख कर उन्होंने उधर थप्पड़ दिखाते
हुए कहा-‘दुष्ट तुम हमारी बातें सुन रहे हो। मार-मार के भुरता बना
दूंगा।’ उनका पागलों-सा प्रलाप सुन मैं घबड़ा गया तो क्या मेरे भाई
पागल हो जायेंगे। मैंने डाक्टरों से बताया वे बोले कुछ नहीं दवा का असर है, ठीक हो
जायेगा। तभी एक डाक्टर ने जो कहा उससे मेरी घबराहट घटने के बजाय बढ़ गयी। उन्होंने
कहा-‘ इनके पेशाब से जाते खून का पता लगाने के लिए हमें इनकी
किडनी का कुछ हिस्सा काट कर परीक्षा करनी पड़ेगी।‘ मैने पूछा-‘इसमें रिस्क है क्या?’ डाक्टर ने जवाब दिया-‘हां रिस्क तो 99 प्रतिशत है।‘ मैं चौक गया और सोचने लगा कि अगर मैं इस टेस्ट के लिए राजी होता हूं तो
जीते-जागते अपने भाई को मौत के मुंह में भेजने का भागी बनता हूं। मैंने डाक्टरों
से कहा कि मुझे सोचने के लिए एक दिन दें। मैंने भाई की सारी रिपोर्ट ली और अपने एक
परिचित एमडी डाक्टर के पास पहुंचा और उनको सारा किस्सा सुनाया। वे बोले-‘ आपने जानते हैं किडनी कितना महत्वपूर्ण और संवेदनशील अंग है। उसके साथ बेवजह
की गयी छेड़छाड़ खतरनाक हो सकती है। जिन डाक्टरों के अंडर में भाई हैं वे समझ नहीं
पाये। उनकी किडनी में कोई खराबी नहीं। खून
प्रोस्टेट के ही किसी पैच से आ रहा है जो कुछ दिन में खुद बंद हो जायेगा। ‘ मैंने पूछा-‘मैं क्या करूं?’ वे बोले-‘भले ही भाई को बांड लेकर ले जाना पड़े जितना जल्दी हो उस अस्पताल से हटा
लीजिए। वे उनके साथ खतरनाक खेल खेलनेवाले हैं। ‘
उनसे मिल कर मैं घर चला आया और मैंने यह निश्चय कि कल ही भाई को उस अस्पताल से
छुड़ा लेना है फिर देखेंगे कहां उनका इलाज कराना है। दूसरे दिन मैं अस्पताल जाने
के तैयार ही हो रहा था कि पैनल के हेड डाक्टर का फोन आया –‘आप तुरत अस्पताल पहुंचिए।‘ मैं घबरा गया कि आखिर बात
क्या हो गयी। मैंने छोटे बेटे अवधेश त्रिपाठी को साथ लिय़ा और अस्पताल पहुंच कर
सीधे पैनल के हेड डाक्टर के पास गया और पूछा-‘हुआ क्या आपने इस
तरह फोन क्यों किया कि जैसे कोई इमरजेंसी हो।‘ वे बोले नहीं कोई
इमरजेंसी नहीं है। वे घर जाना चाहते हैं। हम भी चाहते हैं कि आप एक सप्ताह के लिए
उन्हें घर ले जायें लेकिन लाइएगा जरूर , हमें उनकी किडनी काट कर देखनी है।‘ उनके सामने मैंने झूठ हामी भर ली। वहां से छुटकारा मिलने के बाद कौन वहां
लौटनेवाला था। (शेष अगले भाग में)
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